Saturday, December 28, 2013

तेल देखो तेल की धार देखो

चरणदास चोर के नए अवतार सचमुच के चरणदास साहु निकले। पिछले जनम में चोर इस जनम में साहु। साहु ने वो मूर्खताएं नहीं की जो चोर ने पिछले जनम में की थी। ‘चोर’ गुरू द्वारा दी गई प्रतिज्ञाओं की रस्सी में बंधा था, और चाहकर भी न सोने की थाली में खा सका, न रानी के साथ सो सका, न आधा राज भोग सका और न ही हाथी की सवारी कर सका। ईमानदार मूर्ख था इसलिए बेमौत मारा गया। ईमादारी भर ही अपने आप में काफी नहीं होती। चतुराई के मुलम्मे में वह धारदार बन जाती है। चरणदास साहु ने गुरू की प्रतिज्ञाओं की रस्सी को तड़ से तोड़ दी। ये गुरू लोग होते ही ऐसे हैं जब खुद कुछ करने का माद्दा नहीं बचता तो चेलों का भी रास्ता बंद करने की कोशिश करते हैं। चरणदास साहु की आत्मा में बैठा पुराने जनम का चोर पुरानी बातों को याद-कर-कर के तड़प रहा था। काश मैं भी उस खूसट गुरू की बाते न मानता। रानी को भोगता, सोने की थाली में खाता, राज करता और हाथी पर चढ़ता। चरणदास की आत्मा के अन्दर बैठे नए जनम के साहु और पुराने जनम के चोर में खटपट होने लगी। चोर ने कहा- सुन बे साहु तूने गुरू को दगा दिया है। पॉलटिक्स में जाने और पार्टी बनाने से मना करने के बाद भी तू नहीं माना। सीधे नरक में जाएगा नरक में। साहु ने जवाब दिया- तू निरा चोर का चोर ही रहा। जमाने की नजाकत को समझ और मेरे में विलीन हो जा। चोर होते हुए भी जो तेरी ईमानदारी की ठसक है न चरणदास को तंग किए जा रही है। अब देख कुर्सी तक पहुंचने के लिए लोग कितनी मशक्कत करते हैं। धनबल, जनबल,  बाहुबल, दारू, मुर्गा, कम्बलों के बीच से कुर्सी तक का रास्ता निकलता है। तेरी ईमानदारी की हनक ने चरणदास को कुर्सी तक तो पहुंचा दिया, अब आगे तो मुझे कुछ भोगने दे। चरणदास ने लालबत्ती लेने से मना कर दिया। गारद भगा दी। फट्टे पे सोएगा, आटो से चलेगा। न खाएगा, न खाने देगा। चरणदास के भीतर इन दिनों चोर और साहु के बीच का अन्तरद्वंद्व चल रहा है। ये कैसा विरोधाभास है कि जो चोर है वह चरणदास को ईमानदारी से नहीं डिगने दे रहा, और जो साहु है वह भौतिकवादी है सब कुछ वह भोगना चाहता है, जो चोर पुराने जन्म में नहीं भोग पाया और प्रतिज्ञाबद्ध होकर बेमौत मारा गया।

‘आधुनिक भारत का भविष्य पुराण’ के रचयिता आचार्य रामलोटन शास्त्री, भैय्याजी को चरणदास के नए अवतार के भीतर चल रहे द्वंदात्मक भौतिकवाद का अनुशीलन व मीमांशात्मक विश्लेषण करते हुए उसका मर्म समझा रहे थे। भैय्याजी को कथा की यह क्लासकी वैसे ही पल्ले नहीं पड़ रही थी जैसे कि शास्त्रीय संगीत में रागों का आरोह-अवरोह व तानपुरे की तान सामान्य श्रोताओं की समझ में नहीं आती। शास्त्री के शास्त्रज्ञान से कनफ्यूज भैय्याजी बोले- आचार्य जी अब सीधे-सीधे मुद्दे पर आइए और भविष्य बताइए कि नए जमाने का ये चरणदास राज भोग पाएगा कि नहीं? रामलोटन शास्त्री ने अपने दर्शन शास्त्र की व्याख्याओं को रहल की पोथी में दबाते हुए कहा- भैय्याजी दरअसल बात ये है- कि एक बार एक किन्नर को बच्चा पैदा हुआ। किन्नर को बच्चा! आश्चर्य!! खबर देश-दुनिया की सुर्खियों में छा गई। शहर का कोई भी आदमी यकीन नहीं कर पा रहा था पर यह सत्य था, सौ प्रतिशत। किन्नरों में उल्लास छा गया। सब नाचने गाने लगे, जश्न  मनाने लगे। फिर सवाल खड़ा हुआ कि यह बच्चा जाना किस नाम से जाएगा। इसकी वल्दियत क्या लिखी जाए। किन्नरों ने पंचायत बुलाई। अन्तत: तय हुआ की इस बच्चे पर सबका समान हक है। यह सभी किन्नरों के साझे पराक्रम का प्रतिफल है। अब दूसरा सवाल खड़ा हुआ कि सबसे पहले इसके प्यार दुलार का हक किसे? सर्व सहमति से यह भी तय हो गया कि वरिष्ठता के क्रम में एक-के बाद एक सभी इसे अपना प्यार दुलार दें। उमड़े हुए वात्सल्य से विह्वल किन्नरों ने उस नवजात शिशु को अपने-अपने बाहों में भर कर चूमना-चाटना प्यार करना शुरू कर दिया। इस क्रम में किसी को होश ही नहीं रहा कि शिशु को जन्मघुट्टी भी दें, दूध भी पिलाएं। प्यार के ज्वार में सिर्फ शिशु का चेहरा दिखता उसकी भूख की चिल्लाहट नहीं, उसके पालन पोषण की जरूरत नहीं। सब उसे एक-एक करके प्यार करते गए। और जब आखिरी किन्नर की बारी आई तो उसके हाथ नवजात शिशु का पार्थिव शरीर था। किन्नरों के समवेत प्यार के ज्वार में नवजात शिशु का दम उखड़ गया। शिशु की उम्र बरहों संस्कार तक भी नहीं खिंच पाई। भैय्याजी को इस कहानी में छिपा हुआ गूढ़ अर्थ समझ में आ गया। शास्त्रीजी का चरणरज माथे पर लगाते हुए भैय्याजी फिर पुराने टॉपिक पर आ गए बोले- शास्त्रीजी उस चरणदसवा का क्या होगा  जो स्वर्ग से सीधे भारत भूमि में अवतरित हुआ और सुधार में लग गया। शास्त्रीजी ने  उवाचा - अभी कुछ नहीं हुआ, फिलहाल तेल देखो तेल की धार देखो। एक के बाद एक आए और चले गए। इस देश को सीधे भगवान चलाते हैं, वही आगे भी चलाते रहेंगे, चरणदास जैसे लोग आते और जाते रहेंगे। प्रभु ऐसी ही लीला रचाते रहेंगे जैसे कि किन्नरों के साथ रचाई। राजनीति अपनी लय-गति पर चलेगी, और उसे न आज कोई समझ पाया न भविष्य में ही समझ पाएगा क्योंकि वह ‘तड़ित की तरह चंचल व भुजंग की भांति कुटिल है।’

रामलीला मैदानः जिन्ना, जेपी, इंदिरा से केजरीवाल तक

 शनिवार, 28 दिसंबर, 2013 को 15:49 IST तक के समाचार
अरविंद केजरीवाल
नई दिल्ली का रामलीला मैदान आज़ादी की लड़ाई, पाकिस्तान पर जीत, इमरजेंसी, राममंदिर आंदोलन और जनलोकपाल जैसे अनगिनत ऐतिहासिक हलचलों का गवाह रहा है. लेकिन आमतौर पर आंदोलन के मूड में दिखने वाला रामलीला मैदान शनिवार को जीत की खुशी में झूम रहा था.
शनिवार को इसी रामलीला मैदान में मात्र बारह महीने पुरानी आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने और दिल्ली के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. और वे दिल्ली के सातवें मुख्यमंत्री बन गए.
यही वजह थी कि अन्ना के जनलोकपाल आन्दोलन के विपरीत इस बार पुलिस का रुख भी दोस्ताना था और मंच से अरविंद केजरीवाल के भाषण में भी सत्ता की नरमी महसूस की जा सकती थी.
जनलोकपाल आंदोलन करीब ढाई साल के अपने सफर में आंदोलन से राजनीतिक दर और फिर दिल्ली की सत्ताधारी पार्टी बन गया.
बदलाव के एक अन्य पहलू को इस बात से समझा जा सकता है कि रामलीला मैदान में छाई रहने वाली टोपी पर लिखा स्नोगन 'मैं भी अन्ना' से बदलकर 'मैं हूं आम आदमी' हो गया.
रामलीला मैदान में बड़ी तादात में जुटे समर्थक अरविंद के भाषण में क्रांति और ऐतिहासिक बदलाव की झलक देख रहे थे.
लेकिन दिल्ली का रामलीला मैदान तो जिन्ना, जयप्रकाश से लेकर बाबा रामदेव तक, अनगिनत आन्दोलनों और क्रांतियों के ऐलान और उनकी अंतिम परिणिति का गवाह रहा है.

