Saturday, May 25, 2013

बाहर है खतरा तो घर में भी मुश्किल

 चिन्तामणि मिश्र
रोज हर पल और हर जगह आदमी के वेश में वासना से फटी जीभ लपलपाते कुत्ते मासूम बच्चियों, औरतों और दादी- नानी की उम्र तक को, बलात्कार का कभी न मिटने वाला दंश दे रहे हैं। इस पर काबू पाने के लिए कठोर कानून भी बना लेकिन हालात काबू में नहीं आ रहे हैं। अदालतें भी सक्रिय हो गई हैं।
ऐसे मामलों के फैसले भी असाधारण तेजी से निपटाए जा रहे हैं किन्तु बलात्कारियों के हौसले बुलन्द हैं। औरतों और बच्चियों में भय की सुनामी ऐसी पसरी है कि तिल-तिल अनजाने अंदेशों से उनकी दुनिया में तनाव और अपमान नत्थी हो गया है। मासूम बच्चियों से लेकर अधेड़ और वृद्ध डर से सहमी-सहमी जिन्दगी जीने के लिए शापित कर दी गई हैं। हांड़-मांस की नन्ही सी बच्ची अब घर के बाहर पड़ोस के अंकल से डरी हुई है, क्योंकि उसने उसे एक खिलौना समझ कर अपनी हवस के लिए रेशा-रेशा तार-तार कर दिया। उसकी मासूमियत अब किसी अंकल से टाफी-चाकलेट नहीं ले पाएगी। हर पराया-अपना मर्द-रिश्ता जीवन भर आतंकित करता रहेगा। बुजुर्ग की जान-पहचान भी डराती रहेगी। अंकल की गोद से भी भय जकड़ लेगा। खौफ के लहू-लुहान दलदल से ता-जिन्दगी गुजरना होगा।
अब हमारे समाज में औरतों को लेकर सम्मान और न्यूनतम सहानुभूति भी नहीं बची है। हमारा समाज सदियों से औरतों के प्रसंग में सामंती सोच और उसके ही अनुसार व्यवहार करता आ रहा है। धर्म के पैरोकार पांडव अपनी पत्‍नी को जुए के दांव में लगा देते हैं। राजसभा में नारी को वस्त्रहीन किया जाता है और राष्ट्र-समाज-धर्म के महानायकों को सक्रिय विरोध करने तक का साहस नहीं होता। अपनी पवित्रता सिद्ध करने के लिए औरत को ही अग्नि परीक्षा देनी पड़ती है और पुरुष अपने सत्ता सुख के लिए अपनी गर्भवती पत्‍नी को जंगल में छुड़वा देता है। औरतों पर हो रही हिंसा के लिए कानून और न्याय प्रणाली ही अकेले जिम्मेवार नहीं है। इस जिम्मेवारी का सर्वाधिक दायित्व समाज पर है।
हजारों साल से औरतों के जीवन में कोई बदलाव नहीं आया है।
पहले युद्ध जब होते थे तो दोनों पक्ष की सेनाएं औरतों को ही निशाना बनाती थीं और अब दंगों में भी औरतों को ही भोगना होता है। असल में पितृसत्ता जैसा कुशलतम प्रबंधन अभी तक दुनिया की सफलतम कंपनी ने भी नहीं किया है। यह पुरुष सत्ता का प्रबंध कौशल ही तो है कि जाति, धर्म खान-पान, पहनावा, संस्कृति, परम्परा और यौन-सम्बन्ध भी पुरुष के हाथों में ही है।
युग बदले, राज बदले, व्यवस्थाएं बदली, मूल्य बदले, लेकिन हर बदलाव को अपनाता हुआ पुरुष-सत्ता का अजगर टस से मस नहीं हुआ। औरतों को सताने और उनसे जबरन यौन सम्बन्ध बनाने की आसुरी मनोवृति आदिम युग से चली आ रही है, किन्तु इतने बड़े पैमाने पर और दुधमुंही बच्चियों से अस्सी साल की वृद्धाओं के साथ बलात्कार आधुनिक भोगवाद का प्रसाद है।
औद्योगीकरण तथा बाजारवाद की अंधी दौड़ ने कृत्रिम समृद्धि और निठल्ले जीवन को बेलगाम वासना के गटर का कीड़ा बना दिया है।
आज गांव हो या शहर, हर जगह और हर समय, हर प्रकार का नशा बहुत आसानी से उपलब्ध है। यह नशा विवेक को आसानी से रगेद-रगेद कर खतम कर देता और फिर बलात्कारी के सामने न तो औरत की उम्र होती है और न कोई रिश्ता होता है उसके जेहन में होता है केवल और केवल नारी शरीर जिसे वह पुरुषवादी हेकड़ी से भोगता है। केवल इसे कठोर कानून बना देने से समाप्त कर पाना कभी सम्भव नहीं हो सकता है। हमारा आशय यह कतई नहीं है कि कठोर कानून की जरूरत नहीं है।
