Monday, October 22, 2012


किसको कहें मसीहा किस पर यकीं करें
सलमान खुर्शीद और अरविन्द केजरीवाल के आरोप- प्रत्यारोप, तू-तड़ाक का कोई नतीजा निकले या नहीं लेकिन एक बात साफ हो गई है कि देश के आर्थिक संसाधनों पर गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) का मकड़जाल किस कदर फैला है और गरीबों की योजनाओं के लिए खर्च होने वाले धन को दीमक की तरह चट कर रहा है। केन्द्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद व उनकी पत्‍नी लुईस खुर्शीद कोई अकेले उदाहरण नहीं है।
राजनेता चाहे केन्द्र का हो या राज्य का, सत्ता का हो या विपक्ष का, इनमें से अधिसंख्य ऐसे हैं जो चैरिटी फाउन्डेशन, समाजसेवी संगठन और एनजीओ की भरी पूरी दुकान और उसकी शाखाएं लिए चलते हैं। यह गंभीर जांच का विषय है कि ऐसे संगठनों को सांसद या विधायक निधि से कितना धन दिया जा चुका है। बात अकेले नेताओं भर की नहीं है। नौकरशाह इनसे भी एक कदम आगे हैं। कई ऐसे हैं जिनकी प8ियां एनजीओ को किटी पार्टी की भांति चलाती हैं और भूखे नंगे लोगों को उतारे हुए कपड़े और बची हुई रोटियां देकर मुस्कराते हुए आए दिन अखबारों की तस्वीरों में नजर आती हैं। एनजीओ के नाम पर कहां से धन मिल सकता है और उसे कैसे चट किया जा सकता है, अफसरों से बेहतर कोई नहीं जानता और यदि इस रोग का संक्रमण नेताओं तक पहुंचा है तो यकीन मानिए इनके पीछे यही लोग हैं।
केजरीवाल साहब का भी मायाजाल एनजीओ से ही शुरू होता है। दिग्विजय सिंह ने जो सवाल उठाए हैं उन्हें यूं ही खारिज नहीं किया जा सकता। उन्हें देश के सामने यह ब्योरा पेश करना चाहिए कि फोर्ड फाउन्डेशन जैसे विदेशी संगठनों से उनके एनजीओ को कितने रुपए मिले हैं। केजरीवाल के अभियान को बारीकी से देखें तो कई परतें खुलती नजर आने लगेंगी। उनकी मंडली का प्रमुख ध्येय निर्वाचित प्रतिनिधियों की विश्वसनीयता को मिट्टी में मिलाना और लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रति जनता का भरोसा खत्म करना है। उनके एजेंडे में एफडीआई, जल-जंगल, जमीन को लेकर आम आदमी का हक, कारपोरेट सेक्टर का भ्रष्टाचार क्यों नहीं है? केजरीवाल ने कभी एनजीओ के काले बाजार और उसके कारोबार की भी बात नहीं की और न ही इसकी जांच या इन्हें जनलोकपाल के दायरे में लाने का सार्वजनिक तौर पर कोई जिक्र किया। अलबत्ता अपनी पार्टी का अलग जनलोकपाल गठित करके उन्हें खुद को ऐसे आधुनिक विश्वामित्र बनने की चेष्ठा की जो विधि की रचना से अलग दुनिया को रचने का सामथ्र्य रखते हैं। देश का लोकतंत्र मरा नहीं है और अशोक खेमका जैसे ईमानदार अफसरों की जमात अपने व्यवस्था तंत्र में है। यदि अंजली दामानिया, प्रशान्त भूषण पर लगे आरोपों की जांच कराना ही चाहते हैं तो वे सांविधानिक और कानूनी अधिकार सम्पन्न संस्थाओं से करने का प्रस्ताव क्यों नहीं देते? दरअसल अरविन्द केजरीवाल जैसे लोग आर्थिक विकास की खगोलीय अवधारणा के पैरोकारों द्वारा जन आन्दोलनों के विकल्प के तौर पर प्रस्तुत किए गए गैर सरकारी संगठनों की उपज हैं।
मल्टीनेशनल्स और कारपोरेट सेक्टर ने समाज सेवा के क्षेत्र में भी शातिराना अंदाज में पूंजी निवेश किया है और जनवादी आंदोलनों के विकल्प में गैर सरकारी संगठनों की विशाल जमात खड़ी कर दी है। ये वही गैर सरकारी संगठन हैं जो सड़क पर जिन्दगी बसर करते लोगों के बेघर होने के कारण के सवाल को, बेघरों के लिए टेंट व चादर जुटाने के सवाल में बदल देते हैं। आर्थिक उदारीकरण की बयार के चलते देश में गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) की पैदावार ठीक वैसे ही बढ़ी है जैसे कि अनुकूल मौसम के आते संक्रामक बीमारियों के वायरस पैदा होने लगते हैं। क्या आप जानते हैं कि भारत संभवत: दुनिया में सबसे अधिक गैर सरकारी संगठनों वाला देश है। इसके प्रत्येक गांव के हिस्से में पांच पंजीकृत एनजीओ हैं और इस हिसाब से देख जाए तो हर 400 व्यक्तियों के पीछे एक एनजीओ खड़ा है। गैर पंजीकृत संगठनों की संख्या को जोड़ दिया जाए तो यह संख्या कई गुना बढ़ जाएगी। वर्ष 2010 में जारी अधिकृत आंकड़ों के आधार पर देश में 33 लाख एनजीओ किसी न किसी रूप में सक्रिय हैं।
मीडिया के प्रभावी वर्ग के पीछे भी ऐसे उद्योगपतियों का संरक्षण है जो अपने धंधे के हित में हर वक्त देश की जनता का ध्यान जरूरी मुद्दों से हटाने की चेष्ठा या साजिश में जुटे रहते हैं। क्या यह महज संयोग है कि जिन दिनों एकता परिषद के अगुआ पीव्ही राजगोपाल जल-जंगल और जमीन के हक के लिए गरीबों-मजलूमों का जनसमुद्र लेकर दिल्ली की ओर बढ़ रहे थे, उन्हीं दिनों अरविन्द केजरीवाल और उनकी टीम राबर्ट बाड्रा और डीएलएफ के व्यवसायिक रिश्तों के खुलासे में जुटी थी। अरविन्द प्रचार की महत्ता और मीडिया के चरित्र को भलीभांति जानते हैं। इस दरम्यान चैनलों का प्राइम टाइम और अखबारों की सुर्खियां बाड्रा-डीलएफ के लिए आरक्षित थीं। एकता परिषद का लांग मार्च हासिए पर था।
क्या यह बेहतर नहीं होता कि केजरीवाल और उनकी टीम अपने कला-कौशल का जरा सा इस्तेमाल पीव्ही राजगोपाल के आन्दोलन को जन-जन तक फैलाने में करते! वे ऐसा इसलिए नहीं कर सकते क्योंकि वे इन्डिया के विरोधाभासों के प्रवक्ता हैं न कि भारत के। वे जनवादी जनआन्दोलनों के गैर सरकारी विकल्प हैं।
भ्रष्टाचार नि:संदेह देश के लिए नासूर की तरह है, जनता उससे त्रस्त है। इसलिए जब भी कोई इस मुद्दे को लेकर लड़ता हुआ दिखता है तो उसकी शुभेच्छाएं और समर्थन उसी के साथ हो जाता है। मैं शरद यादव के इस बात से सौ फीसदी सहमत हूं कि भ्रष्टाचार की लड़ाई भी राजनीतिक प्रक्रिया से लड़ी जानी चाहिए और ऐसी कोशिशों को मिलकर खारिज करना चाहिए जो हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं पर अनास्था पैदा करती हों। स्वस्थ लोकतंत्र में हर सामाजिक बीमारियों का इलाज है। आज भ्रष्टाचार को लेकर जितने भी तथ्य सामने आ रहे हैं उसमें सूचना के अधिकार के कानून का सबसे बड़ा योगदान है और इस कानून को उसी संसद ने पास किया है जिसके बारे में रामलीला मैदान या जंतर-मंतर से तकरीरें दी जाती हैं कि यहां चोर-डाकू और लुटेरे बैठे हैं।
देश में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाएं कमजोर हुईं तो वही स्थितियां निर्मित होंगी जो हिटलर के पूर्वकाल में जर्मनी में थी।
भावनाओं का आवेग देश को कहां बहाकर ले जाएगा, फिर वह किसी के नियंत्रण में नहीं होगा। यदि अपने देश का लोकतंत्र रुग्ण है तो उसकी संजीवनी औषधि जनता के पास है। देश की जनता किसी भी नामचीन से ज्यादा होशियार, जिम्मेदार और चतुर है।
पचहत्तर में लादी गई इमरजेंसी का जवाब सतहत्तर में तरीके से दिया और जब जनता सरकार की अराजकता को देखा तो उसे भी ठिकाने लगाने में वक्त नहीं लगाया। जिन विश्वनाथ प्रताप सिंह के शिगूफों में फंसकर उन्हें राजा से फकीर और देश की तगदीर तक मान लिया था उनका राजनीतिक समापन ऐसे किया कि आज कोई दु:स्वप्न में भी उन्हें नहीं याद करना चाहता। आज जिस बात की सख्त जरूरत है वह है, पाखण्डों के खण्डन की। यह पाखण्ड सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में स्थायी भाव में मौजूद है। देश को कबीर जैसा युगान्तकारी अध्येता चाहिए, फोर्ड फाउन्डेशन के धन से चैनलों पर सदाचार का प्रवचन देने वाला नहीं।
लेखक - स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं। संपर्क-9425813208