सैनिक शिविर से हुई शुरुआत

कहा जाता है कि इस मैदान को अंग्रेज़ों ने वर्ष1883 में ब्रिटिश सैनिकों के शिविर के लिए तैयार करवाया था.
समय के साथ-साथ पुरानी दिल्ली के कई संगठनों ने इस मैदान में रामलीलाओं का आयोजन करना शुरू कर दिया, फलस्वरूप इसकी पहचान रामलीला मैदान के रूप में हो गई.
दिल्ली के दिल में इससे बड़ी खुली जगह और कोई नहीं थी इसलिए रैली जैसे बड़े आयोजनों और आम जनता से सीधे संवाद के लिए ये मैदान राजनेताओं का पसंदीदा मैदान बन गया.
गुलाम भारत और आज़ाद भारत के इतिहास में ऐसे मौकों की कोई कमी नहीं है जब रामलीला मैदान ने अपना नाम दर्ज न कराया हो.
इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान से युद्ध की जीत का जश्न इसी मैदान पर मनाया था
ये रामलीला मैदान देश के इतिहास के बदलने का गवाह रहा है.

आज़ादी की लड़ाई का गवाह

आज़ादी की लड़ाई के दौरान महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल और दूसरे नेताओं के लिए विरोध जताने का ये सबसे पसंदीदा मैदान बन गया था.
इसी मैदान पर मोहम्मद अली जिन्ना से जवाहर लाल नेहरू तक और बाबा राम देव से लेकर अन्ना हज़ार तक सारे लोग इसी मैदान से क्रांति की शुरुआत करते रहे हैं.
कहा तो ये भी जाता है कि यही वो मैदान है जहां वर्ष 1945 में हुई एक रैली में भीड़ ने जिन्ना को मौलाना की उपाधि दे दी थी.
लेकिन मोहम्मद अली जिन्ना ने मौलाना की इस उपाधि पर भीड़ से नाराज़गी जताई और कहा कि वो राजनीतिक नेता है न कि धार्मिक मौलाना.
इस मैदान का इस्तेमाल सरकारी रैलियों और सत्ता के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने जैसी दोनों ही परिस्थितियों में किया गया.
दिसंबर 1952 में रामलीला मैदान में जम्मू-कश्मीर के मुद्दे को लेकर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने सत्याग्रह किया था. इससे सरकार हिल गई थी. देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने साल 1956 और 57 में मैदान में विशाल जनसभाएं की.
जयप्रकाश नारायण ने इसी मैदान से कांग्रेस सरकार के ख़िलाफ़ हुंकार भरी थी

ब्रिटेन की महारानी का संबोधन

28 जनवरी, 1961 को ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ ने रामलीला मैदान में ही एक बड़ी जनसभा को संबोधित किया था.
26 जनवरी, 1963 में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की उपस्थिति में लता मंगेशकर ने एक कार्यक्रम पेश किया.
वर्ष 1965 में पाकिस्तान के खिलाफ लड़ाई में तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने इसी मैदान पर एक विशाल जनसभा में 'जय जवान, जय किसान' का नारा एक बार फिर दोहराया था.
साल 1972 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बांग्ला देश के निर्माण और पाकिस्तान से युद्ध जीतने का जश्न मनाने के लिए इसी मैदान में एक बड़ी रैली की थी और जहां उन्हें जनता का भारी समर्थन मिला था.
25 जून 1975 को इसी मैदान पर लोकनायक जय प्रकाश नारायण ने विपक्षी नेताओं के साथ ये ऐलान कर दिया था कि इंदिरा गांधी की तानाशाही सरकार को उखाड़ फेंका जाए.

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है

ओजस्वी कवि रामधारी सिंह दिनकर की प्रसिद्ध पंक्तियां, "सिंहासन खाली करो कि जनता आती है" यहाँ गूँजा और उसके बाद विराट रैली से डरी सहमी इंदिरा गांधी सरकार ने 25 -26 जून 1975 की दर्मयानी रात को आपातकाल का ऐलान कर दिया था.
फरवरी 1977 में विपक्षी पार्टियों ने एक बार फिर इसी मैदान को अपनी आवाज़ जनता तक पहुंचाने के लिए चुना.
जनता पार्टी के बैनर तले बाबू जगजीवन राम के नेतृत्व में कांग्रेस छोड़कर आए मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह और चंद्रशेखर के साथ भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन रूप जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी इसी मैदान के मंच पर एक साथ नज़र आए.
1980 और 90 के दशक के दौरान विरोध प्रदर्शनों की जगह बोट क्लब बन गई थी लेकिन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के कार्यकाल के दौरान बोट क्लब पर प्रदर्शन पर रोक की वजह से इसी मैदान को भारतीय जनता पार्टी ने राम मंदिर आंदोलन के शंखनाद के लिए चुना.
यहां पर कांग्रेस, भाजपा सहित अन्य दलों, संगठनों व धार्मिक संगठनों के कई ऐतिहासिक कार्यक्रम होते रहे हैं.
ये वो ही रामलीला मैदान है जहां बाबा रामदेव ने काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ अपना अनशन किया था लेकिन 5 जून 2011 उनके अनशन पर दिल्ली पुलिस ने लाठियां बरसा कर उन्हें वहां से हरिद्वार भेज दिया था.
भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है, कोई नहीं जानता लेकिन हम इतना तो कह ही सकते हैं कि देश की सरकारें बदलती रही हैं लेकिन रामलीला मैदान वहीं का वहीं है.

Thursday, December 19, 2013

चरणदास चोर का धर्मसंकट

यह चरणदास चोर के पुनर्जन्म और आगे की कथा है। इसे ‘आधुनिक भारत का भविष्य पुराण’ के रचयिता आचार्य रामलोटन शास्त्री ने हाल ही में भैय्या जी को सुनाई है। पहले संक्षेप में चरणदास चोर की असली कथा सुने, जिस पर फिल्में बनीं और देश-दुनिया भर में नाटक खेले गए। यह छत्तीसगढ़ी लोककथा है, जिसे पहली बार हबीब तनवीर साहब मंच तक लाए। चरणदास चोर ऐसे चोर की कहानी है, जो मजाक ही मजाक में अपने गुरुजी को सच बोलने का वचन दे देता है और इसके साथ ही चार प्रतिज्ञाएं भी करता है। प्रतिज्ञाएं थीं कि कभी सोने की थाली में खाएगा नहीं, न ही कभी किसी रानी से शादी करेगा, कभी हाथी में बैठकर जुलूस में भी नहीं निकलेगा, न ही कभी किसी देश का राजा बनेगा। एक चोर की इन प्रतिज्ञाओं का आशय कोई भी समझ सकता है कि जो नामुमकीन है, प्रतिज्ञाएं उससे जुड़ी हैं।  एक दिन गजब हो गया। वह राजमहल के खजाने में चोरी करने गया। रानी ने उसे देख लिया। चोर ने सब कुछ सच-सच बता दिया। रानी इतनी प्रभावित हुई कि उसे अपना दिल दे बैठी। उसने सोने की थाली में भोजन परोसा, चरणदास ने मना कर दिया। फिर उसकी साफगोई और सम्मान के लिए हाथी पर बैठाकर जुलूस निकालने का प्रस्ताव दिया-चोर ने इसे भी ठुकरा दिया। रानी ने कहा, आधा राज्य उसके नाम लिख दिया जाएगा। प्रतिज्ञाबद्ध चोर ने इसे स्वीकार नहीं किया और अंतत: जब उसने रानी के विवाह का प्रस्ताव भी अस्वीकार कर दिया तो कुपित रानी ने उसे मौत की सजा सुना दी। चोर ने अपने गुरु का वचन निभाते हुए मौत को गले लगा लिया। 
चरणदास चोर के पुनर्जन्म और आगे की कहानी अब शुरू होती है। आचार्य रामलोटन शास्त्री ने जजमान भैय्या जी को कथा का मर्म समझाते हुए कहा- चरणदास चोर की आत्मा को लेकर स्वर्ग एवं नरक के दूतों में झगड़ा हुआ। नारद जी के हस्तक्षेप के बाद चरणदास चोर की आत्मा को ससम्मान उसी तरह स्वर्ग ले जाया गया, जैसा कि अजामिल कसाई और गणिका पतुरिया को ले जाया गया था। चोर की ईमानदारी और गुरु के प्रति वचनबद्धता स्वर्गलोक में चर्चा का विषय बनी रही। मृत्युलोक में चोरी कर परिवार पालने वाले को वहां देवी-देवताओं को ईमानदारी और दृढ़संकल्प की शिक्षा देने के लिए नियुक्त किया गया। इंद्र और चंद्रमा जैसे छली प्रपंची उसके शिष्यों में थे। चरणदास को हरिश्चंद्र और महात्मा गांधी वाले अतिथि गृह में जगह दी गई। यहां कभी-कभी सुभाषचंद्र बोस और जयप्रकाश नारायण भी आया करते थे। चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह जब कभी भारत की दुर्दशा की खबरों से उद्विग्न होते तो वे भी महात्मा गांधी से फरियाद करने आ जाया करते थे। पिछले जन्म में चोरी जैसे वर्जित कर्म से लज्जित चरणदास के हृदय में इच्छा जागी- क्यों ना एक बार भारत जाकर मातृभूमि की सेवा की जाए। भ्रष्टाचार और अराजकता के खिलाफ कुछ किया जाए। इससे पूर्व जन्म के कुकृत्यों का प्रायश्चित भी हो जाएगा और देश की कुंठित तरुणाई को नई राह भी मिल जाएगी। चरणदास की इस इच्छा के प्रति स्वर्ग में निवास कर रहे सभी भारतीय महापुरुषों, क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने सहमति व्यक्त की। एक प्रतिनिधिमंडल भगवान से मिला और उन्हें चरणदास के पुनर्जन्म के लिए राजी किया...। इतनी कथा सुनाने के बाद शास्त्री जी चुप हो गए। जजमान भैय्या जी ने पूछा- आगे क्या हुआ। शास्त्री जी ने परंपरा के अनुसार दक्षिणा और नवग्रहों के दान का आग्रह किया। भैय्या जी के एवमस्तु कहने के बाद कथा आगे बढ़ी। 
तो चरणदास चोर भारत भूमि में एक आम आदमी के घर में आम आदमी के शिशु की भांति किलकारी भरते हुए पैदा हुए। उनका पालन-पोषण भी आम आदमी  की भांति हुआ। भगवान की अनुकंपा और स्वर्गीय भारतीय महापुरुषों के आशीर्वाद की वजह से चरणदास बचपन से ही मेधावी निकले। मां-बाप ने नए चलन के हिसाब से उनका नामकरण किया। वे नए नाम से जाने गए। मेधावी होने की वजह से उन्हें उच्च संस्थान में पढ़ने का मौका मिला। सरकारी वजीफे ने उनकी आर्थिक समस्या का हल कर दिया। पढ़ने के बाद वे उच्च नौकरी के लिए चुन लिए गए। वे नौकरी में रम ही रहे थे कि स्वर्ग से मैसेज मिला कि जिस काम से गए हो, वो अब करो। चरणदास नए अवतार में नौकरी पर चरण प्रहार करते हुए आम आदमी के बीच आ गए।  पूर्व जन्म की भांति एक गुरु का चयन किया। गुरु ने पहला संकल्प दिलवाया- जनता के लिए लड़ना, लेकिन न राजनीति करना और न राजनीति में जाना। गुरु ने शिष्य को आगे करके एक बड़ा प्रभावशाली आंदोलन चलाया। इस आंदोलन से चेला छा गया। चेला को लगा कि गुरु तो धेला भर का है, असली तो मैं हूं। गुरु द्वारा दिलाए गए संकल्प पर चरण प्रहार करते हुए चेले ने राजनीति भी करनी शुरू कर दी और पार्टी भी बना ली। चूंकि चेला था तो ईमानदार और हृदय में चरणदास जैसा दृढ़ संकल्प, इसलिए आम आदमी उसे अपना हीरो मानने लगे। चेले की नजर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर लग गई। 
ये नजर किसी तांत्रिक की मूठ से कम घातक नहीं थी। चुनाव हुआ तो वह कुर्सी उसी तरह मुरझा गई, जैसे कि तांत्रिक मूठ से हराभरा पेड़ मुरझा जाता है। चेले की पार्टी ने चुनाव में आम आदमी को रियायतों का ऐसा सब्जबाग दिखाया कि सामने वाली पार्टी सूखे पत्ते की तरह उड़ गई। जो पत्ते राजपथ पर पड़े भी मिले, उस पर तबियत से झाडूÞ फेर दिया गया। फिलहाल कथा को यही विश्राम देंगे, क्योंकि इस चरणदास के आगे गहरा धर्मसंकट आ गया है- पहला, गुरु के संकल्प की भांति जनता के प्रति संकल्पों पर चरण प्रहार कर उनसे हाथ मिला ले, जिनसे लड़ने के लिए उसे स्वर्ग से यहां भेजा गया था या फिर जनता के साथ संकल्पों की माला भजते हुए खड़ा रहे। अब क्या किया जाए, यही तो धर्मसंकट है।     

