Saturday, October 26, 2013

भारतीय उच्च शिक्षा: 10 तथ्य, सैकड़ों सवाल

रेहान फ़ज़ल
 मंगलवार, 22 अक्तूबर, 2013 को 11:08 IST तक के समाचार
दिल्ली विश्वविद्यालय
भारत के बेहतरीन विश्वविद्यालयों में शुमार दिल्ली विश्वविद्यालय विश्वस्तर के विश्वविद्यालयों में नदारद.
संख्या की दृष्टि से देखा जाए तो भारत की उच्चतर शिक्षा व्यवस्था अमरीका और चीन के बाद तीसरे नंबर पर आती है लेकिन जहाँ तक गुणवत्ता की बात है दुनिया के शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय नहीं है.
द टाइम्स विश्व यूनिवर्सिटीज़ रैंकिंग (2013) के अनुसार अमरीका का केलिफ़ोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नॉलॉजी चोटी पर है जबकि भारत के पंजाब विश्वविद्यालय का स्थान विश्व में 226 वाँ है.
कभी-कभी तथ्य अपनी कहानी ख़ुद कहते हैं. इसलिए चलिए तथ्यों की ही बात की जाए.

उच्च शिक्षा की तस्वीर

तथ्य 1: स्कूल की पढ़ाई करने वाले नौ छात्रों में से एक ही कॉलेज पहुँच पाता है. भारत में उच्च शिक्षा के लिए रजिस्ट्रेशन कराने वाले छात्रों का अनुपात दुनिया में सबसे कम यानी सिर्फ़ 11 फ़ीसदी है. अमरीका में ये अनुपात 83 फ़ीसदी है.
तथ्य 2: इस अनुपात को 15 फ़ीसदी तक ले जाने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भारत को 2,26,410 करोड़ रुपए का निवेश करना होगा जबकि 11वीं योजना में इसके लिए सिर्फ़ 77,933 करोड़ रुपए का ही प्रावधान किया गया था.
तथ्य 3: हाल ही में नैसकॉम और मैकिन्से के शोध के अनुसार मानविकी में 10 में से एक और इंजीनियरिंग में डिग्री ले चुके चार में से एक भारतीय छात्र ही नौकरी पाने के योग्य हैं. (पर्सपेक्टिव 2020) भारत के पास दुनिया की सबसे बड़े तकनीकी और वैज्ञानिक मानव शक्ति का ज़ख़ीरा है इस दावे की यहीं हवा निकल जाती है.
तथ्य 4: राष्ट्रीय मूल्यांकन और प्रत्यायन परिषद का शोध बताता है कि भारत के 90 फ़ीसदी कॉलेजों और 70 फ़ीसदी विश्वविद्यालयों का स्तर बहुत कमज़ोर है.
आईआईटी मुंबई जैसे शिक्षण संस्थान भी वैश्विक स्तर पर जगह नहीं बना पाते.
तथ्य 5: भारतीय शिक्षण संस्थाओं में शिक्षकों की कमी का आलम ये है कि आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में भी 15 से 25 फ़ीसदी शिक्षकों की कमी है.
तथ्य 6: भारतीय विश्वविद्यालय औसतन हर पांचवें से दसवें वर्ष में अपना पाठ्यक्रम बदलते हैं लेकिन तब भी ये मूल उद्देश्य को पूरा करने में विफल रहते हैं.
तथ्य 7: आज़ादी के पहले 50 सालों में सिर्फ़ 44 निजी संस्थाओं को डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा मिला. पिछले 16 वर्षों में 69 और निजी विश्वविद्यालयों को मान्यता दी गई.
तथ्य 8: अच्छे शिक्षण संस्थानों की कमी की वजह से अच्छे कॉलेजों में प्रवेश पाने के लिए कट ऑफ़ प्रतिशत असामान्य हद तक बढ़ जाता है. इस साल श्रीराम कॉलेज ऑफ़ कामर्स के बी कॉम ऑनर्स कोर्स में दाखिला लेने के लिए कट ऑफ़ 99 फ़ीसदी था.
तथ्य 9: अध्ययन बताता है कि सेकेंड्री स्कूल में अच्छे अंक लाने के दबाव से छात्रों में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति बहुत तेज़ी से बढ़ रही है.
तथ्य 10: भारतीय छात्र विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिए हर साल सात अरब डॉलर यानी करीब 43 हज़ार करोड़ रुपए ख़र्च करते हैं क्योंकि भारतीय विश्वविद्यालयों में पढ़ाई का स्तर घटिया है.