मैं रोया परदेश में, भीगा मां का प्यार


चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
शब्दों के संसार में रिश्ते नाते और सम्बन्ध एक दूसरे के पर्याय हैं, परंतु गंभीरता से परखें तो लगता है कि रिश्ते और नाते जन्म से ही तय होते हैं, लेकिन सम्बन्ध बनाये जाते हैं। जन्मते ही हमें रिश्ते में मां-बाप, भाई-बहन, काका-काकी, मामा-मामी, दादा-दादी इत्यादि मिल जाते हैं और यही हमारी प्रारंभिक पहचान होते हैं, हम अपने आप में कुछ नहीं होते। कालांतर मे कुछ ऐसे भी सम्बन्ध बनाने होते हैं जिन्हें रिश्तों और नातों का नाम दिया जाता है। रिश्ते रक्त-संबंधों पर आधारित होते हैं जबकि संबंध, सम्पर्को से समान रुचि, क्षमता, गुण और आवश्यकतानुसार बनते हैं। सम्बन्ध टूट भी जाते हैं परंतु रिश्ते कभी नहीं टूटते। रिश्तों के सम्बन्ध टूट रहे हैं। रिश्तों से अपेक्षाएं जुड़ी होती हैं इसीलिए वे पूर्ति के अभाव में अक्सर दरक जाते हैं। सम्बन्ध रिश्तों पर भारी पड़ रहे हैं। दोनों के निर्वाह (सम+बंध) अर्थात बराबर बंधने पर भी सम्भव है। प्रत्येक रिश्ते-नातों की परम्परागत शर्ते हैं, उन शर्तो के कारण ही आज वे सब हाशिए पर जहां-तहां खड़े हैं। सम्बन्धों में कहीं न कहीं स्वार्थ है, स्वार्थ रिश्तों में भी है। रक्त संबंधों का वास्ता देकर भावनात्मक दबाव वश रिश्तों के निभाने की बातें समाज में अधिक चर्चित होती हैं। स्वार्थ से मुक्त संसार का न कोई रिश्ता है, न संबंध। लेकिन कुछ रिश्ते ऐसे भी हैं जिनमें भावना की लहर में स्वार्थ शब्द किनारे में ही डूब जाते हैं। मां का बेटे से और बेटे का मां से संसार का पहला और पवित्रतम रिश्ता है। बेटा या बेटी के जन्मते ही मां का रक्त दूध बनकर अमृत हो जाता है, जिसे पीने के लिए राम-कृष्ण, बुद्ध, ईसा को मां की गोद में आना पड़ता है। मां के दूध को चुनौती देने वाले की शामत कब से आती रही है, लेकिन मां का दूध कभी नहीं लजाया। मनुष्य, सभी रिश्तों की गाली सुन-सह सकता है परंतु मां की गाली सुन वह स्थिर नहीं रह सकता।
मनुष्य जन्म के बाद पहला शब्द मां ही बोलता है, यह सृष्टि का आदि शब्द है। पशु भी "बां" बोलते हें, चीं-चीं करके चहकने की ध्वनि के कारण ही चिड़ियों की संज्ञा बनी। मां, भावना और दायित्व का मेल है। यह सम्बन्ध नहीं रिश्ता है। रिस-रिस कर इसका उद्भव हुआ है। रिश्ते के इस सम्बन्ध को हाशिए पर करना पशुत्व की श्रेणी में आता है। भूखी रहकर भी बेटे को पुष्ट करने की अभिलाषा उससे क्या नहीं कराती? मां, बेटे के बड़े होने के बाद भी उसका पेट टटोलती है कि पेट भरा है कि नहीं। कहनूति है कि मिलने पर मां बेटे को पेट और पत्‍नी टेंट पर हाथ फेरती है। कितने सपने पालती है मां, विश्व भर के सरित्सागर की कथा मां के हृदय में ही पलती है। बचपन के दूध पिलाने, बड़े होने और प्रौढ़-वृद्ध होने तक बेटा, मां के लिए बच्चा ही रहता है। पोते में भी बेटे की छवि ढूंढ़ती है। मां के पुत्र-प्रेम की गरिमा अतुलनीय है। पिता के अभाव में वह पिता बनकर उनकी कमी नहीं खलने देती लेकिन मातृहीन बेटे या बेटी को पालने के लिए कण्व ऋषि होने वाले पुरुष कहीं नहीं दिखते।

लोक परम्परा में बेटे के परदेश गए की याद, तुलसी बाबा ने राम द्वारा छोड़ गई बचपन की धनुही और पनही देखकर ताजा कर दी-जननी निरखत बान धनु हियां/बार बार उर नैनहिं लावति प्रभु जी की ललित पनहियां/मां की स्मृति कभी भी मंद नहीं पड़ती। बेटे के गलती करने पर जब वह बहुत गुस्से में होती है तो रोते हुए पीटती है, पीटते हुए रोती है और फिर रोते हुए आंसू पोछती है मलहम लगाती है। बेटा मां से झूठ बोलता है, तरह-तरह की बातें गढ़ता है। बालक कृष्ण के मुंह में दही लगा है, रंगे हाथ पकड़कर गोपी द्वारा लाया गया है, फिर भी कहता है, मैंने माखन नहीं खाया, सभी ने मिलकर जबरन मुख लपटाया है। यशोदा अपमान सहते-सुनकर थक गई हैं, पिटाई निश्चित जानकर मां के कोमल हृदय पर ममत्व का यथार्थ बाण कृष्ण चला देता है- तू मुझे इसलिए पीटेगी, मेरा कहना नहीं मानती, क्योंकि मैं पराया हूं, तुम्हारा बेटा तो हूं नहीं? यशोदा के हाथ से छड़ी छूट जाती है, आंसुओं की अजस्त्र धारा फूट पड़ती है। कृष्ण ने वह कहा जो कोई भी मां सुनना नहीं चाहती। मर्म पर चोटकर कृष्ण रोने लगता है। यशोदा दौड़कर गले लगा लेती है। सारे अपराध आंसुओं में बह जाते हैं। वहीं यशोदा कृष्ण के मथुरा चले जाने पर पुत्र प्रेम में नंद जी से यह भी कहती हैं- नंद ब्रज लीजै ठोंकि बजाय। देहुं विदा मिल जाहुं मधुपुरी जंह गोकुल के राय। मां के प्रेम के इन स्वरूपों का क्या नाम दिया जा सकता है। इससे बड़ा कौन सा रिश्ता हो सकता है?

मुनव्वर राना देश के प्रतिष्ठित शायर हैं। एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया कि मां जब बीमार होती हैं, मैं कहता हूं, कि यदि तुझे कुछ हुआ और मुझे छोड़कर तू गई तो मैं भी पीछे-पीछे चला आऊंगा। मेरी इस बात पर वे ठीक हो जाती हैं। कहीं जाने के पहले जब, मैं मां के पास जाता हूं वे मेरी आखें चूमती हैं। राना कहते हैं- मेरी आंखों की ज्योति बढ़ जाती है। मैंने चश्मा नहीं लगाया साठ बरस के बाद भी। यह मां के चुम्बन का कमाल है। कौशिल्या मां चिंतित हैं कि कोमल पांवों में कांटे और कंकड़ चुभते होंगे- कउने विरछ तर भीजत होइही, रामलखन दुनौ भाई।विधवा मां ने बेटे को पाला-पोसा। खूब पढ़ाया, बेटा बड़ा इंजीनियर हो गया। विवाह कर लिया, विदेश में करोड़ों कमा रहा है। मां उसके लिए अतीत का स्वप्न बन गई, कभी याद नहीं करता। बेटा, न मां का हुआ न देश का, उसकी दृष्टि में सिर्फ पैसा है। मां को पता है कि बेटे के बेटे नहीं हैं, मिलने पर बोली- भाई साहब! ईश्वर से दुआ करती हूं कि उसे एक बेटा दे दे। मां थी तो रात देर तक दरवाजे पर बैठी हमारे आने की राह देखती थी। नब्बे वर्ष की उम्र में सत्तर वर्ष के बेटे की चिन्ता। अब नहीं है, घर आने पर नहीं लगता कि कोई हमारे लिए प्रतीक्षारत है। मां थीं तो हम बेटे थे, उनके जाते ही हम बुढ़ा गए। एक छाया थी सिर पर, एक हाथ था आशीष का, नहीं रहा। माताओं को वृद्धाश्रम में देखकर एक महत्वपूर्ण सामाजिक चिंता से रुबरू होता हूं। इस रिश्ते को कैसे भुलाया जा सकता है। मुनव्वर राना का एक शेर बरबस स्मृतियों में ले जाकर खड़ा कर देता है-"इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है। मां बहुत गस्से में होती है तो रो देती है।"
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।)

Tuesday, October 16, 2012


भू-अधिग्रहण विधेयक पर मंत्रियों की मुहर

 बुधवार, 17 अक्तूबर, 2012 को 00:29 IST तक के समाचार
भू अधिग्रहण
प्राइवेट कंपनियों के लिए जमीन अधिग्रहण का किसानों ने व्यापक विरोध किया है.
केंद्रीय मंत्रियों के समूह ने विवादास्पद भूमि अधिग्रहण कानून के अंतिम मसौदे को हरी झंडी दे दी है.
केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार की अध्यक्षता में हुई मंत्रियों के समूह की बैठक में ये फैसला किया गया है. अब इस मसौदे को मंत्रिमंडल में भेजा जाएगा.
बैठक के बाद पत्रकारों को संबोधित करते हुए शरद पवार ने कहा, "हमने विधेयक का अंतिम मसौदा तैयार कर लिया है, हम हर उस मुद्दे पर कुछ सहमति बनाने में कामयाब रहे जिसपर अलग-अलग विचार थे."
लेकिन भूमि अधिग्रहण कानून जिस रूप में अब पेश किया जा रहा है उसे लेकर किसानों और किसान संगठनों में कई आशंकाएँ पैदा हो गई हैं.
पिछले साल तैयार किए गए मसौदे की कई धाराओं को नए मसौदे से या तो पूरी तरह हटा दिया गया है या फिर उन्हें बहुत हद तक कमज़ोर कर दिया गया है.