Sunday, December 15, 2013

एक उम्मीदवार की चुनाव-व्यथा

मुद्दतों बाद महात्मा गांधी ने सोचा कि भारतवर्ष में जाकर क्यों न चुनाव लड़ कर देखा जाए कि अब क्या हाल है। पुनर्जन्म की झंझट में फंसे बिना वे अपने अनुयायी दादूदयाल दयापति की आत्मा में प्रवेश कर गए और टिकट की अर्जी दिलवा दी। दयापति आलाकमान के फॉर्मूले से निकले ऐसे उम्मीदवार हैं जिन्हें भीषण विचारमंथन के बाद टिकट दी गई थी। यह टिकट उन निंदकों के मुंह पर तमाचा थी, जो प्राय: कहा करते थे कि राजनीति बेईमानों की बपौती बन चुकी है और नागनाथ-सांपनाथ के अलावा कोई विकल्प नहीं। दयापति ईमानदारी में हरिश्चंद्र, समाजसेवा में बिनोवा भावे, विद्वता में विवेकानंद हैं, आत्मा में गांधी घुसे ही हैं। टिकट घोषित होने के बाद दयापति जी जैसे ही पार्टी कार्यालय पहुंचे उनकी आंखें फटी रह गर्इं। देखा कि पार्टी दो गुटों में बदल चुकी है। असंतुष्ट गुट की बैठक वहां चल रही थी। उनके कान में जैसे ही सुनाई दिया कि - आलाकमान अंधा हो गया है... दयापति जैसे सड़ियल उम्मीदवार को उतारकर खुदकुशी की है... हम  लोग उसे हरगिज नहीं जीतने देंगे। बेचारे दयापति ऐसे कटुवचन सुनते ही उल्टे पांव भागे और सीधे आलाकमान के दफ्तार पहुंचे। घुसते ही पार्टी प्रवक्ता से सामना हो गया। प्रवक्ता उन्हें देखते ही बोल पड़ा- दयापति जी आपने तो पार्टी को कहीं का नहीं छोड़ा। जब आप पर इतने एलीगेशन थे तो पहले हिंट क्यों नहीं किया? दयापति बोले - मतलब! फाइल के पुलिन्दे निकालता हुआ प्रवक्ता बोला - ये हैं आपके खिलाफ फ्रॉडगीरी के दस्तावेज, बड़े छुपे रुस्तम निकले! ये हलफनामा देख रहे हैं न - यह एक महिला का है जिसका कहना है कि आपके उससे अवैध संबंध रहे हैं, एक औलाद भी है। उसने डीएनए टेस्ट कराने की मांग की है। दरअसल दयापति जी के आलाकमान पहुंचने के पहले ही एलीगेशन पहुंच चुके थे।  

तभी आलाकमान का बुलावा आया। आलाकमान दरअसल कुछ नहीं, ये जनता द्वारा रिजेक्टेड कुछ बुद्धिविलासियों का छोटा सा समूह होता है जो राजनीति का ज्ञान बघारता है और सुप्रीमों की कृपा से राज्यसभा की सांसदी को भोगता है। चूंकि दयापतिजी को टिकट देने का राजनीतिक नवाचार सुप्रीमों ने ही किया था इसलिये आलाकमान का दायित्व बनता है कि वे दयापति को पूरा सपोर्ट करें। गांधी टोपी लगाए एक बुजुर्ग आला मेम्बर ने कहा - दयापति जी आप घबराइये नहीं, राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप चलते ही रहते हैं। झूठ के पांव नहीं होते, क्षेत्र की जनता आपको चुनकर निंदकों को करारा जवाब दे देगी। प्रदेश व जिला वालों को अभी कहे देता हूं, किसी ने चू-चपड़ की तो उन्हें शंट कर दिया जाएगा। दयापति जी को सामने चुनाव दिख रहा था। उन्होंने वक्त जाया करना ठीक न समझा। उल्टे पांव क्षेत्र में लौट आए। पार्टी कार्यालय पहुंचे तो माहौल बदला सा था। सभी असंतुष्ट अचानक संतुष्ट हो चुके थे। पार्टी अध्यक्ष ने कहा - दयापति जी पूरा संगठन आपके साथ है - चुनाव लड़िये दिल खोलकर - फिर हें.. हें.. करता हुआ अन्य पदाधिकारियों को आंख मारी। एक पदाधिकारी उठा और दयापति के कानों में बुदबुदाने लगा - दयापति जी विचलित होकर लगभग चीख उठें - सुनिये हम वोटरों को दारू-दक्कड़ न बांटेंगे न बांटने देंगे। दरअसल पदाधिकारी एक गाड़ी और दारू के लिए बीस हजार रुपये मांग रहा था। दयापति अपने घर पहुंचे तो देखा नात-रिश्तेदार उनकी दलान में जमा थे। उनके एक बड़बोले भतीजे ने कहां - क्यों फूफाजी पार्टी ने अच्छा माल-टाल दिया होगा... इधर भी कुछ ढीलिये तब न निकलेंगे प्रचार में। इस बीच गांव का सरपंच आ गया। दयापति को एक कोने ले जाकर बोला, गांवों की दलित बस्ती मुझे सौंप दीजिये आप आगे की देखिये। फिर रुककर बोला, हमने हिसाब लगाया है, दारू, कम्बल व वोट के दिन भोजन भंडारे का कोई सवा तीन लाख रुपये का खर्चा है। दयापति सरपंच से निपटते कि उनके एक पुराने साथी आ गए। जो हाल ही में पटवारी से रिटायर हुए थे। टीटीएस (तीन तेरा सवा लख्खी) और डिएमटियों को एक कर दिया जाए तो चुनाव निकला समझिए। दयापति यह कह पाते कि मुझे जातीय आधार पर चुनाव नहीं लड़ना है, रिटायर्ड पटवारी बोल पड़ा - उधर ठाकुर, पटेल, दलित सब लामबंद हो रहे हैं। चलिये ज्यादा देर नहीं - पांच गाड़ियों व उनके डीजल के खर्चे का प्रबंध करिये सब मैनेज हो जाएगा। दयापति को दिन में ही हरिश्चंद्र, बिनोवा, विवेकानंद सपने में आने लगे। अदृश्य आवाज गूंजी इन सबको छोड़कर अकेले ही आगे बढ़ो, यानि एकला चलो। दयापति ने सभी से माफी मांगी व अकेले ही वोट मांगने निकल पड़े। वे उस गांव में गए जिस गांव में स्कूल व सड़क बनवाने के लिये संघर्ष किया था। प्रवेश करते ही दो युवक मिले। दयापति उनसे वोट की अपील करते कि वे गाड़ी के पिछवाड़े कुछ तलाश करने लगें। भई कुछ है, दारू-सारू है कि वैसे ही भिखमंगे की तरह निकल पड़े वोट मांगने। तरुणाई की इस ढिठाई पर दयापति को बड़ा कष्ट हुआ। वे बोले बेटा तुम लोग भारत के भविष्य हो - नया इतिहास गढ़ो हमारे साथ मिलकर। दोनों युवक बोल पड़े - आपने हमें बुद्धू समझ रखा है क्या? तमाम चंदा लेकर माल अकेले ही पेल जाना चाहते हो। तुमसे तो अच्छा वो परदेसीलाल है जो ढोंग तो नहीं करता। दयापति खेत की मेड़ पर भारत के भविष्य के बारे में सोच ही रहे थे कि भैय्याजी आ धमके।  दयापति जी, कुछ पैकेज वैकेज है! दयापति ने कहा, हमारी सरकार बन जाने दो इस क्षेत्र के विकास का स्पेशल पैकेज दिलवाएंगे। भैय्या जी ने कहा, पब्लिसिटी का पैकेज, जीतना है तो प्रेस को मैनेज करना पड़ेगा। ये पैकेज उल्टी खबरों को सीधा करके आप की पब्लिसिटी को सही लाइन पर ले जाएगा। दयापति के सामने लोकतंत्र का चौथा खंभा हिलते हुए दिखने लगा। कहीं सिर पर ही न गिर पड़े, वे वहां से आगे बढ़ लिये। तभी एक तेज बदबू का झोका उनकी नाक में घुसा। आंखें फेरी तो उनकी पार्टी के पदाधिकारी, विरोधी प्रत्याशी के साथ जाम लड़ाते हुए चहक रहे थे, डीएनए टेस्ट का दावा करने वाली वो महिला मटक रही थी। यह वाकया मतदान के एक दिन पहले का था। उन्होंने आसमान की ओर देखा, तो हरिश्चंद्र, बिनोवा, विवेकानंद की आंखों से आंसू झर रहे थे। आंसुओं की बारिश से दयापति भीग गए। ऐसे लगा कि उनका एक बार फिर कायान्तरण हो रहा है... वे तेजी के साथ राजघाट की ओर उड़ चलें।

