Monday, May 27, 2013

लाल आतंक के बुनियादी पहलू

नक्सलबाड़ी का जनविद्रोह इसलिए हुआ था क्योंकि वहां कि सरकार खेतिहर मजदूरों, आदिवासियों पर जुल्म ढ़ाने वाले जमींदारों के साथ खड़ी थी, आज केन्द्र व राज्य की सरकारें उद्योगों के नाम पर जंगल व पहाड़ों को पट्टे में लेने वाले कारपोरेट घरानों की लठैत बनी हैं। वन से बेदखल आदिवासी और जोत की जमीन से वंचित खेतिहर मजदूर व किसान जाएं तो जाएं कहां? हर कहीं माओवादी इन्हीं स्थितियों का लाभ उठा रहे हैं। माओवादी रक्तक्रांति के जरिए सत्ता हासिल करना चाहते हैं उनका कृत्य राष्ट्र के खिलाफ युद्धघोष है।
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बस्तर के सुकमा में घटी वीभत्स घटना के बहाने लाल आतंक की तह तक जाने के पहले जरुरी है कि कुछ तथ्य बिल्कुल साफ कर लिए जाएं। पहली बात नक्सलवाद और माओवाद दोनों एक नहीं है, जैसा कि मीडिया रिपोर्ट और बौद्धिकों के वक्तव्यों में दोनों को गुड्डम-गड्ड किया जा रहा है। दूसरी बात लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमले जैसे वक्तव्य, इस पर भी तफसील से जाने की जरूरत है, इसका वर्गीकरण होना चाहिए कि कौन मारे जाए तो उसे लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला माना जाएगा और किनके मरने पर नहीं। बात आगे बढ़ाएं कि इस बीच भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी) के मध्यप्रदेश के राज्य सचिव बद्रीप्रसाद का प्रेस नोट जो मुङो आज ही ई-मेल से मिला, का थोड़ा सा जिक्र कर लिया जाए। यह इसलिए भी जरुरी है क्योंकि नक्सलवादियों का सबसे पुराना और पैतृक संगठन इसे ही माना जाता है। माओवादियों की इस अराजक कार्रवाई का माकपा (माले) निन्दा करती है क्योंकि ऐसी कार्रवाईयों से 1967 में उत्तरी बंगाल में जमीन और सामाजिक बदलाव के लिए भूमिहीन-गरीब किसानों के नक्सलबाड़ी जनविद्रोह और उनके नेतृत्व में विभिन्न राज्यों में चल रहे जन संघर्षो की छवि धूमिल होती है।
दरअसल नक्सलवाद और माओवाद दोनों को अलग-अलग करके देखना जरूरी है। नक्सलवाद का जन्म विशुद्ध रुप से गरीब आदिवासियों व खेतिहर मजदूरों का जमीदारों और उनके संरक्षण देने वाली तत्कालीन पश्चिम बंगाल की सरकार के खिलाफ स्वफूर्त जनविद्रोह था। यह ऐतिसासिक घटना दार्जीलिंग के समीप नक्सलवाड़ी नाम के एक गांव में 1967 में घटी। पश्चिम बंगाल में जमीदारों का आतंक था, वहीं सरकार व प्रशासन में प्रतिनिधित्व करते थे। लैण्डहोल्डिंग की स्थिति यह थी कि राज्य की सारी जोत की जमीन महज 2 प्रतिशत जमीदारों के कब्जे में थी। खेतिहर मजदूर खेतों में काम करते थे, पर जिस अन्न को वो उपजाते थे उन पर उनका हक नहीं था। आवाज उठाने पर जमींदारों के कारिंदे पुलिस के साथ मिलकर जुल्म ढ़ाते थे। इस जुल्म और अत्याचार के खिलाफ आवाज बुलंद की सिलीगुड़ी किसान सभा के अध्यक्ष जंगल संथाल ने और नेतृत्व संभाला कानू सन्याल ने। खेतिहर मजदूरों को जमीदारों के खेत की फसलें काटनें और कब्जा कर जोत लेने का आव्हान किया गया। आन्दोलन को संथाल परगना के आदिवासियों ने परवान चढ़ाया। जब यह जनविद्रोह शुरु हुआ तब इसकी कोई वैचारिक दृष्टि नहीं थी। पर चूंकि वहां कांग्रेस के सिद्धर्थशंकर रे की सरकार के खिलाफ कम्युनिस्टी लड़ रहे थे इसलिए वे इन विद्रोहियों के वैसे ही स्वाभाविक मित्र हो गए । चारू मजूमदार वो शख्स थे जिन्होंने नक्सलबाड़ी के जनविद्रोह को वैचारिक आधार दिया। मजूमदार ने इस विद्रोह के साथ- बुद्धिजीवियों व सृजनधर्मियों के साथ छात्रों को भी जोड़ा।
कलकत्ता विश्वविद्यालय का प्रेसीडेन्सी कालेज क्रांतिकारी छात्रों का मुख्यालय बन गया और यह वैचारिक क्रांति देश के कई नामचीन विश्वविद्यालयों के छात्रों तक पहुंच गई। नक्सली आन्दोलन पूरे पश्चिम बंगाल में फैल गया तो एक कमेटी गठित की गई। नाम था आल इण्डिया कोर्डिनेशन कमेटी आफ कम्युनिस्ट रिवाल्यूशनरिज (एआईसीसीआर) 1969 में इसी की कोख से माकपा (माले) का जन्म हुआ। इधर सन् 1977 में ज्योति बसु के नेतृत्व में कम्युनिस्ट गंठबंधन की सरकार के गठन के बाद पहला और सबसे बड़ा काम भूमि सुधार का हुआ लिहाजा नक्सल आन्दोलन की तीव्रता घटी। इसी बीच माओवादी कम्युनिस्ट सेन्टर (एमसीसी) का उदय हुआ- दक्षिण देशम ग्रुप इसी से निकला और प्रकाशन्तर में पीपुल्स वार ग्रुप बना फिर यही कम्युनिस्ट पार्टी आफ इन्डिया माओवादी में बदल गया। बस्तर की घटना के पीछे यही संगठन है।
नक्सलवाद जहां गरीब आदिवासियों व खेतिहर मजदूरों के हक के लिए सामाजिक व आर्थिक बदलाव का आन्दोलन था वहीं माओवादी रक्तपात व हिंसक क्रांति के सहारे सत्ता में काबिज होने की लिप्सा रखते हैं। इनका आन्दोलन विशुद्ध राजनीतिक है और आदिवासी इनकी ढ़ाल है। इनका आदिवासियों के हक-हकूक और बेहतरी से कोई लेना-देना नहीं। जहां तक खूनी कार्रवाइयों का प्रश्न है- माओवादी माओ की विचाधारा क्यूबा के क्रांतिकारी चे- ग्वारा के तौर तरीकों से प्रेरित हैं ये बिगड़े और भ्रमित नौजवान नहीं है अपितु अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रतिबद्ध और वैचारिक तौर पर दृढ़ लोग हैं, इनकी आस्था देश, यहां की संस्कृति, संविधान, कानून प्रजातंत्र पर नहीं है। इस दृष्टि से इनकी हर कार्रवाई राष्ट्र के खिलाफ युद्ध है। इनसे निपटने की रणनीति वैसे ही बनानी पड़ेगी जैसे कि दुश्मन देश के खिलाफ बनाई जाती है।
एक पेंचीदा सवाल यह है कि इन्हें वनवासियों व ग्रामीणों का इतना समर्थन क्यों हासिल है? साफ जवाब है कि पश्चिम बंगाल में जहां सरकार गरीबों आदिवासियों के खिलाफ जमीदारों के साथ खड़ी नजर आती थी वहीं आज वह कारपोरेट घरानों की संरक्षक नजर आती है, चाहे वह केन्द्र की सरकार हो या राज्य सरकारें।
जयराम रमेश ठीक कहते हैं ज्यादा खदानें-ज्यादा माओवादी।
उड़ीसा, झरखण्ड, आंध्र में वहीं माओवादियों का बोलबाला है, जहां बड़े घरानों को जंगल, पहाड़, खनने-खोदने के लिए दे दिए गए हैं। बस्तर के आंचल में खदानों की अकूत संपदा छिपी है।
2006 में टाटा और एस्सार को यहां की लीजें दी गईं। बड़ी परियोजनाओं की वजह से वनवासियों का विस्थापन एक भयावह समस्या है। ये अपनी ही जमीन पर यतीम बना दिए जाते हैं और जब देखते हैं कि सरकार उद्योगपतियों के साथ खड़ी है तो अपना हमदर्द ये माओवादियों में ढूंढते हैं। दूसरे सुरक्षाबलों की कार्रवाई में यही शिकार होते हैं माओवादियों को पनाह देने के नाम पर क्या सरकार को ये नहीं मालुम कि गरीब आदिवासियों के घर पर हथियार बंद माओवादी आ जाएं तो विकल्प ही क्या सिवाय उन्हें आश्रय देने के।
आखिरी बात, लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमले की, जैसा कि मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी से लेकर विभिन्न दलों के लोग बार- बार दोहरा रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि कांग्रेस के निहत्थे नताओं कार्यकर्ताओं को आत्मसमर्पण के बाद भी गोलियों से भूनना वीभत्स व क्रूरकर्म है। लेकिन सीआरपीएफ के 74 जवानों को सुरंग लगाकर उड़ा देना या सुरक्षा एजेन्सियों के हाथों अनगिनत निदरेष आदिवासियों, महिलाओं और बच्चों का मारा जाना भी इतना ही दर्दनाक है। लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला तो वह भी घटना है जिसमें दंतेवाड़ा की एक आदिवासी शिक्षिका सोनी सोरी के गुप्तांग में पत्थर बालू गिट्टी का ठूस दिया जाना। सुप्रीमकोर्ट के आदेश पर जांच और उसमें दोषी पाए गए अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई ना होना। किसी फौरी कार्रवाई से समस्या का दीर्घकालिक हल नहीं हो सकता। अच्छी जीडीपी हासिल करने के लिए सरकार की अर्थनीति कारपोरेट के औद्योगिक विस्तार पर है। उसकी नीति के केन्द्र में किसान, खेतिहर मजदूर - आदिवासी और अपनी जमीन से बेदखल किये हुए लोग नहीं है। इसीलिए किसान आत्मघात करते हैं, विस्थापित आदिवासी माओवादियों के पाले में पहुंच जाता है। इन पेंचीदा मसलों को बातों से हल नहीं किया जा सकता है। जरुरत है नीतियों को लक्ष्य हासिल करने या तरक्की को गति देने भर के लिए नहीं अपितु मानवीय संवेदनाओं का ध्यान रखकर बनाया जाए।
- लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं। सम्पर्क-09425813208.Details  

Saturday, May 25, 2013

वर्ण, आश्रम और पुरुषार्थ के अंतरभेद!


 चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
सं सार के सभी जीवों में मनुष्य सबसे असंतुष्ट प्राणी है।
संतुष्टि को वह क्रियाहीनता या मृत्यु मानता है। भारतीय मिथक कहते हैं कि अन्य जीव जन्तुओं के समान ही उसे भी उम्र मिली थी। जीव जंतु अपनी लम्बी उम्र से दुखी थे परंतु मनुष्य अपनी कम उम्र से परेशान और दुखी था। उसने ब्रrा से मदद मांगी और जीव जन्तुओं से उनसे उम्र उधार ली, परंतु वह उधार न कभी देने वाले ने वापस मांगी न उसने दी। इसी कारण अपनी जन्मजात उम्र को पारकर मनुष्य ने परकाया प्रवेश किया और गंध और कुत्ते और कीड़े मकौड़ों की उम्र जीता हुआ शतायु से चिरायु होने के लिए जीवन रक्षक दवाइयो पर टिका है, जो स्वयं का उत्पाद है, लेकिन सांस की डोर किसी और के हाथ है जिसे वह जानने में आदिकाल से लगा है। गॉड पार्टिकल्स भी उसका समाधान नहीं है। कब, जातियां बनी, वर्ण बने, आश्रम बने और पुरुषार्थ कौन श्रेष्ठ है, इस पर लम्बे बहस की गुंजाइश सदैव से रही है। गीता के कृष्ण कहते हैं- चारों वर्ण मेरी सृष्टि हैं जो गुण और कर्म आधारित हैं। कृष्ण-युग और उनके कुछ दिन बाद की कथाओं तक गुण कर्म निर्धारित वर्ण व्यवस्था मिलती है परंतु कालांतर में ब्राrाण के घर में पैदा होने और अपढ़ वेद विहीन होने वाले पुत्र को जाति च्युत नहीं किया गया और धनुर्धर सूत पुत्र को क्षत्रिय नहीं माना गया। तपस्वी शबरी और शम्बूक को जातीय श्रेष्ठता नहीं मिली, शम्बूक की हत्या तो ब्राrाणों के कहने से स्वयं भक्त वत्सल श्रीराम ने की। कृष्ण के युग में ही गुण कर्म की उपेक्षा हुई। एकलव्य, अजरुन से श्रेष्ठ धनुर्धर है, यह द्रोणाचार्य जानते थे अत: बिना गुरु हुए दक्षिणा मांगने के अधिकारी कैसे हो गए? जातीय परिभाषा की स्वीकृति और अस्वीकृति दोनों महाभारत में पर्याप्त हैं। व्यास धीवर कन्या के ऋषि पुत्र हैं और समाप्त होते कुरुवंश के पिता हैं। उन्हें महर्षि का पद प्राप्त है।
महाभारत के कथाकार हैं। सारा कथासूत्र उनके हाथ में है।
आर्य सभ्यता की इस जाति व्यवस्था में बहुत बड़ा प्रश्न है शिल्प और कलाओं का संबंध त्रिवर्णो से नहीं था। विश्वकर्मा को भगवान माना गया परंतु उनकी जाति की हद भी बता दी गई।
यह मानने से गुरेज नहीं होना चाहिए कि कारीगरों, शिल्पकारों को स्वार्थवश आर्येतर जातियों से खींचकर, चौथे वर्ण में लाया गया। ये ही कलाकार आदिकाल से सभ्यता और संस्कृति की कहानी कह रहे हैं। पुरातत्वों में प्राप्त शिल्प त्रिवर्णो के बनाए शायद ही हों। आज भी मिस्त्री अंत्यजों से ही आते हैं। यदि कर्म आधारित जाति होती तो सारे इंजीनियर शूद्र होते। शिल्प और कला नागरिक सभ्यता के चिह्न् हैं। खुदाई में प्राप्त प्राचीन ईंटे किस जातीय सभ्यता की सूचना देती हैं। इन्हें भी जातीय संदर्भ में देखने की जरूरत है। जाति च्युत होने और जातीय श्रेष्ठता के उदाहरण वाल्मीकि और व्यास से लेकर सूत महाराज तक भरे पड़े हैं। तत्वदर्शियों को जाति से ऊपर माना गया। दाऊ बलराम का राज अभिमान इतना जागृत हुआ कि सूत महाराज के व्यास पीठ से उठकर उनका स्वागत न करने के अपराध में हत्या कर दी, फलत: ऋषियों द्वारा निर्धारित दण्ड बलराम को भोगना पड़ा।
सूत, सर्वश्रेष्ठ व्याख्याकार थे, किसी भी ब्राrाण से बढ़कर? ऋषियों ने चार काम्य निर्धारित किये, जिन्हें पुरुषार्थ कहते हैं।
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। संसार के आवागमन से मुक्ति पाने के लिए मनुष्य ने मोक्ष की कामना की। भारतीय मनीषा का एक बहुत बड़ा वर्ग पुनजर्न्म में विश्वास करता है और मानता है कि जीवन चौरासी लाख योनियों में जन्म लेकर अनेक तरह के कष्ट भोगता है, उससे मुक्ति का उपाय तप योग साधना है। प्रहलाद ने ईश्वर से इसी मोक्ष की कामना की थी और कहते हैं कि आज भी आकाश में सप्तर्षि उनकी अभ्यर्थना करते हैं। व्यक्ति का धर्म रिश्तों, सम्बन्धों, समाज और सम्पूर्ण प्रकृति के चर अचर के प्रति कैसा होना चाहिए, यह जानते हुए भी वह धर्म से विरत है। मोक्ष अब किसी पीठाधीश्वर के चिंतन में नहीं है। अर्थ और काम ही वर्तमान पुरुषार्थ के केन्द्र में है। इन दोनों में अच्छा तालमेल है।
जहां अर्थ है वहीं काम का साम्राज्य है। हमारे यहां स्वर्ग की कल्पना में भी यही भौतिक सुख ही तो है। देवराज इंद्र के लोक में समुद्र मंथन के अधिकतर र8 वहीं विराजते हैं। कामधेनु, कल्पवृक्ष, ऐरावत, उच्चैश्रृवा, रम्भा नृत्य सब वहीं तो है। जहां अर्थ है, वहीं काम है, वहीं स्वर्ग भी है। सारे देश के अर्थपतियों की दृष्टि देवराज का जीवन जीने के लिए सारे संसाधन जुटा रही है। अर्थ और काम से मनुष्य कभी संतुष्ट नहीं हुआ। मनुष्य के धतकरमों को हम पशुवत कहकर पशु धर्म का अपमान करते हैं।
पशु पक्षी, वनचर आज भी प्राकृतिक नियमों, अपने धर्म से बंधे हैं, परंतु मनुष्य ने दानवता की सारी सीमाएं लांघी हैं। यह सब प्रत्येक दिन देश संसार देख रहा है। काम एक अनुशासन था, साल, महीने, दिन तय थे, पशुओं पक्षियों के आज भी तय हैं, परंतु मनुष्य विकास के चरम पर खड़ा सभी जातियों से हीन है। अनेक प्राणियों के कुकर्मो का संगम है आज का विकास पुरुष।
आश्रम व्यवस्था भी पक्षपात पूर्ण रही। त्रिवणोर्ं को ही इस व्यवस्था में शामिल किया गया। ब्रrाचर्य आश्रम, पठन-पाठन, खेलने-कूदने, नाते-रिश्तों के पहचानने की उम्र की समयावधि थी। आश्रम व्यवस्था एक जीवन पद्धति थी, एक व्यवस्थित जीवन के लिए। ब्रrा के प्रति जिज्ञासा का भावारोपण इसी उम्र में होता था। पच्चीस वर्ष के बाद वह गृहस्थी बसाता था, पूरे मनोयोग से ब्रrाचर्य की शिक्षा का व्यवहारिक प्रयोगशाला गृहस्थ आश्रम ही था। संतान परिवार के प्रति लगाव इस आश्रम की शर्ते थीं।
पचास वर्ष की इस उम्र तक पुत्र पुत्रियों को दायित्व सौंप, वानप्रस्थ की ओर उन्मुख होना मोह-माया से धीरे-धीरे मुक्त होने की प्रक्रिया थी। वन में रहते हुए भी गृहस्थी में आना जाना लगा रहता था। निर्देश नहीं सलाह देने के लिए, जिस मां बाप ने लड़कों की गृहस्थी में ज्यादा हस्तक्षेप किया और वानप्रस्थी होते हुए भी उन्हें स्वतंत्रता से जीने की आजादी नहीं दी वे ही अधिक दुखी हुए। अंतिम अवस्था सन्यास की थी, जहां वह बोध हो जाता है, जो कि ‘ब्रrा सत्य जगत मिथ्या’ यदि ऐसा नहीं हुआ तो सन्यास का अर्थ ही विकृत हो जाता है।
देश भर में सन्यासी माया मोह में इतने लिप्त हैं जितना शायद ही कोई गृहस्थ हो। सब कुछ छोड़ने की उम्र में वे सर्वाधिक आसक्त हैं। अब इन वृद्धों को कौन समझए कि कहीं भी दो चार इकट्ठे होकर बेटे-बहुओं का दुख रोते वर्तमान समय को दोष देते हर जगह मिल जाएंगे। उनको लगता है कि मेरी गाढ़ी कमाई का उपयोग करते हुए पुत्र बहुएं हमारी सलाह क्यों नहीं लेते? उनके दुखों के अनंत कारण हैं, जिनका समाधान महर्षि व्यास के पास भी नहीं है। अपने रचे हुए सृष्टि से शिकायत का दोषी कौन है? - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09407041430.Details

और भाग्य भरोसे रह गए हम..

