Sunday, December 30, 2012

हम लड़ेंगे साथी प्रश्न के कंधों पर चढ़कर



ढेर सारी मंगलकामनाओं के शाब्दिक आडंबर ओढ़कर नए वर्ष में प्रवेश करने का अब मन नहीं करता। नर पिशाचों की शिकार हुयी दामिनी को भी नववर्ष की मंगल कामनाएं मिली होंगी पिछले साल। उन किसानों ने भी बड़ी उम्मीदों के साथ शुरू किया होगा नए साल का सफर जो अधबीच में ही आम की डाल पर गमछे का फंदा बनाकर खुद को फांसी दे दी। सुख शांतिमय संसार व देश की कामनाओं पर जब ग्रहण ही लगना है तो फिर ये ‘शब्द’ क्यों खर्च किए जाएं। दुनिया को अपने रफ्तार से चलना है और सत्ताओं को अपनी व्यवस्था के हिसाब से। हम दुनिया की रफ्तार को तो प्रभावित नहीं कर सकते हैं हां सत्ताओं की व्यवस्था के खिलाफ मोर्चा खोल सकते हैं, लड़ सकते हैं। राजधानी दिल्ली के विजय चौक पर जबड़े भींचे और मुट्ठी ताने युवाओं के आक्रोश का यही संकेत है। यह आक्रोश देश भर के युवाओं में है, जवानों और किसानों में है। हमें लक्ष्य तय करना है और निशाने साधना है। कमी लड़ाई के माद्दे और लड़ने के जज्बे की नहीं है, कमी है सही लक्ष्य पहचानने की और सटीक निशाना साधने की। वह प्रक्रिया अब शुरू हो गई है। सूरज की तपिश ज्यों-ज्यों बढ़ेगी दिन चढ़ेगा तो कुहासा अपने आप ही छंटेगा।
पंजाब के क्रांतिकारी कवि अवतार सिंह ‘पाश’ की कविता हम लड़ेंगे साथी को बार-बार पढ़ने, पढ़ाने और सुनाने का मन करता है। इस असमंजस के दौर में कवि-कलाकार और सजर्क ही घुप्प अंधेरे में टार्च दिखाता है। पहले पाश की कविता का पाठ करें फिर आगे बढ़ें।
‘‘हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिए। हम लड़ेंगे साथी गुलाम इच्छाओं के लिए। हथौड़ा अब भी चलता है, उदास निहाई पर। हल अब भी चलता है चीखती धरती पर। प्रश्न नाचता है प्रश्न के कंधो पर चढ़कर। हम लड़ेंगे साथी.. कत्ल हुए जज्बों की कसम खाकर। बुङी हुई नजरों की कसम खाकर। हाथों पर पड़े घट्टों की कसम खाकर। हम लड़ेंगे साथी..। हम लड़ेंगे तब तक, जब तक खिले हुए सरसों के फूल को बोने वाले नहीं सूंघते। कि सूजी आंखों वाली अध्यापिका का पति जब तक युद्ध से लौट नहीं आता। जब तक पुलिस के सिपाही, अपने भाइयों का गला घोटने को मजबूर हैं। कि दफ्तरों के बाबू जब तक लिखते हैं लहू से अक्षर। हम लड़ेंगे जब तक, दुनिया में लड़ने की जरूरत बाकी है। जब तक बंदूक न हुई, तब तक तलवार होगी। जब तलवार न हुई लड़ने की लगन होगी। लड़ने का ढंग न हुआ, लड़ने की जरूरत होगी और हम लड़ेंगे साथी। हम लड़ेंगे कि लड़े बगैर कुछ नहीं मिलता। हम लड़ेंगे कि अब तक लड़े क्यों नहीं। हम लड़ेंगे अपनी सजा कबूलने के लिए। लड़ते हुए जो मर गए उनकी याद जिन्दा रखने के लिए।’’ पिछले कुछ वर्षो से हम लड़ना भूल चुके हैं। जब लड़ाई की इतनी जरूरत नहीं थी तब हम हवा में हाथ लहराकर आसमान में नारे उछालते थे.. हर जोर जुल्म के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है। जुल्म का जोर, अत्याचार की तीव्रता और बढ़ी है। वैश्विक परिदृश्य में साम्राज्यवादी देश छोटे और कमजोर मुल्कों को खा जाना चाहते हैं। वियतनाम से शुरू हुई लड़ाई अफगानिस्तान तक जारी है, समूचा मुल्क कत्लगाह सा बन गया है। नाटो और तालिबान के दो पाटों में अमन पसंद पख्तून काबुलीवालों को पीसा जा रहा है। शिक्षा की अलख जगाने वाली मासूम मलाला यूसुफ जई सिर पर तालिबान और फिकरापरस्त मुल्लों की गोलियां धंस रही हैं। अफ्रीकी देशों में प्राकृतिक संसाधनों की लूटमार मची है। बाजारवादी लुटेरों का दस्ता वेश बदलकर हिन्दुस्तान में भी घुसने की फिराक में है। साढ़े तीन सौ बरस पहले ईस्ट इन्डिया कम्पनी मसालों का व्यापार करने आई थी। अब ‘वालमार्ट’ बनकर हमारे गली मोहल्लों के खुदरा बाजार में घुसना चाहती है।
थैलियां खुली हैं। रिश्वत और लाबईंग के बूते सरकार के फैसले बदले जा रहे हैं। दिवास्वप्न दिखाया जा रहा है कि किसानों की बरक्कत होगी युवाओं को रोजी मिलेगी। अमेरिका के युवा वाल स्ट्रीट में नारे लगा रहे हैं ‘रोजी रोटी दे न सके वो सरकार निकम्मी है’ वहां निन्यानवे बनाम एक के आंदोलन का ज्वालामुखी धधक रहा है। वालमार्ट वहीं से चलकर आ रहा है। अपने देश में विषमता की खाई और चौड़ी है। कुछ हजार धनपतियों के पास देश की तीन चौथाई अर्थव्यवस्था गिरवी है। ये खाई पटने का नाम नहीं ले रही। तीस करोड़ लोग फुटपाथ, रेल्वे स्टेशनों व धर्मशालाओं के बरामदे में सोते हैं। अम्बानी जी के बंगले के बिजली का बिल साठ लाख रुपए महीना आता है। मोन्टेक सिंह अहलूवालिया के बाद शीला दीक्षित ने गरीबी की नई परिभाषा गढ़ी है कि 600 रुपए की मासिक आमदनी वाला परिवार अपना गुजारा कर सकता है। हमारी नियति ऐसे लोग लिख रहे हैं जो पंचसितारा होटलों में छ: सौ रुपए का एक जाम पीते हैं और वेटर को सोलह सौ रुपए की टिप देते हैं।
संसद और विधानसभाओं में चुनकर जाने वालों में बाहुबलियों, अपराधियों और धनपशुओं के आंकड़ों में कोई कमी नहीं। चुनाव काम नहीं कलदार की चमक में जीते जाते हैं।
सांपनाथ से गुस्सा हैं तो नागनाथ हाजिर हैं। वोट दें या न दें आपकी मर्जी। नहीं देंगे तो भी तथाकथित लोकतांत्रिक व्यवस्था की सेहत पर कोई फरक नहीं पड़ने वाला है। नेता दलील देते हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था पर अविश्वास-असम्मान ठीक नहीं है। क्या अविश्वास और असम्मान की दुहाई में देश को लुटने दिया जाए? बुजुर्ग उलाहना देते हैं कि इनसे अच्छा तो अंग्रेजों का जमाना था। आज के युवा कहते हैं, तानाशाही चलेगी पर भ्रष्टाचार नहीं। पार्टी पालटिक्स में लाजर्र दैन लाइफ बनकर उभरे नरेन्द्र मोदी इसीलिए युवाओं के सर्वप्रिय हैं। उन्हें मोदी जैसा नेता चाहिए जो कहे वो करके दिखाए और जैसा दिखे वैसा जिए।
मोदी किसी के लिए राम हो सकते हैं तो किसी के लिए रावण।
उनके स्वरूप व चरित्र की स्पष्ट परिभाषा है। वे कालिनेमि का चरित्र तो नहीं जीते। आज राजनीति में कस्बे से लेकर संसद तक कालिनेमि का चरित्र जीने वाले नेताओं का पलड़ा भारी है।
भाषण और आचरण में कोई तालमेल नहीं। दिन में कुछ रात में कुछ। गरीबों की दुहाई देकर जीतने वाले अरबों के घोटालेबाज बनकर प्रकट होते हैं और उसी काली कमाई से उनकी समानांतर सत्ताएं चलती हैं।
आज देश मंजिल की तलाश में चौरस्ते पर खड़ा है। जिस पर भी विश्वास करते हैं वही रास्ते में ठगता है। सवालों से घिरी हुई अवाम को सही जबाब चाहिए और सही जबाब हासिल करने के लिए एक और इन्कलाब हो तो वह भी सही। विजय चौक से लेकर पटना के गांधी मैदान तक के युवाओं के आक्रोश की भाषा को समङिाए। ये चिन्गारी शोला बनकर भड़कने को बेताब है। नए साल में ये तपिश और बढ़े। लावा बनकर भ्रष्टतंत्र, विषमतामूलक व्यवस्था और राजनीति के ढोगतंत्र का समूल विनाश करे, इस साल के जाते-जाते बस यही एक कामना है।
लेखक - स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं। संपर्क-9425813208