इस चुनाव से निकले बुनियादी सबक

इस चुनाव की पृष्ठभूमि और उसके संदर्भ से तीन बड़े बुनियादी सवाल उभरे हैं जिन पर गंभीरता से विमर्श की जरूरत होगी। पहला: चुनाव में प्रचार की भाषा आरोप-प्रत्यारोप की हदें और टूटती वर्जनाएं। दूसरा: देश-प्रदेश के निर्माण, महंगाई व युवाओं के मुद्दों पर पार्टियों का पलायनवादी रुख। तीसरा: कानून व्यवस्था, कर्तव्यपरायणता के प्रति सरकारों की गैरजवाबदेहिता।  तेरह दिन बाद फिर किसी न किसी की सरकार बनेगी पर क्या चेहरा बदल जाने या वही रहने से कुर्सी का चरित्र बदलेगा इस बार भी यही देखने सुनने का इंतजार है। 

ते रह दिन बाद यह तय हो जाएगा कि शिवराज सरकार की हैट्रिक बनती है या कांग्रेस की फिर वापसी होती है। यह भी साफ हो जाएगा कि प्रदेश में दो धु्रवीय राजनीति की निरंतरता बनी रहती है या कि खण्डित जनादेश निकलकर सामने आता है। इन तरह दिनों में जीत-हार का सट्टाबाजार चढ़ता-उतरता रहेगा। मतदाताओं का मौन सबको हैरत में डालने वाला है। यह भी देखना होगा कि मतदान के ज्यादा प्रतिशत में इनकंबेन्सी फैक्टर है या सरकार की उपलब्धियों के साथ। इस बीच मीडिया के सर्वे और चैनलों के पैनलियों का बुद्धिविलास भी जारी रहेगा। अचानक आई खबर शून्यता की भरपाई भी विश्लेषण और भावी सरकार के स्वरूप के आंकलन के जरिए भरी जाती रहेगी। 
इस चुनाव की पृष्ठभूमि और उसके संदर्भ से तीन बड़े बुनियादी सवाल उभरे हैं जिन पर गंभीरता से विमर्श की जरूरत होगी। पहला: चुनाव में प्रचार की भाषा आरोप-प्रत्यारोप की हदें और टूटती वर्जनाएं। दूसरा: देश-प्रदेश के निर्माण, महंगाई व युवाओं के मुद्दों पर पार्टियों का पलायनवादी रुख। तीसरा: कानून व्यवस्था, कर्तव्यपरायणता के प्रति सरकारों की गैरजवाबदेहिता। 
बात शुरू करते हैं प्रचार की भाषा और आरोप-प्रत्यारोपों की वर्जनाओं को लेकर। अक्टूबर में हमने एक बात की ओर संकेत किया था कि इस चुनाव में मर्यादाएं भी तार-तार होंगी और वर्जनाएं भी टूटेंगी। इसके पीछे ठोस वजह यह थी कि नरेन्द्र मोदी की भोपाल महारैली के प्रचार की जो होर्डिंग्स राजधानी के चौराहों पर लगाई गई थी उन पर लिखा था- ये युद्ध आर-पार है, अब अंतिम प्रहार है। अटल बिहारी वाजपेयी की किसी अन्य संदर्भ में लिखी गयी कविता की इस पंक्ति का प्रयोग करके भाजपा ने यह संकेत दे दिया था कि प्रचार के मामले में वह किसी भी हद तक जा सकती है। चुनाव प्रचार के विज्ञापनों की इबारत यह बताती है कि उसने अपने इस धर्म का बखूबी से निर्वाह किया। जब एक पक्ष घिनौनेपन पर उतर आता है तो दूसरे पक्ष के पास दो ही विकल्प बचते हैं या तो वह पलायन करे या फिर नहले पर दहले के अन्दाज में जवाब दे। भाजपा के विज्ञापन की इबारत के साथ, मनमोहन सिंह, सोनिया-राहुल, रॉबर्ट वाड्रा के अलावा प्रदेश के प्रमुख नेताओं के पेक्टोग्राम उभारे गए। कांग्रेस तो वैसे ही इस खेल में माहिर है, उसने शिवराज सिंह और उनके परिवार को निशाने पर रखा, आमतौर पर अब तक जिन बातों को पब्लिक के बीच में लाने से परहेज किया जाता रहा, भाजपा-कांग्रेस दोनों ने अपने विज्ञापनों व मंचीय भाषणों के जरिए प्रस्तुत किया। 
प्रचार अभियान और भाषणों में किसी भी पक्ष ने गंभीरता व तार्किकता नहीं दिखायी। भाजपा ने इसे आर-पार का युद्ध और अंतिम प्रहार के साथ शुरू किया, लेकिन युद्ध की भी मर्यादाएं तय हैं, इस बार उनका लिहाज नहीं रखा गया। किसी जमाने में राजनीतिक दल समविचारधारा के लेखकों व बौद्धिकों से प्रचार साहित्य तैयार करवाते थे, अब वही काम विज्ञापन एजेन्सियां करने लगीं, और उनकी सोच ‘ठंडा मतलब कोका कोला या ये प्यास है बड़ी’ से आगे कुछ जाता ही नहीं। देश प्रसिद्ध भोपाली शायर बशीर बद्र ने सत्तर के दशक में लिखा था ‘दुश्मनी जमकर करो पर इतनी गुंजाइश रहे, जब कभी हम दोस्त हो जाएं तो शर्मिंदा न हों। ’ दिसम्बर में सरकार बन जाएगी। पक्ष व प्रतिपक्ष में यही सब लोग चुनकर पहुंचेंगे; सोचता हूं कि एक-दूसरे की नजरों का कैसा सामना करेंगे... पर जब आंखों का पानी ही मर गया हो तो ऐसे सवाल उठाना बेमतलब है। 
दूसरी बात इस चुनाव में दोनों राजनीतिक दलों ने अपने-अपने घोषणापत्रों में वायदों की झड़ी सी लगा दी। मुफ्त सेवाओं और योजनाओं के ऐसे सब्जबाग दिखाए गए हैं कि यदि इन दोनों में से किसी की भी सरकार बनी और वायदों पर वाकई अमल किया तो प्रदेश कंगाल हो जाएगा और यहां के निम्न मध्यमवर्ग के लोग निकले और नकारा। एक पार्टी ने एक दिन की मजदूरी में माहभर के राशन का प्रबंध किया है तो दूसरी पार्टी का वायदा है कि वो मुफ्त में महीने भर का राशन देगी। ऊर्जा जैसी गंभीर समस्या जिससे प्रदेश अब तक उबर नहीं पाया है, उसे गरीबों व किसानों के बीच मुफ्त में बांटे जाने के वायदे किए गए हैं। किसी भी राजनीति दल ने उस वर्ग की चिन्ता नहीं की जिसके टैक्स से राजस्व जुटाया जाता है। घोषणापत्रों में ऐसे छिछोरे वायदे राजनीतिक दलों के मानसिक दिवालियापन और वोट के लिए किसी भी हद तक जाने की होड़ नजर आती है। 
प्रदेश सरकार पर 89 करोड़ रुपयों का कर्ज है। इस कर्ज का न तो किसी राजनीतिक दल ने जिक्र किया और न जनता के सामने ऐसी कोई योजना प्रस्तुत की गई कि वायदों को पूरा करने के लिए आर्थिक संसाधन कहां से जुटाए जाएंगे।   कानून-व्यवस्था का हाल क्या है यह बताने की जरूरत इसलिए नहीं कि प्रचार अभियान में नेशनल क्राइम ब्यूरो आॅफ रेकार्ड के आंकड़े खूब प्रचारित हुए खासतौर पर महिलाओं के अत्याचार के सम्बन्ध में। शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले में भी प्रदेश की स्थिति और दयनीय है। जिस तरह देश का कोई भी राष्टÑीय संस्थान या विश्वविद्यालय दुनिया के श्रेष्ठ 200 संस्थानों में शामिल नहीं, उसी तरह मध्यप्रदेश का कोई भी संस्थान देश के 100 सर्वश्रेष्ठ संस्थानों में नहीं आता। निजी व्यवसायिक कॉलेजों की बेहिसाब संख्या तो है पर सड़क छाप फैकल्टी के चलते 20 में से एक छात्र ही दक्ष व काम लायक निकल  रहा है। भोपाल के रेस्त्राओं और शोरूम्स में एमबीए पास लड़के 5 से 10 हजार की नौकरी करते मिल जाएंगे। व्यवसायिक डिग्रियों का इतना अवमूल्यन हुआ है कि पूछिए मत। एक ओर जहां दिल्ली के श्रीराम कॉलेज आॅफ कॉमर्स के छात्र प्लेसमेंट और पैकेज के मामलों में आईआईएम अहमदाबाद के छात्रों से टक्कर ले रहे हैं वहीं अपने प्रदेश के निजी और सरकारी कालेजों से निकले कॉमर्स व इकोनामिक्स के छात्रों को संविदा शिक्षक तक की नौकरियों के लाले पड़े हैं। युवाओं की इस चिन्ता का जिक्र किसी भी राजनीतिक दल ने न अपने घोषणापत्रों में की न ही चुनाव में बहस का मुद्दा बनाया। डॉक्टरों की इतनी कमी है कि औसतन 10 किलोमीटर की परिधि में सरकारी अस्पताल नहीं स्थापित हो पाए हैं। जो सरकारी अस्पताल हैं भी उनमें से अधिसंख्य में कम्पाउन्डर और नर्स ही विशेषज्ञों का काम कर रहे हैं।  कुपोषण, नवप्रसूता व शिशुओं की मृत्युदर भी भयावह है। चुनाव में स्वास्थ्य सुरक्षा को लेकर भी किसी ने कोई चिन्ता व्यक्त नहीं की। बौद्धिकता के विकास और भौतिक तरक्की के इस दौर में यह चुनाव, नेताओं के विषवमन, रुदन और मसखरेपन के लिए जाना जाएगा। 
तीसरी बात चुनाव की आचार संहिता लागू होने के बाद कानून व व्यवस्था की जो स्थिति रही उससे यह सवाल खड़ा होता है कि क्या प्रशासनिक अराजकता के लिए वे राजनीतिक दल जिम्मेदार होते हैं जो सत्ता या विपक्ष में बैठते हैं। लगभग डेढ़ महीने तक प्रशासन पर चुनाव आयोग का नियंत्रण चला। इस दरम्यान प्रशासन चुस्त दुरुस्त व कानून व्यवस्था चाक चौबन्द दिखीं। अपराधिक घटनाएं लगभग थमी रहीं। कदाचरण, भ्रष्टाचार व अन्य मामले की उभरकर नहीं आए। वजह, प्रशासन नेता, मंत्रियों के दखल से काफी कुछ हद तक निरपेक्ष रहा। ताकतवर राजनेताओं को भी अधिकारियों व कर्मचारियों से दो टूक सुननी पड़ी जबकि सामान्य दिनों में यही प्रशासन सत्ताधीशों की जूतियां चमकाने या बेगार करने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। सबक यह कि क्या पूरे पांच वर्ष तक ऐसा प्रशासन नहीं चल सकता जो कि आदर्श चुनाव संहिता के दरम्यान चलता है। यदि ऐसा नहीं तो सीधा मतलब यह कि प्रशासनिक अराजकता और बदहाल कानून-व्यवस्था के लिए सियासीदल ही जिम्मेदार हैं। तेरह दिन बाद फिर किसी न किसी की सरकार बनेगी पर क्या चेहरा बदल जाने या वही रहने से कुर्सी का चरित्र बदलेगा इस बार भी यही देखने सुनने का इंतजार है। 
- लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी संपादक हैं।
   सम्पर्क सूत्र- 09425813208.