शोध में पिछड़ा भारत

उच्च शिक्षा, दिल्ली विश्वविद्यालय
15 साल पहले मैनेजमेंट गुरु पीटर ड्रकर ने एलान किया था, "आने वाले दिनों में ज्ञान का समाज दुनिया के किसी भी समाज से ज़्यादा प्रतिस्पर्धात्मक समाज बन जाएगा. दुनिया में गरीब देश शायद समाप्त हो जाएं लेकिन किसी देश की समृद्धि का स्तर इस बात से आंका जाएगा कि वहाँ की शिक्षा का स्तर किस तरह का है."
भारत में शिक्षा क्षेत्र की बड़ी शख़्सियत और ज्ञान आयोग के प्रमुख सैम पित्रोदा का भी कहना है, ''आजकल वैश्विक अर्थव्यवस्था, विकास, धन उत्पत्ति और संपन्नता की संचालक शक्ति सिर्फ़ शिक्षा को ही कहा जा सकता है."
इंफ़ोसिस के प्रमुख नारायण मूर्ति ध्यान दिलाते हैं कि अपनी शिक्षा प्रणाली की बदौलत ही अमरीका ने सेमी कंडक्टर, सूचना तकनीक और बायोटेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में इतनी तरक्की की है. इस सबके पीछे वहाँ के विश्वविद्यालयों में किए गए शोध का बहुत बड़ा हाथ है.
"आजकल वैश्विक अर्थ व्यवस्था, विकास, धन उत्पत्ति और संपन्नता की संचालक शक्ति सिर्फ़ शिक्षा को ही कहा जा सकता है."
सैम पित्रोदा, अध्यक्ष, भारतीय ज्ञान आयोग
दुनिया भर में विज्ञान और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में हुए शोध में से एक तिहाई अमरीका में होते हैं. इसके ठीक विपरीत भारत से सिर्फ़ 3 फ़ीसदी शोध पत्र ही प्रकाशित हो पाते हैं. भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण के प्रमुख नंदन नीलेकणी कहते हैं कि भारत को अपने डेमोग्राफ़िक लाभांश का फ़ायदा उठाना चाहिए.
इस समय भारत की लगभग आधी आबादी 25 साल से कम उम्र की है. इनमें से 12 करोड़ लोगों की उम्र 18 से 23 साल के बीच की है. अगर इन्हें ज्ञान और हुनर से लैस कर दिया जाए तो ये अपने बूते पर भारत को एक वैश्विक शक्ति बना सकते हैं.
योजना आयोग के सदस्य और पुणे विश्वविद्यालय के पूर्व उप कुलपति नरेंद्र जाधव इस बात से हैरान हैं कि कई विश्वविद्यालयों में पिछले 30 सालों से पाठ्यक्रमों में कोई बदलाव नहीं किया गया है. उनका कहना है, ''पुराना पाठ्यक्रम और ज़मीनी हकीकतों से दूर शिक्षक उच्च शिक्षा को मारने के लिए काफ़ी हैं.''
जाने माने शिक्षाविद प्रोफ़ेसर यशपाल कहते है कि शिक्षा में निजीकरण की ज़रूरत तो है लेकिन इस पर भी नियंत्रण रखा जाना चाहिए. वे कहते हैं, ''ये ना हो कि पहले शिक्षा के क्षेत्र में निवेश करने वाला संस्था का कुलपति बने और फिर अपने 25 साल के लड़के को उसका उप कुलपति बनाए."