चंद्रिका प्रसाद चन्द्र 
अहं ब्रrास्मि’ और ‘स्वयमेव मृगेन्द्रता’ का उद्घोष करने वाला देश, ईश्वराधीन और भाग्यवादी कैसे हो गया? सब कुछ वह करता है, हम निमित्त मात्र हैं, ‘उसके’ हाथ की कठपुतली हैं, डोर उसी के हाथ में है, जैसा नचाता है,       नाचते हैं, कभी लकड़ी के डर से, कभी प्रेम भरी पुचकार से। उस नंदी बाबा की तरह जो पैर पर लाठी लगने से दाता को आशीष में पैर उठा देता है। परिवार और स्वजन मोह से ग्रस्त कुरुक्षेत्र के खड़े अजरुन को समझने के सारे तर्क जब निष्फल हो गए तब कृष्ण ने उसे अपना विराट रूप दिखाया। और सबको मरा हुआ दिखाया, तब भी अजरुन ने गांडीव नहीं उठाया। अंत में कृष्ण ने सब कुछ छोड़कर अपनी शरण में आने को कहकर आश्वस्त भाव से युद्ध के लिए प्रबुद्ध किया। गीता के उपदेश निश्चेष्ट और अकर्मण्यता के विरुद्ध प्रवृत्ति के मार्ग पर चलने के हैं। लोक में गीता पढ़ना वजिर्त है, शायद इसलिए कि वह महाभारत का अंश है और महाभारत पढ़ने की लोक स्वीकृति नहीं है, क्योंकि वह युद्ध ग्रंथ है और युद्ध की समाप्ति के साथ का निव्रेद भाव अशांति उपजाकर मरने के लिए स्वर्गारोहरण का छद्म करता है। भारतीय बहुसंख्यक वर्ग ‘गॉड पार्टिकल’ की सूचना के बावजूद ईश्वर की मूर्ति स्थापना में लगा है। ऋषियों ने ज्ञान बल से ईश्वर चिंतन की अनुभूति की परंतु अपनी शक्ति को कमतर नहीं माना और इसकी स्थापना से इंकार नहीं किया कि उसने ही ईश्वर को जन्म दिया। साकार, निराकार और ‘नहीं होने’ के तर्क भी दिये परंतु चिंतकों के तमाम निषेधों के बीच लोक ने ईश्वर को इंकार नहीं किया। वह धरती पर मरता खपता रहा, उसका भाग्य वह अदृश्य ईश्वर लिखता रहा । वह इसे ब्रrा वाक्य मानता रहा कि ‘जो विधना ने लिख दिया, छठी रात के अंक। राई घटे न तिल बढ़े, रहुरे जीव निशंक।’ लेकिन उस भाग्य-लेख की लिपि किसी के पल्ले कभी नहीं पड़ी। सब कुछ हो जाने पर ‘यही भाग्य में लिखा था’ का स्वीकार भाव की परिणति ही उसकी निष्पत्ति रही, इसे ही भाग्य-बोध कहा गया।
भाग्य पर जीने वालों ने भाग्य से समझोता कर प्रतिरोध की संस्कृति को द्वार के बाहर ही रखा। इसी कारण इतने विशाल देश का भाग्य हमेशा विदेशी आकर लिखते रहे। कितनी संख्या में यवन, शक और हूण आए और हमारी भाग्यवादिता का मजाक उड़ाते हम पर शासन करते रहे। सकिंदर भाग्यवादी नहीं था, वह अपनी शक्ति से अनेक देशों पर विजय करते अंत में भारत पहुंचा था। सीमावर्ती पश्चिमी जनपदों में विजयी हुआ था परंतु लड़ते लड़ते थक चुका था। अपने देश तक वापस नहीं पहुंच सका।
अपना भाग्य, अपने कर्मो से विश्व इतिहास में लिख गया। विश्व विजेता भले ही न रहा हो, विश्व विजेता कहलाया। बाबर कितनी सेना लेकर आया लेकिन उसकी सल्तनत ने कई पीढ़ियों तक हम पर शासन किया। कर्म का यह सिद्धान्त हमारे देश में राम और कृष्ण से पहले भी था, परंतु हमने उन्हें अमानवीय या अतिमानवीय मानकर हाशिए पर डाल दिया। पिद्दी जैसे लोगों के सामने घुटने टेकने की अनगिनत कहानियां हमारे इतिहास में दर्ज हैं। आपसी मनमुटाव और भेदभाव में अम्भीक बनकर यवनों को निमंत्रित करते रहे। मुहम्मद गोरी और महमूद गजनवी के दंश को देश भोगता रहा। अंधभक्ति की अति तो तब हुई जब सोमनाथ के महंतों ने शिव की मूर्ति पर ही विश्वास कर कि ‘स्वयं सोमनाथ ही गजनवी का संहार करेंगे’ महामृत्युंजय मंत्र का पाठ करते रहे और मूर्ति गजनवी के गदे के प्रहार से खण्ड-खण्ड हो गई। मंदिर में स्थापित मूर्तियां अन्यायी को दण्ड देगी, यह मनोभावना आज भी हमारी आस्तिकता का मेरुदण्ड है? पद्मनाभि मंदिर के उस गर्भ गृह को खोलने की इजाजत देने की शक्ति किसी व्यवस्था के पास नहीं है। मंदिरों में जमा असंख्य र8राशि जो ‘डम्प’ पड़ी है वह किसकी है और किसके काम आएगी? क्या वह जनता की गाढ़ी कमाई नहीं है जिसे राजाओं ने छुपाकर धर्मप्राण जनता को ठगा था, ईश्वर और उसके घर के नाम पर।
परम्पराओं के अत्यधिक दबाव से अक्सर हमने वर्तमान को समझने में भूल की। व्यापार की भीख मांगने वालों ने न सिर्फ हम पर शासन किया, हमारा इतिहास भी लिखा, हमें अपनी तरह बाहर से आया हुआ घोषित भी किया और जाते जाते सम्प्रदाय का वह विष बो गए जो आज भी फलफूल रहा है। उनके आने के पहले हमारे सम्प्रदाय संघर्ष की कहानी इतनी विषाक्त नहीं थी। डेढ़ सौ वर्ष की अंग्रेजी संस्कृति ने हमारी हजारों वर्षो की भारतीय संस्कृति की चूलें हिला दीं। आज भी हम उनके स्वागत में लाल दरी बिछाते हैं। वे जो हमारा कोहिनूर, तख्त-ए-ताउस चुरा ले गए। वे जिन्होंने लाल किले की छतों के फानूस, हीरे, नग, नोच लिए । वे जो हमारे बादशाहों की कोर्निश, हाथ जमीन पर रख सिर घुटने तक झुकाकर करते थे, आज उनकी भाषा और धोखा देने वाली संस्कृ ति का गुणगान करते नहीं थकते और वे हमें अपना पिछलग्गू समझते हैं। गोरी और गजनवी ने हमारी संस्कृति नहीं छीनी थी, धन लूटा था जिसे हम हाथ का मैल कहते थे, वे देश के आदर्श नहीं बने थे लेकिन अंग्रेज हमारे आदर्श बने हैं, हम भारतीय भाषाओं का विशाल भण्डार लिए अंग्रेजी में सोच और लिखकर ‘बुकर पुरस्कार’ पाने पर गर्वित हैं। भोजन, भारत का करके इंग्लैण्ड, अमेरिका में सांस ले रहे हैं। किस मुंह से हम विवेकानन्द, गांधी, रवीन्द्र का नाम लेते हैं। नाम स्मरण भक्ति का स्वरूप हो सकती है। उनके कार्यो को समय की आवश्यकतानुसार नया स्वरूप देना ही उन्हें याद करना है। कितनी अजीब विसंगति है कि गीता का कर्मयोग संतों और सन्यासियों की व्याख्या तक सीमित रह गया। उसे गांधी विनोबा, तिलक और अरविन्द ने जिस तरह समझ, उस तरह देश के निर्माताओं ने नहीं समझ।
हमने इतिहास से कभी सबक नहीं लिया, कदाचित इसीलिए हम हर बार पराजित होते रहे। राष्ट्रीय गान की तरह शब्द के अर्थ से परहेज करते हुए गाते रहे- ‘एक धोखा खा चुके हैं, और खा सकते नहीं’परंतु कभी विश्वास करते हुए कभी दबाव वश वार्ताओं की परिणामहीन परम्परा का निर्वाह करते रहे, कर रहे हैं। कभी कच्छ के रण का, कभी सियाचिन का कभी मेघालय, नागालैण्ड की सीमारेखा का रोना देश के सामने रोते रहे। हम न तो ठीक से किसी के विरोधी हो सके न मित्र। यह जानते हुए भी कि अमेरिका और चीन किसी के मित्र नहीं हो सकते, एकतरफा दोस्ती का हाथ बढ़ाते रहे। अमेरिका विश्व के लिए सिरदर्द ‘दादाभाई’ है। भारत उसके लिए सिर्फ उसका कबाड़ खरीदने के लिए बाजार है, चीन का भी सबसे बड़ा बाजार भारत है। हमने अपनी अस्मिता से समझोता कर लिया। अमेरिका-चीन नहीं बन सके परंतु क्यूबा और इजराइल से भी कुछ नहीं सीख सके। रूस जैसे मित्र को भी हाशिए पर डाल दिए। ‘अहं ब्रrास्मि’ दार्शनिकों के हिस्से में चला गया लेकिन मृगेन्द्र तो हम स्वयं थे, कहां गए वे भाव जो हमारे जीवन मूल्य थे।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09407041430. 

बाहर है खतरा तो घर में भी मुश्किल

 चिन्तामणि मिश्र
रोज हर पल और हर जगह आदमी के वेश में वासना से फटी जीभ लपलपाते कुत्ते मासूम बच्चियों, औरतों और दादी- नानी की उम्र तक को, बलात्कार का कभी न मिटने वाला दंश दे रहे हैं। इस पर काबू पाने के लिए कठोर कानून भी बना लेकिन हालात काबू में नहीं आ रहे हैं। अदालतें भी सक्रिय हो गई हैं।
ऐसे मामलों के फैसले भी असाधारण तेजी से निपटाए जा रहे हैं किन्तु बलात्कारियों के हौसले बुलन्द हैं। औरतों और बच्चियों में भय की सुनामी ऐसी पसरी है कि तिल-तिल अनजाने अंदेशों से उनकी दुनिया में तनाव और अपमान नत्थी हो गया है। मासूम बच्चियों से लेकर अधेड़ और वृद्ध डर से सहमी-सहमी जिन्दगी जीने के लिए शापित कर दी गई हैं। हांड़-मांस की नन्ही सी बच्ची अब घर के बाहर पड़ोस के अंकल से डरी हुई है, क्योंकि उसने उसे एक खिलौना समझ कर अपनी हवस के लिए रेशा-रेशा तार-तार कर दिया। उसकी मासूमियत अब किसी अंकल से टाफी-चाकलेट नहीं ले पाएगी। हर पराया-अपना मर्द-रिश्ता जीवन भर आतंकित करता रहेगा। बुजुर्ग की जान-पहचान भी डराती रहेगी। अंकल की गोद से भी भय जकड़ लेगा। खौफ के लहू-लुहान दलदल से ता-जिन्दगी गुजरना होगा।
अब हमारे समाज में औरतों को लेकर सम्मान और न्यूनतम सहानुभूति भी नहीं बची है। हमारा समाज सदियों से औरतों के प्रसंग में सामंती सोच और उसके ही अनुसार व्यवहार करता आ रहा है। धर्म के पैरोकार पांडव अपनी पत्‍नी को जुए के दांव में लगा देते हैं। राजसभा में नारी को वस्त्रहीन किया जाता है और राष्ट्र-समाज-धर्म के महानायकों को सक्रिय विरोध करने तक का साहस नहीं होता। अपनी पवित्रता सिद्ध करने के लिए औरत को ही अग्नि परीक्षा देनी पड़ती है और पुरुष अपने सत्ता सुख के लिए अपनी गर्भवती पत्‍नी को जंगल में छुड़वा देता है। औरतों पर हो रही हिंसा के लिए कानून और न्याय प्रणाली ही अकेले जिम्मेवार नहीं है। इस जिम्मेवारी का सर्वाधिक दायित्व समाज पर है।
हजारों साल से औरतों के जीवन में कोई बदलाव नहीं आया है।
पहले युद्ध जब होते थे तो दोनों पक्ष की सेनाएं औरतों को ही निशाना बनाती थीं और अब दंगों में भी औरतों को ही भोगना होता है। असल में पितृसत्ता जैसा कुशलतम प्रबंधन अभी तक दुनिया की सफलतम कंपनी ने भी नहीं किया है। यह पुरुष सत्ता का प्रबंध कौशल ही तो है कि जाति, धर्म खान-पान, पहनावा, संस्कृति, परम्परा और यौन-सम्बन्ध भी पुरुष के हाथों में ही है।
युग बदले, राज बदले, व्यवस्थाएं बदली, मूल्य बदले, लेकिन हर बदलाव को अपनाता हुआ पुरुष-सत्ता का अजगर टस से मस नहीं हुआ। औरतों को सताने और उनसे जबरन यौन सम्बन्ध बनाने की आसुरी मनोवृति आदिम युग से चली आ रही है, किन्तु इतने बड़े पैमाने पर और दुधमुंही बच्चियों से अस्सी साल की वृद्धाओं के साथ बलात्कार आधुनिक भोगवाद का प्रसाद है।
औद्योगीकरण तथा बाजारवाद की अंधी दौड़ ने कृत्रिम समृद्धि और निठल्ले जीवन को बेलगाम वासना के गटर का कीड़ा बना दिया है।
आज गांव हो या शहर, हर जगह और हर समय, हर प्रकार का नशा बहुत आसानी से उपलब्ध है। यह नशा विवेक को आसानी से रगेद-रगेद कर खतम कर देता और फिर बलात्कारी के सामने न तो औरत की उम्र होती है और न कोई रिश्ता होता है उसके जेहन में होता है केवल और केवल नारी शरीर जिसे वह पुरुषवादी हेकड़ी से भोगता है। केवल इसे कठोर कानून बना देने से समाप्त कर पाना कभी सम्भव नहीं हो सकता है। हमारा आशय यह कतई नहीं है कि कठोर कानून की जरूरत नहीं है।
जरूरत है इसकी। लेकिन समाज को औरतों के प्रति जो दोयम दर्जे की सोच है उसे भी बदलना होगा। हमारी वर्तमान बौद्धिकता की यह विचित्रता है कि यह अपने महान ज्ञानियों, मनीषियों और महापुरुषों,अवतारों, की केवल जय-जयकार करती है उनकी शिक्षाओं, आदर्शो की उपेक्षा करती हैं। लोगों का जीवन आदर्शविहीन, प्रयोजनविहीन और संस्कारविहीन होता जा रहा है। देश की प्रगति को आर्थिक मापदंडों से मापा जाता है। जबकि सामाजिक स्तर पर देश पाताल में जा चुका है।
असल में औरतों के सम्मान को बनाए रखने के लिए पुरुषों की सोच को भी बदलने की जरूरत है। दिल्ली में चलती बस में हुए गेंग रेप के बाद हमारे कुछ नेताओं, धर्म की महंती-चादर ओढ़े कतिपय सन्तों ने बेहयाई से जैसे बचन दिए उससे समाज की पितृ सत्ता के दबदबे के दर्शन आसानी से हो जाते हैं। गुजरात दंगों पर लोकसभा में हुई बहस के दौरान तत्कालीन केन्द्र सरकार के एक कैबिनट मंत्री ने पूरी बेशर्मी से कहा था कि औरतों के साथ बलात्कार तो होता ही रहता है, इसमें नया क्या है। यह मंत्री कभी लोहिया का साथी और खांटी समाजवादी था। बलात्कार के लिए महिलाओं को ही दोष मढ़ने की परम्परा कायम है। कह दिया जाता है कि औरते ऐसे कपड़े पहनती है जिससे कामुकता सिर उठाती है। उनके हावभाव को भी दोषी करार दे दिया जाता है। लेकिन चार-पांच साल की बच्ची और अस्सी साल की वृद्धा के साथ क्यों बलात्कार होता है? इनके पहनावा और हावभाव में कामुकता का तत्व कहां तक होता है? कभी मैंने एक दिल छूती अंग्रेजी कविता पढ़ी थी जो मुङो आज भी नहीं भूलती है। उसका हिन्दी अनुवाद कुछ इस तरह से है- रात के समय घर से अकेले मत निकलो, इससे मर्दो को प्रोत्साहन मिलता है। किसी भी समय अकेले मत निकलो, कैसी भी परिस्थिति मर्दो को प्रोत्साहित करती है। घर में मत रहो, घुसपैठिए और सगे सम्बन्धी बलात्कार कर सकते हैं। बिना वस्त्र के मत जाओ, इससे मर्दो को प्रोत्साहन मिलता है। वस्त्रों समेत मत जाओं, किसी भी तरह के वस्त्र मर्दो को प्रेरित करते हैं।
बचपन को टाल दो, कुछ बलात्कारी बालिकाओं से बलात्कार करते हैं। बुढ़ापे को टाल दो, कुछ बलात्कारी वृद्धाओं को पसन्द करते हैं। पिता, दादा, नाना, चाचा, ताउ या भाई से रिश्ता तोड़ दो, ये रिश्तेदार हैं जो कभी-कभी, बलात्कार करते हैं। पड़ोसी मत बनाओ, शादी मत करो,क्योंकि बलात्कार शादी में कानूनी है, निश्चिंत होने के लिए स्वयं को मिटा दो। लगभग हर विज्ञापनों में औरत की देह को, उपयोग और उपभोग की चीज बना कर परोसा जाता है, हर चैनल पर यौन शक्तिवर्धक दवाओं के अश्लील विज्ञापन दिखाए जाते हैं। परफयूम के विज्ञापनों में मर्दानगी का पागलपन दिखाया जाता है। ये घातक स्थितियां है इसे हमारा समाज ही पैदा करता है। सामान्य इंसान के रूप में औरत को स्वीकार किया जाना अभी बाकी है। कानून अकेला कुछ नहीं कर सकता। समाज में भी बदलाव की जरूरत है।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
सम्पर्क सूत्र- 09425174450. 