डेमोक्रेसी की पीठ पर शनि की अढैय्या

अपने देश की दो और खास बातें हैं जो दुनिया में कहीं नहीं। पहली आईबी यानी कि इन्टेलीजेन्स ब्यूरो और दूसरी ज्योतिष। इन दोनों के आंकलन कभी मिथ्या नहीं होते। जैसे मुंबई हमले के बाद आईबी ने कहा- कि मैंने पहले ही कहा था कि हमला होगा, तो हुआ। मान लीजिए हमला नहीं होता तब भी आईबी सही होती यह कहते हुए कि- हमने चेतावनी दी थी इसलिए सब संभल गया नहीं तो हमला तय था। ज्योतिष को भी यही मान लीजिए। ज्योतिष के अनुसार भाजपा और कांग्रेस दोनों की सरकारें बन सकती हैं। दोनों को बता रखा है कि शुक्र पर शनि की वक्रदृष्टि है जिसने इसे सम्हाल लिया मानों उसकी सरकार बन गयी। भाजपा की बन गई तो समझो उनका शुक्र इतना प्रबल था की शनि की वक्रदृष्टि फेल हो गई और कांग्रेस की बनी तो समझिए कि उन लोगों ने शनि को पटा लिया। रामलाल जीतें कि श्यामलाल, ज्योतिषियों की चांदी ही चांदी है, क्योंकि अंतत: ज्योतिष तो जीत ही रही है न। हर प्रत्याशी किसी न किसी ज्योतिषी का जजमान है। कुर्ते की ऊपरी बटन खोल दो तो पूरा गला गंडे-ताबीज से भरा मिलेगा। जिसके हाथ में लाल-पीले-काले रक्षासूत्र, कलावा बंधे मिलें समझिए ये ही आपके इलाके का नेता है। एक बार ज्योतिषी ने एक मंत्री जी को बता दिया कि राहू आपके पीछे पड़ा है इसलिए.. राहू से बचने के लिए मंत्रीजी ने लंबी चोटी रख ली। जोकरों जैसा हुलिया और हर मंच में भजन गाते-गवाते प्रदेश का विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग को बखूबी संभाला। ज्योतिषी ने फिर चेतावनी दी कि अब राहू आपको छोड़कर आपके क्षेत्र में बैठ गया है। मंत्रीजी कुछ कर पाते कि चुनाव आ गया, अब वो हार जाते हैं तो समझो राहू ने हरा दिया और जीत जाते हैं, तो समझो बजरंगबली ने राहू को दबोच रखा था इसलिए जीत गए। बजरंगबली को पटाने के लिए ज्योतिषी के बताए अनुसार मंत्रीजी ने बजरंगबली की चमेली के तेल से मालिश की थी और सिन्दूर का चोला चढ़ाया था। अन्डर-वियर से लेकर रुमाल तक सब लाल ही लाल। लाल देह लाली लसै। ज्योतिषी दूसरे जजमान से बता रहा था कि यदि मंत्रीजी अपना मुंह भी लाल रंग से रंग लेते तो जीत पक्की थी। वे शरमा गए सो डाउटफुल है।