निजीकरण का नफा-नुकसान

कॉरनेल विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर और वर्ल्ड बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री कौशिक बसु कहते हैं, "आम धारणा ये है कि अगर कोई लाभ कमाना चाहता है तो वो अच्छी शिक्षा कैसे दे सकता है. ये एक ग़लत तर्क है. यह तो उसी तरह सोचने की तरह हुआ कि अगर टाटा मोटर्स को लाभ कमाना है तो इसे छोटी कार बनाने में रुचि नहीं रखनी चाहिए. हालांकि वास्तविकता यह है कि अगर उसे लाभ कमाना है तो उसे छोटी कार ही बनानी चाहिए. इसी तरह शिक्षा में अगर कोई लाभ कमाने वाली कंपनी विश्वविद्यालय शुरू करना चाहती है तो हमें उसके आड़े नहीं आना चाहिए.''
हर साल भारतीय स्कूल से पास होने वाले छात्रों में महज 15 फ़ीसदी छात्र विश्वविद्यालयों में पढ़ने जाएं, यह सुनिश्चित करने के लिए पूरे भारत में 1500 नए विश्वविद्यालय खोले जाने की ज़रूरत पड़ेगी. इस सबके लिए धन सिर्फ़ निजी क्षेत्र से ही आ सकता है.
कौशिक बसु कहते हैं, "हमें ये स्वीकार करना चाहिए कि किसी भी सरकार, खास कर विकासशील देश की सरकार के लिए ये संभव नहीं है कि वो मौजूदा 300 विश्वविद्यालयों को ही ढंग से चला पाए. यह तभी संभव है जब वित्तीय मापदंडों को दरकिनार कर दिया जाए या उच्चतर शिक्षा को घटिया दर्जे का बना दिया जाए."
दुनिया का नंबर दो विश्वविद्यालय है हार्वर्ड विश्वविद्यालय.
विशेषज्ञों की राय है कि 'रन ऑफ़ द मिल' यानी बने बनाए ढर्रे पर स्नातक पैदा करने की प्रवृत्ति से जितनी जल्दी छुटकारा पाया जाए उतना ही अच्छा है. आजकल का सबसे प्रचलित जुमला है नौकरी से जुड़े हुए कोर्स.
फ़ैसला लेने वालों के बीच ‘वोकेशनल’ शिक्षा या व्यावसायिक शिक्षा का वो रुतबा अब नहीं रहा क्योंकि इसके साथ ये बट्टा लगा हुआ है कि ये पढ़ाई में पीछे रहने वालों की ही पसंद है.