खटराग चिन्तामणि मिश्र


चिन्तामणि मिश्र
 कॉलेजों में पढ़ने वाले छात्र-छात्राओं की पिछले माह निबन्ध प्रतियोगिता सम्पन्न हुई थी जिसमें कुछ चुने हुए विषयों पर चालीस मिनट में एक निबन्ध लिखना था। इन निबन्धों का मूल्याकंन करने के लिए आयोजकों को पता नहीं कैसे और क्यों सूझ कि इस दिमाग-खाउ बेगार के काम के लिए मैं ही उपयुक्त हूं। इस धारणा के चलते आयोजक संस्था ने मेरे पास प्रतिभागिओं के बत्तीस निबन्ध मूल्याकंन के लिए भेज दिए।
मरता क्या न करता, अपनी साख बचाने के लिए इस चालीस डिग्री के आसपास झूल रहे तापमान में निबन्धों को पढ़ने लिए बैठना पड़ा। इन निबन्धों में आधे से भी ज्यादा निबन्ध औसत दर्जे के थे। कुछ निबन्ध अच्छे थे, किन्तु एक निबन्ध ऐसा भी था कि इसे पढ़ कर न केवल मैं चौंक पड़ा बल्कि इसे मैंने पूरे मनो-योग से तीन बार पढ़ा और मूल्याकंन के लिए निर्धारित अधिकतम सौ अंकों में से इस निबन्ध को मैंने सौ अंक भी दे दिए। इस निबन्ध का विषय था- ‘यदि मैं वित्तमंत्री होता।’ निबन्ध में लिखा गया था कि देश में भ्रष्टाचार को लेकर बहुत हल्ला हो रहा है।
वास्तव में भ्रष्टाचार बढ़ा है, किन्तु भ्रष्टाचार को बुराई के रूप में देखने का नजरिया अब बदला जाना चाहिए। वित्तमंत्री की हैसियत से मेरी कोशिश होगी कि विदेशों में भेजे जाने वाले भ्रष्टाचार के काले धन को किसी भी हालत में जाने से रोका जाए।
इसके लिए कई उपाए किए जाएंगे। जैसे विदेश में जमा रकम की सूचना देने वाले को सरकार उस रकम का आधा पैसा भुगतान करेगी और जिसका पैसा विदेश में जमा होगा उसे विशेष कानून बना कर पांच साल के लिए बिना किसी अदालत में मुकदमा चलाए जेल में सरकार रखेगी। निबन्ध में लिखा था कि अभी भी हमारे देश में कई ऐसे कानून हैं जिनको अदालतों और जमानतों से अलग रखा गया है। इन कानूनों से देश के नागरिकों के मौलिक अधिकारों की हत्या जरूर होती है, किन्तु देश हित में इनका चलन अभी भी हो रहा है। निबन्ध में लिखा था कि भ्रष्टाचार को खतम करने के लिए सरकारों ने ढेरों उपाए किए लेकिन किसी भी उपाए से कभी सफलता नहीं मिली। सरकार डाल-डाल चलती है तो भ्रष्टाचारी तुरन्त पात-पात चलने लगते हैं।
ऐसा लगता है कि हमारे देश में भ्रष्टाचार करना हमारी परम्परा में है। यही कारण है कि इसे खत्म नही कराया जा सका। वित्तमंत्री बन जाने पर उनकी सरकार भ्रष्टाचार को रोके जाने के लिए कभी कोई उपाए नहीं करेगी। भ्रष्टाचार के आलोचकों की नजर इस बात पर नहीं जाती कि भ्रष्टाचार से कमाया गया काला पैसा देश की अर्थ व्यवस्था को ही मजबूत करता है। अगर यह काला पैसा विदेश नहीं जा पाता है तो हर भ्रष्टाचारी इसे अपने ही देश में खर्च करता है। वह इस पैसे से घर, मकान बंगला, कोठी बनवाता है।
बेटे-बेटियों की शादी में बेतहाशा पैसा खर्च करता है। सराफा बाजार में खरीददारी करता है। मंदिरों, मठों और दरगाहों में सोना-चांदी के साथ नकद रकम चढ़ाता है। जाहिर है इससे वे हजारों लोग जो भवन निर्माण,विवाह शादियों और आभूषण बनाने धर्म को और अधिक विस्तार देने आदि का काम करते हैं उनको आसानी से रोजगार मिलता रहता है।
निबन्ध में लिखा था कि भ्रष्टाचार से कमाया गया पैसा अगर देश में ही रहता है तो देश की अर्थ-व्यवस्था को कोई नुकसान नहीं पहुंचाता है। यह काला पैसा शेयर बाजार में लगता है और इसी पैसे से बीओटी सड़कें,बांध, कारखाने बिजली घर रेल लाइनें रिहायशी कालोनियां, अपाटर्मेन्ट, निजी अस्पताल, निजी स्कूल-कॉलेज और निजी विश्वविद्यालय बनाए जाते हैं, जो देश की प्रगति के पैमाने होते हैं और देश की जनता को इनसे लाभ मिलता है। यूरोप से पढ़कर आए अर्थशास्त्री हमेशा कहते हैं कि भ्रष्टाचार से कमाया गया काला पैसा देश में मंहगाई बढ़ाता है।
लेकिन वे यूरोपीय अर्थशास्त्र के उन पर-बाबाओं के इस सिंद्वात की अनदेखी कर जाते हैं कि बाजार में वस्तुओं के मूल्य का निर्धारण उपभोक्ता करता है। जब तक ग्राहक की क्षमता किसी वस्तु को क्रय करने की जिस कीमत तक होती है तभी उस वस्तु की उतनी कीमत होती है। इस तरह यह पूरा खेल मांग और आपूर्ति के सिद्वान्त पर टिका है। काले धन और महंगाई का कोई सम्बन्ध नहीं होता है। यह कोरा मिथक है। निबन्ध में लिखा था कि गरीब आदमी अपने पास के एक रुपए में से नब्बे पैसा खर्च कर देता है और दस पैसा बचत में लगाता है। किन्तु अमीर आदमी एक रुपए में से दस पैसा खर्च करता है और नब्बे पैसों की बचत करता है। अपनी इस बचत को वह शेयर बाजार में निवेश कर देता है। जिसका लाभ निजी सेक्टर को मिलता है और अन्त में इससे देश की ही तो प्रगति होती है और देश मजबूत होता है। इसी निबन्ध में एक और उपाय इस भावी वित्तमंत्री ने लिखा कि उनकी सरकार एक हजार और पांच सौ के नोटों का चलन तत्काल प्रभाव से बन्द करेगी और सौ रुपए के नोटों का डिजाइन बदल कर एक पखवारा तक बैंकों में पुराने सौ रुपयों के नोटों को बदलने का काम करेगी। इस अवधि के बाद पुराने सौ रुपए के नोटों का चलन बन्द हो जाएगा। नोटों को बदलने के समय किसी भी प्रकार की पूछ-ताछ नहीं की जाएगी। केवल फोटो लगा पहचान पत्र लाना होगा और बैंक नागरिक का नाम पता तथा पहचान पत्र का विवरण अंकित करके नोट बदल देंगे। बाद में कालेजों तथा विश्वविद्यालय के मास्टरों को नोट बदलवाने वाले नागरिक के घर भेज कर यह कन्फर्म कराया जाएगा कि बदले गए नोट काला धन है या सफेद। इससे वे तमाम लोग जिन्होंने काला धन कमाया है पकड़े जाने के भय से नोट बदलने नहीं आएंगे और अगर किसी ने ज्यादा होशियारी दिखाई तो वह जांच में तो पकड़ा ही जाएगा।
मैं जानता हूं कि इस निबन्ध में लिखे गए उपाए असम्भव तो नहीं है, किन्तु इन्हें लागू कर पाना कठिन और अव्यवाहारिक हैं, क्योंकि हमारे राजनेता इसे लागू ही नहीं होने देंगे। यह लोग ऐसी सरकार को ही नहीं चलने देंगे और अविश्वास प्रस्ताव लाकर उस सरकार को ही गिरा दे, जिसमें ऐसा वित्तमंत्री होगा। बहरहाल इस निबन्ध से यह तो साफ हो गया कि हमारे देश का युवा वर्ग देश की दशा-दुर्दशा को लेकर कितना गम्भीर है और इसको सुधारने के लिए चितिंत ही नहीं है बल्कि सोचता-विचारता भी है। हालांकि यह समस्या अर्थशास्त्र से जुड़ी है और इस पर विद्वान अर्थशास्त्री ही कहने के लिए अधिकृत हो सकते हैं, किन्तु यह भी हमारे देश में विचित्र विडम्बना है कि जरूरी नहीं है अर्थशास्त्री ही वित्तमंत्री हो या फिर स्वास्थ्य विभाग का मंत्री डॉक्टर ही हो। कई बार तो अपने देश में शिक्षा मंत्री केवल दसवीं पास बन चुके हैं।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09425174450.Details