किसका हित?

पिछले मसौदे में स्पष्ट तौर पर कहा गया था कि जब तक 80 प्रतिशत भूमि मालिक अधिग्रहण पर राजी नहीं होते तब तक सरकार किसानों की जमीन नहीं लेगी. लेकिन औद्योगिक लॉबी की ओर से विरोध किए जाने के बाद इसमें बदलाव कर दिया गया है.
ताजा मसौदे में प्रावधान है कि अगर 66 प्रतिशत किसान राजी हो जाते हैं तो सरकार जमीन का अधिग्रहण कर सकती है.
विवाद का एक मुद्दा ये भी है कि निजी उद्योगों के लिए किसानों की ज़मीन अधिग्रहीत करने में सरकार को कितनी भूमिका अदा करनी चाहिए.
"एक तो कम से कम कीमत पर जमीन मिले. दूसरे किसान को मुनाफे में हिस्सा न मिले. मैं मानता हूँ कि ये साजिश है ताकि आप सस्ती लेबर हासिल करते रहें. भारत दुनिया भर में कहता है कि हमारे यहाँ मजदूर सस्ते मिलते हैं. मेरा आरोप है कि सस्ती लेबर को बरकरार रखने के लिए ही किसानों को उनकी जमीनों से बेदखल किया जा रहा है."
सुदीप श्रीवास्तव, भू-मामलों के जानकार
आनंद शर्मा और जयपाल रेड्डी जैसे मंत्री चाहते हैं कि सरकार इस मुद्दे पर निजी कंपनियों को मदद करे लेकिन रक्षामंत्री एके एंटनी का विचार है कि सरकार को निजी कंपनियों की मदद नहीं करनी चाहिए.

सरकार की भूमिका

जन संगठनों की भी माँग रही है कि सरकार को निजी उद्योगपतियों के एजेंट के तौर पर काम नहीं करना चाहिए.
ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने ग्रामीण विकास मंत्रालय का पदभार ग्रहण करने के तुरंत बाद भूमि अधिग्रहण विधेयक का मसौदा बहस के लिए जारी किया था.
उसके बाद उद्योग और बिजनेस लॉबी की ओर से इसकी काफी आलोचना की गई.
फिर विधेयक के मसौदे में काफी बदलाव किए गए. कुछ समय पहले जयराम रमेश ने स्वीकार किया कि विधेयक में बदलाव इसलिए किए गए क्योंकि ये कहा जा रहा था कि ये विधेयक किसानों के पक्ष में है और उद्योगों के खिलाफ.
उन्होंने यहाँ तक कहा कि अगर देश की अर्थव्यवस्था में नौ प्रतिशत की दर से वार्षिक प्रगति हो रही होती तो शायद मैं अपने विचार नहीं बदलता, लेकिन मौजूदा आर्थिक वातावरण को देखते हुए हमें निवेशकों को माफिक आने वाला भूमि अधिग्रहण विधेयक लाना होगा.

किसान आंदोलन

पिछले कुछ वर्षों से देश के कई हिस्सों में जमीन अधिग्रहण के खिलाफ किसानों के आंदोलन हुए हैं.
दिल्ली के पास ग्रेटर नोएडा के भट्टा-पारसौल गाँवों में अपनी जमीनें बचाने के लिए शांतिपूर्ण धरना दे रहे किसानों पर 2011 में हुई पुलिस गोलीबारी के बाद से ज़मीन का मामला राष्ट्रीय स्तर पर छा गया.
काँग्रेस महासचिव राहुल गाँधी ने भट्टा-पारसौल से पदयात्रा की और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों से संवाद कायम किया, हालाँकि काँग्रेस पार्टी को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में इसका बहुत फायदा नहीं हुआ.
भू अधिग्रहण
जमीन के मुद्दे पर किसान और भूमिहीन कई बार आंदोलित हुए हैं.
विधेयक के पुराने मसौदे में कहा गया था कि ऐसी जमीनों को अधिग्रहीत नहीं किया जाएगा जिसमें कई फ़सलें उगाई जाती हों, पर नए मसौदे में इसे बदल दिया गया है और कहा गया है कि ''खाद्य सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए ऐसी ज़मीनों को आखिरी स्थिति में ही अधिग्रहीत किया जाएगा जिसमें कई फ़सलें होती हैं.''
भू-अधिग्रहण विधेयक पर हुई बहस में हिस्सा लेने वाले कार्यकर्ता और कृषि मामलों के जानकार मानते हैं कि 1894 में जब अँग्रेजों ने विधेयक बनाया था तब जमीन को "सार्वजनिक कार्यों" जैसे सड़क, अस्पताल, स्कूल आदि बनाने के लिए लिया जाता था.
लेकिन बाद में निजी उद्योगों को लगाने के लिए जमीन अधिग्रहीत की जाने लगी और इस काम में सरकार उद्योगपतियों की मदद करने सामने आई.
वकील और सामाजिक कार्यकर्ता सुदीप श्रीवास्तव कहते हैं कि सस्ती लेबर की सप्लाई बरकरार रखने के लिए किसानों को उनकी जमीन से बेदखल किया जा रहा है.
उन्होंने कहा, "एक तो कम से कम कीमत पर जमीन मिले. दूसरे किसान को मुनाफे में हिस्सा न मिले. मैं मानता हूँ कि ये साजिश है ताकि आप सस्ती लेबर हासिल करते रहें. भारत दुनिया भर में कहता है कि हमारे यहाँ मजदूर सस्ते मिलते हैं. मेरा आरोप है कि सस्ती लेबर को बरकरार रखने के लिए ही किसानों को उनकी जमीनों से बेदखल किया जा रहा है."

सिंगरौली के संघर्ष का सफर

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यह रास्ता जंगल की तरफ जाता जरुर है लेकिन जंगल का मतलब सिर्फ जानवर नहीं होता। जानवर तो आपके आधुनिक शहर में हैं, जहां ताकत का एहसास होता है। जो ताकतवर है उसके सामने समूची व्यवस्था नतमस्तक है। लेकिन जंगल में तो ऐसा नहीं है। यहां जीने का एहसास है। सामूहिक संघर्ष है। एक-दूसरे के मुश्किल हालात को समझने का संयम है। फिर न्याय से लेकर मुश्किल हालात से निपटने की एक पूरी व्यवस्था है। जिसका विरोध भी होता है और विरोध के बाद सुधार की गुंजाइश भी बनती है। लेकिन आपके शहर में तो जो तय हो गया चलना उसी लीक पर है। और तय करने वाला कभी खुद को न्याय के कठघरे में खड़ा नहीं करता। चलते चलिये। यह अपना ही देश है। अपनी ही जमीन है। और यही जमीन पीढ़ियों से पूरे देश को अन्न देती आई है। और अब आने वाली पीढ़ियों की फिक्र छोड़ हम इसी जमीन के दोहन पर आ टिके है। इस जमीन से कितना मुनाफा बटोरा जाता सकता है, इसे तय करने लगे है। उसके बाद जमीन बचे या ना बचे। लेकिन आप खुद ही सोचिये जो व्यवस्था पहले आपको आपके पेट से अलग कर दें। फिर आपके भूखे पेट के सामने आपकी ही जिन्दगी रख दें। और विकल्प यही रखे की पेट भरोगे तो जिन्दा बचोगे। तो जिन्दगी खत्म कर पेट कैसे भरा जाता है ,यह आपकी शहरी व्यवस्था ने जंगलो को सिखाया है। यहां के ग्रामीण-आदिवासियों को बताया है। आप इस व्यवस्था को जंगली नहीं मानते। लेकिन हम इसे शहरी जंगलीपन मानते है। लेकिन जंगल के भीतर भी जंगली व्यवस्था से लड़ना पडेगा यह हमने कभी सोचा नहीं था। लेकिन अब हम चाहते हैं जंगल तो किसी तरह महफूज रहे। इसलिये संघर्ष के ऐसे रास्ते बनाने में लगे है जहां जिन्दगी और पेट एक हो। लेकिन पहली बार समझ में यह भी आ रहा है कि जो व्यवस्था बनाने वाले चेहरे हैं, उनकी भी इस व्यवस्था के सामने नहीं चलती ।