गुणवत्ता की समस्या

उच्चतर शिक्षा पर खासा शोध करने वाले पूर्व आईएएस अफ़सर पवन अग्रवाल कहते हैं कि अब समय आ गया है कि इस धारणा को बदला जाए कि विश्वविद्यालय शिक्षा का उद्देश्य छात्रों को भद्र बनाना है.
भारत सरकार ने भी इसे शिक्षा मंत्रालय कहना बंद कर मानव संसाधन मंत्रालय कहना शुरू कर दिया है. ब्रिटेन में भी अब इसे शिक्षा और कौशल मंत्रालय कहा जाने लगा है. ऑस्ट्रेलिया में इसे शिक्षा, रोज़गार और कार्यस्थल संबंध मंत्रालय कहा जाता है.
एनआईआईटी के संस्थापक राजेंद्र सिंह पवार कहते हैं, "अब उस जाति व्यवस्था से छुटकारा पाने की ज़रूरत है जिसने एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था को जन्म दिया है जहाँ अगर एक इंसान व्यावसायिक शिक्षा लेने के लिए ट्रेन से उतरता है तो उसे बाद में उच्च शिक्षा के डिब्बे में सवार होने की अनुमति नहीं होती."
21वीं सदी की उच्च शिक्षा को तब तक स्तरीय नहीं बनाया जा सकता जब तक भारत की स्कूली शिक्षा 19वीं सदी में विचरण कर रही हो. स्कूली शिक्षा की मूलभूत सुविधाओं में पिछले एक दशक में ज़बरदस्त वृद्धि हुई है लेकिन पब्लिक रिपोर्ट ऑन बेसिक एजुकेशन (प्रोब) के सदस्य एके शिव कुमार कहते हैं कि असली समस्या गुणवत्ता की है.
"आम धारणा ये है कि अगर कोई लाभ कमाना चाहता है तो वो अच्छी शिक्षा कैसे दे सकता है. ये एक ग़लत तर्क है."
कौशिक बसु, मुख्य अर्थशास्त्री, विश्व बैंक
ये एक कड़वा सच है कि भारत के आधे से अधिक प्राथमिक विद्यालयों में कोई भी शैक्षणिक गतिविधि नहीं होती.
अब समय आ गया है कि चाक और ब्लैक बोर्ड के ज़माने को भुला कर गांवों में भी प्राथमिक शिक्षा के लिए तकनीक का इस्तेमाल किया जाए.
मनमोहन सिंह ने साल 1991 में जो सुधार भारतीय अर्थव्यवस्था में किए थे उसी स्तर के सुधारों की दरकार साल 2013 में भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में है. अब विश्वविद्यालय अनुदान आयोग जैसे संस्थानों से आगे देखने की ज़रूरत है जिन्हें 50-60 साल पहले स्थापित किया गया था.
सैम पित्रोदा कहते हैं, "आज नियम-कानूनों और भ्रष्टाचार की वजह से शिक्षा के क्षेत्र में घुसना लगभग नामुमकिन हो गया है. अगर आप घुस भी जाते हैं और आपको लाइसेंस मिल भी जाता है तो आप शिक्षा की गुणवत्ता नहीं बनाए रख सकते. जबकि होना इसका ठीक उलटा चाहिए.''

भारत: '30 करोड़ लोगों के घर में घनघोर अंधेरा है

नरेन्द्र नतेजा
 शनिवार, 26 अक्तूबर, 2013 को 09:08 IST तक के समाचार
भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती ऊर्जा की है. अगर हमें भारत के सभी लोगों को ऊर्जा मुहैया करानी है तो एक ठोस नीति के आधार पर आगे बढ़ना होगा.
अभी भारत में 40 करोड़ लोग ऐसे हैं जो औपचारिक रूप से ऊर्जा के बाज़ार के बाहर हैं. उनको ऊर्जा उपलब्ध ही नहीं होती है.
इनमें से करीब 30 करोड़ लोग ऐसे हैं जिनके घर में एक बल्ब नहीं जलता है. 40 करोड़ लोग ऐसे हैं जिनके यहां न कोई एलपीजी जाती है न कोई और गैस जाती है. जब तक हम इन सबको ऊर्जा के दायरे में शामिल नहीं करेंगे, तब तक हमारे देश का आर्थिक विकास नहीं हो सकता है.
आज की तारीख में हम अपनी कुल ज़रूरत का 80 फीसदी तेल आयात कर रहे हैं, 26 फीसदी गैस आयात कर रहे हैं. आने वाले समय में आयातित तेल पर हमारी निर्भरता 90 प्रतिशत हो जाएगी. आयातित गैस पर हमारी निर्भरता बढ़कर 40 प्रतिशत हो जाएगी.