अपने यहां जनता न किसी को हराती है न जिताती है। वह होती कौन है? जीत हार का फैसला चौसठ करोड़ देवी देवता, ग्रह, नक्षत्रों की चाल और ज्योतिषियों के पैंतरे तय करते हैं। इस बार भी वही कर रहे हैं। जनता को नेता भजें भी तो क्यों? जब शनि-शुक्र, राहु-केतु हैं तो पांच साल इन्हें भजो। हमारे शहर में एक शमी का पेड़ था। किसी ने फैला दिया कि यह शनि का साक्षात अवतार है। बस क्या.. शनि की दशा के मारे लोग सरसों का तेल लेकर शमी पर सवार शनिदेव को हर शनिवार प्रसन्न करने में जुट गए। देखा-देखी इतना तेल चढ़ाया, इतना तेल चढ़ाया कि किसी का शनीचर भले न उतरा हो पर बेचारा हरा-भरा शमी का पेड़ मर गया। बचपन में बताया गया था सुबह-सुबह तेली (यहां जाति से आशय नहीं बल्कि गांवों में घूम-घूमकर तेल बेचने वाले से है) का मुंह देखना अशुभ होता है। खुदा-न-खाश्ता दिख जाए तो उसका दांत देखने से अशुभ-शुभ में बदल जाता है। हम साथियों के साथ घर से स्कूल के लिए निकलते थे अक्सर कोई न कोई तेल बेचते दिख जाता था। फिर हम लोग उसका दांत देखने के लिए स्कूल न जाकर एक गांव से दूसरे गांव तक पीछा करते थे। चिढ़ाने और तंग करने के बाद भी जब वह मुंह न खोलता- तो विनती करते थे- तेली कक्का दांत दिखा दो नहीं तो हमारी पढ़ाई चौपट हो जाएगी। वह प्यार से डांटता व कहता किसी का मुंह देखना कैसे शुभ-अशुभ हो सकता है? लौटकर जब देरी से स्कूल पहुंचते तो मस्साब छड़ी लिए स्वागत के लिए खड़े मिलते। स्कूल के आंगन में लगे अमरूद वे खाते और उसकी छड़ी हम लोग। तेली कक्का का दांत-दर्शन कभी छड़ी से नहीं बचा पाया। 
अपने यहां टोने-टोटके विज्ञान की भी चाभी घुमा देते हैं। अभी खबर पढ़ी थी कि मंगल मिशन शुरू करने से पहले निदेशक साहब देवदर्शन करने गए थे। मंगल मिशन सफल हो गया तो सफलता का श्रेय भला उन वैज्ञानिकों को कहां मिलने वाला? वो तो देवकृपा थी। गालिब ने बड़ी बिन्दास लाइनें लिखीं- जाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठकर, या वो जगह बता जहां पर खुदा न हो। रोम-रोम में राम, कण-कण में भगवान। ईश्वर की सर्वव्यापकता की यही व्याख्या पढ़ते आए हैं। पर घर से निकलते हैं तो दिशाशूल, गोचर, दिन का मुहूरत आड़े आ जाता है। रास्ते से बिल्ली निकली तो 50 लाख की मर्सिडीज खड़ी हो गई सड़क पर यह ताकते हुए कि पहले कोई दूसरा रास्ता काटे। देरी से फ्लाइट छूट जाए या अरबों की डील टूट जाए, बिल्ली सब पर भारी। अपने सूबे के एक ऐसे मुख्यमंत्री हुए जो चुनाव में पर्चा भरने निकले तो काली बिल्ली रास्ता काट गई। काफिला रुक गया। काली हंडी का तांत्रिक उपचार हुआ, पर्चा भरने के बाद। मुख्यमंत्री का चुनाव मुकाबले में फंस गया। ज्योतिषीजी ने फरमा दिया- कहा था न अपशगुन हो गया है मुश्किल तो आएगी। मंत्रीजी मुश्किल से जीते पर इसका श्रेय जागरुक वोटरों को नहीं उस काली बिल्ली को मिला। 
इस चुनाव में भी उम्मीदवारों ने ऐसे ही टोटके किए। ज्योतिषी ने एक उम्मीदवार को सुझाया कि घर से उल्टे मुंह निकलो-सफलता मिलेगी। सचमुच वे घर से दस कदम पछेला चले। अच्छे नेता   हैं, जीत भी सकते हैं पर वोटरों के वोट पर उनका ‘पछेला’ अगले पांच साल तक भारी रहेगा। जब उनके वोटर किसी काम से आएंगे तो भी वे पिछहुत होकर पिछवाड़े से निकल लेंगे। क्या करिएगा। देश को 65 करोड़ देवी-देवता, ग्रह, नक्षत्र, उपनक्षत्र, टोने-टोटके चला रहे हैं। जनता अप्रसांगिक है। यह अप्रसांगिकता उसकी ही ओढ़ी बिछाई है क्योंकि वह भी अंध-विश्वासों में फंसी है। अपने भैय्याजी ठीक ही कहा करते हैं- जहां पराक्रम के मुकाबले अंधविश्वास और टोनों-टोटकों का ऐसा ही कर्मकाण्डीय पाठ्यक्रम चलता रहेगा, वह भी इस युग में, वहां सचमुच ही भगवान मालिक है चुनाव जिताने के लिए भी और मंगल ग्रह तक मिशन को पहंचाने के लिए भी।

मोदी, राहुल और भारत निर्माण का विजन

इनदिनों देश की सियासी फिजा में काफी कुछ तैर रहा है। मोदी का विषवमन, राहुल का रुदन और हमेशा की तरह दिग्विजय का मसखरापन। तरुण तेजपाल के जेल जाने की चर्चा सुर्खियों में है तो आसाराम-नारायण सार्इं के कितने आश्रमों में चकले चल रहे थे, इसकी खोजपरक रिपोर्ट, केन्द्र की खुफिया एजेन्सी ‘साहेब’ का ‘वो’ कनेक्शन खोजेगी तो जस्टिस एक्स का मैडम वाय से संबंधों का खुलासा होगा। केजरीवाल की आप का स्टिंग असली है या फर्जी, फोरेंसिक लैब जल्दी ही बताने वाली है। राज्यों में सरकार बनाने के अपने-अपने दावे हैं, इन सबके बीच शोभन सरकार अब खुद सोने का खजाना खोदेंगे और कड़कड़ाती ठंड में एक बार फिर अन्ना लोकपाल को लेकर दिल्ली में अनशन करेंगे। विमर्श-चर्चाओं और बहसों से यदि कोई मुद्दा खारिज है तो वह है भारत-निर्माण का विजन। यह असल सवाल न तो नरेन्द्र मोदी के एजेन्डे में है और न ही राहुल गांधी के।

छ: महीने बाद देश में महाचुनाव होने जा रहा है। दो में से किसी गठबंधन को बहुमत मिला तो उनकी सरकार अगले पांच साल के लिए देश की तकदीर लिखेगी। दो चेहरे सामने हैं। एक नरेन्द्र मोदी का दूसरा राहुल गांधी का। मीडिया इन दोनों को नाप तौल रहा है। देश का युवा मोदी के लिए कितना क्रेजी है और उसके बरक्स राहुल गांधी की सभाओं को वह किस तरह हूट कर रहा है। मोदी की कुर्सी कितने लाख रुपए में नीलाम हुई। प्राइम टाइम की सुर्खियों में मुख्यधारा मीडिया इसे ही परोसने में लगा है। मीडिया का तीन चौथाई हिस्सा कारपोरेट घरानों के पास है। जाहिर है नरेन्द्र मोदी की छवि को छ: महीने और चमकदार बनाए रखने की कोशिशें जारी रहेंगी। इस बीच फोर्ब्स जैसी पत्रिकाएं, अमीरी और रसूख के इन्डेक्स भी जारी कर रही हैं। मुकेश अम्बानी दुनिया के दस बड़े अमीरों में शामिल हैं। भारत में 103 अरबपति रहते हैं और अरबपतियों के मामले में हम छठवें स्थान पर हैं। देश की 98 प्रतिशत निजी संपदा दो प्रतिशत लोगों के पास है। रसूख के मामले में सोनिया गांधी दुनिया की सबसे रसूखदार महिलाओं में लगातार बनी हुई हैं। इस बीच कुछ ऐसे तथ्य भी राष्टÑीय और अन्तरराष्ट्रीय संगठनों ने जारी किए हैं। जो न तो मीडिया की सुर्खियां बन पार्इं और न ही राजनीतिक बहसों में इन्हें जगह मिली। जैसे मानविकी सूचकांक की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में आज भी 30 करोड़ घरों में बल्ब नहीं। चालीस करोड़ लोगों के यहां एलपीजी कनेक्शन नहीं हैं। यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल के उत्तरार्द्ध में सबसे चर्चित डील हुई थी अमेरिका के साथ एटमी डील। प्रचारित यह किया गया था कि इस डील से क्लीन ऊर्जा (प्रदूषण रहित) मिलेगी और बिजली की कमी से आम लोगों को निजात। इस डील को पूरा हुए लगभग पांच साल हो गए। देश जानना चाहता है कि कितने एटमी रिएक्टर निर्माणाधीन हैं और वे कब से बिजली बनाना शुरू कर देंगे। लेकिन यह बताने की फुर्सत न यूपीए सरकार को है और न एनडीए गठबन्धन को पूछने की चिंता। इस बीच 2 लाख करोड़ रुपयों का कोल ब्लॉक आवंटन घोटाला सामने आया, आवंटन की जल्दबाजी के पीछे भी ऊर्जा की जरूरत के तर्क बताए गए हैं। ऊर्जा का संंकट जहां का तहां है.. कांग्रेस भाजपा दोनों के विजन डाक्यूमेंट से इसकी चिन्ता व्यक्त होती नहीं दिखती।
मनरेगा, खाद्य सुरक्षा बिल और तमाम राहतों व रियायतों के बीच ग्लोबल हंगर इन्डेक्स की एक रिपोर्ट काबिल-ए-गौर है। दुनिया में भुखमरी का शिकार हर चौथा व्यक्ति भारतीय है। वर्ष 2011-13 के बीच जुटाए गए आंकड़ों के अनुसार हंगर इन्डेक्स (भूख का सूचकांक) में 120 देशों के भारत 63वें स्थान पर है। इस मामले में श्रीलंका, पाकिस्तान यहां तक की बांग्लादेश की स्थिति हमसे बेहतर है। दुनिया भर के 21 फीसदी कुपोषित बच्चे अपने देश में रहते हैं। इस संदर्भ में मध्यप्रदेश की बात करें तो 5 साल से कम उम्र के 51.09 कुपोषित बच्चे इस सूबे में रहते हैं। इसी क्रम में ग्लोबल स्लेवरी इन्डेक्स (वैश्विक गुलामी सूचकांक) में दुनिया भर में 3 करोड़ गुलामों में से डेढ़ करोड़ गुलाम अपने देश में अभिशापित हैं। यह स्थिति तब है जब प्राय: हर प्रदेश गरीबों के लिए सस्ते राशन की योजनाएं चला रहा है। बन्धुआ मुक्ति का कड़ा कानून लागू है और प्रत्येक व्यक्ति को सुनिश्चित रोजगार की सांविधानिक गारंटी दी गई है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली दस से ज्यादा वर्षों से लागू है, जिसमें गरीबों को रियायती दाम पर राशन उपलब्ध कराने की बात की जाती है। दावे यह किए जाते हैं कि अन्न के उत्पादन में हम आत्मनिर्भर हैं और हमारे गोदामों में गेहूं का बम्पर स्टॉक जमा है। अन्तरराष्टÑीय संगठन द्वारा मीडिया को जारी इन आंकड़ों पर चिन्ता करने व भविष्य में कोई कारगर मॉडल तैयार करने का वक्त न नरेन्द्र मोदी के पास है और न राहुल गांधी के पास।
कारगर लोकपाल की नियुक्ति और भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़े कानूनों की दरकार के बीच स्थितियां ट्रान्सपेरेंसी इन्टरनेशनल बयान करती हैं।  62 फीसद भारतीयों को सरकारी कार्यालयों में अपना काम कराने के लिए रिश्वत देनी पड़ती है। यूपीए सरकार के माथे पर 5 लाख करोड़ रुपयों के घोटालों के आरोप टंके हैं, तो उसकी पूर्ववर्ती एनडीए सरकार की कु न्डली में कई घोटालों की फेहरिश्त दर्ज है। कारगर और जवाबदेह लोकपाल की नियुक्ति के   मामले में राहुल गांधी और नरेन्द्र मोदी का लगभग एक जैसा रुख है। पिछले साल पार्लियामेंट में बड़े ओज और जोश के साथ राहुल गांधी ने यूपीए सरकार की मंत्रिमण्डलीय समिति द्वारा ड्राफ्ट किए गए लोकपाल की पैरवी करते हुए अन्ना के जनलोकपाल को सिरे से खारिज कर दिया था। गुजरात में नरेन्द्र मोदी ने लोकायुक्त की नियुक्ति पर एक के बाद एक अड़ंगे लगाने जारी रखे, जो प्रकारान्तर में मुख्यमंत्री-राज्यपाल के विवाद के सबब बने। ढोल ढमाकों के साथ देश में जब इक्कीसवीं सदी की बात शुरू हुई तो कहा गया, यह युवाओं ंकी सदी होगी। अर्थशास्त्रियों ने देश की युवाशक्ति को ‘डेमोग्रेफिक डेवीडेन्ड’ (जननांकीय लाभांश) की बात की। चीन से ज्यादा आर्थिक तरक्की का प्रमुख आधार भी इसे ही बताया। वर्तमान का हाल यह कि अनुमानित 4.7 प्रतिशत दर के मुकाबले आर्थिक विकास की दर 3.8 प्रतिशत है जो बेहद निराशाजनक है। यह सही है कि देश की साठ फीसदी आबादी युवाओं की है लेकिन हम उन्हें उत्कृष्ट शिक्षा, तकनीकी कौशल और नए अवसर उपलब्ध कराने में नाकाम रहे हैं। हाल ही में जारी एक रिपोर्ट में नेसकाम व मैकिन्से के शोध में दुनिया के श्रेष्ठ 200 विश्वविद्यालयों में से भारत का कोई भी विश्वविद्यालय शामिल नहीं है। इस सूची में पंजाब विश्वविद्यालय का स्थान 226वां है, जोकि भारत में प्रथम है। राष्टÑीय मूल्यांकन और प्रत्यापन परिषद की मानें तो 90 फीसदी कॉलेजों और 70 फीसदी विश्वविद्यालयों में शिक्षा का स्तर बहुत कमजोर है। रोजगारों के अवसर के मामलों में मानवकी का 10 में से 1 और इन्जीनियरिंग का 4 में से 1 स्नातक की नौकरी के काबिल हैं। वैश्विक स्तर में उत्कृष्ट शैक्षणिक अधोसंरचना का जिक्र डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम भी करते थे और प्रणब मुखर्जी भी करते हैं, पर सत्ता की दौड़ में शामिल इन दो महारथियों, नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी के भाषणों में इस क्षेत्र की वरीयता का जिक्र कहीं पढ़ने सुनने को नहीं मिला। फेसबुक-ट्विटर के सोशल मीडिया की लहर पर सवार युवा पीढ़ी इन सवालों को दोनों भावी भाग्यविधाताओं के सामने रखे और इसके बाद तय करें कि देश की कमान किसके हाथ  में हो? यदि दोनों ही नाकाबिल हैं.. तो तीसरे विकल्प की बहस शुरू होनी चाहिए, आखिर यह हमारे भविष्य का सवाल है।
- लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी संपादक हैं। 