Friday, May 10, 2013

Right to Recall – An Indian perspective


Right to Recall” referendum, recalling representatives, is important and necessary feature of an effective Governance system. This system of recall has its origins in Vedic culture and is more than 5000 years old. Later in medieval times it is termed as “Rajdharma“. Various forms of Rajdharma can be found in various texts likeDharmashastras, Nitishastras, Mimamsa, Manusmriti, Narad-smriti, Raja Kalasya Karnam,  and Arthashastras. Not all the texts have been translated yet, especially the legal and socio-political aspects, the role of the King and the citizens.  Various scholars are trying to unearth these old ”Smriti”s. These texts also mentions about the existence of “Jury” system in the court. (for more details please visit hindusocialpolity.com)
M N. Roy, a radical humanist of India, in 1944  proposed an alternative system of political economy emphasising decentralisation and devolution of power, which would be in tune with his humanistic approach of restoring sovereignty to the individual in society with a right to recalling their representatives.(New Humanism, page 13, 62). Jayprakash Narayan, the “Loknayak” in 1950 demanded “Right To Recall” in ”Total revolution”, and is supported by Nitish Kumar, CM Bihar, in this TOI article.
In 2008, Lok Sabha Speaker Somnath Chatterjee advocated a system of ‘Right of Recall’ of a legislator as a possible remedy to the misconduct by members of Parliament and legislatures. But the outcome of the round table had mixed views and most of the members opined it is a recipie for chaos given the political scenario existing in India.(Source: thehindu.com)
Currently the law of “Right to Recall” exists in five countries. It is effectively applied and used in USA and Switzerland. (Source:Wikipedia.org)
In USA, the recall referendum exists for local jurisdictions. In 19 states it is applicable to recall State officials. It is not incorporated in the constitution yet. The requirements vary depending on the states, but the common factor is his non-compliance of his duties, like, incompetency, felony, involvement in corrupt act, misconduct, etc. It requires 20% to 40% votes, depending on the states requirement, from the voters participated in the last election. (Source: NCSL.org)
In Switzerland it exists in six cantons. It requires 2% – 13% adult votes, depending on the cantons voting requirement, to trigger a recall referendum. (Source: JSTOR)
Venezuela‘s constitution has a provision described in article 72, where once the representative has finished his 1/2 term then a motion for revocation can be called and requires 25% voting of the registered voters who voted earlier. (Source: Analitica.com)
Australia is also advocating and educating to implement Right to Recall. (Source: ALOR)
Here is the question asked regarding implementation in Australia.
Q:How can the Swiss principle be implemented?
A: In the same way that the Australian people created their own Federal Constitution. The concept first grew in the minds of farsighted men. It had to be fostered by a grassroots  movement. Only when the public demand becomes strong enough will the principle be adopted by the politicians. If present politicians will not pledge to work to introduce the principle, or permit the electors to decide by referendum whether or not they want to have the principle implemented, they will have to be replaced by others who will. There are no short-cuts to success; hard work is required by dedicated people along with the use of the type of innovations developed by the pioneers of the Australian nation.
In Newzealand, a better argument, its pros and cons, is provided by Steve Baron. (Source: Better Democracy)
Examples of Right to Recall in USACanada and consideration in UK. (Source:UCL.ac.uk)
Don’t we need “Right to Recall” in Indian Governance system?
In my opinion, India requires electoral reforms to implement RTR. The reason being, we have too many corrupt politicians and RTR might create a chaos and will be an expensive treat to India. Thus it will be disastrous for India to implement at National level. The best approach will be bottom-up, implementing at Municipal levels and move upwards.
Here is the example of Chattisgarh Province, probably for the first time in India, the Nagar Palika Act of Chattisgarh Province, which gives ‘the right to recall’ to the citizens, has taken a toll of three civic chiefs who were voted out of their office recently. ( Ground Report - Link provided by Vishal K. Singh FTI member)
Steve Baron had put a list of arguments, which he addressed in the his document, of Answers to Arguments Against Direct Democracy. They are listed below:
  • Voters lack competence and good information to make sensible decisions
  • The public are irresponsible and will only support Referendums that promise short term benefits
  • Moneyed interests & the media decide referendums
  • Referendums are a tyranny of the majority & harm minorities and civil rights
  • Referendums do not allow for compromise
  • We elect MPs to represent us, let the professionals do their jobs
  • This removes the need for political parties and Weaken democracy
  • There would be referendums every day of the week, This is government by referendum
  • Referendums are badly drafted & Misleading
  • Referendums lead to demagoguery and mob rule
  • Referendums are too expensive
  • Referendums stifle innovation and damage the economy
  • Radical minorities will disrupt society by forcing referendums
  • Do referendums favour Conservatives or Liberals? the left or the right?
  • Referendums should have minimum thresholds & turnout requirements
  • Referendums should be limited to certain uses
  • Would the Government be bound by the result of a referendum?
Two final year students, of New Law College, Bharati Vidyapeeth University, Pune  have submitted their essay on “Right to Recall: Need of Democracy” which is interesting to read. This article throws some light on merits and demerits of this RTR referendum. (Source:mightylaws.in)
Merits:-
  • Recall is a process which enables voters dissatisfied with an elected official to replace him before the expiry of his term of office, which will make them more accountable to the people.
  • The ‘recall’ device has also the potential to encourage the citizens to keep themselves side by side of contemporary public issues in order to monitor the conduct of their elected representatives.
  • It provides a way for citizens to retain control over elected officials who are not representing the best interests of their constituents, or who are unresponsive or incompetent.
  • This mechanism holds that an elected representative is an agent, a servant and not a master in a democratic state.
Demerits:-
  • How will the government determine whether the petition submitted to it for the recall of the elected representatives carry the signatures of the genuine voters?
  • How will it be ensured that the signatures of such a large number of people have not been forged?
  • It can lead to an excess of democracy, where the threat of a recall election lessens the independence of elected officials.
  • It undermines the principle of electing good officials and giving them a chance to govern until the next election, and that it can lead to abuses by well-financed special interest groups.
  • It will only compound an already problem-ridden system.
  • Country like India is not in a position to hold election so frequently.
Excerpts from Rahul Mehta’s website “Right to Recall Party” where Rahul Mehta explains in his own words, underneath which is an eye opener.
You must have heard from your relatives, friends in US that the corruption in US police\courts is far less than corruption in India’s police\courts. Every NRI in India must have noticed this from day one. And this must have been a mystery to you – why are the policemen\judges in US far less corrupt? Are the policemen\judges in US so stupid, compared to the policemen\judges of India, that they can’t think of clever ways to extort bribes from their citizens? Surely, they are not so stupid. Are they so coward that they can’t muster courage to arm twist citizens and squeeze bribes from them? Surely not ; they are as courageous as policemen in India – no less. Then are all policemen\judges in US saints free from greed? No. There can’t be millions of greed-free people in any country. Then is higher salary alone main reason for low corruption? Well, lets say we double the salaries of our policemen\judges in India this week; then will they will they give us even 10% discount in bribes starting next week? For example, in 2009-2010, Govt tripled the salaries of all judges. Did the judges give even 10% discount in bribery next day? I guess not. If a GoI employee thinks that his salary should be twice of what he is getting, and so he needs bribes, then does he stop taking bribes after collecting bribes equal to 30 years of salary difference? No, most of them never stop. So salary is surely an important issue, but not a major factor to create the difference between levels of corruption in India and US. Then what else can be the reason?.

Is our culture a reason? Many intellectuals (ku-buddheejeevies?) of India have 4 digits IQ, and they say that policemen in India are more corrupt because we commons are uneducated, unaware, lack moral character, we have bad political culture etc. IOW, as per these intellectuals with 4 digit IQ, we the citizens are responsible for the corruption in policemen\judges !! These “blame the victim” explanation given by intellectuals with 4 digit IQ is something I dismiss as a white lie. It reeks and stinks like “women are responsible for rapes”. The whole argument of “citizens don’t have awareness” is a total humbug. Even most illiterate person is very much aware that corruption is immoral and it is crime. And surely all policemen, judges, Ministers are very much aware that corruption is illegal and immoral. And even when education in US was less than 5% in year 1800s, they did not have such corrupt police, courts etc. Hence IMO, lesser education is a non-issue and “citizens lack awareness” is total humbug cooked up by intellectuals with 4 digit IQ.


Then what are the real reasons behind lesser corruption in US policemen?
Lets divide police force in two broad parts – junior officers like Constables\Inspectors and seniors like District Police Commissioner. The Police Constables in US don’t take bribe because District Police Commissioner in US spends a lot of his time in setting traps. So a Constable knows that 1 out 100-500 law violator is a trap set by Commissioner and he might land in prison if he dares to ask for bribes. E.g. when I was in US from 1990-1998. I was stopped by Constables 5 times for traffic violations. The constables fined me three times and pardoned me two times, but didn’t even hint that they were interested in bribes. Why? The main reason being : he knew that 1 out 200 such traffic violators are traps set by Commissioner and he doesn’t know which one is the trap. So he forgoes bribes in all 200 cases. And many nodal officers in US like District Education Officer, District Public Prosecutors, Governors etc set traps against officers, Ministers, judges. The occasional traps keep all junior staff bribe free.


So this explains why junior staff is less corrupt. But then why does Police Commissioner of US set traps to stop bribes while Police Commissioner in India orders Constables to collect bribes? Why the difference? Why doesn’t Police Commissioner of US also give targets to Constables? The one and only reason is : citizens in US have procedure to expel District Police Chief. IOW, if citizens in an US district want to expel District Police Chief they don’t need to approach DIG/CM and file useless complaints. They do not need to approach High Court judges and file worthless PILs. The citizens in US only need to prove that majority district voters want Police Commissioner to be expelled. And once the majority is proven against a District Police Chief, he is expelled and no High Court judge or Supreme Court judge dares to throw stay order and delay his expulsion. Likewise, if citizens in US want to expel CM, Mayor, District judge, District Public Prosecutor, District Education Officer etc they don’t need to approach MLAs or PM or party leaders or judges – the citizens only need to prove majority opinion in that District or State, and the officer is expelled. So Police Chief etc in US knows and thinks that if staff becomes very corrupt, citizens will expel him. And so these nodal officers like Commissioners set traps and so corruption in junior staff is less.