Friday, December 28, 2012

निरमोहिया राम की सीता-कथा

चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
भारतीय लोकमानस, देवत्व से अधिक मनुष्यत्व को महत्व देता है। लोक कथाओं, लोक गीतों में राम, कृष्ण, शिव मनुष्य की तरह ही वर्णित हैं परंतु यत्र-तत्र उनके कृत्य मानवेत्तर हैं। देश के अधिसंख्य लोक काव्य-पुराण को ही इतिहास मानकर चलते हैं। उनके चरित्र ही मनुष्य का पथ प्रशस्त करते हैं। संसार भले ही मनुष्य के विकास का इतिहास पाषाण युग से मानता हो, भारत में आज भी लोग सतयुग-त्रेता-द्वापर में जीते हैं और उसका प्रमाण काव्यों-पुराणों में ढूंढ़ते हैं और उसे ही अपना अतीत मानते हैं। आदिकाव्य वाल्मीकि रामायण के राम देवता नहीं मनुष्य हैं। रावण की मृत्यु और लंका की अशोक वाटिका कारागार से मुक्ति के बाद राम कहते हैं-...रावण सीता को हर ले गया, यह दोष दैव सम्पादित था, मैंने मनुष्य होकर उसे मिटा दिया’ दैव सम्पादितों दोषों मानुषेण मया जित... इस उक्ति का ध्वन्यार्थ यह भी है कि नियति पर भी मैंने विजय पाई, दैव ने तो रावण का साथ दिया था। देवत्व पर मनुष्य की प्रतिष्ठापना का यह प्रथम काव्यमय चरण था। देवासुर संग्रामों में मनुष्य की निर्णायक भूमिका हमेशा रही है। लोक कथाओं और गीतों के राम भले ही भगवान बने, परंतु लोक ने उनकी गलतियों को हरदम रेखांकित किया। पुराणों और काव्यों के राम भले ही मर्यादा पुरुषोत्तम और निष्कलंक हों, परंतु लोक कथाओं और गीतों में वह सीता के साथ न्याय नहीं करते दिखते। राम कथा का उत्तरार्ध कदाचित इसी कारण तुलसी नहीं लिखते। तुलसी, सीता को जग जननी मानते हैं, वे कैसे और क्यों वनवास दें, जबकि वे नाना पुराण निगमागमों की कथाओं के अधिकारिक विद्वान थे। तुलसी ने भी लोक और वेद मत दोनों को समान भाव से स्वीकारा था- ...लोक वेदमत मंजुल कूला।...कालांतर में लोक अपढ़ों के नाम दर्ज हो गया, परंतु लोकमन की आवाज कभी दबी नहीं।
वाल्मीकि की सीता, राम के साथ वन जाने के लिए तैयार है परंतु वन के कष्टों के कारण राम उन्हें न चलने की सलाह देते हैं।
सीता कहती हैं- ...यदि तुम मुझ दु:खिनी को अपने साथ वन न ले चलोगे तो मैं विष खाकर, या अग्नि में जलकर अथवा डूबकर प्राण दे दूंगी।...इस उत्कृष्ट प्रेम के बावजूद, सीता की अग्निपरीक्षा, अपवाद के कारण सीता का निष्कासन, मानवीय संदेह और शुचिता पर प्रश्न चिह्न नहीं खड़ा करता क्या? सीता के कारण लोक जन सम्पूर्ण ईमानदारी से खड़ा है, वह सीता के दुख से साझ करता है। जिस सीता के आस-पास परिचारिकाएं, दासियां रहती थीं, स्वयं राम रहते थे, वही सीता वन के एकांत में रोती विलखती हैं- ..को मोरे आगे पाछे बइठइ को लट छोरइ/ को मोर जागइ रैनिया, त विपति निबारइ।...दिन रात साथ में रहने वाले, बाल संवारने वाली, साथ जागने वाली विपति की इस घड़ी में कोई नहीं है। सीता का विलाप वन में रहने वाली स्त्रियों से नहीं सुना गया, वे सभी दौड़-दौड़कर आ के सीता को सांत्वना देती हैं- ..हम तोहरे आगे पाछे बइठब, हम लट छोरब/ सीता, हमही जगब सारी रैन, विपति तोर कटबइ....सीता की हर समस्या का समाधान उन वनवासी नारियों के पास है। राम के कहने से लक्ष्मण ने जिस तरह सीता को छोड़ा था, लोक ने देखा था- ...जेठ के दुपहरिया त अगिनी, भभकि बरइ/ तेंह म सीता के राम निकारिन, बड़ी रे विपती परी।..सुबह-सुबह पौ फटते ही सीता को दो पुत्र लव और कुश पैदा होते हैं। हर मां की इच्छा अपने पुत्र का मुख देखने को लालायित रहती है। सीता के पास प्रकाश के नाम पर कुछ नहीं है, कैसे पुत्रों का मुख देखे। लकड़ी जलाकर अग्नि के प्रकाश में पुत्रों का मुख देखती है। लोककवि कहता है- ...भोर भए पौ फाटत, लवकुश जनमें हई हो/सीता लकड़ी से किहिन अंजोर, संतति-मुख देखइ हो।...पुत्र मुख देखकर सीता निहाल हो गई। वे सोचती हैं कि कैसी है यह नियति कि आज मेरे इन पुत्रों के ओढ़ने बिछाने के लिए कुछ नहीं है। नारी के पराधीन मस्तिष्क की भी कहानी सीता का चिंतन है-...पुतबा, तूं त भएहुं बिपति मा, बहुतइ सांसति म/ पुतबा, कुसइ ओढ़न, कुस दासन, बनै फल भोजन/ जो पूत होते अजुधिया म, उहइ पुर-पाटन/राजा दशरथ पटना लुटउतें, कौशिल्या रानी अभरन।..लोक परम्परा में रोचना भेजने और खुशी मनाने का उत्सव पुत्र-जन्म से जुड़ा है। सीता भी वनवासी नाई से राजा दशरथ, रानी कौशिल्या और देवर लक्ष्मण के पास रोचना भेजती हैं, परंतु यह भी कहती हैं कि उन्हें(राम) नहीं बताना। कितनी बड़ी उपेक्षा और पीड़ा का सम्मिश्रण है यह अहसास -...हंकरा नगर केर नउआ हंकरि बेगि आबहु हो/ सीता के भए हैं दुइ लाल, रोचन पहुंचाबा हो/पहिल रोचन राजा दशरथ, दुसर कौशिल्या रानी हो/ तिसर रोचन लछिमन देबरा, पै उनहि न जनायेहुं हो।...अयोध्या बीच एक तालाब में राम दातून कर रहे हैं। उसी समय लक्ष्मण उस तरफ से निकलते हैं। उनके माथे पर रोचन लगा देखकर राम का हृदय आकुल प्रश्न मुखर हो उठता है- ...भइया! भहर भहर तोहर माथ, रोचन कह पाएंहु।
भइया केकरे भये हैं लाल, त जिउ जुड़वाये हो।लक्ष्मण को भी आजीवन इस बात का दुख सालता रहा कि सीता निष्कासन जैसा दुष्कृत्य उनको करना पड़ा। वे भी राम से सीधे नहीं कहते कि आपको पुत्र-र8 की प्राप्ति हुई है। घुमा फिरा कर कहते है, राम इतने हृदयहीन तो नहीं हैं, सब समझते हुए भी लक्ष्मण से सुनते हैं- ..राजा दशरथ कइ पतेहिया, त भउजी सितल देई, ओनके भए हैं दुइ लाल, रोचन हम पाएन हो।...लोकगीतों में ऐसे भी प्रसंग हैं कि अश्वमेघ यज्ञ के समय लक्ष्मण सीता को वापस अयोध्या चलने के लिए कहने जाते हैं।
विचित्र कथा है कि राम, सीता को लेने न अशोक वाटिका जाते हैं न वन से अयोध्या लाने। दोनों स्थान पर लक्ष्मण को ही भेजते हैं, सीता पहली बार तो अग्नि पर चलकर चली आईं, इस बार इंकार कर देती हैं- ...जाहु लखन घर अपने, त हम नहि जाबइ/जब तक जिअब दुइलाल त ओनहहीं क बनिहैं हो।...मैं तो जीते जी न जाऊंगी, बड़े होकर लव और कुश उन्हीं के ही पुत्र कहलाएंगे, अभी तो वे सीतापुत्र ही हैं। परंतु वाल्मीकि सीता से अयोध्या चलने को कहते हैं तो सीता का क्षोभ, गुस्सा-क्रोध एकाएक भरे बांध सा फूट पड़ता है। गुरु तो कालदर्शी हैं, सब जानते हैं, फिर भी चलने को कह रहे हैं, सीता कहती हैं- ...सबके हाल गुरु जानेउ, अजान बनि पूंछेउ/गुरु, असकइ राम मोंहि डाहिन, कैसे चित्त मिलिहैं/अगिया म राम मोहि डारिन, लाइ- भूंजि काढ़िन/गुरु,गरुए गरभ ते निकारिन, त कइसे चित्त मिलिहैं/तोहार कहा गुरु करबइ, परग दस चलबइ, राम निरमोहिया क मुहमा, जिअत नहिं देखबइ।...सीता की पीड़ा, दर्द और दुख के साथ सारा लोकमानस वाल्मीकि रामायण की रचना के पहिले भी था, आज भी है। रो-रो कर गाते हुए इन गीतों से ही लोक सम्पन्न है।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
सम्पर्क - 09407041430.

तो क्या सभी औरतें लाइन लगा कर डूब मरें?