जरूरत है इसकी। लेकिन समाज को औरतों के प्रति जो दोयम दर्जे की सोच है उसे भी बदलना होगा। हमारी वर्तमान बौद्धिकता की यह विचित्रता है कि यह अपने महान ज्ञानियों, मनीषियों और महापुरुषों,अवतारों, की केवल जय-जयकार करती है उनकी शिक्षाओं, आदर्शो की उपेक्षा करती हैं। लोगों का जीवन आदर्शविहीन, प्रयोजनविहीन और संस्कारविहीन होता जा रहा है। देश की प्रगति को आर्थिक मापदंडों से मापा जाता है। जबकि सामाजिक स्तर पर देश पाताल में जा चुका है।
असल में औरतों के सम्मान को बनाए रखने के लिए पुरुषों की सोच को भी बदलने की जरूरत है। दिल्ली में चलती बस में हुए गेंग रेप के बाद हमारे कुछ नेताओं, धर्म की महंती-चादर ओढ़े कतिपय सन्तों ने बेहयाई से जैसे बचन दिए उससे समाज की पितृ सत्ता के दबदबे के दर्शन आसानी से हो जाते हैं। गुजरात दंगों पर लोकसभा में हुई बहस के दौरान तत्कालीन केन्द्र सरकार के एक कैबिनट मंत्री ने पूरी बेशर्मी से कहा था कि औरतों के साथ बलात्कार तो होता ही रहता है, इसमें नया क्या है। यह मंत्री कभी लोहिया का साथी और खांटी समाजवादी था। बलात्कार के लिए महिलाओं को ही दोष मढ़ने की परम्परा कायम है। कह दिया जाता है कि औरते ऐसे कपड़े पहनती है जिससे कामुकता सिर उठाती है। उनके हावभाव को भी दोषी करार दे दिया जाता है। लेकिन चार-पांच साल की बच्ची और अस्सी साल की वृद्धा के साथ क्यों बलात्कार होता है? इनके पहनावा और हावभाव में कामुकता का तत्व कहां तक होता है? कभी मैंने एक दिल छूती अंग्रेजी कविता पढ़ी थी जो मुङो आज भी नहीं भूलती है। उसका हिन्दी अनुवाद कुछ इस तरह से है- रात के समय घर से अकेले मत निकलो, इससे मर्दो को प्रोत्साहन मिलता है। किसी भी समय अकेले मत निकलो, कैसी भी परिस्थिति मर्दो को प्रोत्साहित करती है। घर में मत रहो, घुसपैठिए और सगे सम्बन्धी बलात्कार कर सकते हैं। बिना वस्त्र के मत जाओ, इससे मर्दो को प्रोत्साहन मिलता है। वस्त्रों समेत मत जाओं, किसी भी तरह के वस्त्र मर्दो को प्रेरित करते हैं।
बचपन को टाल दो, कुछ बलात्कारी बालिकाओं से बलात्कार करते हैं। बुढ़ापे को टाल दो, कुछ बलात्कारी वृद्धाओं को पसन्द करते हैं। पिता, दादा, नाना, चाचा, ताउ या भाई से रिश्ता तोड़ दो, ये रिश्तेदार हैं जो कभी-कभी, बलात्कार करते हैं। पड़ोसी मत बनाओ, शादी मत करो,क्योंकि बलात्कार शादी में कानूनी है, निश्चिंत होने के लिए स्वयं को मिटा दो। लगभग हर विज्ञापनों में औरत की देह को, उपयोग और उपभोग की चीज बना कर परोसा जाता है, हर चैनल पर यौन शक्तिवर्धक दवाओं के अश्लील विज्ञापन दिखाए जाते हैं। परफयूम के विज्ञापनों में मर्दानगी का पागलपन दिखाया जाता है। ये घातक स्थितियां है इसे हमारा समाज ही पैदा करता है। सामान्य इंसान के रूप में औरत को स्वीकार किया जाना अभी बाकी है। कानून अकेला कुछ नहीं कर सकता। समाज में भी बदलाव की जरूरत है।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
सम्पर्क सूत्र- 09425174450. 

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