Now strangely, Atharvaved can explain low corruption in US policemen. How? Chap-6 of Satyarth Prakash is Raaj Dharm. In this chapter, Swami Dayanand enumerates powers of citizens, officers, Ministers, judges and their duties. In the very first page of chap-6, Swami Dayanand establishes the foundation of Raaj-Dharm. He gives two words – “Prajaa-aadheen Raajaa”. And in these two words, he summarizes 10000 proposals on good politics. And then he elaborates : “Raajaa must be Prajaa-aadheen, or else he will rob the citizens and destroy the nation”. And he has taken shlokas from Atharvaved. And a cursory comparison of India’s Police Commissioner, Ministers, judges etc with US Police Commissioner, Ministers, judges etc shows how correct the sages who wrote Atharvaved and Swami Dayanand are. The citizens in US have procedures to expel their District Police Chief, CM etc i.e. they are all Prajaa-aadheen, and so Police Chief, judges, CM etc in US don’t rob citizens but protect citizens Whereas citizens in India cant expel or do any damage to Police Chief, CM etc and thus they are not Prajaa-aadheen. And so we see that most Ministers, judges in India are busy robbing us commons. How apt is the analogy of Maharshi Dayanand – “just as carnivorous animal eats other animals, a Raajaa who is not Prajaa-aadheen would rob his citizens”. And thus of all things in this world – two words from Satyarth Prakash explain why corruption in US police is low. And to me, it is an utter irony that I have to give example of US to prove the worthiness of these two words of Satyarth Prakash.
Right to Recall means procedures by which citizens can expel/replace PM, CM, judges, Police Chief etc. This system came in US in 1800 AD. Today, corruption in US police and courts is much less than India. And the only reason is that citizens in US have procedures by which they can replace Governors, Police Chief, judges, Govt lawyers etc. In Europe, Karl Marx had demanded Right to Recall in 1871. In India, 1946 M N Roy in his book “Draft Constitution of India” had put utmost emphasis on Right to Recall. M N Roy had said that election alone without recall is of no use. Between 1960-77, Jayprakash Narayan demanded Right To Recall 100s of times. The 1977 Janata Party manifesto by which Advaniji and Vajpayeeji became Minister for the first time had promise of implementing the Right to Recall……..
There is a Gujarati saying “garaj patee ke veree” i.e. “I don’t need you anymore and so I am your enemy”. Why is it that the moment election ends, the Ministers become enemy of citizens and friend of the rich? Because we citizens don’t have procedures to expel them.

The Right to Reject all Candidates

Dr. A Surya Prakash, Distinguished Fellow,

The demand that voters should have the right to reject all the candidates in a constituency is now picking up with many non-government organizations and even the Election Commission supporting the idea. The proposal is to give electors the choice to press the button which says “None of the Above” if they do not like to vote for any of the candidates listed in the electronic voting machine. This option will come after the name of the last candidate in the voting machine.
The Election Commission first made this proposal in 2001. It also figured in the proposals made by the commission in regard to electoral reform in the year 2004 when Mr.T.S.Krishnamurthy was the Chief Election Commissioner (CEC). In those proposals the commission suggested several measures to check criminalization of politics and to improve transparency in regard to the antecedents of candidates via affidavits filed by them while filing nominations. The commission also had many other suggestions in regard to conduct of political parties and publication of exit polls.
In this set of recommendations which was forwarded by the C E C to the then Prime Minister, the Election Commission also expressed itself in favour of giving the voters the right to what is called negative or neutral voting. The commission said it had received proposals from a large number of individuals and organizations that voters must have the provision to reject all the candidates in a constituency, if they did not find any of them suitable. The commission noted that when the conventional ballot paper is used in an election, the voter can drop the ballot paper into the ballot box without marking his vote. However, no such provision is there in the electronic voting machines. Further, under Rule 49 ( o ) of the Conduct of Election Rules, 1961, a voter has the right to refuse to vote after he has been identified, his presence is marked in the register of electors and he is issued a ballot paper. However his decision not to vote does not remain a secret because polling officials and polling agents become aware of the voter’s decision. The Commission therefore recommended that the law be amended to specifically provide for negative or neutral voting. This can be done by amending Rules 22 and 49B of the Conduct of Election Rules, 1961 and adding a proviso that in the ballot paper which lists all the names of the candidates, there should be a column after the name of the last candidate which says “None of the Above”. This will enable a voter to reject all the candidates in the constituency. The Commission, while making this proposal in 2004 reminded the government that it had made a similar proposal earlier in December, 2001 and that a petition filed by the People’s Union for Civil Liberties seeking such a provision was pending before the Supreme Court. This case came up a year ago in the Supreme Court before a two-judge Bench and the Bench decided to refer this matter to a five-judge Bench. The court referred to earlier judgements of the court which recognized the voters’ right to information in regard to the assets and criminal past of candidates and said that this had given a new dimension to the conduct of free and fair elections.
The court said "These judgments also gave an expansive meaning to the term `expression' used in Article 19(1) (a) by declaring that in the democratic set-up of our country, the electors' right to have complete information about the candidates and then express his choice for a particular person, are necessary concomitant of the freedom of expression guaranteed under Article 19(1) (a)." The Election Commission, which had made this proposal way back in 2001, supported the petitioner but the union government wanted the petition dismissed. A larger Constitutional Bench will now hear this case.
During the arguments, Mr.Rajinder Sachar, who appeared for the Petitioner, said Rule 17A in the Conduct of Election Rules says that “Elector deciding not to vote. — If an elector, after his electoral roll number has been duly entered in the register of voters in Form 17A and has put his signature or thumb impression thereon as required under sub-rule (1) of rule 49L, decided not to record his vote, a remark to this effect shall be made against the said entry in Form 17A by the presiding officer and the signature or thumb impression of the elector shall be obtained against such remark.” He said this violated Article 19 1 (a) of the Constitution relating to freedom of speech and expression.
More recently, National Election Watch (NEW), a nationwide campaign comprising of more than 1200 NGOs and other citizen led organizations, which is working on electoral reforms and democracy and governance-related issues has demanded that the electronic voting machine must have a button which says “None of the Above”. It has said that
when a provision is made for “None of the Above” – which would give people the option not to vote for any candidate if they do not like any of the contesting candidates.
If the “None of the Above” option gets maximum votes, it would mean that all the
contesting candidates have been rejected by the voters. If this happens, National Election Watch wants a re-election to be held in which none of the previous contestants should be allowed to contest again.
The movement to effect this reform is now really catching up in the country. However, since the Supreme Court is looking into this issue, one will have to wait until this case is decided.

जेलों को कत्लगाह बना दिया


जेलों को कत्लगाह बना दिया पाकिस्तान की लाहौर जेल में भारतीय सरबजीत सिंह पर उसी जेल में ही बन्द कुछ कैदियों ने प्राण घातक हमला करके मार डाला। इसके पहले भी पाकिस्तान की जेलों में बन्द कई भारतीय कैदियों पर हमले हो चुके है और उनकी मौत हो चुकी हैं। भारत की जेलों में भी ऐसी घटनाएं होती हैं। अभी जम्मू की जेल में एक पाकिस्तानी कैदी पर जेल में ही एक कैदी ने प्राणघातक हमला किया है जिसका इलाज चल रहा है। वैसे इस तरह के हालात पाकिस्तान और भारत की ही जेलों के नहीं है जहां कैदी हमले के शिकार होते हैं।
सारी दुनिया की जेलों की यही कहानी हैं। हालांकि हर सरकार कैदियों के मानवाधिकार की हिफाजत की कसमें खाती रहती हैं, किन्तु कैदियों का जीवन जेल अधिकारियों तथा जेलों में बंद दबंग और माफिया कुनबे के कैदियों के रहम पर ही टिका होता हैं। जेलों में सरकार का कानून नहीं चलता, जेल मैन्युल खेतों में खड़े उस बिजूके की तरह होते हैं जिन्हें किसान जंगली जानवरों से अपनी फसल बचाने के लिए स्थापित कर देते हैं।
ऐसे ही हालात पुलिस हवालात में बन्द कैदियों के हैं। पुलिस अपनी हिरासत में लिए व्यक्ति को अपनी हवालात में उस पर आरोपित अपराध की स्वीकृति के लिए थर्ड डिग्री का बैखौफ इस्तेमाल करती हैं। इन पर ऐसे अमानवीय अत्याचार किए जाते हैं कि सुन कर ही कपड़े खराब हो जाते हैं और पेट के भीतर का सब खाया-पिया बाहर आ जाता हैं। लगातार घन्टों और कई बार कई दिनों तक चलने वाले इस अत्याचार के कारण कैदी के प्राण परमधाम की यात्रा पर निकल जाते हैं और कई बार इनको मार ही दिया जाता है। हमारे देश में अपराधों के अनुपात में पुलिस बल की कमी और सबूत जुटाने के लिए जरूरी दक्षता का अभाव तथा पुलिस संगठन की डडंहाई सोच के चलते हवालात में कैदियों के साथ किए जाने वाले बर्बरता के रूप में सामने आता हैं। अभी सरकार ने संसद को बताया है कि पिछले तीन साल में देश में पुलिस हिरासत में 417 लोगों की मौत हुई हैं।
असल बात तो यह है कि पुलिस के कामकाज के तरीके ज्यादा हिसंक हुए हैं। पुलिस की ज्यादती पर सुप्रीम कोर्ट कई बार चिन्ता प्रगट कर चुका है। सन 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने ग्यारह सूत्री निर्देश जारी किए थे, जिसमें उल्लेख था कि अगर पुलिस किसी को हिरासत में रखे तो किन-किन बातों का पालन करना होगा, लेकिन इनका पालन करना जरूरी नहीं समझ गया। जेलों और हवालातों में कैदियों के साथ होने वाले अमानवीय बर्ताव को लेकर मानवाधिकार आयोग नाराजगी जता चुका हैं किन्तु आयोग की कोई सुनता ही नहीं है ऐसा आभास होता है। जेलों में क्षमता से अधिक कैदी रखे जाते हैं।
हर बैरक में दुगने से भी ज्यादा कैदी बन्द कर दिए जाते हैं। इनमें शैाचालय व पीने का पानी भी मानदंड के अनुसार नहीं होता।
जेलों में भीड़ अधिक होने तथा भ्रष्टाचार की वजह से न तो समुचित भोजन मिल पाता है और न साफ-सफाई हो पाती है।
बीमार कैदियों को चिकित्सा तक सुलभ नहीं होती।
हर जेल का अलिखित कानून है कि कोई भी कैदी इस प्रसंग में अपना मुंह नहीं खोल सकता अगर वह ऐसा करता है तो उसके शरीर को गीले आटे की तरह इस तरह गूंथा जाता है कि सारी जिन्दगी वह इसे भुला नहीं पाता। जेलों में समलिंगी यौन शोषण आम चलन में हैं। दबंग कैदी आम कैदी से अपनी सेवा ही नहीं कराते बल्कि उस पर हिंसक दबाब बना कर नियमित रूप से पैसा भी वसूलते हैं। जेल प्रशासन आज भी लार्ड मैकाले की सोच का कायल है कि कोई भी अपराधिक कानून तब तक कारगर साबित नहीं हो सकता जब तक जेल में कैदियों को प्रताड़ित करने के साधन उपलब्ध न हों। सन् 1836 में जेल सुधार समिति की रपट से असहमत होते हुए मैकाले ने जेलों में अनुशासन बनाए रखने के लिए कठोर नियमों का होना जरूरी बताया था। जेल अधिनियम 1894 इसी पृष्ठभूमि में बना था।
कारावास अपने आप में एक सजा है। जेलों और हवालातों में यातना देना या मानव सुलभ सुविधाओं से कैदियों को वंचित रखना कानून की मंशा नहीं होनी चाहिए। जेलों और पुलिस की हिरासत में होने वाली मौतें सरकारी व्यवस्था का अमानवीय रूप उजागर करती हैं। देश में कैदियों के अधिकारों की किसी को भी परवाह नहीं है। सबसे चिन्ताजनक पहलू तो यह है कि हिरासत में या जेल में हुई मौतों या कैदियों को घायल करने के मामलों किसी की जबाबदेही निर्धारित करने के मामलें में लुंज- पुंज हैं, सटीक कार्यवाही का अभाव हैं। जेल प्रशासन ऐसे मामलों में बड़ी सफाई से यह तर्क देकर बच निकलता है कि कैदी आपस में लड़े हैं और जेल प्रशासन ने खबर पाते ही उचित व्यवस्था की हैं। देश में कौन नहीं जानता कि हमारी जेलों में मुंह मांगा पैसा खर्च करने पर जेल के भीतर हर वह चीज उपलब्ध हो जाती है जिसकी जेल नियमावली में मनाही है।
बहरहाल हवालात और जेल में कैदियों के साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार पर अंकुश तभी लग सकता है जब सरकार और मानव अधिकार आयोग गम्भीरता से कुछ ऐसे उपाए करें जिससे पुलिस तंत्र और जेल प्रशासन को मनमानी का मौका ही न मिले। सरकार की प्राथमिकताओं में जेल विभाग बहुत नीचे आता है। आम नागरिक भी जेलों से कोई सरोकार नहीं रखना चाहता। मीडिया के लिए जेलों के दरवाजे बन्द है जेलों की ऊंची चहारदिवारी के अन्दर झंकना असम्भव है। इस स्थिति में सरकार को संवदेना दिखानी चाहिए। सरकारें आज भी यही सोच रखती हैं कि अपराधी को समाज से दूर रखा जाना ही कारावास का मतलब है। अगर ऐसा ही है तो फिर जेलों पर इतना खर्च करना ही गलत है, अंग्रेजी राज की तरह कैदियों को किसी समुद्र में निर्जन टापू पर छोड़ देना सस्ता विकल्प है।
जेलों की हालत सुधारने के लिए कुछ तात्कालिक कदम तो उठाए ही जा सकते हैं जैसे- हवालातों और जेल के भीतर कैमरे लगाए जाएं और किसी भी हालत में इनको बन्द न किया जा सके। न्यायिक अधिकारी भी नियमित रूप से और कभी-कभी अचानक हवालातों तथा जेलों का निरीक्षण करें। इसके साथ प्रख्यात समाज सेवकों और मीडिया के लोगों की भी समिति हो जो इन जगहों का औचक निरीक्षण करके अपनी रपट सरकार को दें और सरकार ऐसी रपटों पर तुरन्त कार्रवाई भी करें।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
सम्पर्क सूत्र- 09425174450.