ख़तरनाक निर्भरता

"बंगाल की खाड़ी में तेल और गैस पर जो काम होना चाहिए था वो लगभग ठप पड़ा हुआ है. काम शुरू होते ही वहां कोई न कोई घोटाला हो जाता है."
हम साल में जितनी भी विदेशी मुद्रा कमाते हैं उसका 52 प्रतिशत हम ऊर्जा के आयात में लगा देते हैं. क्या यह टिकाऊ है? इस तरह क्या भारत एक आर्थिक महाशक्ति बन सकता है?
वो देश जिसकी आयात पर इतनी अधिक निर्भरता है वो क्या आर्थिक रूप से समृद्ध बन सकता है? इसका सीधा जवाब है कि नहीं हो सकता है.
हमारे देश में जितना तेल, गैस या कोयला है हमें उसका जल्दी खनन करना चाहिए. हमारी नीतियां गलत हैं. हम जी-जान लगाकर काम नहीं करते हैं.
बंगाल की खाड़ी के बारे में कहा जाता है कि वो गैस पर तैर रही है और हम गैस आयात कर रहे हैं. बंगाल की खाड़ी में तेल और गैस पर जो काम होना चाहिए था वो लगभग ठप पड़ा हुआ है. काम शुरू होते ही वहां घोटाला हो जाता है. कभी वहां सीबीसी अडंगा लगाती है कभी सीबीआई अडंगा लगाती है.

भारत का विरोधाभास

भारत अपनी ऊर्जा ज़रूरतों के लिए पूरी तरह आयात पर निर्भर है.
यह सोचना होगा कि हमारी आयात पर निर्भरता बढ़ने की वजह क्या है? उसकी वजह यह है कि हमारे पास कोई रणनीति नहीं है.
हम फोकस करके काम नहीं कर पा रहे हैं. आप इतिहास उठाकर देख लीजिए कोई भी देश आर्थिक महाशक्ति नहीं बन पाया है जहां विकास के लिए आयातित ऊर्जा पर निर्भरता इतनी ज्यादा रही हो.
हमें जल्द से जल्द नई खोज और उत्पादन शुरू करना चाहिए. हमारे देश में कोयले के भारी भंडार हैं. मुझे समझ में नहीं आता है कि भारत जहां दुनिया के 34 सबसे ज्यादा बड़े कोयले के भंडार हैं वो हर साल 20 अरब डॉलर का कोयला आयात क्यों कर रहा है.
नीतियां गलत हैं. कोयला क्षेत्र को 52 प्रतिशत अपने कब्जे में किया हुआ है. उसका निजीकरण और आधुनिकीकरण होना चाहिए.

वैकल्पिक ऊर्जा में निवेश

इसके साथ ही हमारे देश में सौर ऊर्जा सहित दूसरी वैकल्पिक ऊर्जा के भारी भंडार हैं. अब समय आ चुका है कि सरकार इस बारे में समयबद्ध लक्ष्य बनाकर काम करे.
वर्तमान स्थिति में हमारा ऊर्जा परिदृश्य बहुत ही खराब है. ऊर्जा के मामले में हम लगातार आयात पर निर्भर होते जा रहे हैं. ऊर्जा नीतियों पर न तो केन्द्र ठीक तरह से काम कर रहा है और न ही राज्य सरकारें ठीक तरह से काम कर रही हैं.
नतीजतन भारत में ऊर्जा की कीमत लगातार बढ़ रही है और वो दिन दूर नहीं है जब भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती ऊर्जा की उपलब्धता से संबंधित होगी.
आज हम देख रहे हैं कि दिल्ली में लोग बिजली की मार को लेकर परेशान हैं. वो दिन दूर नहीं है कि देश के अंदर और चुनावों में राजनीतिक दलों के लिए तेल और गैस सबसे बड़ा मुद्दा होगा.