चिन्तामणि मिश्र
दिल्ली में एक बस के भीतर पांच राक्षसों द्वारा एक लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना से सारा देश, समाज और संसद स्तब्ध और गहरे दुख में डूब गए। लड़की और उसका मित्र घायल हालत में अस्पताल में हैं, किन्तु पीड़ित लड़की की हालत नाजुक है। खबर है कि पुलिस ने अपराधियों को पकड़ लिया है। दिल्ली पुलिस ने इस मामले में जितनी तेजी से कार्यवाही की है वह असाधारण है, क्योंकि हमारे देश में हमारी पुलिस कभी भी आम आदमी से जुड़े मामलों में ऐसी फुरती नहीं दिखाती। अगर यह मामला मीडिया के जबरदस्त कवरेज में न आता तो यह लज्जाजनक कांड भी बलात्कार के अन्य मामलों की तरह खाकी वर्दी के भुंअधरा में पटक दिया जाता। हमारे देश में रोज हर बीस मिनट में एक बलात्कार और हर एक मिनिट में औरतों के साथ अश्लील छेड़खानी होती है। इनके लिए कानून बने हैं लेकिन पुलिस और समाज का व्यवहार औरत विरोधी है। इसके कारण देश में औरतें कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। हालांकि मुनादी जरूर की जाती हैं कि समाज बदल रहा है लेकिन औरतों के लिए न समाज बदला है और न कानून के रखवारों की सोच में कोई बदलाव आ पाया है। लोकतंत्र में औरतों के समीप जाने में अपना अपमान समझता है। व्यवस्था-तंत्र हजारों साल से चली आ रही पुरुषवादी सोच से मुक्त नहीं हुआ है। घर की चहारदीवारी हो या घर के बाहर, हर कहीं औरतें डर के साए में जीने के लिए शापित हैं। बलात्कार पर अंकुश रखने के लिए हर कोई कानून में फांसी की सजा तय करने की मांग कर रहा है। ऐसी मांग को नकारा नहीं जा सकता है। दंड संहिता में ऐसा संशोधन आसानी से किया जा सकता है, क्योंकि विपक्षी दल जनता के सामने इसका विरोध करके नकटा नहीं बनना चाहेंगे। किन्तु क्या कानून में बलात्कार की सजा फांसी तय कर देने से बलात्कार पर काबू पाया जा सकता है? इसे इस मौके पर याद रखने की जरूरत है कि सजा अदालतें देती हैं। क्योंकि हमारी न्याय प्रणाली का नीति वाक्य है कि चाहे हजार अपराधी बरी हो जाए किन्तु एक भी निर्दोष को दंड नहीं मिलना चाहिए, और इसके चलते न्याय प्रदान करने के हर पड़ाव पर लम्बा समय लगता है।
देश की विभिन्न अदालतों में बलात्कार के अस्सी हजार मामले लम्बित हैं। बलात्कार के मामलों में सजा सुनाने का प्रतिशत केवल छब्बीस प्रतिशत है। हमारे देश के पालनहार जब भी जनता के बीच से हल्ला-गुल्ला मचता है तो समस्या को जड़ से निपटाने का काम नहीं करते, नाटक करके जनता को उल्लू बनाने के लिए और उसके आक्रोश को ठंडा करने के लिए वायदों का हलुआ उसकी हथेली में रख देते हैं। अब सरकार का कहना है कि वह दिल्ली में पांच फास्ट कोर्ट बनाएगी जिसमें बलात्कार के मामलों की सुनवाई रोज होगी। अगर रिकार्ड समय में इन फास्ट कोर्ट से अपराधियों को सजा सुना भी दी गई तो कौन नही जानता कि दसों साल पहले देश की बड़ी अदालत ने जिन्हें फांसी देने का आदेश दिया है उसका ही हमारे देश में पालन नहीं कर हो रहा है। इस हालत में बलात्कारियों को उनके जीवन काल में फांसी की सजा नहीं मिलेगी। बलात्कारी यह जानते है कि उनका नम्बर उनके जीवन में नहीं आना है। बलात्कारियों के हौसले कम नहीं होंगे, अगर फांसी की ही सजा से लोगों को भय होता तो हमारी दंड संहिता की धारा तीन सौ दो सैकड़ों साल से जीवित है किन्तु मानव-वध में कोई कमी नहीं आई है।

बलात्कार पर अगर सरकार को ईमानदारी से अंकुश लगाना है तो उसे अपनी पुलिस को चुस्त करना होगा और महिलाओं के मामलों में अत्याधिक मानवीय तथा संवेदनशील बनाना होगा। अभी सरकारों ने पुलिस प्रशिक्षण में सब से ज्यादा ध्यान डंडा चलाने और गोली दागने में महारत हासिल करने में लगा रखा है। हमने अपनी पुलिस को संवेदनशील बनाने के लिए कभी सार्थक प्रयास नहीं किया है। मामलों की जांच के लिए पुलिस शार्ट-कट रास्ता अपनाने में यकीन रखती है। पुलिस की पुरुषवादी मानसिकता औरतों को लांक्षित करके आंनद लेती है। औरतों के साथ पुलिस का रवैया मानवीय नहीं रहता, सच्चाई तो यह भी है कि देश के आम आदमी के साथ पुलिस घनघोर शत्रुता का व्यवहार करती है। पीड़ित महिला के साथ पुलिस शुरू से ही असहयोग की राह पर चलती है। एफआईआर, मेडिकल रपट, घटनास्थल की जांच गवाहों और पीड़ित का बयान जांच के महत्वपूर्ण बिन्दु है, इन्हीं पर अपराधी के दंडित किए जाने का दारोमदार होता है, किन्तु इनको अपने तरीके से तोड़-मरोड़ कर मामला अदालत में पेश कर दिया जाता है।
हमारे देश में बलात्कार की मेडिकल जांच करने वाले डाक्टरों ने लकीर का फकीर होने का चोला ओढ़ रखा है। अगर महिला के शरीर पर चोट, घाव, खरोच नहीं है तो उनकी रिपोर्ट में बलात्कार होना नहीं पाया जाता। यह समझने की जरूरत नहीं समझी जाती कि बलात्कारी हथियार द्वारा या उसके बच्चे या अन्य किसी प्रियजन की हत्या की धमकी देकर भी बलात्कार कर सकता है। पुलिस अगर घटनास्थल पर पीड़ित महिला की टूटी हुई चूड़ियां नहीं बरामद कर पाती तो वह बलात्कार नहीं मानती क्योंकि उसे प्रशिक्षण मिला है कि जब महिला ने अपने बचाव के लिए हाथापाई ही नहीं की तो बलात्कार नहीं हुआ और जो हुआ उसमें महिला की रजामन्दी थी। ऐसे हालातों में औरत को कैसे न्याय मिलेगा। फांसी का कानून में प्रावधान कर देने पर भी बलात्कारी बरी हो कर दूसरे शिकार की तलाश में विचरण करने लगेंगे, तो क्या देश की सभी औरतें लाइन लगा कर कन्याकुमारी में जहां तीन समुद्रों का संगम है डूब मरें? या शरीर और आत्मा का रौदना झेले और किरिच-किरिच हो कर मरें? देश के कर्णधारों और समाज के चौधरियों को बताना चाहिए कि आखिर औरतें क्या करें? औरत होने की सजा कब तक औरत भोगेंगी, इसे ही बता दिया जाए। किसी भी उम्र की औरत सुरक्षित नहीं है। तीन साल की बच्ची से लेकर अस्सी-नब्बे साल की बूढ़ी औरत बलात्कार का शिकार हो रही है। खुली अर्थव्यवस्था ने सब कुछ खोलने की पगलौटी की सुनामी पैदा कर दी है। अश्लील विज्ञापन, अश्लील फिल्में, सीरियल, दारू, गांजा, हिरोइन, रेव पार्टियां, और व्यवस्था की नपुंसकता ने औरत की इज्जत लूटने का सुरक्षित अवसर देश में सुलभ कर रखा है। औरतें देश के सुलतानों के बेगानेपन के चलते शापित है जब हालांकि इन शंहनशाहों के भी महलों में इनकी मां,बहिन-बेटियां है। शायद वे आश्वस्त हैं सरकार से मिली सीलबन्द सुरक्षा के चलते, इसीलिए आम औरत का दुख उन्हें व्याकुल नहीं करता।

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।

Thursday, December 27, 2012

दन्तेवाड़ा वाणी: सर्वोच्च न्यायालय के नाम खुला पत्र

दन्तेवाड़ा वाणी: सर्वोच्च न्यायालय के नाम खुला पत्र: माननीय न्यायाधीश महोद्य, सर्वोच्च न्यायालय, नईदिल्ली यह पत्र मैं आपको सोनी सोरी नाम की आदिवासी लड़की के सम्बन्ध में लिख रहा हूँ, जिसके ग...