यहां सरकारी बाबुओं या नेताओं की नहीं कंपनियो के पेंट-शर्ट वाले बाबूओं की चलती है। जो गोरे भी है और काले भी। लेकिन हर किसी ने सिर्फ एक ही पाठ पढ़ा है कि यहां की जमीन से खनिज निकालकर। पहाड़ों को खोखला बनाकर। हरी भरी जमीन को बंजर बनाकर आगे बढ़ जाना है। और इन सब को करने के लिये, इन जमीन तक पहुंचने के लिये जो हवाई पट्टी चाहिये। चिकनी -चौड़ी शानदार सड़केंचाहियें। जो पुल चाहिये। जमीन के नीचे से पानी खींचने के लिये जो बड़े बड़े मोटर पंप चाहिये।  खनिज को ट्रक में भर कर ले जाने के लिये जो कटर और कन्वेयर बेल्ट चाहिये। अगर उसमें रुकावट आती है तो यह विकास को रोकने
की साजिश है। जिन 42 से ज्यादा गांव के साढे नौ हजार से ज्यादा ग्रामीण आदिवासी परिवार को जमीन से उखाड़कर अभी मजदूर बना दिया गया है और खनन लूट के बाद वह मजदूर भी नहीं रहेंगे, अगर वही ग्रामीण अपने परिवार के भविष्य का सवाल उठाता है तो वह विकास विरोधी कैसे हो सकता है। इस पूरे इलाके में जब भारत के टाप-मोस्ट उघोगपति और कारपोरेट, खनन और बिजली संयत्र लगाने में लगे है और अपनी परियोजनाओ को देखने के लिये जब यह हेलीकाप्टर और अपने निजी जेट से यहां पहुंचते है।  दुनिया की सबसे बेहतरीन गाड़ियों से यहां पहुंचते है , तो हमारे सामने तो यही सवाल होता है कि इससे देश को क्या फायदा होने वाला है। यहां मजदूरों को दिनभर के काम की एवज में 22 से 56 रुपये तक मिलता है। जो हुनरमंद होता है उसे 85 से 125 रुपये तक मिलते हैं। और कोयला खादान हो या फिर बाक्साइट या जिंक या फिर बिजली संयत्र लगाने में लगे यही के गांव वाले हैं। उन्हे हर दिन सुबह छह से नौ किलोमीटर पैदल चलकर यहां पहुंचना पड़ता है। जबकि इनके गांव में धूल झोंकती कारपोरेट घरानो की एसी गाड़ियां दिनभर में औसतन पांच हजार रुपये का तेल फूंक देती हैं। हेलिकाप्टर या निजी जेट के खर्चे तो पूछिये नहीं। और इन्हें कोई असुविधा ना हो इसके लिये पुलिस और प्रशासन के सबसे बड़े अधिकारी इनके पीछे हाथ जोड़कर खडे रहते है। तो आप ही बताईये इस विकास से देश का क्या लेना-देना है। देश का मतलब अगर देश के नागरिको को ही खत्म कर उघोगपति या कारपोरेट विकास की परिभाषा को अपने मुनाफे से जोड़ दें तो फिर सरकार का मतलब क्या है जिसे जनता चुनती है। क्योंकि इस पूरे इलाके में ग्रामीण आदिवासियों के लिये एक स्कूल नहीं है।  पानी के लिये हेंड पंप नहीं है। बाजार के नाम पर अभी भी हर गुरुवार और रविवार हाट लगता है। जिसमें ज्यादा से ज्यादा गांव के लोग अन्न और पशु लेकर आते हैं। एक दूसरे की जरुरत के मद्देनजर सामानो की अदला-बदली होती है। लेकिन अब हाट वाली जगह को भी हडपने के लिये विकास का पाठ सरकारी बाबू पढ़ाने लगे हैं। धीरे धीरे खादानो में काम शुरु होने लगा है। बिजली संयत्रो का माल-असबाब उतरने लगा है तो कंपनियो के कर्मचारी अफसर भी यही रहने लगे हैं। उनको रहने के दौरान कोई असुविधा ना हो इसके लिये बंगले और बच्चों के स्कूल से लेकर खेलने का मैदान तक बनाने के लिये मशक्कत शुरु हो रही है। गांव के गांव को यह कहकर जमीन से उजाड़ा जा रहा है कि यह जमीन तो सरकार की है। और सरकार ने इस पूरे इलाके की गरीबी दूर करने के लिये पूरे इलाके की तस्वीर बदलने की ही ठान ली है। चिलका दाद, डिबूलगंज, बिलवडा, खुलडुमरी सरीखे दर्जनो गांव हैं, जहां के लोगो ने अपनी जमीन पावर प्लांट के लिये दे दी। लेकिन अब अपनी दी हुई जमीन पर ही गांव वाले नहीं जा सकते। खुलडुमरी के 2205 लोगो की जमीन लेकर रोजगार देने का वादा किया गया।

लेकिन रोजगार मिला सिर्फ 234 लोगो को। आदिवासियों के जंगल को तबाह कर दिया गया है। जिन फारेस्ट ब्लाक को लेकर पर्यवरण मंत्रालय ने अंगुली उठायी और वन ना काटने की बात कही। उन्हीं जंगलों को अब खत्म किया जा रहा है क्योंकि अब निर्णय पर्यावरण मंत्रालय नहीं बल्कि ग्रूप आफ मनिसटर यानी जीओएम लेते हैं । ऐसे में माहान,छत्रसाल,अमेलिया और डोगरी टल-11 जंगल ब्लाक पूरी तरह खत्म किये जा रहे हैं। करीब 5872.18 हेक्टेयर जंगल पिछले साल खत्म किया गया। और इस बरस 3229 हेक्टेयर जंगल खत्म होगा। अब आप बताइये यहां के ग्रामीण-आदिवासी क्या करें। कुछ दिन रुक जाइए, जैसे ही यह ग्रामीण आदिवासी अपने हक का सवाल खड़ा करेंगे वैसे ही दिल्ली से यह आवाज आयेगी कि यहां माओवादी विकास नहीं चाहते हैं। और इसकी जमीन अभी से कैसे तैयार कर ली गई है यह आप सिंगरैली के बारे में सरकारी रिपोर्ट से लेकर अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक मंचों से सिंगरैली के लिये मिलती कारपोरेट की मदद के दौरान खिंची जा रही रिपोर्ट से समझ सकते हैं। जिसमें लिखा गया है कि खनिज संसाधन से भरपूर इस इलाके की पहचान पावर के क्षेत्र में भारतीय क्रांति की तरह है। जहां खादान और पावर सेक्टर में काम पूरी तरह शुरु हो जाये तो  मेरिका और यूरोप को मंदी से निपटने का हथियार मिल सकता है। इसलिये यहां की जमीन का दोहन किस स्तर पर हो रहा है और किस तरीके से यहा के कारपोरेट के लिये अमेरिकी सरकार तक भारत की नीतियों को प्रभावित कर रही है इसके लिये पर्यावरण मंत्रालय और कोयला मंत्रालयो की नीतियो में आये परिवर्तन से भी समझा जा सकता है । जयराम रमेश ने पर्यावरण मंत्री रहते हुये चालीस किलोमिटर के क्षेत्र के जंगल का सवाल उठाया।

पर्यावरण के अंतर्राष्ट्रीय एनजीओ ग्रीन पीस ने यहा के ग्रामीण आदिवासियों पर पडने वाले असर का समूचा
खाका रखा। लेकिन आधे दर्जन कारपोरेट की योजना के लिये जिस तरह अमेरिका, आस्ट्रेलिया से लेकर चीन तक का मुनाफा जुड़ा हुआ है। उसमें हर वह रिपोर्ट ठंडे बस्ते में डाल दी गई जिनके सामने आने से योजनाओ में रुकावट आती। इस पूरे इलाके में चीन के कामगार और आस्ट्रेलियाई अफसरो की फौज देखी जा सकती है। अमेरिकी बैंक के नुमाइन्दे और अमेरिकी कंपनी बुसायरस के कर्मचारियों की पहल देखी जा सकती है। आधे दर्जन पावर प्लांट के लिये 70 फीसदी तकनीक अमेरिका से आ रही है। ज्यादातर योजनाओ के लिये अमेरिकी बैंक ने पूंजी कर्ज पर दी है। करीब 9 हजार करोड से ज्यादा सिर्फ अमेरिका के सरकारी बैंक यानी  बैक आफ अमेरिका का लगा है। कोयले का संकट ना हो इसके लिये कोयला खादान के ऱाष्ट्रीयकरण की नीतियों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। खुले बाजार में कोयला पहुंच भी रहा है और ठेकेदारी से कोयला खादान से कोयले की उगाही भी हो रही है। कोयला मंत्रालय ने ही कोल इंडिया की जगह हिंडालको और एस्सार को कोयला खादान का लाइसेंस दे दिया है। जो अगले 14 बरस में 144 मिलियन टन कोयला खादान से निकालकर अपने पावर प्लांट में लगायेंगे। तमाम कही बातों के दस्तावेजों को बताते दिखाते हुये हमने ख दान और गांव के चक्कर पूरे किये तो लगा पेट में सिर्फ कोयले का चूरा है। सांसों में भी भी कोयले के बुरादे की घमक थी। और संयोग से ढलती शाम या डूबते हुये सूरज के बीच सिंगरौली में ही आसमान में चक्कर लगाता एक विमान भी जमीन पर उतरा । पूछने पर पता चला कि सिगरौली में अमेरिकी तर्ज पर हिंडालको की निजी हवाई पट्टी है जहा रिलायस,टाटा,जिदंल,एस्सार , जेयपी समेत एक दर्जन से ज्यादा कारपोरेट के निजी हेलीकाप्टर और चार्टेड विमान हर दिन उतरते रहते हैं। और आने वाले दिनो में सिंगरौली की पहचान 35 हजार मेगावाट बिजली पैदा करने वाले क्षेत्र के तौर पर होगी। जिस पर भारत रश्क करेगा।