उघरे अंत न होंहि निबाहू

 दिल्ली के चांदनी चौक में तफरी करते हुए भैय्याजी को अचानक बंगारू लक्ष्मण मिल गए। वे फुरसत में पकौड़ी खा रहे थे। भैय्याजी ने पूछा- का हो बंगारू भाई का हालचाल है, चुनाव में भी फुरसतिहा  भजिया भांज रहे हो। बंगारू बोले- भैय्याजी हालचाल उस ससुरे तेजपाल का पूछो जिसने मेरी ये गति की। तुम चुनाव-सुनाव की बात करते हो, इधर सांसदी की पेंशन न मिलती तो कोई घास छीलने को न पूछता। तहलका एक्सपोज के बाद से बंगारूजी को तेजपाल सपने में प्रेत की तरह आते थे।

दुखी आदमी का दुश्मन कष्ट में फंस जाए तो उसका दर्द उसी तरह गायब हो जाता है, जैसे कैंसर के आगे बवासीर की जलन।  तहलका पीड़ितों को हर उस खबर में संगीत के पंचम स्वर सुनाई देते हैं जो तेजपाल के सेक्स स्कैन्डल की परतें उधेड़ती हैं। ये तो दुनिया का चलन है, शिकारी भी शिकार हो जाता है। सच पूछें तो लोग एक दूसरे को शिकार की तरह ताके बैठे रहते हैं, वक्त जिसका साथ दे वही शिकारी।  वक्त तेजपाल के साथ नहीं। उन्हीं का औजार उन्हीं पर भारी पड़ा। खुफिया  कैमरे से वे दूसरों की नंगई कैद करवाते थे वही खुफिया कैमरा लिफ्ट में उनकी ही नंगई कैद कर बैठा। निंदा फाजली ने लिखा है-  हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी, जिसको भी देखना तो कई बार देखना। रावण के दस सिर वस्तुत: गिनती के दस सिर नहीं थे। वे इंद्रियों, प्रवृत्तियों के प्रतीक थे। साधु बनकर सीता को बेटी बोलकर भरमाता है और राक्षस बनकर उसे अंकशयनी बनाने की चेष्टा करता है। आदमी के  भीतर साधु भी है राक्षस भी। कब कौन प्रकट हो जाए यह वक्त और वहां के हालात तय करते हैं। तेजपाल को  हालात ने शिकार बना लिया।
लोग अक्सर कहते हैं कि सुख के कई हिस्सेदार होते हैं और बेचारा दुख अनाथ होता है बिना माई-बाप का। पाप-पुण्य के साथ ऐसा ही है। इसी दर्शन ने जगत को महर्षि बाल्मीक जैसा विद्वान दिया। उनसे जब एक ऋषि ने पूछा कि घर से पूछ के आना कि तुम्हारे पाप का भागीदार कौन-कौन बनेगा। दूसरे दिन बाल्मीक के ज्ञानचक्षु खुल चुके थे क्योंकि उनके लूट के हिस्सेदार तो थे पर लूट की सजा के कोई नहीं।  भाजपा कहती है तेजपाल  ने कांग्रेस के कहने पर उनके नेताओं का स्टिंग किया। किया भी होगा। पर बुरे वक्त में कांग्रेस ने उनसे पल्ला झाड़ लिया। सिब्बल साहब सफाई दे चुके कि वे उनके नात-रिश्तेदार नहीं। तेजपाल के पराक्रम की लाभार्थी तो कांग्रेस थी पर उनके पाप (यदि किया है) से वैसे ही छिटक गई जैसे आसाराम से भाजपा। शुरू-शुरू में तो लगा भाजपा अपने इस राष्ट्रीय संत के लिए देशव्यापी मोर्चा खोल लेगी, पर जैसे ही उनके चकलों का पता चलने लगा सब छिटकते गए, इस डर से कि कहीं ग्राहकों में उनका भी नाम न आ जाए।  अब तेजपाल और आसाराम जेल में हैं। कुछ दिन बाद वैसे ही भुला दिये जाएंगे जैसे की भाजपा बंगारू लक्ष्मण को भूल गई।
बंगारूजी ने फिर भैय्याजी से पूछा- क्या हालचाल हैं देश के? टिकट कटने पर नेता से फ्रीलांस जर्नलिस्ट बने भैय्याजी ने कहा- बंगारूभाई सच पूछो तो - अपने देश में झूठ और सच, ईमादारी और बेइमानी का बड़ा घालमेल हो गया। अब देश की राजनीति के बारे में बतावें तो उसकी सच्चाई ऐसे है जैसे कि - मोदी ब्रम्हचारी हैं पर कुंवारे नहीं, और अपने अटलजी कुंवारे हैं पर ब्रम्हचारी नहीं। बड़ा घालमेल है- जो जैसा दिखता है वैसा नहीं होता, जैसा नहीं होता वैसा दिखता है। नरेन्द्र मोदी की बचपन में शादी हुई, कांग्रेस ने दिग्विजय सिंह को उनकी मिसेज को ढूंढने के मिशन में लगा दिया। अब मान लो ऐन लोकसभा चुनाव के पहले ढूंढ़कर किसी मंच पर खड़ा कर दिया - तो वे  कांग्रेस की ओर से भारत रत्न के दावेदार बन जाएंगे। सब एक दूसरे की ढूंढने में लगे हैं। कभी मोदी ढूंढकर लाए थे कि सोनिया गांधी का नाम माइनो सोनिया है, और जे.एम. लिंगदोह वास्तव में जेम्स माइकल लिंगदोह। भाजपा ने दिग्विजय सिंह की एक काट और ढूंढी है वे हैं सुब्रमम्यम स्वामी।  पर ऐसा लगता है कि इन दोनों के बीच में कोई फिक्सिंग है। एक दूसरे को लेकर कुछ भी ट्वीट नहीं कर रहे हैं। भैय्याजी बोले- दोनों ओर से झूठ और सच को मिलाकर रस्सियां बुनी जा रही हैं। ईमानदार तब तक ईमानदार है जब तक उसे बेईमानी का मौका नहीं मिलता और खींझवश दूसरे को बेईमान बताता रहता है। बेईमान तब तक बेईमान है जब तक वह ईमानदारी की सर्टीफिकेट पेश नहीं करता। यह सर्टीफिकेट उसे चुनाव से मिलता है। जीत गया तो माननीय सांसद, माननीय विधायक। भला कोई बेईमान कह दे, सीधे विशेषाधिकार की नोटिस। पार्टियां जानती हैं कि फलां बेईमान है फिर भी टिकट देती हैं। चुने जाने के बाद पवित्र सदन में ईश्वर के नाम पर सत्यनिष्ठा की शपथ लेते ही उसका चोला ईमानदारी में बदल जाता है।
और इस पूरी प्रक्रिया में वोटर का अहम रोल हाता है इसीलिए चुनाव के समय पार्टियां जनता को जनार्दन मानकर पूजती हैं। यदि सरकार बनाने का काम बिना वोट के चल जाता, तो सरकारें अब तक बेचारी जनता को हिन्दमहासागर में विसर्जित कर सभी समस्याओं से पार पा लेंती। परसाई जी कह गए हैं- जनता शब्द की व्याख्या किसी दल ने नहीं की, हम पहली बार कर रहे हैं। जनता उन मनुष्यों को कहते   हैं जो वोटर हैं और जिनके वोट से विधायक और मंत्री बनते  हैं। इस पृथ्वी पर जनता की उपयोगिता कुल इतनी है कि उसके वोट से मंत्रिमण्डल बनते हैं। अगर जनता के बिना सरकार बन सकती है तो जनता की कोई जरूरत नहीं।

