Monday, May 27, 2013

लाल आतंक के बुनियादी पहलू

नक्सलबाड़ी का जनविद्रोह इसलिए हुआ था क्योंकि वहां कि सरकार खेतिहर मजदूरों, आदिवासियों पर जुल्म ढ़ाने वाले जमींदारों के साथ खड़ी थी, आज केन्द्र व राज्य की सरकारें उद्योगों के नाम पर जंगल व पहाड़ों को पट्टे में लेने वाले कारपोरेट घरानों की लठैत बनी हैं। वन से बेदखल आदिवासी और जोत की जमीन से वंचित खेतिहर मजदूर व किसान जाएं तो जाएं कहां? हर कहीं माओवादी इन्हीं स्थितियों का लाभ उठा रहे हैं। माओवादी रक्तक्रांति के जरिए सत्ता हासिल करना चाहते हैं उनका कृत्य राष्ट्र के खिलाफ युद्धघोष है।
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बस्तर के सुकमा में घटी वीभत्स घटना के बहाने लाल आतंक की तह तक जाने के पहले जरुरी है कि कुछ तथ्य बिल्कुल साफ कर लिए जाएं। पहली बात नक्सलवाद और माओवाद दोनों एक नहीं है, जैसा कि मीडिया रिपोर्ट और बौद्धिकों के वक्तव्यों में दोनों को गुड्डम-गड्ड किया जा रहा है। दूसरी बात लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमले जैसे वक्तव्य, इस पर भी तफसील से जाने की जरूरत है, इसका वर्गीकरण होना चाहिए कि कौन मारे जाए तो उसे लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला माना जाएगा और किनके मरने पर नहीं। बात आगे बढ़ाएं कि इस बीच भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी) के मध्यप्रदेश के राज्य सचिव बद्रीप्रसाद का प्रेस नोट जो मुङो आज ही ई-मेल से मिला, का थोड़ा सा जिक्र कर लिया जाए। यह इसलिए भी जरुरी है क्योंकि नक्सलवादियों का सबसे पुराना और पैतृक संगठन इसे ही माना जाता है। माओवादियों की इस अराजक कार्रवाई का माकपा (माले) निन्दा करती है क्योंकि ऐसी कार्रवाईयों से 1967 में उत्तरी बंगाल में जमीन और सामाजिक बदलाव के लिए भूमिहीन-गरीब किसानों के नक्सलबाड़ी जनविद्रोह और उनके नेतृत्व में विभिन्न राज्यों में चल रहे जन संघर्षो की छवि धूमिल होती है।
दरअसल नक्सलवाद और माओवाद दोनों को अलग-अलग करके देखना जरूरी है। नक्सलवाद का जन्म विशुद्ध रुप से गरीब आदिवासियों व खेतिहर मजदूरों का जमीदारों और उनके संरक्षण देने वाली तत्कालीन पश्चिम बंगाल की सरकार के खिलाफ स्वफूर्त जनविद्रोह था। यह ऐतिसासिक घटना दार्जीलिंग के समीप नक्सलवाड़ी नाम के एक गांव में 1967 में घटी। पश्चिम बंगाल में जमीदारों का आतंक था, वहीं सरकार व प्रशासन में प्रतिनिधित्व करते थे। लैण्डहोल्डिंग की स्थिति यह थी कि राज्य की सारी जोत की जमीन महज 2 प्रतिशत जमीदारों के कब्जे में थी। खेतिहर मजदूर खेतों में काम करते थे, पर जिस अन्न को वो उपजाते थे उन पर उनका हक नहीं था। आवाज उठाने पर जमींदारों के कारिंदे पुलिस के साथ मिलकर जुल्म ढ़ाते थे। इस जुल्म और अत्याचार के खिलाफ आवाज बुलंद की सिलीगुड़ी किसान सभा के अध्यक्ष जंगल संथाल ने और नेतृत्व संभाला कानू सन्याल ने। खेतिहर मजदूरों को जमीदारों के खेत की फसलें काटनें और कब्जा कर जोत लेने का आव्हान किया गया। आन्दोलन को संथाल परगना के आदिवासियों ने परवान चढ़ाया। जब यह जनविद्रोह शुरु हुआ तब इसकी कोई वैचारिक दृष्टि नहीं थी। पर चूंकि वहां कांग्रेस के सिद्धर्थशंकर रे की सरकार के खिलाफ कम्युनिस्टी लड़ रहे थे इसलिए वे इन विद्रोहियों के वैसे ही स्वाभाविक मित्र हो गए । चारू मजूमदार वो शख्स थे जिन्होंने नक्सलबाड़ी के जनविद्रोह को वैचारिक आधार दिया। मजूमदार ने इस विद्रोह के साथ- बुद्धिजीवियों व सृजनधर्मियों के साथ छात्रों को भी जोड़ा।
कलकत्ता विश्वविद्यालय का प्रेसीडेन्सी कालेज क्रांतिकारी छात्रों का मुख्यालय बन गया और यह वैचारिक क्रांति देश के कई नामचीन विश्वविद्यालयों के छात्रों तक पहुंच गई। नक्सली आन्दोलन पूरे पश्चिम बंगाल में फैल गया तो एक कमेटी गठित की गई। नाम था आल इण्डिया कोर्डिनेशन कमेटी आफ कम्युनिस्ट रिवाल्यूशनरिज (एआईसीसीआर) 1969 में इसी की कोख से माकपा (माले) का जन्म हुआ। इधर सन् 1977 में ज्योति बसु के नेतृत्व में कम्युनिस्ट गंठबंधन की सरकार के गठन के बाद पहला और सबसे बड़ा काम भूमि सुधार का हुआ लिहाजा नक्सल आन्दोलन की तीव्रता घटी। इसी बीच माओवादी कम्युनिस्ट सेन्टर (एमसीसी) का उदय हुआ- दक्षिण देशम ग्रुप इसी से निकला और प्रकाशन्तर में पीपुल्स वार ग्रुप बना फिर यही कम्युनिस्ट पार्टी आफ इन्डिया माओवादी में बदल गया। बस्तर की घटना के पीछे यही संगठन है।