Thursday, December 20, 2012

प्रकृति का लोकाचार और हम


चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
विश्व भर के साहित्य में सूर्य के उदय और अस्त होने की बातें कही गई हैं, जबकि यह सच नहीं है। चंद्रमा-तारे-नीहारिकाएं और पृथ्वी भी अपने से ताकतवर का चक्कर लगाते हैं। शक्ति के चक्कर का सिद्धांत कमजोर का प्रकृत सत्य है। सौरमंडल के ग्रह-उपग्रहों का उदय-अस्त नहीं होता। जब सूर्य, पूर्व से पश्चिम जाकर हमारी दृष्टि से ओझल हो जाता है, तब हम उसका अस्त होना और रात के बाद जब पुन: सुबह दिखता है, उदित होना मानते हैं। सुबह, दोपहर, संध्या और रात में सूर्य की ही गति है। लोक मानस में सूर्य भगवान हैं, शादी-सुदा हैं, बाल-बच्चेदार हैं। यूं, सौर मंडल उनका पारिवारिक समाज है, जो अधिकतर उनके ही प्रकाश से प्रकाशित है। पुराणों में राजाओं का जो वंश सर्वशक्तिशाली हुआ उसे सूर्यवंशी ही कहा गया सूर्य की शक्ति का यह सहज भाव था। भारतीय लोक मानस ने धरती, आकाश और पाताल (जल) के प्राणियों से अपनी संवेदना, जीवन और संघर्ष के संबंध स्थापित किए हैं। नदी, पहाड़, वृक्षों से भी रिश्ते बनाए, उनकी पीड़ा, समझी, उन्होंने मुक्तहस्त दान दिए। दिन भर का थका-भूखा-प्यासा सूर्य शाम को पत्‍नी संझ (संध्या) के पास पहुंचा। संझ का वस्त्र काला है, धुंधलका हो रहा है, वस्त्र पर मक्खियां भिनभिना रही हैं। अशुभ काल है, गोधूलि छाई है। संझ बाहर-भीतर झन्न-फन्न करती हुई बड़बड़ा रही है। गांव में लोकोक्ति है "सुरुज कस मेहरि" दिदी (मां) गांव की एक काकी को "सुरुज केर मेहरि" कहती थी। जो दिन भर खेत में काम करके लौटे काका को जल्दी न पानी देती न खाना, उलटे उलाहना देती रहती। काका चुपचाप पड़े रहते, जब इच्छा होती खाना-पानी देती। मां कहतीं बेचारे सुरुज भगवान संझ के इस व्यवहार से दुखी होकर फिर चल देत। काकी इस तरह काका की मेहरि होते हुए भी प्रतीक में "सुरुज केर मेहरि" थी। इस कहानी में संझ पर व्यंग्य भले हो, सूर्य के निरंतर गतिमान रहने की प्रमाणिकता है।

पुराणों में सूर्य की पुत्री यमुना (यमी) और पत्‍नी संज्ञा का उल्लेख है। लोक और पुराण का सामंजस्य कुछ इस तरह हुआ कि सूर्य की ऊष्मा से घबराकर संज्ञा बिना बताए पिता के घर से चली गई। सूर्य ने मनौती की, संज्ञा नहीं पसीजी। अंत में हारकर सूर्य ने अपने प्रकाश के कुछ हिस्से अन्य ग्रहों को बांट दिए। इसीलिए माना गया कि सभी ग्रह सूर्य के अंश हैं। संज्ञा लौट आईं। सूर्य संज्ञा के सम्मिलन से जल, जीवन, मृत्यु का जन्म हुआ। लोक की संझ आज भी किसी शुभ कार्य की स्वीकृति नहीं देती। लोक की संझ शास्त्र की संज्ञा हो गई। संज्ञा का अर्थ संज्ञान होना है परन्तु संझ के अनेक अर्थ हैं। जीवन के अनेक अर्थो में संझ के निहितार्थ अलग हैं। किसान के लिए संझ हो गई, काम बंद करने के अर्थ में है। संझ की लालिमा देख पक्षी अपने घोसलों की ओर लौटते हैं। पत्‍नी के प्रतीक्षा का समय है। जीवन-संध्या बुढ़ापे का संकेत है और किसी जवान के मरने पर कहा जाता है "भरी दोपहरी में सांझ हो गई।" संझ चहलपहल समेटने-लौटने की बेला है। कोलाहल, कलरव और आपाधापी के इस वक्त को मानवीय रूपक देना मनुष्य का प्रकृति से तादाम्य बनाना है। चंद्रमा को चंदा मामा कहकर बुलाता है। मामा के हाथ से भानजे को दूध पिलाने का उपक्रम लोकगीतों में भरा पड़ा है। सूर के बालकृष्ण का हठ तो अनोखा है-"चंद्र खिलौना लैहों।" यशोदा थाली में पानी भरकर चंद्रमा को बुला लेती हैं, कृष्ण खुश होकर पानी में चंद्र की परछाईं को पकड़ता है। बिम्व मिट जाता है। लुकाछिपी का यह खेल आकाश का चंद्रमा भी देखकर कृष्ण-लीला पर मुग्ध है। संसार के प्रत्येक देश में इस प्रकार की अनेक किवदंतियां प्रसिद्ध हैं। इंद्र, देवराज हैं। सभी देवगण उसकी आज्ञा के मुखापेक्षी हैं। वरुण, अग्नि, वायु के बावजूद वह जलदेवता हैं। अपनी पूजा की अवहेलना देख वह गोकुल पर फट पड़ता है पूरे आवेग से। धरती के कृष्ण से हार जाता है। पर्वतों की ऊंचाई को छोटा करने वाली अनेक मिथ-कथाएं हैं। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के अनेक पुत्रों में जल बनकर बहने वाले तीन पुत्र भी थे-सिंधु, ब्रह्ममपुत्र और सोन। सोन और रेवा मेकल के अमरकंटक के एक कुंड के दो ध्रुवों में पैदा हुए। दोनों में मित्रता हुई, सोन, रेवा (नर्मदा) के रूप लावण्य पर मुग्ध हो गया। रेवा भी सोन से प्रेम करती थी। युवती रेवा ने एक दिन अपनी सहेली जुहिला से सोन के पास परिणय का प्रस्ताव भेला। जुहिला सुंदर थी, युवती थी। पता नहीं उसने रेवा का प्रस्ताव बताया या नहीं। कई दिनों तक जब जुहिला नहीं लौटी, रेवा ने जाकर देखा, जुहिला सोन के आगोश में है। सोन ने उसे धोखा दिया। लोक ने दोनों के प्रेम को देखा था। रेवा मुड़ी और देश की नदियों के विपरीत पहाड़ों को चीरती पश्चिम की ओर चल पड़ी। एक बार भी मुड़कर उद्गम की ओर नहीं देखा। सोन (पुरुष) का अस्तित्व गंगा से मिलकर समाप्त हो गया। उसमें स्नान करना अभिशप्त हो गया। कुंवारी रेवा (नर्मदा) पहाड़ों को फोड़ती, मैदानों में उछलती कूदती लंबी यात्रा करती खंभात की खाड़ी (अरब सागर) में विलीन हो गई। धारा के विरुद्ध बहने वाली भारतीय मनीषा की एक मात्र पवित्र लोक और पुराण पूज्या नदी। आचार्य शंकर ने जिनकी अभ्यर्थना में "नर्मदाष्टक" की रचना की। रेवा सागर में विलीन हो गई। सोन गंगा की लहरों में बिला गया। ब्रह्म के रेतस का प्रवाह हिमालय के पूवरेत्तर से धरती पर बहा। कहते हैं कि हिमालय पर्वतराज है जिसने गंगा को आश्रय दिया, तो विंध्यांचल दादा है जिसकी गोद में रेवा खेलती है। पर्वतों में देवताओं और ऋषियों का निवास है। देवाधिदेव आशुतोष शिव, पर्वतों के सर्वोच्च शिखर कैलाश में विराजने की कथा पुराण कहते हैं।