अमीर इंडिया के ग़रीब भारतीय

 मंगलवार, 16 अक्तूबर, 2012 को 15:53 IST तक के समाचार

रिपोर्ट के अनुसार भारत में अमीरों और ग़रीबों के बीच खाई बढ़ती जा रही है.
अगर आपको कोई कहे कि भारत में अमीरों की संख्या अगले पांच साल में 53 फीसदी बढ़कर 2 लाख 42 हज़ार हो जाएगी तो हो सकता है कि भारत की समृद्धी को देख आपको खुशी हो.
लेकिन वो कहते हैं ना, कुछ आंकड़े पूरी तस्वीर पेश नहीं करते.
वित्तीय मामलों की बड़ी कंपनी क्रेडिट सूइस के शोध संस्थान द्वारा पेश किए गए इन्ही आंकड़ो का दूसरा पक्ष ये है कि आज भी भारत में 95 फ़ीसदी लोगों की संपत्ति पांच लाख तीस हज़ार रुपए से कम है.
एक लाख डॉलर यानी लगभग 53 लाख के अधिक संपत्ति वालों की संख्या कुल आबादी का केवल शून्य दश्मलव तीन (0.3) प्रतिशत है.

अमीर या गरीब?

"भारत में धन दौलत तेज़ी से बढ़ रही है, भारत में अमीरों और मध्यम वर्ग की संख्या भी बढ़ती जा रही है लेकिन इस विकास में हर कोई हिस्सेदार नहीं है और भारत में अब भी गरीबी एक बड़ी समस्या है."
क्रेडिट सूइस शोध संस्थान
भारत के अमीरों और गरीबों के बीच बढ़ती खाई के ये आंकडे हैं क्रेडिट सुसी रिसर्च इंस्टिट्यूट की विश्व संपत्ति रिपोर्ट में सामने आए हैं.
इस रिपोर्ट में कहा गया है, “भारत में धन दौलत तेज़ी से बढ़ रही है, भारत में अमीरों और मध्यम वर्ग की संख्या भी बढ़ती जा रही है लेकिन इस विकास में हर कोई हिस्सेदार नहीं है और भारत में अब भी गरीबी एक बड़ी समस्या है.”
भारत में 1500 ऐसे अमीर है जिनकी संपत्ति 500 करोड़ डॉलर यानी लगभग 25000 करोड़ रुपये है और 700 अमीरों के पास 100 करोड़ डॉलर यानी 50000 करोड़ रुपये से ज्यादा की संपत्ति है.
विश्व भर के अमीरों की बाती की जाए तो 2012 से 2017 के बीच विश्व के अमीरों की संख्या दो करोड़ अस्सी लाख से बढ़कर चार करोड़ 60 लाख लोगों तक पहुंच जाएगी. यानी आने वाले पांच साल में विश्व में एक करोड़ 80 लाख अमीर और बढ़ जाएंगे.
वहीं चीन में अमीरों की संख्या 2017 तक दोगुनी होने का अनुमान लगाया गया है. 2017 में चीन में 20 लाख अमीर होगें.
बाकी जिन देशों में अमीरों की संख्या में इज़ाफ़ा होगा उनमें मेक्सिको, इंडोनेशिया, सिंगापुर शामिल है.

बदहाली के आंसू रोता नेहरु का 'स्विट्ज़रलैंड'

 मंगलवार, 16 अक्तूबर, 2012 को 08:34 IST तक के समाचार
भारत की बड़ी से बड़ी बिजली कंपनियों के आसमान छूते बिजली कारखाने और इन कारखानों के सामने बौने से लगते बदहाल गांव और अंधेरी बस्तियां. ये नज़ारा है उत्तर-प्रदेश-मध्यप्रदेश के बीच बंटे सोनभद्र-सिंगरौली का जो आज भारत में 'बिजली का गढ़' है लेकिन फिर भी देश के सबसे पिछडे इलाकों में से एक है.
सोनभद्र-सिंगरौली का ये इलाका 1962 में भारत के नक्शे पर उस वक्त चमका जब रिंहद बांध (गोविंद बल्लभ पंत सागर बांध) का उदघाटन करने प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु यहां आए और इस इलाके को भारत का स्विट्ज़रलैंड कहा.
ब्रजमोहन का परिवार
ब्रजमोहन की 43 साल की बेटी मानसिक रोग का शिकार हैं. प्रदूषण के चलते इस इलाके में विकलांगता और मानसिक बीमारियों के मामले भी अधिक हैं.
बांध विस्थापितों के गांव कुसमाहा में रहने वाले ब्रजमोहन उस दिन को याद करते हुए कहते हैं, ''विस्थापितों को अपनी ज़मीन से उजड़ने का दुख तो था लेकिन नेहरु जी ने कहा देश को विकास की ऊंचाईयों तक ले जाना है. हमले कहा था कि गांव में बिजली आएगी और सबको नौकरी मिलेगी.''

अधूरे रह गए सपने

72 साल के ब्रजमोहन आज भी उस बिजली का इंतज़ार कर रहे हैं. दिन ढले अंधेरे में लालटेन टटोलकर रोशनी करते हुए कहते हैं, “हमारी उपजाऊ ज़मीन लेकर सरकार ने हमें यहां पठार में बसा दिया. हम आज भी हैंडपंप से पानी खींचकर खेत में सिंचाई करते हैं. यहां केवल सब्जी उगती है और पैदावार इतनी ही है कि तीन लोगों का पेट भर पाए. कंपनी वालों ने घर के बराबर में बिजली का खंभा गाड़ा था. तार भी पड़े लेकिन बिजली आजतक नहीं आई.’’
झोंपड़ी से बाहर निकलते ही खंभे पर नज़र पड़ी तो दिखा कि बेकार खड़ा बिजली का खंभा झोंपड़ी पर आधे से ज़्यादा झुक गया है. किसी भी दिन तेज़ बारिश या अंधड़ में गिरा तो ब्रजमोहन की रही-सही पूंजी भी ले डूबेगा.
कोयले और पानी के खज़ाने से आबाद लेकिन बदहाल इस इलाके में लगभग सभी गांवों और बस्तियों की यही कहानी है. 1962 में जिस जगह रिंहद बांध बना वो उस वक्त सोनभद्र-सिंगरौली का सबसे बड़ी आबादी वाला इलाका था.
"“त्याग का पाठ हमेशा उन्हीं लोगों को क्यों पढ़ाया जाता है जो लोग अपना शरीर गलाकर अपने बच्चों को अपाहिज बनाकर पहले ही इस बिजली की कीमत चुका रहे हैं. विकास के नाम पर हज़ारों करोड़ का मुनाफ़ा कमा रही इन कंपनियों क्या यहां लोगों का इलाज नहीं करा सकतीं. अब हमारे पास त्याग के लिए सिर्फ प्राण बचे हैं वो भी सरकार ले ही रही है.’’"
अजय शेखर, लेखक एंव स्थानीय निवासी
जल्द ही सरकार को इस इलाके में फैले काले सोने की खबर लगी और देखते ही देखते 2,200 किलोमीटर में कोयला खदानें भी खुद गईं. 1951 के जनसंख्या आंकड़ों के मुताबिक उस वक्त विस्थापितों की संख्या 1,05,000 थी.

बांध और खदानों से हुए बेघर

आज इलाके के ज्यादातर गांव उन बांध और खदान विस्थापितों के हैं जो अपनी ज़मीन से बेघर हुए और कारखानों के जानलेवा प्रदूषण से बेहाल हैं.
6500 मेगावाट से शुरु हुआ बिजली उत्पाद आज 10,000 मेगावाट है और 2018 तक 35000 का लक्ष्य रखता है, लेकिन चिल्काटांड में रहने वाले वेदान्ती प्रजापति के लिए ये देश का विकास नहीं बल्कि ज़िंदगी और मौत का सवाल है.
एनसीएल की कोयला खदान वेदांती प्रजापति के घर के पीछे तक पहुंच चुकी है. खदान के नीचे बैठे वेदांती प्रजापति और उनका परिवार.
प्रजापति के घर के बीच 500 मीटर से भी कम की दूरी है. घर की छत से नज़र दौड़ांए तो चारों ओर दिखते हैं आसमान छूते मिट्टी के विशाल पहाड़ जो एनसीएल की कोयला खदान से निकली है. बिना कोई सवाल उनका पहला जवाब ही सारी कहानी कह देता है, “हमको कुछ नहीं कहना है साहब, कारखानों से भागते-भागते हम थक गए. बांध बना तो घर डूब गया. बाप-दादा हमें लेकर दूसरी बस्ती में बसे. फिर एनटीपीसी ने प्लांट लगाया और हमें यहां भेज दिया. यहां भी अब गुजारा मुश्किल है. बारिश में पहाड़ों की मिट्टी घरों में घुस आती है. खदान में ब्लास्टिंग होती है तो भूकंप के जैसे पूरा घर हिलता है.”
भगोड़ों सी ज़िंदगी और रोज़ी-रोटी की तलाश में भटकने का डर वेदान्ती के चेहरे पर साफ़ दिखाई देता है, लेकिन घर के दरवाज़े तक पहुंच चुकी खदान और धमाकों से चटकती दीवारों ने ज़िंदगी को इतना बेहाल कर दिया है कि किसी भी कीमत पर लोग बस्ती छोड़ देना चाहते हैं.