शिक्षा का तीर्थ विश्वभारती


हमारे देश में एक ऐसा भी समय था कि विदेश यात्रा करने वाले को विधर्मी होने की आशंका से देखा जाता था, इसी कारण देश की तमाम प्रतिभाएं स्थानीयता में सिमटकर रह गईं।
मोहनदास करमचंद गांधी की मां ने लंदन पढ़ते जाते समय अनके शर्ते रखीं और गांधी ने उनका पालन करने का वचन दिया। बावजूद इसके, देश के जो भी लोग विदेश गए उन्होंने न सिर्फ देश में अपितु विश्व में विशिष्ट पहचान बनाई। शांति निकेतन (विश्वभारती) के रवीन्द्र संग्रहालय में नोबल पुरस्कार की प्रतिकृति (मूल पदक चोरी चले जाने के बाद) देखते हुए मैं सोच रहा हूं कि गांधी, अफ्रीका वकील बनकर गए थे, ..महात्मा.. बनकर लौटे। कहते हैं कि ..महात्मा.. का विरुद रवीन्द्र ने बापू को दिया तो बापू ने भी रवीन्द्र को ..गुरुदेव..कहा। विवेकानन्द शिकागो धर्म सभा में गए और ..स्वामी.. होकर जगत विख्यात हुए। यूं भारत की अपनी वर्तमान सीमा में ही अनेक जगत और गुरु हैं। सुभाषचन्द्र बोस ने आईसीएस की उपाधि ठुकराई, ..नेताजी.. के नाम से प्रसिद्ध हुए और सिंगापुर में आजाद हिन्द फौज की स्थापना की, विश्व की सबसे बड़ी शक्ति से लोहा लिया। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने जितनी विदेश यात्राएं की, आज तक शायद ही किसी भारतीय कवि ने इतनी यात्राएं की हों। रवीन्द्र ने दुनिया देखी अपनी दृष्टि से, दुनिया ने भारत को व्यावसायिक दृष्टि से भी देखा और अब भी देख रहा है। रवीन्द्र ने विश्व-यात्रा में आधुनिकता और भारतीय परम्परा पर गंभीर चिंतन किया।
आधुनिकता के शोर और भौतिकता के बीच वे भारतीयता के एकमात्र ऋषि हैं जिन्हें विश्व ने ..विश्वकवि.. माना। विश्व के अनेक देशों ने उन्हें सुना और भारत को जाना। ..नोबल.. की राशि उन्होंने ..भारती..को सौंप दी। रवीन्द्र ने देश के विद्यापीठों, मुस्लिम और हिन्दू विद्यालय देखे थे। भारती (सरस्वती) को वैश्विक बनाकर ..विश्वभारती.. की स्थापना की। बाद में वे विश्वगुरु हो गए, किसी विरुद से नहीं, विश्व की अठारह विदेशी भाषाएं विश्वभारती के आंगन में आज मुखरित हैं, अविरोधी और अकुंठ भाव से, परिवर्धित और पल्लवित होती हुई।
..अथातो जिज्ञासा.. जिन उपनिषदों का आर्षवाक्य हो, उसके अध्येता भूल गलती के डर से ज्ञान के कपाट बंद कर देंगे तो सत्य, द्वार से दस्तक देकर चला जाएगा।
महात्मा गांधी से प्रभावित होकर सीएफ एन्ड्रूज अपना देश छोड़कर बापू के पास रहकर ..दीनबन्धु.. हो गए। परंतु जीवन के उत्तरार्ध में एन्ड्रूज ने सारा जीवन रवीन्द्र के सम्पर्क में शांति निकेतन में बिताया। गांधी, रवीन्द्र के वैयक्तिक जादू से चकित थे। एन्ड्रज की मृत्यु गांधी शांति निकेतन गए और 1945 में..एन्ड्रज मेमोरियल अस्पताल.. की स्थापना पर रवीन्द्र के निधन के बाद भी गए और ..श्यामली.. में रुककर साबरमती की कलाहीनता को महसूसते रहे। जोरासांको का राजप्रसाद भले ही भव्य रहा हो उस जैसे प्रासाद देश में अनेक हैं, लेकिन शांतिनिकेतन श्री निकेतन, उत्तरायण, श्यामली और पुनश्च, विश्व भर में अकेले और अद्वितीय हैं। रवीन्द्र के अभिजात्य की भव्यता आकर्षित करती थी। जवाहर लाल नेहरु अनेक बार शांति निकेतन गए। इंदिरा 1931 में कला विभाग के प्रथम वर्ष में भर्ती हुई। गुरुदेव ने उनका नाम ..प्रियदर्शिनी.. रखा। रवीन्द्र को नामकरण का शौक था पत्‍नी भवतारिणी का नाम बदलकर ..मृणालिनी.. रखा। जवाहरलाल अपनी बेटी को संसार के किसी भी संस्थान में पढ़ा सकते थे परंतु रवीन्द्र का सानिध्य संस्कार के लिए अधिक उचित मान कर एकमात्र संतान को बाल्यावस्था में शांतिनिकेतन के हवाले कर दिया। पुरा भारतीय न तो विदेश गए न अपनी कला को जाने दिया। भारत के अनेक उत्पाद आज विश्व में सवरेपरि हैं। पतंजलि का योग सर्वमान्य हुआ जबकि यह देश में भी छिपाकर चोरी में किया जाता था। गांधी एक नाम नहीं विश्व का कोई भी ऐसा देश नहीं है जहां गांधी की प्रतिमा न हो और जिसे अहिंसा का देवदूत न माना जाता हो। भारतीय शास्त्रीय संगीत का परचम लहराने वाले पंडित रविशंकर जिनके सितार की बंदिश देश की पहचान है और भारतीय नृत्यों पर विश्व थिरकता है। यूनिसेफ 2001 में केरल के कुड़ीअट्टम नृत्य को विश्व धरोहर के रूप में मान्यता दी है। रवीन्द्र मात्र विश्व कवि नहीं थे। वे चित्रकार, शिल्पकार, गायक, वादक, अभिनेता, निर्देशक और संगीत के राजदूत थे। रवीन्द्र संगीत न सिर्फ बंगाल् और बांग्लादेश में गूंजता है, वरन भारतीय संगीत का मूल आनंद भाव लिए विशिष्ट बन गया है। भारत और बांग्लादेश के अनेक अंतरविरोधी समस्याओं के बावजूद दोनों देश एक ही भाव से रवीन्द्र की 150 वीं जयंती संयुक्त रूप से मना रहे हैं। यह राजनीति पर साहित्य और कला की अघोषित विजय है। बंगाल् का जातीय बोध श्लाघ्य है। देश का राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान बंगाल् के कवियों के नाम है। हिन्दी कवि भारत भारती लिखता है त् बांग्ला कवि विश्वभारती की कल्पना भर नहीं करता, उसे साकार करता है। शांति निकेतन को देखते हुए उसके अतीत की अनदेखी नहीं की जा सकती। किसी संस्थान को समग्र रूप से देखने के लिए उसके अतीत को भी देखना पड़ता है। वर्तमान से क्षुब्ध होना और भविष्य के प्रति चिंतित होना मनुष्य का स्वभा है। जहां बैठकर कभी आचार्य द्विवेदी ने ..अशोक के फूल.. लिख् थे, वहां उपजी गाजर घास और सीढ़ी तक ..आचार्य निवास.., मौसमी झड़-झंखाड़ों की गिरफ्त में है।
2013 विश्व कवि के नोबल का शताब्दी वर्ष है। देश और विदेशों में भी किसी भारतीय साहित्यकार की जयंती इतन् धूमधाम से नहीं मनाई गई। गीत-संगीत, नृत्य और नाटकों के साथ उन्हें याद किया जा रहा है। रवीन्द्र की परिकल्पना का ही परिणाम है कि विश्व में आश्रम कल्पना का एकमात्र शिक्षा केन् ..विश्वभारती.. सम्पूर्ण कला सम्पदा अपने में सहेजे है। प्रारंभ तो शांतिनिकेतन महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर का आवास मात्र था।
इस परिसर में भारत की संस्कृति दिखती है क्षेत्रीय होकर नहीं, वैश्विक होकर। हम हिन्दी वाले इसे हजारी प्रसाद के निबंधों, नंदलाल, रामकिंकर के चित्रों एवं रवीन्द्र के संगीत के माध्यम से जानते हैं। यूरोप, अमेरिका, कनाडा, चीन, जापान, श्याम, ईरान् जावा, वाली, मलाया, श्रीलंका की यात्राएं एक बार नहीं अनेक बार रवीन्द्र ने की। जिनकी बाहें सारी धरती को अपने आगोश में लेने सक्षम थी, वे कितने अकेले, एक अंतरंग मित्र के पत्र के जवा में गुरुदेव ने लिखा था- ..तुम्हारे लिए यह मुश्किल है कि कितने गहरे अके लेपन से भरा हूं। मेरा बाजार मूल्य काफी बढ़ गया है, पर निजी मूल्य कम हो गया है। आज रवीन्द्र की कायिक उपस्थिति हमारे बीच नहीं है परंतु विश्वभारती देखते हुए ह निरंतर आपाद मस्तक उनके जादुई व्यक्तित्व के साथ संग होते है - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09407041430

कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के कुछ ‘गैर-कांग्रेसी’ कारण


 शुक्रवार, 10 मई, 2013 को 11:07 IST तक के समाचार
राहुल गांधी
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अनुसार कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के सूत्रधार हैं राहुल गांधी
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अनुसार कर्नाटक में क्लिक करेंकांग्रेस की जीत के सूत्रधार हैं राहुल गांधी. राहुल गांधी से पूछें तो शायद वे मधुसूदन मिस्त्री को श्रेय देंगे. या कहेंगे कि पार्टी संगठन ने अद्भुत काम किया.
क्लिक करेंकांग्रेस संगठन जीता ज़रूर पर पार्टी अध्यक्ष परमेश्वरन खुद चुनाव हार गए. कमल नाथ के अनुसार यह कांग्रेस की नीतियों की जीत है.
कांग्रेस की इस शानदार जीत के लिए वास्तव में पार्टी संगठन, उसके नेतृत्व और नीतियों को श्रेय मिलना चाहिए.
पर उन बातों पर भी गौर करना चाहिए, जिनका वास्ता कांग्रेस पार्टी से नहीं किन्ही और ‘चीजों’ से हैं.

राज्यपाल की भूमिका

सन 1987 में जस्टिस आरएस सरकारिया आयोग ने राज्यपाल की नियुक्तियों को लेकर दो महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे. पहला, घनघोर राजनीतिक व्यक्ति को जो सक्रिय राजनीति में हो, उसे राज्यपाल नहीं बनाना चाहिए.
दूसरा यह कि केंद्र में जिस पार्टी की सरकार हो, उसके सदस्य की विपक्षी पार्टी के शासन वाले राज्य में राज्यपाल के रूप में नियुक्ति न हो.
30 मई 2008 को येदियुरप्पा सरकार बनी और उसके एक साल बाद 25 जून 2009 को क्लिक करेंहंसराज भारद्वाज कर्नाटक के राज्यपाल बने, जो संयोग से जो इन योग्यताओं से लैस थे.
विधि और न्याय मंत्रालय में भारद्वाज ने नौ वर्षों तक राज्यमंत्री के रूप में और पांच साल तक कैबिनेट मंत्री रहकर कार्य किया. वे देश के सबसे अनुभवी कानून मंत्रियों में से एक रहे हैं.
वे तभी खबरों में आए जब उन्होंने यूपीए-1 के दौर में कई संवेदनशील मुद्दों में हस्तक्षेप किया. प्रायः ये सभी मामले 10 जनपथ से जुड़े थे.
राज्यपाल ने दो बार येदियुरप्पा को विधानसभा में बहुमत साबित करने का आदेश थमाया.
सीबीआई ने बोफोर्स मामले के प्रमुख अभियुक्त क्वात्रोक्की के कई बैंक खातों को सील कराया था. कानून मंत्री ने बिना सीबीआई से पूछे ही उन सील खातों को खुलवा दिया.
वे अचानक कुछ ‘बातों’ के लिए चर्चा में आ गए थे, इसलिए केन्द्र से उन्हें हटना पड़ा. संयोग है कि कर्नाटक को एक सुयोग्य राज्यपाल की तब ज़रूरत थी.

मुख्यमंत्री पर मुकदमे की अनुमति

कर्नाटक के राज्यपाल के रूप में उनकी सक्रियता काफी महत्वपूर्ण रही. उन्होंने दो वकीलों के अनुरोध पर राज्य के मुख्यमंत्री और गृहमंत्री के खिलाफ मुकदमा चलाने की मंजूरी दी थी.
राज्यपाल को निजी शिकायत पर इस तरह से कार्रवाई के आदेश देने का अधिकार तो है लेकिन इसके पहले तक यह अनुमति तभी मिलती थी, जब जाँच एजेंसियों ने पूरी कर ली हो. येदियुरप्पा पर मुकदमा चलाने की अनुमति तब दी गई, जब लोकायुक्त की जांच चल रही थी.
लगता है कि जिस दिन हंसराज भारद्वाज को कर्नाटक का राज्यपाल बनाया गया था, उसी दिन तय हो गया था कि येदियुरप्पा सरकार की शामत आने वाली है. बताते हैं कि राज्यपाल का निवास विपक्ष और खासकर कांग्रेस के दफ्तर में तब्दील हो गया.
येदियुरप्पा का बहुमत निर्दलीय और दागी विधायकों के समर्थन की बदौलत था. निर्दलीय और दागी विधायकों ने समर्थन वापस लेकर येदियुरप्पा की सरकार को गिराने की कोशिशें शुरू कर दीं.
राज्यपाल ने दो बार येदियुरप्पा को विधानसभा में बहुमत साबित करने का आदेश थमाया. दोनों बार उन्होंने बहुमत साबित किया. मामला अदालतों तक गया. इससे सरकार की फज़ीहतें बढ़ीं.

येदियुरप्पा का प्रतिशोध

कुछ दिन पहले जब कर्नाटक विधानसभा चुनाव के परिणाम आ रहे थे तब जेडीयू के नेता शिवानंद तिवारी ने कहा, "कांग्रेस को जीत की यह माला येदियुरप्पा को पहनानी चाहिए. कांग्रेस की जीत में सबसे बड़ा हाथ उनका रहा है."
हालांकि येदियुरप्पा खुद चुनाव जीत गए, पर उन्होंने यह सुनिश्चित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि भाजपा जीतने न पाए. उनके अपने जिले शिमोगा में भी पार्टी साफ हो गई.
प्रदेश में लिंगायत वोट तकरीबन 19 फीसदी है. सन 2008 के चुनाव में तकरीबन 75 फीसदी लिंगायत वोट भाजपा को मिले थे. इस बार उसके आधे भी नहीं मिले होंगे. वोटों के बँटवारे ने भाजपा की कमर तोड़ कर रख दी.

अनंत कुमार फैक्टर

नरेन्द्र मोदी
नरेन्द्र मोदी को कर्नाटक में हार का अहसास था और उन्होंने चुनाव प्रचार में मामूली हिस्सेदारी की.
चुनाव परिणाम आते ही आनन फानन भाजपा ने संसदीय बोर्ड की बैठक बुला ली और समीक्षा भी कर ली. ऐसी समीक्षाओं पर उन पार्टी कार्यकर्ताओं को भरोसा नहीं है जो यह जानते हैं कि समीक्षा भी वही लोग कर रहे हैं जो इस संकट के रचनाकार हैं.
इस बैठक में नरेन्द्र मोदी शामिल नहीं हुए. इसकी वजह साफ है. उनकी पार्टी के केन्द्रीय नेताओं से नहीं बनती. येदियुरप्पा के साथ उनके सम्बन्ध पिछले कुछ वर्षों में बेहतर हुए हैं.

मोदी को कर्नाटक में हार का अहसास था और उन्होंने चुनाव प्रचार में मामूली हिस्सेदारी की. मोदी से कांग्रेस की रंज़िश स्वाभाविक है, पर लगता है पार्टी के शिखर पर उन्हें लेकर कड़वाहट कम नहीं हुई है.
सन 2008 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत के बाद अनंत कुमार भी मुख्यमंत्री पद की दौड़ में थे. पार्टी के केन्द्रीय संसदीय बोर्ड की तब चलती तो अनंत कुमार ही मुख्यमंत्री बनते.
उस वक्त येदियुरप्पा का ज़मीन पर आधार इतना मजबूत था कि वे मुख्यमंत्री बने. ऐसा न होता तो पार्टी में विद्रोह हो जाता.

पहला विश्वासघात

2004 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने 78 सीटें जीतीं थीं. उस वक्त जब 58 सीटों वाले जनता दल सेकुलर के साथ मिलकर भाजपा ने सरकार बनाई तो उपमुख्यमंत्री क्लिक करेंयेदियुरप्पाही बने थे. बीस-बीस महीने तक सरकार चलाने का वह समझौता 5 अक्टूर 2006 को एचडी कुमारस्वामी का कार्यकाल पूरा होने के बाद खत्म हो गया.
जेडीएस ने जो ‘विश्वासघात’ किया उसका फायदा भाजपा को 2008 के चुनाव में मिला. येदियुरप्पा ने अनंत कुमार के साथ-साथ पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व को भी अपने खिलाफ कर लिया.
इनमें लाल कृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज दोनों थे. 2008 से 2011 के बीच येदियुरप्पा अपने नेताओं से लड़ते रहे. दूसरी ओर एचडी कुमारस्वामी और राज्यपाल हंसराज भारद्वाज भाजपा के ताबूत में कीलें ठोकते रहे.

बेल्लारी बंधुओं का पदार्पण

येदियुरप्पा पर आरोप था कि उन्होंने बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं को संरक्षण दिया. पर यह बाद की बात है. जिस वक्त सन 2008 में सरकार बन रही थी येदियुरप्पा नहीं चाहते थे कि रेड्डी बंधु उनकी सरकार में शामिल हों. सम्भवतः सुषमा स्वराज के दबाव में वे मंत्री बनाए गए.
यह संयोग भर है कि प्रदेश के लोकायुक्त एन संतोष हेगड़े की जाँच की आँच येदियुरप्पा पर भी पड़ी. संतोष हेगड़े कि पिता केएस हेगड़े सन 1977 की जनता सरकार के दौर से आडवाणी जी के मित्र थे. संतोष हेगड़े ने 2011 की जाँच में पाया कि खदान घोटाले में मुख्यमंत्री

बीजेपी के लिए यह शिकस्त एक सबक है.
येदियुरप्पा भी दोषी हैं. मार्च 2012 में कर्नाटक हाईकोर्ट ने येदियुरप्पा को भले बरी कर दिया, पर तब तक काम हो चुका था.
भाजपा से बाहर जाने के बाद येदियुरप्पा और उनके लिंगायत समुदाय ने वह काम किया जिसकी भाजपा ने कल्पना नहीं की थी.

खाली खजाना

बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं ने कर्नाटक में भाजपा से और आंध्र में वाईएस आर की कांग्रेस के साथ अच्छे रिश्ते रखे. उनका काफी कारोबार आंध्र प्रदेश में है. बहरहाल 2008 के चुनाव में कर्नाटक भाजपा के पास पैसा था। इसकी व्यवस्था रेड्डी बंधुओं ने की थी. पर इस बार भाजपा पैसे से भी तंग थी.
चूंकि भ्रष्टाचार मामले पर केंद्र में विपक्ष के विरोध का सामना कर रही कांग्रेस के लिए यह जीत 2014 के आम चुनाव से पहले उसका मनोबल बढ़ाने वाली है.
यह जीत निश्चित तौर कांग्रेस के लिए `संजीवनी` का काम करेगी. बीजेपी के लिए यह शिकस्त एक सबक है. और इस बात को बीजेपी से बेहतर कोई और नहीं जानता.