पंचवटी में सीता अपहरण के बाद राम की व्याकुलता और रो रो कर अपने कंकड़-पत्थर, वृक्षों, वन-मृगों, पक्षियों, भौरों से यह पूछना कि "क्या तुमने सीता को देखा है", देखकर चंद्रमा को उनके विष्णु अवतार होने पर संदेह हुआ। राम का विलाप देखकर वह हंसता रहा। विष्णु को हजारों वर्षो तक चंद्रमा का हंसना याद रहा। अपने अवतार के नकार का दंश उन्हें सालता रहा। कृष्ण के रूप में धरती पर आने पर कृष्ण ने सभी से प्यार किया। उन्मुक्त प्यार। वृंदावन में सोलह हजार सखियों के साथ महारास किया। सारे देवताओं के रथ रुक गए, इस महारास को देखने के लिए। रास का समय शरद पूर्णिमा की रात का था। चंद्रमा ने ठहरकर देखा कि रासलीला में हर गोपी के साथ कृष्ण अलग-अलग नाचे। सबको नचाने वाला अचल, अटूट, अभेद्य था, उसमें तृष्णा नहीं थी। कृष्ण योगेश्वर हो गए। ऐसे मिथक और प्रतीक शास्त्र और लोक में भरे पड़े हैं। आधुनिक जीवन में भी ऐसे अनेक प्रसंग प्रतीक बनकर जीवंत हैं-आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी अपने शिष्य को जाड़े की एक रात गंगा नहाने के लिए कहकर चले। जैन दर्शन के आचार्य प्रज्ञाचक्षु सुखलाल के यहां पहुंचकर इस भाव से मिले, जैसे कोई शिष्य अपने गुरु से मिल रहा हो। युवा छात्र (विश्वनाथ त्रिपाठी को सुखलाल) जी ने सलाह दी-"विद्वान बनना चाहते हो तो संस्कृत पढ़ लो। पढ़ना चाहते हो तो रात में सोने के कम से कम तीन घंटे पहले भोजन कर लिया करो।" भेंट से वापस लौटते हुए आचार्य द्विवेदी ने कहा-"हो गया न गंगा स्नान"।