ये जनता की साजिश है

अपने देश में कोई हारता-जीतता नहीं है, हरवाया या जितवाया जाता है। जैसे क्रिकेट में हमसे कोई नहीं जीत सकता बशर्ते एम्पायर उसे जितवा न दे। हम तभी हारते हैं जब हरवाए जाते हैं। यह धारणा हमने इंग्लैंड से ली है। अंग्रेज जब देश से गए तो स्वतंत्रता संग्रामियों से हारकर नहीं अपितु हमें देश चलाना सिखाकर गए थे। एक बार तो गजब हुआ। इंग्लैंड की क्रिकेट टीम यहां सभी टेस्ट मैच हार गई। लंदन के गर्जियन जैसे अखबारों ने लिखा कलकत्ता की उमस मुंबई की प्रदूषित झींगा मछली, कानपुर की चिलचिलाती धूप ने हमारे खिलाड़ियों का ऐसा मनोबल तोड़ा वे चेन्नई के चेपक में भी ढंग से नहीं खेल पाए। अजहरुद्दीन, तेन्दुलकर और काम्बली की सेन्चुरियां ठेंगे से। हमने जब इंग्लैंड से सब कुछ लिया तो जीत हार के बीच से निकलने की पतली गली भी उन्हीं की भांति खोज ली।

अब अपने नेता धुरंधर धरतीपकड़ ने पार्टी नेतृत्व को कैफियत दी कि हुजूर हम हारे कहां हमें तो हरवा दिया गया। पार्टी से मैंने डिमांड की थी कि दारू, कम्बल और कलदार की व्यवस्था की जाए, पार्टी ने नहीं दिया। विपक्षी की दारू ने हमें हरवा दिया। कल तक जो वोटर हमारे साथ थे मतदान के दिन दारू पीकर बहक गए और गलत बटन दबा दी। ईवीएम वाली बात तो जानते ही हैं। चुनाव कराने वाले उनके चाकर थे सो कुछ ऐसी सेटिंग की, कि वोटर दबाता तो हमारी बटन था पर बत्ती विरोधी वाले में जलती थी। हमारे कार्यकर्ता रातों रात पल्टी मार कर भितरघाती हो गए। उन्हें ऊपर से उनके गुट के नेता का फोन आया, धुरंधर को हरा दो, नहीं तो तुम लोगों की विधायकी का रास्ता कभी नहीं खुलेगा। धुरंधर धरतीपकड़ की इस बात का समर्थन सभी हारे माफ करिए हरवाए गए उम्मीदवारों ने किया। यह चलन सभी पार्टियों में है। भितरघाती अपनी-अपनी पार्टियों को हराने  की सुपारी लेते हैं। ये तो अपनी-अपनी पार्टियों के ताबूत पर कील ठोक चुके होते हैं। आलाकमान ने कहा ये तो सब ठीक है पर ये 92 हजार से जीत-हार कैसे हो जाती है धुरंधर जी। धुरंधर धरतीपकड़ बोले- हजूर ये जो जनता है न, बड़ी साजिशबाज है। हमें हरवाने में विरोधियों ने इसी का इस्तेमाल किया। ये किसी की सगी नहीं होती। हम तो कहता हूं कि बन्द करिए ये मनरेगा फनरेगा, फोकट का राशन। आलाकमान के माथे पर शिकन आ गई। उसने एक भितरघाती को तलब किया। क्यों भाई तुमने विरोधी पार्टी के लिए काम किया, धुरंधर धरतीपकड़ का ये कहना है। भितरघाती बोला- धुरंधरजी झूठ बोल रहे हैं। घूस दे के टिकट तो ले ली पर जीतने का गुर्दा कहां से लाएं। दरअसल ये पार्टी का फंड, लोकल चंदा, सब हजम कर जाना चाहते थे, इसलिए ये खुद विरोधी प्रत्याशी से मिल गए और लंबी रकम खैंच ली। हम लोगों ने कहा खरचा करो तो मिर्ची लग गई। फिर तय किया कि इनको बैठने नहीं देंगे बस इनकी नजरों में भितरघाती हो गए। 92 हजार वोटों से हारे हैं ये। पार्टी की नाक कटा दी। आलाकमान को यह भितरघाती सच बोलता हुआ प्रतीत हुआ। दरअसल राजनीति में भितरघाती की परिभाषा अपने-अपने हिसाब से तय होती है। यह शब्द एक बहाना भी है और फंसाना भी।
अपने शहर में एक नेताजी जीते। जब उनका विजय जुलूस निकला तो बैंडबाजा के साथ आगे-आगे सबसे ज्यादा वही डांस कर रहे थे जो ओरिजनल भितरघाती थे। पार्टटाईम फ्रीलांस जर्नलिस्ट बने भैय्या जी की नजर उन भितरघातियों पर पड़ गई जो मतदान की पूर्व रात अपने ही प्रत्याशी के खिलाफ पर्चा बांट रहे थे। भैय्याजी मन मसोसकर रह गए, वे कर भी क्या सकते थे...। पत्रकार के भीतर का नेता कुलबुला रहा था, वे बोले- देखों हरामियों को कैसे नाच रहे हैं, कल नेताजी को खबर करूंगा। दूसरे दिन नेताजी के बंगले पहुंचे  तो पता चला वे देवदर्शन के लिए गए हैं, बस लौटने ही वाले हैं। इस बीच नेताजी की मोटर आ गई। वे दोनों भितरघाती पीछे की सीट से मंद-मंद मुस्काते निकले। भैय्याजी फिर चकरा गए- देखों तो इन कुत्तों को कैसे सटकर चल रहे हैं और वे जो बेचारे बूथ में जान सटाए रहे उन लोगों को ये पांच साल यहां फटकने न देंगे।
इस बीच उन दो में से एक मिठाई का डिब्बा लाया व एक चकिया भैय्याजी के मुंह में डालता हुआ बोला- भैय्याजी भूल जाइए, मुंह मीठा करिए। नेताजी मंत्री बनेंगे तो वो पैकेज-वैकेज की भरपाई हो जाएगी। भैय्याजी सन्ना गए, कितना तिकड़मी है ये जैसे मैं नेताजी से पैकेज न मिलने की फरियाद लेकर आए हों। भैय्याजी अपने पर उतर आए आखिर भैंसापुर के वही दबंग भैरोंप्रसाद थे। वे बोले सुन बे मूसरचंद, हमारे सामने ज्यादा फ्राडगीरी मारी तो हम मसल दूंगा। मतदान की पूर्व रात मोहल्ले में नेताजी के खिलाफ पर्चा तेरा बाप बांट रहा था? फिर नेताजी से मुखातिब होकर बोले- इन भितरघातियों से सावधान रहिए। बैग से उन दोनों की फोटो निकालकर दिखाते हुए कहा कि देखिए इनकी करतूत। भैय्याजी के इतने बताने का नेताजी पर कोई असर नहीं हुआ। वे दोनों भितरघाती नेताजी को कनविंस करने में सफल हो चुके थे। दूसरे भितरघाती खूसड़चंद ने कहा- भैय्याजी आपने दीवार फिल्म तो देखी होगी। उस फिल्म में डाबर (इफ्तेखार) का आदमी अमिताभ बच्चन मदनपुरी के गैंग में जाता है न। जान जोखिम में डालकर। इसलिए कि उसके गैंग की जासूसी कर सके। हम लोग   भी जान जोखिम में डालकर दूसरी पार्टी के प्रत्याशी के यहां गए थे पूरे 14 दिन रहे और ये नेताजी की जो जीत है न हम दोनों की ही शातिर खोपड़ी का फल है। हम लोगों ने उसकी मति मार दी, वह उल्टा घूमने लगा और ये जीत जाए। भैय्याजी को लगा इन टुच्चों ने विरोधी की तो नहीं नेताजी की मति मार दी है और अब वे उनके सचमुच के अमिताभ बच्चन बन गए हैं। जनता बेचारी, फिर पांच साल तक मुकरी, पेंटल की तरह एक्स्ट्रा बनी फिरती है तो फिरे।