'भगोड़ों सी ज़िंदगी'

विस्थापितों की सबसे बड़ी समस्या है कि कंपनियों की संख्या और खदानों का क्षेत्र लगातार बढ़ता जा रहा है. एक कंपनी उन्हें विस्थापित कर जिस जगह बसाती है वहां दूसरी कंपनी का कारखाना उनके लिए बोरिया-बिस्तर बांधे तैयार रहता है.
प्रजापति की बातचीत में जो गुस्सा झलकता है वो चिल्काटांड के लगभग हर बाशिंदे की कहानी है. अपनी आठ साल की विकलांग बेटी को स्कूल से घर लाती एक महिला को रोकर जब हमने बात करनी चाही तो दो टूक जवाब मिला, “हर कोई तो सर्वे करने चला आता है, लेकिन बदलता कुछ नहीं. पता नहीं कागजों में क्या लिखते हैं कि लखनऊ-दिल्ली जाकर सब बात पलट जाती है. हमारा नाम मत लिखिएगा. कंपनी वाले कहते हैं कि विस्थापित गुंडागर्दी करते हैं गलत बात फैलाते हैं.''
चिल्काटांड
खदान से निकली मिट्टी के घिरी बस्तियां. ये पहाड़ धूल की बड़ी वजह हैं.
नई बस्ती की मांग कर रहे चिल्काटांड निवासी मनोनीत कहते हैं, “जहां आप खड़ी हैं अगले साल यहां ब्लास्टिंग हो रही होगी. इसी तरह खदान बढ़ती है. सच ये है कि जिस ज़मीन पर विस्थापितों को बसाया जाता है उसका मालिकाना हक़ कंपनी के पास रहता है. वो जब चाहे हमें हटा सकते हैं, जबकि विस्थापित न ज़मीन बेच सकते हैं न उसपर कर्ज़ ले सकते हैं. कुलमिलाकर खेत मालिक से आज हम बेघर विस्थापित हो गए.”

उद्दोगों के गढ़ में 'बेरोज़गार'

"शुरुआत में सभी बिजली-उद्दोग केंद्र या राज्य सरकार के थे. सरकारों ने बाकायदा विस्थापितों के साथ लिखित करार किए. बाद में ये उद्दोग निजी कंपनियों को सौंप दिए गए. लैंको जैसी कंपनियां अब कहती हैं कि पुराने करार की कोई मान्यता नहीं. क्या सरकार उन वादों को भी पूरा नहीं करेगी जो उसने लिखित में किए हैं."
शुभाप्रेम, वनवासी सेवा आश्रम
विस्थापन से पैदा हुई सबसे बड़ी समस्या है बेरोज़गारी की. 2011 में आई ग्रीनपीस की एक रिपोर्ट के मुताबिक केवल उत्तप्रदेश राज्य विद्युत उत्पादन निगम की अनपरा परियोजना को ही देखें तो जिन 2205 लोगों को तुरंत प्रभाव से नौकरी देने का वादा किया गया था उनमें से केवल 234 को नौकरी दी गई. ये समस्या हर गांव, हर परियोजना की है. शक्तिनगर निवासी राजबीर कहते हैं, “जितने भी कारखाने यहां खुले उनमें स्थानीय लोगों को बहुत कम नौकरियां दी गई हैं. ऊपर से लेकर नीचे मज़दूर तक बिहार, छत्तीसगढ़ दिल्ली से लाए गए हैं. विस्थापित अपने हक की बात करते हैं इसलिए उन्हें अराजक कहा जाता है और नौकरी पर नहीं रखा जाता.”
बिजली उद्दोग जैसे-जैसे बढ़ रहा है उससे जुड़ी कंपनियों की सीमेंट, रसायन और पत्थर की फैक्ट्रियां भी इलाके पर कब्ज़ा जमा रही हैं. इस साल फरवरी में पत्थर की एक अवैध खदान में हुए भयानक हादसे के बाद दिन-रात चलने वाले क्रशर तो तालाबंद हैं लेकिन जंगलों में अवैध कटाई के बाद रिहंद जलाशय में बहाकर कैसे कीमती लकड़ी की तस्करी की जा रही है ये नज़ारा हमने खुद देखा. कुलमिलाकर सोनभद्र में संसाधनों की ऐसी लूट मची है जिसमें हर कोई अपने हाथ धो लेना चाहता है.

सरकारी चुप्पी

बेलवादाह में जल स्रोत में मिलती कारखाने की राख. कारखानों की राख इलाके की मिट्टी को बंजर करती जा रही है.
बीबीसी ने सोनभद्र के प्रभारी डीएम रामकृष्ण उत्तम से इस बाबत बात करनी चाही तो उन्होंने कुछ भी कहने से मना करते हुए सीधे फोन काट दिया. लेकिन भारत की एक अरब आबादी की बिजली की ज़रूरत और विकास के सवाल पर सोनभद्र से मांगी जा रही कीमत क्या वाकई ज्यादा है.
सोनभद्र में पूरी उम्र बिताने वाले अजय शेखर इस सवाल पर टीस से भर उठते हैं, “त्याग का पाठ हमेशा उन्हीं लोगों को क्यों पढ़ाया जाता है जो लोग अपना शरीर गलाकर अपने बच्चों को अपाहिज बनाकर पहले ही इस बिजली की कीमत चुका रहे हैं. विकास के नाम पर हज़ारों करोड़ का मुनाफ़ा कमा रही इन कंपनियों को क्या इसके लिए भी बाध्य नहीं किया जा सकता कि वो कम से इन लोगों का इलाज करांए. उन्हें अपने यहां नौकरी पर रखें. अब हमारे पास त्याग के लिए सिर्फ प्राण बचे हैं वो भी सरकार ले ही रही है.’’

आबाद या बर्बाद

इस इलाके में 1954 से काम कर रही संस्था वनवासी सेवा आश्रम से जुड़ी शुभा प्रेम कहती हैं, “शुरुआत में सभी बिजली-उद्दोग केंद्र या राज्य सरकार के थे. सरकारों ने बाकायदा विस्थापितों के साथ लिखित करार किए. बाद में ये उद्दोग निजी कंपनियों को सौंप दिए गए. लैंको जैसी कंपनियां अब कहती हैं कि पुराने करार की कोई मान्यता नहीं. क्या सरकार उन वादों को भी पूरा नहीं करेगी जो उसने लिखित में किए हैं.”
सोनभद्र जो कभी अपनी चिरौंजी और कत्थे की फसल, बीड़ी बनाने वाले पलाश के पत्तों और बहेड़े के हरे-भरे जंगलों के लिए जाना जाता था. आज ये इलाका ऊर्जा की राजधानी है और दिन-रात धुंआ उगलते कारखानों से आबाद है.
लेकिन यहां के लोगों की टीस बस यही है कि बहेड़े से बिजली तक, विकास का ये सफर सोनभद्र-सिंगरौली को बर्बाद कर गया.