Saturday, October 5, 2013

ठाढ़ भैंस बिदुराय

 

उस दिन रांची की सीबीआई अदालत में न्याय की बीन बज रही थी। अदालत के बाहर खड़ी भैंसें पगुराने की बजाय बिदुरा रही थीं। वे वही भैंसें थी जिनकी पीठ पर बैठकर लालूजी हैलीकाप्टर तक पहुंचे थे। यानी ये भैंसे ही ललुआ के लालू यादव बन जाने की मूक साक्षी थीं। वे गर्व से कहा भी करते थे- भइंसी की सवारी करने वाला आज हैलीकाप्टर से उड़ रहा है। कहते हैं पीठ और पेट पर एक साथ प्रहार नहीं करना चाहिए। पर उन्हीं भैंसों के पेट पर लात मारी गई। एक हजार करोड़ की लात। खुद तो मारी ही सूबे के हाकिमों-अफसरों और हुक्मरानों से मरवाईं। तेरह साल से ये मूक मवेशी न्याय की दहलीज पर मिमियाते रहे। न्याय की मूर्ति जीवंत हो गयी। आंख की पट्टी खोलकर इन्साफ के तराजू में भ्रष्टाचार के वजन को तौल दिया। कबीरदास कह गए- कबिरा हाय गरीब की कबहुं ने निष्फल जाय। मरे जीव की खाल से लोह भसम होइ जाय। लालूजी सिर्फ लालू भर नहीं है। वे सत्ता की संड़ान्ध से बिधे भ्रष्ट नेताओं के प्रतीक पुरूष हैं। ये तो शुरुआत है.. आगे लाइन लगने वाली है। आजादी के पहले भी जेलें नेताओं से भरी रहा करती थीं- अब फिर उन्हीं के वंशजों से गुलजार होंगी। आजादी का मकसद और मायने इन्हीं लोगों ने बदले। छिंयासठ साल से देश इनकी गलाबाजी सुन रहा है और कलाबाजी देख रहा है। अब जनता की गलाबाजी-कलाबाजी देखिये। समोसे का आलू सड़ गया- लालू की किस्मत में ताला जड़ गया। उस दिन अदालत में लालूजी का वकील कह रहा था - हजूर इन्होंने देश की रेल को घाटे से उबारा, कम से कम इसलिए तो इन पर रहम कर दीजिए। मुझ जैसे कई लोगों को लगा होगा, वकील सही दलील दे रहा है। मैने रेल के एक बड़े अधिकारी से कहा - रेल की तरक्की में लालूजी के योगदान पर प्रकाश डालिए। अधिकारी ने संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित ढंग से बताया- वस्तुत: लालू जी ने कुछ किया ही नहीं सो तरक्की होती गयी। कुछ किया ही नहीं मतलब, यानी कि उन्होंने अड़ंगे नहीं लगाए, ठेके व सप्लाई में रूचि नहीं ली। हम सबका जो काम था उसे करने दिया तरक्की का यही राज है। लालूजी जैसे आदमी टांग न फंसाएं , उसके पीछे भी चारा की ही महिमा थी। जरा इतिहास पर लौटिए। रेलमंत्री बनने से पहले लालू चाराकाण्ड और बेहिसाब दौलत के मामले में जेल की हवा खा चुके थे। वही सबक था कि रेल तंत्र को छुआ तक नहीं.. वरना चारा चरने वाले को रेल निगलने से क्या परहेज। हां उस घटना की कोख से ही राबड़ीजी का अभ्युदय हुआ था। वे मुख्यमंत्री बनीं और रजिया बेगम की भांति पाटिलपुत्र (पटना) को सम्हाला।