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Tuesday, December 18, 2012

किस मानव के लिए ये अधिकार


 चिन्तामणि मिश्र 
 अभी पिछ¶े सप्ताह देश भर में मानव अधिकार दिवस पर कई कार्यकम हुए। सा¶ का एक दिन मानव अधिकार का कीर्तन करने के ¶िए निर्धारित है। इस दिन गोष्ठीस भा आयोजित करके कुछ समाज सेवक मानव अधिकारों पर बतकही कर ¶ेते हैं और दूसरे दिन ¶ोकल अखबारों में अपनी फोटों देख कर गद-गदी आनन्द में स्नान की डुबकी लगा ¶ेते हैं।
फिर इसी तरह अन्य दिवस मनाने के ¶िए जुट जाते हैं। अस¶ में हमारा देश उत्सव-प्रेमी देश है। हम पूरे सा¶ नाना प्रकार के दिवस मनाते हैं। और इसी बहाने अपनी समाज-सेवा की पीठ सह¶ा ¶ेते हैं। देश में सन 1993 में मानव आधकार संरक्षण अधिनियम लागू हुआ और सन 2010 में हमारूे देश ने एडिनबर्ग घोषणा-पत्र को अंगीकृत किया। किन्तु मानव अधिकार आज भी हमारे संविधान में दर्ज मौ¶िक अधिकारों की तरह किताबी हैं।
संविधान का अनुच्छेद 21 नागरिकों को मौ¶िक अधिकार की गारन्टी देता है किन्तु देश की सरकारें और व्यवस्था स्थापित करने वा¶ी ऐजेन्सियां बेरहमी और बेइमानी के साथ इन्हें कुच¶ने में ही लगी हैं। ऐसे हा¶ातों में मानव अधिकार की बात करना सपनों की तिजारत करना है।
अस¶ में नागरिक अधिकार हों या मानव अधिकार हों, दोनों हमारे देश में सजावटी अधिकार बना दिए गए हैं। कोई भी सरकार इन्हें देना ही नहीं चाहती हैं। पु¶िस,अदा¶त,सरकारी दप्तर, जेल, अस्पता¶, शिक्षण संस्थाएं नागरिकों के किसी भी अधिकार को नही मानती। पु¶िस चाहे जिसे और जिस वक्त भी सन्देह के नाम पर हवा¶ात में ठूंस देती है। संगीन धाराएं लगा कर अदा¶त में पेश कर देती है। जहां से उसे जेल भेज दिया जाता है। और कई वर्षो का नरक भेागने के बाद उसे दोष-मुक्त कर दिया जाता है। देश भर में ऐसे किस्से बिखरे पड़े हैं कि जवानी के प्रारम्भ में सन्देह के नाम पर पु¶िस ने पकड़ा, अमानवीय यंत्रणा दी और दबंगई के साथ अदा¶त में झूठे सबूत पेश किए और उसे सजा सुना दी गई। जब वह अभागा बूढ़ा हो गया तो एक दिन उसे निरपराध बता कर दोषमुक्त कर दिया। इस आदमी के सबसे अच्छे सा¶ तो जा चुके। उसकी पैरवी करते-करते उसका बूढ़ा बाप मर गया, उसकी मां ब्रेन-हैमरेज से लकवा का शिकार हो गई। क्या इससे जो छीना गया है उसे मानव अधिकार का घन्टा बजाने बा¶े वापस दिला सकेंगे? जो यातनाएं इस आदमी ने भोगी हैं वे उसे न ठीक से सोने देगीं कभी, न जागने देंगी। ऐसी घटनाएं देश में रोज हो रही हैं। कुछ लाख रुपए की क्षति-पूर्ति मानव अधिकार के झन्डाबरदार इसे दिला भी देंगे तो क्या वह वास्तव में उसने जो खोया है और जो उसने भोगा है इससे उसकी पुर्ति हो सकेगी? जिन ¶ोगों ने उसके अधिकारों का अपहरण किया क्या उन्हें दंडित कराया गया? नागरिकों को मि¶े नागरिक अधिकार हों या मानव अधिकार हों जब तक इनकी पवित्रता और इनके सम्मान का भय सत्ता को नहीं होगा तब तक इन अधिकारों की बात करना और इनको लागू कराने का प्रवचन देना टाइम-पास करना है।
खीरा चोरी करने वा¶े को जमानत और सुनवाई के अभाव में लम्बे समय तक जेल में रखा जाता है और हीरा चोर की अवकाश के दिन भी जमानत मंजूर हो जाती है। ऐसे ताकतवर ¶ोगों के ¶िए उनके निवास स्थल को ही जेल घोषित कर दिया जाता है। यह ¶ोग एक पल के ¶िए भी जेल नहीं जाते। इनको लाख-दो लाख रुपए रोज के मेहनताने वा¶े वकील सु¶भ होते हैं। साधारण नागरिक अदा¶तों में पेशी पर पेशी का नरक भोगता है। अदा¶तों में गवाह और अपराधी के साथ समान व्यवहार होता है। गवाह को बैठने तक का प्रबन्ध नहीं है उसे घंटों खड़े हो कर बयान दर्ज कराना होता है और वकी¶ों की जिरह इसी तरह ङोलनी होती है। क्यों गवाह के मानव अधिकार हमारे देश में ¶ोपित कर दिए गए हैं? यूरोप के कई देशों में अदा¶तों में अपराधी तक के बैठने की व्यवस्था है।