Monday, October 15, 2012

चैनलों के चाल, चरित्र और चेहरे


टीवी चैनलों में खबरों और विचारों की दुनिया का पिछला हफ्ता रजत पट पर गत्ते की तलवार भांजने वाले शताब्दी के महानायक अमिताभ बच्चन उर्फ बिग-बी और अट्ठावन साल में भी ब्रम्हाण्ड सुन्दरी रेखा के नाम रहा। अपन तो इन दोनों की अदाओं में ही फिदा रहे। हर एंगल को कवर किया, रोमान्स, रोमान्च, ट्रेजडी, कामेडी आदि-आदि। अवसर था 10 अक्टूबर को रेखा और 11 अक्टूबर को अमिताभ बच्चन के जन्मदिन का। मीडिया की वरीयता में न तो लोकनायक जयप्रकाश नारायण रहे, जिनका 11 अक्टूबर को जन्मदिन पड़ता है और न ही डॉ. राममनोहर लोहिया जिनकी पुण्यतिथि 12 अक्टूबर को थी। दरअसल अपना देश एक विचित्र व अफसोसनाक सन्धिकाल से गुजर रहा है। मीडिया का महत्तम वर्ग वास्तविक भारत के मुकाबले एक आभाषी भारत की रचना में जुटा है, जिसके "फूल्स पैराडायज" (मूर्खो का स्वर्ग) में चमकद मक, मौज-मस्ती, हरे-भरे, खाए-पिए और अघाए लोग आबाद हैं। ठीक वैसे ही जैसे कारपोरेट जगत ने भारत के मुकाबले अपने लिए इन्डिया बसा लिया। वास्तविक भारत जल-जंगल और जमीन पर हक की मांग को लेकर दिल्ली कूच करने को तैयार है।
नब्बे के दशक से शुरू हुए नव उदारीकरण की प्रक्रिया में जब निजी क्षेत्र के आडियो-विजुअल मीडिया के लिए रास्ते खुले तब उम्मीद जगी थी, कि इनके आने के बाद सत्ता नियंत्रित खबरों और विचारों की एकरसता टूटेगी। लेकिन दो दशक बाद जब हम समग्रता के साथ स्थितियों का सिंहावलोकन करते हैं तो उन आलोचकों की बात में दम दिखता है कि भारत में मीडिया (टीवी चैनलों के संदर्भ में) का उदारीकरण "बंदरों के हाथ में उस्तरा" देने जैसा है। इस तथ्य को खबरिया चैनलों के वे दिग्गज पत्रकार भी स्वीकार करते हैं जो प्रिन्ट मीडिया के संस्कारों में पले बढ़े और चैनलों की सीढ़ी पर चढ़े। चर्चित टीवी पत्रकार और खबर प्रस्तोता पुण्यप्रसून वाजपेयी ने अपने ब्लाग में, टीवी चैनलों को लेकर विरोधाभास और विवशताओं का तथ्यों के साथ विशद् वर्णन किया। वाजपेई लिखते हैं कि अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त व जीवंत माध्यम आहिस्ता- आहिस्ता गलत लोगों के हाथों में जा रहा है और जीविका की विवशता के चलते अच्छे व मेधावी पत्रकार काम करने को विवश हैं। चाहकर भी कोई पत्रकार न्यूज चैनल नहीं शुरू कर सकता, क्योंकि इसके लिए लायसेंस का फार्म भरने वालों को अपने कारोबार का टर्नओवर 20 करोड़ रु. साबित करना होगा। तथ्यों की रोशनी पर जाकर देखें तो बीते सात बरस में न्यूज चैनलों का लायसेंस पाने वाले अस्सी फीसदी लोग बिल्डर, चिटफन्ड चलाने वाले, रियल इस्टेट के खेल में माहिर और भ्रष्टाचार या अपराध के जरिए राजनीति में कदम रख चुके हैं।
गीतिका शर्मा काण्ड के मुख्य आरोपी व हरियाणा के गृह राज्य मंत्री रहे गोपाल काण्डा के पास पांच चैनलों का लायसेंस है। काण्डा का न्यूज चैनल हरियाणा और यूपी में चलता है, इसी समूह का एक धार्मिक चैनल भी चलता है। जेसिका लाल हत्याकाण्ड के मुख्य अभियुक्त मनु शर्मा का भी न्यूज चैनल है, इनका परिवार उत्तर भारत से एक बहुसंस्करणीय अखबार भी चलाता है। योग की तिजारत करते-करते राजनीति में कूदने को बेताब बाबा रामदेव अपने ही धार्मिक चैनल के जरिए घर-घर पहुंचे। न्यूज चैनल नेताओं की भी पहली पसंद बने हुए हैं। दक्षिण में तो यह संक्रामक रोग की शक्ल में फैल रहा है। करुणानिधि, मारन परिवार के चैनल के मुकाबले जयललिता का भी चैनल है। केरल-आन्ध्र-कर्नाटक और अब तो पश्चिम बंगाल में नेताओं और पार्टियों के अपने-अपने न्यूज चैनल हैं। वर्तमान में 27 न्यूज चैनलों के लायसेंस नेताओं के पास हैं जो चालू स्थिति में हैं। नेताओं के परिजनों के नाम से 32 न्यूज चैनल अभी पाइप लाइन में हैं। 18 न्यूज चैनल चिटफन्ड कम्पनियों के नाम हैं, जबकि 19 न्यूज चैनल रियल इस्टेट के कारोबारियों के पास।
न्यूज चैनल का लायसेंस हासिल करके दूसरे को बेचने का भी चोखा धंधा चल रहा है। एक लायसेंस हासिल करने में 10 से 15 लाख रुपए खर्च होते हैं, बाजार में इनकी कीमत 3 करोड़ रु. तक मिल जाती है। न्यूज चैनलों के इतर केबिल नेटवर्क का भी धंधा दिलचस्प है। डीटीएच के चलन के बाद भी ज्यादातर न्यूज चैनल केबिल नेटवर्क के जरिए ही घर-घर तक पहुंचते हैं। एक न्यूज चैनल को केबिल नेटवर्क से जुड़ने के लिए हर महीने 30 से 35 करोड़ रुपए खर्च करने पड़ते हैं। छोटे-मझोले से लेकर बड़े शहरों तक केबिल नेटवर्क स्थानीय बाहुबलियों और नेताओं के नियंत्रण में है। यही नहीं इस क्षेत्र की अहमियत को दिग्गज नेता भी भली- भांति समझते हैं। जैसे छत्तीसगढ़ में रमन सिंह से जुड़े लोगों का केबिल नेटवर्क पर नियंत्रण है तो पंजाब में प्रकाश सिंह बादल का। किसी बड़े न्यूज चैनल की इतनी हिम्मत कहां कि इन नेताओं की खबर हवा में प्रसारित कर सके।
आपको लगता होगा कि आज तक जैसे चैनल इस जमात से अलग होंगे। नहीं ऐसा नहीं है। खबरों व तथ्यों को लेकर ये कितने संजीदा हैं, एक घटना मेरी आंखो देखी है। उन दिनों मैं भोपाल के एक अखबार में था। बैतूल से एक खबर छपी कि यहां गरुड़ (वेदों में वर्णित भगवान विष्णु का वाहन) के बच्चे मिले हैं। "आज तक" ने सजीव प्रसारण शुरू किया। वेद मर्मज्ञ और पण्डित स्टूडियो में गरुड़ पुराण बखान रहे थे। जबकि तब तक अखबार खबर का खण्डन छापकर पक्षी विशेषज्ञों के हवाले स्पष्ट कर चुका था कि ये गरुड़ नहीं उल्लू के बच्चे हैं। खबरिया चैनल हमें इसी तरह उल्लू बनाते हैं। असम की वह दर्दनाक घटना शायद ही किसी को भूली हो जिसमें एक टीवी पत्रकार के उकसाने पर जोरदार फुटेज के लिए एक कन्या को चौराहे पर निपर्द कर दिया गया और लफंगों ने उसकी इज्जत से खेला। बाद में टीवी पत्रकार को जेल हुई।
चैनलों को लेकर बात एकतरफा नहीं है। कई सामाजिक सरोकार की खबरें भी रहती हैं पर यदि टीआरपी रेट प्रिन्स के गड्ढे में गिरने के सजीव प्रसारण से बढ़ता है, तो सामाजिक सरोकारों की क्या बिसात। और इसीलिए अमिताभ बच्चन और रेखा के मुकाबले जयप्रकाश व लोहिया हांसिए पर चले जाते हैं। यह संक्रामक रोग प्रिन्ट मीडिया में भी फैल रहा है। सही पूछे तो लघु पत्रिकाएं और क्षेत्रीय भाषाई अखबार ही आज की तारीख में पत्रकारिता की अस्मत को बचाए हुए हैं। ठीक उसी तरह जैसे कि आजादी की लड़ाई में मुख्य धारा के अखबार अंग्रेजों के साथ थे और भाषाई अखबार क्रांतिकारियों के साथ मोर्चा ले रहे थे। और अंत में कारपोरेटी अखबारों की प्राथमिकताओं को लेकर हिमान्शु कुमार की कविता के अंश, आप भी पढ़ें।
अक्लमंद हो तो क्या लिखो? 
रूप, रंग, गंध लिखो, मन की उड़ान हो गई जो स्वच्छन्द लिखो। तितली लिखो, फूल लिखो। रेशम लिखो, प्रेम लिखो। ठसक और खनक लिखो। देश, विश्व, सत्ता के बदलते समीकरण लिखो। अच्छा लिखो, नफीस लिखो। ऊंचा लिखो, दमकदार लिखो। प्रशंसा, पैसा और सम्मान के जरूरतमंद लिखो। मुख्य धारा लिखो, बिकने वाला लिखो। सेंट लिखो, लड़की लिखो। पैसा लिखो, मंत्री लिखो। जली हुई झोपड़ी, लूटी हुई इज्जत, मरा हुआ बच्चा, पिटा हुआ बूढ़ा मत लिखो। अन्याय मत लिखो, प्रतिकार मत लिखो। सहने की शक्ति का खात्मा और बगावत मत लिखो। क्रांति मत लिखो, नया समाज मत लिखो। संघर्ष मत लिखो, आत्म सम्मान मत लिखो। लाईन है खींची हुई, अक्लमंद और पागलों में, अक्लमंद लिखो, पागल मत लिखो।
जयराम शुक्ल
लेखक दैनिक स्टार समाचार के सम्पादक एवं वरिष्ठ साहित्यकार हैं.
jairamshuklarewa@gmail.com
सरकार का चरित्र और भूमि सुधार की कठिन राह