नक्सलवाद जहां गरीब आदिवासियों व खेतिहर मजदूरों के हक के लिए सामाजिक व आर्थिक बदलाव का आन्दोलन था वहीं माओवादी रक्तपात व हिंसक क्रांति के सहारे सत्ता में काबिज होने की लिप्सा रखते हैं। इनका आन्दोलन विशुद्ध राजनीतिक है और आदिवासी इनकी ढ़ाल है। इनका आदिवासियों के हक-हकूक और बेहतरी से कोई लेना-देना नहीं। जहां तक खूनी कार्रवाइयों का प्रश्न है- माओवादी माओ की विचाधारा क्यूबा के क्रांतिकारी चे- ग्वारा के तौर तरीकों से प्रेरित हैं ये बिगड़े और भ्रमित नौजवान नहीं है अपितु अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रतिबद्ध और वैचारिक तौर पर दृढ़ लोग हैं, इनकी आस्था देश, यहां की संस्कृति, संविधान, कानून प्रजातंत्र पर नहीं है। इस दृष्टि से इनकी हर कार्रवाई राष्ट्र के खिलाफ युद्ध है। इनसे निपटने की रणनीति वैसे ही बनानी पड़ेगी जैसे कि दुश्मन देश के खिलाफ बनाई जाती है।
एक पेंचीदा सवाल यह है कि इन्हें वनवासियों व ग्रामीणों का इतना समर्थन क्यों हासिल है? साफ जवाब है कि पश्चिम बंगाल में जहां सरकार गरीबों आदिवासियों के खिलाफ जमीदारों के साथ खड़ी नजर आती थी वहीं आज वह कारपोरेट घरानों की संरक्षक नजर आती है, चाहे वह केन्द्र की सरकार हो या राज्य सरकारें।
जयराम रमेश ठीक कहते हैं ज्यादा खदानें-ज्यादा माओवादी।
उड़ीसा, झरखण्ड, आंध्र में वहीं माओवादियों का बोलबाला है, जहां बड़े घरानों को जंगल, पहाड़, खनने-खोदने के लिए दे दिए गए हैं। बस्तर के आंचल में खदानों की अकूत संपदा छिपी है।
2006 में टाटा और एस्सार को यहां की लीजें दी गईं। बड़ी परियोजनाओं की वजह से वनवासियों का विस्थापन एक भयावह समस्या है। ये अपनी ही जमीन पर यतीम बना दिए जाते हैं और जब देखते हैं कि सरकार उद्योगपतियों के साथ खड़ी है तो अपना हमदर्द ये माओवादियों में ढूंढते हैं। दूसरे सुरक्षाबलों की कार्रवाई में यही शिकार होते हैं माओवादियों को पनाह देने के नाम पर क्या सरकार को ये नहीं मालुम कि गरीब आदिवासियों के घर पर हथियार बंद माओवादी आ जाएं तो विकल्प ही क्या सिवाय उन्हें आश्रय देने के।
आखिरी बात, लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमले की, जैसा कि मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी से लेकर विभिन्न दलों के लोग बार- बार दोहरा रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि कांग्रेस के निहत्थे नताओं कार्यकर्ताओं को आत्मसमर्पण के बाद भी गोलियों से भूनना वीभत्स व क्रूरकर्म है। लेकिन सीआरपीएफ के 74 जवानों को सुरंग लगाकर उड़ा देना या सुरक्षा एजेन्सियों के हाथों अनगिनत निदरेष आदिवासियों, महिलाओं और बच्चों का मारा जाना भी इतना ही दर्दनाक है। लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला तो वह भी घटना है जिसमें दंतेवाड़ा की एक आदिवासी शिक्षिका सोनी सोरी के गुप्तांग में पत्थर बालू गिट्टी का ठूस दिया जाना। सुप्रीमकोर्ट के आदेश पर जांच और उसमें दोषी पाए गए अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई ना होना। किसी फौरी कार्रवाई से समस्या का दीर्घकालिक हल नहीं हो सकता। अच्छी जीडीपी हासिल करने के लिए सरकार की अर्थनीति कारपोरेट के औद्योगिक विस्तार पर है। उसकी नीति के केन्द्र में किसान, खेतिहर मजदूर - आदिवासी और अपनी जमीन से बेदखल किये हुए लोग नहीं है। इसीलिए किसान आत्मघात करते हैं, विस्थापित आदिवासी माओवादियों के पाले में पहुंच जाता है। इन पेंचीदा मसलों को बातों से हल नहीं किया जा सकता है। जरुरत है नीतियों को लक्ष्य हासिल करने या तरक्की को गति देने भर के लिए नहीं अपितु मानवीय संवेदनाओं का ध्यान रखकर बनाया जाए।
- लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं। सम्पर्क-09425813208.Details  

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