अक्सर आम नागरिक को पु¶िस उसके घर से उठा कर थाना में कई दिनों तक इस¶िए बैठा कर ह¶ाकान करती है क्योंकि उसके परिवार का कोई सदस्य फरार है। ऐसी जबरदस्ती तो नागरिक अधिकार और मानव अधिकार को ठेंगा दिखाना है।
बारह सा¶ से मणिपुर की इरोम शर्मि¶ा अनशन कर रही है, आफ्सा कानून के खिलाफ। यह कानून सुरक्षा ब¶ों को अधिकार देता है कि वे सन्देह के आधार पर किसी को भी गो¶ी मार सकते हैं, किसी भी घर की छापामारी कर सकते हैं। मानव अधिकार की छाती पर बैठी सरकारें ऐसे हिटलरी अधिकार दे कर संविधान और राष्ट्र संघ को दिए वचनों की अर्थी निका¶ रही हैं। महाराष्ट्र की दो लड़कियों को जेल में इस¶िए जाना पड़ा क्योंकि इन्होंने एक क्षेत्रीय दल के सुप्रीमो की अंतिम यात्रा को ¶े कर मुम्बई बन्द पर सवा¶ खड़ा किया था। व्यवस्था के खिलाफ काटरून बनाना भी जेल यात्रा कराता है। हमारे देश में अभिव्यक्ति की आजादी रोज दिगम्बर हो रही है। वैसे महाबली नेता किसी प्रान्त विशेष और जाति विशेष के ¶ोगों को सरेआम अपनी कथित जागीर से भगाने का अल्टीमेटम देते हैं। उनकी पिटाई कराते हैं। उन्हें अपशब्द कहते हैं और नफरत की मुहिम चलाते हैं तब कानून व्यवस्था डरपोक मूषक की तरह दुबकी रहती है।
अब तो देश में चाहे नागरिक अधिकार हों या फिर मानव अधिकार, दोनों स्कूल-का¶ेजों की उन किताबों में ही हैं जिनको रट कर परीक्षा पास की जाती है, व्यवहार में इनका कोई प्रयोजन ही नहीं है। वीआईपी और इसी बिरादरी की जमात के ¶िए कभी भी कोई भी सड़क घटों बन्द कर दी जाती है।
देश के चिरकुट नागरिक अस्पता¶ तक जाने से रोक दिए जाते हैं अब अगर किसी महिला का प्रसव भी होना है तो उसे अस्पता¶ नहीं सड़क पर ही प्रसव कराना पड़ता है। गम्भीर हा¶त में मरणासन्न मरीज को सड़क का इस्तेमा¶ करने की इजाजत नहीं है। छात्रों और छात्राओं को परीक्षा देने के पूर्व रोज तलाशी ली जाती है। कितना अपमान-जनक तरीका है, यह नकल पर नकेल डा¶ने का? इतने पर्यवेक्षक आधा सैकड़ा छात्रों पर नजर तक नहीं रख सकते? अस¶ में हमारे देश में हमारे भाग्य-विधाताओं और उनके नौकरशाहों का अपना संविधान चलता है। बाबा साहेब अम्बेडकर का बनाया संविधान नाम ¶ेने के ¶िए है। मानव अधिकारों की बहा¶ी और उन्हें लागू कराने के ¶िए एक दिवस का उत्सव नहीं बल्कि इसे सतत चलाना होगा और खाए-अघाए ¶ोगों की तरह नसीहत देने की जगह आम आदमी के पास इस आन्दो¶न को ¶े जा कर उसे संगठित करना होगा ।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09425174450.

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क्यों 'काली और जाली' है भारतीय अर्थव्यवस्था?

 बुधवार, 19 दिसंबर, 2012 को 10:23 IST तक के समाचार
भारतीय अर्थव्यवस्था को काले धन के चलते हर साल अरबो का नुकसान
भारतीय अर्थव्यवस्था तो इस साल अवैध वित्तीय लेन देन के चलते करीब 1.6 अरब डॉलर (क़रीब 85 अरब रुपए) का नुकसान उठाना पड़ा है.
इतना ही नहीं बीते एक दशक के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था को 123 अरब डॉलर (करीब 6,642 अरब रुपए) का नुकसान हुआ है.
यह रकम कितनी बड़ी है इसका अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि बीते एक दशक के दौरान भारत में शिक्षा, स्वास्थ्य और आधारभूत ढांचे के निर्माण पर इससे कम खर्च हुआ है.
ये आकलन वाशिंगटन स्थित शोध संस्थान ग्लोबल फाइनेंसियल इंटेग्रिटी (जीएफआई) का है. संस्था ने काली और जाली अर्थव्यवस्था पर अध्ययन कर ये रिपोर्ट जारी की है. रिपोर्ट के मुताबिक इस दशक में काली अर्थव्यवस्था के चलते नुकसान के मामले में भारत आठवें नंबर पर हैं.
जीएफआई के निदेशक रेमंड बाकर ने कहा, “भारत में अवैध लेन देने के लिहाज से पिछले कुछ सालों में स्थिति सुधरी है लेकिन अब भी अर्थव्यवस्था को काफी नुकसान उठाना पड़ रहा है.”