Thursday, October 11, 2012


लोहिया: एक स्मृति की अनुभूति
 गांधी के अवसान के उपरांत तीन प्रकार के गांधीवादी उभर कर सामने आये सरकारी गांधीवादी, मठी गांधीवादी, और कुजात गांधीवादी। सरकारी गांधीवादी हर काम में गांधी का नाम लेकर गांधी की रूपरेखा से उलट नीति के आधार पर देश चलाने लगे, मठी गांधीवादी महन्त बनकर चन्दा बटोर कर उपदेशक एवं सरकारी संत के रूप में अवतरित हो गए इनके भिन्न-भिन्न नाम और भिन्न-भिन्न मठ थे, तीसरे प्रकार के गांधीवादी समाजच्युत कुजात गांधीवादी रहे जो अन्यायों के प्रतिकार के लिए शक्तिशाली स्वशासन से भी न केवल टकराते थे वरन् उनके द्वारा देश के प्रति किये गये विश्वासघात से देश को परिचित कराते थे। कुजात गांधीवादियों को सरकार, अखबार एवं मठ तीनों का कोपभाजन बनना पड़ा। इस मण्डली के प्रथम पुरुष थे स्व. डॉ. राममनोहर लोहिया। लोहिया अपने आपको कुजात गांधीवादी कहलाने में गौरव मानते थे। क्योंकि गांधी का भगवान तो गरीब और उपेक्षित सूखी रोटी में दिखाई पड़ता था।
जन के प्रश्न पर लोहिया कूद पड़ते थे। अगर उनकी सुबह कलकत्ता में हुई है तो दोपहर हैदराबाद या बंगलोर में शाम बम्बई या मद्रास में। जिसके जीवन का यौवन और आनंद देश की उपेक्षित और दलित मानवता को समर्पित था उसी का नाम है राममनोहर।
लोहिया ने देश को जमीन का चप्पा-चप्पा ही भर नहीं छाना था दुनिया के हर देशों में जाकर वहां का गहराई से अन्वेषण भी किया था। उनके अंतर्राष्ट्रीय सम्पर्क गहरे और महत्वपूर्ण रहे हैं।
उनके अमेरिका भ्रमण पर आयोजक वर्तमान सिनेटर हैरिस वोफर्ड ने लोहिया अमेरिका मिलन नामक पुस्तक भी प्रकाशित की थी। दूसरी बार अमेरिका जाने में उन्हें रंगभेद कानून तोड़ने पर गिरफ्तार होना पड़ा। सत्याग्रही जो दुनिया में अन्याय नहीं देख सकता था। जिसकी नजर में चुनी हुई संसद और विश्व सरकार और बिना पासपोर्ट वीसा का आवागमन ही मानवता की मुक्ति और विश्व बंधुत्व का मार्ग रहा है।
लोहिया ने पक्षपात विहीन समदृष्टि से देश और दुनिया को देखा, परखा, अनुसंधान कर अपने निर्णय लिये। यदि विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्सटाइन से उनकी भेंट हुई तो विश्व प्रसिद्ध अभिनेत्री ग्रेटा गावरे से भी। अगर वे पेरियार रामस्वामी नायकर से भेंट करते थे तो महर्षि रमण से भी। वे नास्तिक भी थे और रामायण मेला के प्रति भी उनकी दृष्टि सम थी। राम, कृष्ण, शिव के अनुसार भारतीय जनता के मानस की आदर्श कल्पना के प्रतीक थे। लोहिया के अनुसार राम का तात्पर्य मर्यादित जीवन कृष्ण का पर्याय उन्मुक्त हृदय और शिव का प्रतिमान असीम विवेक था। मर्यादित जीवन उन्मुक्त हृदय और असीम विवेक से ही कोई देश ऊंचाईयों पर पहुंच सकता है।
जिसकी परिकल्पना भारत माता की संतानों ने कभी की थी।
लोहिया सन् 1963 से उप चुनाव द्वारा लोकसभा में पहुंचे।
अखबारों ने लिखा कि कांच की दुकान में सांड़ घुस आया है।
लेकिन लोहिया ने देश की आजादी के सोलहवें वर्ष में देश में गरीबी का प्रश्न उठाकर भारत की जनता को वास्तविकता से अवगत करा कर चकित कर दिया। ‘तीन आने बनाम पंद्रह आने वाली’ बहस ने देश की दबी पिसी उपेक्षित जनता के मन में एक हल्की आशा की किरण जगाई कि गांधी के बाद आज भी भारत में कोई है जो टूटी झोपड़ी में बुझते दिये में आधी सूखी टिक्कड़ निगलने को देख रहा है। उसी संसद में उन्होंने खर्च की सीमा बांधने का भी प्रश्न उठाया। न्यूनतम और अधिकतम का अंतर एक और दस के बीच में हो तभी संभव बराबरी की मंजिल पर पहुंचा जा सकता है। उन्होंने सरकार से आग्रह किया कि देश को उपभोग मुखी व्यवस्था की बजाय उत्पादन मुखी व्यवस्था की ओर ले जाना ही सही मार्ग है। देश के सम्पूर्ण सोने को देश के खजाने में गिरवी रख कर पानी, बिजली और स्वास्थ्य की अपूरणीय सुविधा जुटाने का जहां एक ओर सुझव दिया वहीं उन्होंने देश के कलम घिस्सू अनुत्पादक कर्मचारियों की फौज को नहर, सड़क, तालाब खोदेन के काम में नियोजित करने का आग्रह किया।
लोहिया के अनुसार भारत में आर्य अनार्य, द्रविड़, मंगोल आदि परिभाषाओं से देश को बांटने का प्रयास विदेशी इतिहासकारों ने किया था। उनके अनुसार संस्कृत में आर्य किसी बड़े आदमी को कहा जाता है। आर्य कोई अन्य जाति या गिरोह नहीं था जो भारत में आया। भारतीयता की एकात्मकता के लिए उनके पास अकाटय़ तर्क थे। लोहिया के अनुसार राम और राम के साथी उत्तर दक्षिण एकता के प्रतीक थे इसी प्रकार कृष्ण और कृष्ण के साथी पश्चिम पूर्व के एकता के प्रतिनिधि थे। इसी तरह उन्होंने अपने गंभीर अध्ययन से भारत की विभिन्न भाषाओं के अक्षरों की समानता भी सिद्ध की है। दुर्भाग्य है कि देश के अनेक स्वनामधन्य भाषा शास्त्री उस पर अधिक गंभीर खोज नहीं कर सके। लोहिया शिव को आदर्श प्रेमी और द्रौपदी को आदर्श महिला मानते रहे हैं। उनके अनुसार दुनिया के किसी साहित्य में इतना जबरदस्त प्रेमी नहीं कल्पित है जो आपनी मृत पत्‍नी के शव लगातार ढोता रहे जब तक कि उसके अंग-अंग गल कर गिर न जाएं। लोहिया महज राजपुरुष या सत्याग्रही भर नहीं थे उनके अनुसंधान की परिधि में सौंदर्य भी आता था। उनके अनुसार सुन्दरता का आनंदड भी सत्ता और सम्पन्नता के साथ बनता बिगड़ता है। जब रंगीन दुनिया विश्व सभ्यता की अग्रणी थी तब सौंदर्य का प्रतिमान ‘तन्वी श्यामा। शिखिर दशना’ के रूप में था।
सांवली सलोनी सूरत ही सौंदर्य की पहिचान थी। अंग सौष्ठव मुख्य अंग है सौंदर्य का। जब गोरे लोग सभ्यता सम्पन्नता के शिखर पर हैं तब गोरी चमड़ी की महिला ही सौंदर्य की प्रतीक है।
लोहिया की कल्पना थी कि जब अफ्रीका सशक्त और सम्पन्न हो जाएगा तब रंगीन ही सुन्दरता बनेगी।
उन्होंने भारत में हिन्दु मुसलमान के प्रश्न को ऐतिहासिक दृष्टि से देखा और समझ। झगड़ा हिन्दु-मुसलमान का न होकर देशी- परदेशी का रहा है। अगर हिन्दु शासक दिल्ली की कुर्सी में रहा तो उसका विरोधी हिन्दू राजा ही हमलावर को ले आता है।
मुसलमानों में भी गुलामवंश, लोदीवंश, पठानवंश, मुगलवंश, फारसीवंश, हमलावर रहे हैं उन्होंने पहला वध इस्लाम मानने वालों का ही किया है। लेकिन जो यहां आकर बस टिक गए राज्य करने लगे वे क्रमश: पुंसत्वहीन होते गये और हमलावरों के प्रवाह को नहीं रोक सके। राजनीति के अलावा साहित्य कला, स्थापत्य सौन्दर्य प्रकृति, मानवीय आवेग और अनुभूति, ज्ञान-विज्ञान अनुसंधान कोई ऐसा प्रश्न नहीं है जिस पर लोहिया के स्पष्ट और सपाट विचार न हों। उन्होंने देश के लेखकों, रचनाकारों और राजपुरुषों को भारतीयता की दृष्टि भर नहीं वरन उन्हें समस्त मानव समाज की वेदना के प्रति संवेदनशील बनने को प्रेरित किया।
( यह लेख प्रख्यात समाजवादी चिंतक व लेखक स्व. जगदीश जोशी की पुस्तक कहि न जाय का कहिए.. से लिया गया है।)