आज राबड़ीजी फिर प्रासंगिक हो गई हैं। लेकिन इस बार एक नई बात यह होगी कि हर सूबे में राबड़ियों की नई जमात तैयार होगी। संसद और विधानसभा में 30 से 35 फीसदी दागी हैं। दागियों को चुनाव से दूर रखने के कानून का चाबुक चल पड़ा है।  जाहिर है जब वे चुनाव नहीं लड़ेंगे तो उनके पीछे खड़ी उनकी राबड़ियां लालू की राबड़ीजी की तरह उन्हें स्थानापन्न करेंगी। सो जाने-अनजाने एक  बड़ा काम और हो गया। वो महिला आरक्षण का। दशकों से  बहस चल रही है कि सदनों में महिलाओं को प्रतिनिधित्व मिले। जो सरकारें नहीं दिलवा पाईं वो अब कानून के चाबुक के चलते संभव हो जाएगा। 
एक हफ्ते के भीतर ही यूपीए सरकार के पलटीमार फैंसले और राजनीति की अदालतीय पैंतरेबाजी के चलते अपने भैय्याजी की मति चकरघिन्नी की भांति घूमने लगीं। सोते-सोते वे चिल्ला पड़े कि ये सब क्या हो रहा है। उनकी आंखों के सामने मिड-डे मील जहरकाण्ड तैर गया। सीबीआई के अफसर यमदूत की भांति आते दिखाई देने लगे। टिकट के लिए पर्यवेक्षक से पंगा लेकर भैय्याजी आलाकमान की मुलाकात यात्रा पर दिल्ली में थे। भैय्याजी यद्यपि किसी सदन के सदस्य नहीं फिर भी उनकी नींद हराम थी। वे अब दार्शनिक मूड में आ चुके थे। सोचने लगे... हे परभू इस देश का क्या होगा ? क्या पॉलटिक्स ऐसे ही चलेगी। सुख का वजूद इसलिए है क्योंकि दुख है। ईमानदारी भी तभी तक पूजी जाएगी जब तक बेईमानी है। आज उन पर सुकरात जैसे किसी की आत्मा सवार हो गई थी। वे प्रत्ययों की सत्ता पर गूढ़ विचार -मंथन करने लगे। राजनीति में जब सब ईमानदार हो जाएंगे तो ये राजनीति, राजनीति नहीं रह जाएगी। जब राजनीति नहीं होगी तो लोकतंत्र का क्या होगा। लोकतंत्र नहीं रहा तो हम नेता -मथानियों का क्या होगा। और जब हम नेता नहीं रहेंगे तो क्या करेंगे? क्या घांस छीलेंगे? तो क्या नेताओं की प्रजाति वैसे ही लुप्त हो जाएगी जैसे दुनिया से डायनासोर गायब हो गए? बेईमानी, भ्रष्टाचार, झूठ फरेब ये सब तो नेतागिरी के लिए खाद-पानी और प्राणवायु की भांति है। भैय्याजी निष्कर्ष तक पहुंच गए- हम ऐसा हरगिज नहीं होने दूंगा। उनकी नजर में वे तीस-पैंतिस फीसदीं दागियों की प्रभावी संख्या थी, यदि इसमें आसाराम, नित्यानंद, इच्छाधारी, निर्मलबाबा जैसे सुविख्यात कुकर्मकाण्डी संतों की मण्डली जोड़ ली जाए तो हम बड़ी ताकत बन जाएंगे। हमारे पास दौलत होगी, मायाजाल होगा, मक्कारी होगी, हरामीपना होगा, शातिर दिमाग वालों का कोरग्रुप होगा। इसे हर हाल में जिन्दा रखना होगा। दुनिया निगेटीविटी की ही मुरीद होती है। हर युग में नकारात्मक चरित्र   ज्यादा आकर्षक व ताकतवर रहे हैं। ये प्रवृति तब तक जिन्दा रहेगी जब तक इस दुनिया काअस्तित्व रहेगा। भैय्याजी की छठी इन्द्रिय ने सुझाया कि क्यों न एक नई पार्टी का गठन कर सबको जोड़ा जाए। भले ही लोग उसे भ्रष्ट कुकर्मवादी पार्टी का नाम दें..। इतिहास में रावण भी दर्ज है और कंस भी,  गब्बर सिंह और मोगैम्बो भी। कोई चाहे कुछ कर ले.. अंधेरा कायम रहेगा..।