काले धन से अर्थव्यवस्था को नुकसान ( बीते एक दशक में)

चीन- 1,47,960 अरब रुपए
मैक्सिको- 25,704 अरब रुपए
मलेशिया- 15,390 अरब रुपए
सऊदी अरब- 11,340 अरब रुपए
रुस- 8,208 अरब रुपए
फिलिपींस- 7,452 अरब रुपए
नाइजीरिया- 6,966 अरब रुपए
भारत-6,642 अरब रुपए
बाकर के मुताबिक भारत के नीति निर्माताओं को इस नुकसान को कम करने के लिए अविलंब कदम उठाना चाहिए. बाकर ने कहा, “भारत में काले धन की बरामदगी के मसले को मीडिया में काफी जगह मिल रही है.”
जीएफआई के प्रमुख अर्थशास्त्री और रिपोर्ट के सह लेखक देव कार कहते हैं, “नुकसान के लिहाज से भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए 123 अरब डॉलर (6,642 अरब रुपए) बहुत बड़ी रकम है.”
देव कार कहते हैं, “यह भारतीय नागरिकों के लिए बड़ी चिंता की बात है क्योंकि शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और देश में आधारभूत ढांचे के निर्माण पर कुल मिलाकर 100 अरब डॉलर (करीब 5400 अरब रुपए) खर्च हुआ है यानी काले धन के चलते होने वाला नुकसान इससे कहीं ज़्यादा है.”
जीएफआई की ये रिपोर्ट ये भी बताती है कि भारत के कुल सकल घरेलू उत्पाद की 50 फ़ीसदी जितनी रकम काली अर्थव्यवस्था की भेंट चढ़ जाती है. रिपोर्ट के मुताबिक 1948 से लेकर 2008 के बीच साठ साल के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था को करीब 462 अरब डॉलर (करीब 24,948 अरब रुपए) का नुकसान हुआ है.

चीन को सबसे ज़्यादा नुकसान

"शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और देश में आधारभूत ढांचे के निर्माण पर कुल मिलाकर 100 बिलियन डॉलर (करीब 5400 अरब रुपये) खर्च हुआ है यानि काले धन के चलते होने वाला नुकसान इससे कहीं ज़्यादा है."
देव कार, जीएफआई के अर्थशास्त्री और रिपोर्ट के लेखक
वैसे सूची में चीन अव्वल स्थान पर है. 2001 से 2010 के दौरान अवैध वित्तीय लेनदेन के चलते चीन को 2740 बिलियन डॉलर( 1,47,960 अरब रुपए) का नुकसान हुआ है. इसके बाद मैक्सिको, मलेशिया, सऊदी अरब, रूस, फिलीपींस और नाइजीरिया को भी अरबों डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा है.
“विकासशील देशों में अवैध वित्तीय लेनदेन- 2001 से 2010” के नाम से जारी इस रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के सभी विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था को 2010 में 858.8 अरब डॉलर (करीब 46,375 अरब रुपए) का नुकसान हुआ है.
यह बीते एक दशक में नुकसान के हिसाब से दूसरा सबसे ख़राब साल साबित हुआ है. इससे पहले 2008 के दौरान विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था को 871.3 अरब डॉलर( करीब 47,050 अरब रुपए) का नुकसान सहना पड़ा था.
रिपोर्ट के मुताबिक 2001 से 2010 के दौरान दुनिया भर के विकासशील देशों को काले धन के चलते 5860 अरब डॉलर (3,16,440 अरब रुपए) का नुकसान हुआ है.
ग्लोबल फाइनेंसियल इंटेग्रिटी ने दुनिया भर के नेताओं से अपील की है कि वे काले धन के लेन देन पर अंकुश लगाने के लिए अपने अपने देशों में पारदर्शी व्यवस्था को बढ़ावा दें.

नफ़स-नफ़स कदम-कदम

नफ़स-नफ़स कदम-कदम
बस एक फिक्र दम-ब-दम
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए!
जवाब दर सवाल है कि इंकलाब चाहिए!
इंकलाब जिन्दाबाद!
जिन्दाबाद इंकलाब!
जहां अवाम के खिलाफ साजिशें हो शान से
जहां पे बेगुनाह हाथ धो रहे हों जान से
जहां पे लफ़्ज-ए-अमन एक खौफनाक राज हो
जहां कबूतरों का सरपरस्त एक बाज हो
वहां न चुप रहेंगे हम
कहेंगे, हां, कहेंगे हम
हमारा हक! हमारा हक! हमें जवाब चाहिए!
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए!
जवाब दर सवाल है कि इंकलाब चाहिए!
इंकलाब जिन्दाबाद!
जिन्दाबाद इंकलाब!
यकीन आँख मूंद कर किया था जिन पर जान कर
वही हमारी राह में खड़े हैं सीना तान कर
उन्हीं सरहदों में कैद हैं हमारी बोलियां
वही हमारे थाल में परस रहे हैं गोलियां
जो इनका भेद खोल दे
हरेक बाल बोल दे
हमारे हाथ में वही खुली किताब चाहिए!
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए!
जवाब दर सवाल है कि इंकलाब चाहिए!
इंकलाब जिन्दाबाद!
जिन्दाबाद इंकलाब!
वतन के नाम पर खुशी से जो हुए हैं बे-वतन
उन्हीं की आह बे-असर, उन्हीं की लाख बे-कफन
लहू पसीना बेचकर जो पेट तक न भर सके
करें तो क्या करें भले न जी सकें, न मर सकें
सियाह जिंदगी के नाम
उनकी हर सुबह ओ शाम
उनके आसमां को सुर्ख आफताब चाहिए!
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए।
जवाब दर सवाल है कि इंकलाब चाहिए!
इंकलाब जिन्दाबाद!
जिन्दाबाद इंकलाब!
होशियार! कह रहा लहू के रंग का निशान
ऐ किसान होशियार! होशियार नौजवान!
होशियार! दुश्मनों की दाल अब गले नहीं
सफेदपोश रहजनों की चाल अब चले नहीं
जो इनका सर मरोड़ दे
गुरूर इनका तोड़ दे
वह सरफरोश आरजू वही जवाब चाहिए!
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए!
जवाब दर सवाल है कि इंकलाब चाहिए!
इंकलाब जिन्दाबाद!
जिन्दाबाद इंकलाब!
तसल्लियों के इतने साल बाद अपने हाल पर
निगाह डाल, सोच और सोच कर सवाल कर
किधर गये वो वायदे? सुखों के ख्वाब क्या हुए?
तुझे था जिनका इन्तजार वो जवाब क्या हुए?
तू झूठी बात पर न और एकबार कर
कि तुझको सांस-सांस का सही हिसाब चाहिए!
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए!
जवाब दर सवाल है कि इंकलाब चाहिए!
इंकलाब जिन्दाबाद!
जिन्दाबाद इंकलाब!

-शलभ श्रीराम सिंह

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अरब क्रांति: एक साल, दस पड़ाव

 सोमवार, 17 दिसंबर, 2012 को 16:41 IST तक के समाचार