Wednesday, March 2, 2011

लोकतंत्र की नुमाइश और जिंदा कौमें

फिलहाल- जयराम शुक्ल
बसपा के आदिपुरुष कांशीराम अपनी जनसभाओं में प्राय: कहा करते थे कि हमें मजबूत नहीं मजबूर सरकार चाहिए। उनका यह जुमला अस्सी से नब्बे दशक का है जब चुनावी राजनीति में बसपा शून्य थी और केंद्र में राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार दो तिहाई से भी ज्यादा मतों से सत्तारूढ़ थी। लोकसभा में जीत के इस भीषण संख्याबल को सुरक्षित रखने के लिए दलबदल विरोधी विधेयक भी पास करवाया गया था। विडम्बना देखिए बोफोर्स में कथित दलाली के सवाल पर उसी भीषण बहुमत वाली कांग्रेस सरकार को चीरकर विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में जनमोर्चे का उदय हुआ और कांग्रेस के एकल बहुमत का सितारा सदा के लिए अस्त हो गया। कांशीराम के मजबूर सरकार का जुमला अब जाकर उसी कांग्रेस सरकार के लिए फलित हुआ है। मनमोहन सिंह भ्रष्टाचार के सवाल पर बड़ी मासूमियत के साथ कहते हैं कि क्या करें सरकार चलाने के लिए गठबंधन धर्म निभाना हमारी मजबूरी है। यह तो देश के मतदाताओं के लिए खुली धमकी की तरह है कि या तो एेसे भ्रष्टाचार को होने दें, नहीं तो हर छ: महीने में सराकर बदलने के लिए तैयार रहें। दूसरा दृष्टांत देखें। उत्तरप्रदेश में कांशीराम की शिष्या कुमारी मायावती की मजबूत सरकार बैठी है। पिछले चुनाव में यूपी की जनता ने लखनऊ को गठबंधन के घोड़ाबाजार से निकालकर अकेले एक पार्टी बसपा को स्पष्ट बहुमत देकर सत्ता की बागडोर सौंपी। वहां गठबंधन धर्म की कोई मजबूरी नहीं। पर यूपी में क्या चल रहा है। मंत्री-विधायकों से जुड़े एक से एक दुष्कर्म सामने आ रहे हैं। पुलिस के अधिकारी अपराध रोकने की बजाय मुख्यमंत्री की जूतियां साफ कर रहे हैं। मुख्यमंत्री जनता के धन को अपनी व अपने नेता की पाषण प्रतिमाओं और पार्कों के लिए खर्च करने में व्यस्त हैं। यूपी में निरंकुश व स्वेच्छाचारिता का बोलबाला है। दिल्ली में गठबंधन वाली मजबूर सरकार है भ्रष्टाचार इसलिए हो रहा है। लखनऊ में एक पार्टी की मजबूत सरकार है इसलिए निरंकुशता- स्वेच्छाचारिता के साथ हत्या-बलात्कार और सरकारी खजाने की लूट का दौर चल रहा है। यक्षप्रश्र यह है कि जनता क्या करे। मजबूत और मजबूर सरकारें दोनों ही उसकी खाल खैंचने में जुटी हैं। लोहिया की जिंदा कौमें भी इस नुमाइश में तमाशबीन बन कर खड़ी हैं। वस्तुत: देश का लोकतंत्र संक्रमणकाल से गुजर रहा है। इधर कुआं तो उधर खांई। इस पाले में नागनाथ तो उस पाले में सांपनाथ।
अपने-अपने हिस्से का लोकतंत्र
एक ओर जहां मिस्त्र समेत तमाम अरब मुल्कों में लोकतंत्र की बयार चल रही है, तहरीर चौक पर महात्मा गांधी की प्राणप्रतिष्ठा की जा रही है, वहीं दूसरी ओर हमारे देश के राजनीतिक दल अपने-अपने हिस्से के लोकतंत्र को मंजूषा में मढ़ाकर दरबार-ए-खास में सजाने की होड़ में हैं। कांग्रेस युवराज राहुल गांधी पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र की बहाली की बात तो करते हैं पर पर वे 10 जनपथ के बाड़े में कैद उसी लोकतंत्र के हश्र को नजरअंदाज कर जाते हैं। दुनिया की अजूबी पार्टी है कांग्रेस। राष्ट्रीय अध्यक्ष का तो चुनाव हो गया पर प्रदेश-जिला व ब्लाक के अध्यक्ष कौन हों इसके लिए प्रतिनिधियों के मत का नहीं हाईकमान की सहमति का इंतजार है। इस हाईकमान में वही लोग हैं जिन्हें जनता ने रिजेक्ट किया और वे बरास्ते राज्यसभा फिर प्रकट हो गए। यही लोग जनता के बीच संघर्ष करने वाले कार्यकर्ताओं का सीआर लिखते हैं और चुनावों के समय टिकट बांटते हैं। यह कांग्रेस हाईकमान के आंतरिक लोकतंत्र का तकाजा है कि वे देश-प्रांत की जनता के हिसाब से नहीं अपितु अपनी सहूलियत के हिसाब से प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री तय करें। देश की सबसे प्रचीन पार्टी के ढर्रे पर चलते हुए करुणानिधि के डीएमके, मुलायम सिंह की सपा, लालू यादव की राजग, चौटाला की रालोद समेत किसी न किसी रूप में सत्ता में हिस्सेदारी निभाने वाले सभी राजनीतिक दलों का अपना-अपना लोकतंत्र है जिसे वे अपने कुनबों की मदद से किसी ढोर डंगर की भांति हांक रहे हैं।
सत्ता बाजार की नुमाइश पर खड़े देश के लोकतंत्र की सेहत पर विचार करते हुए अनायास ही एक कविता का स्मरण हो आया जिसे बीस बरस पहले किसी स्थानीय कवि सम्मेलन में सुना था। कविता शहडोल के कवि पारसनाथ मिश्र की है। कविता की पंक्तियां तो शब्दश: याद नहीं पर उसका भावार्थ जस का तस रखने का जतन कर रहा हूं।
                                                           मेरे देश का जनतंत्र पैदा होते ही बीमार पड़ गया।
                                                                                     कुछ दिनों तक जिया,
                                                                         दवा दारू पिया और फिर मर गया।
                                                                 डॉक्टरों ने पोस्टमॉर्टम की रिपोर्ट में बताया
                                                                     कि यह सबकुछ हुआ महज दाइयों की
                                                                                         लापरवाही से।
                                                                       देश के कुछ दूरदर्शी चतुर ग्वालों ने
                                                                        मरे हुए जनतंत्र की खाल खैंचकर
                                                                                   उसमें भर दिया भूसा।
                                                                            देश की जनता ठहरी आदत से
                                                                                    बिलकुल सूध गऊ।
                                                                  चतुर ग्वाले मरे हुए जनतंत्र की ठटरी को
                                                                जनता के सामने रखते हैं, वह उसे चाटती है,
                                                                     दुलराती है समझकर अपना ही बछौना।
                                                          ग्वाले दूध दुहकर चले जाते हैं पांच साल के लिए ।
                                                                कांग्रेस की मजबूरी हो सकती है देश की नहीं
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अकादमिक योग्यता और उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी के कितने भी कसीदे काढ़े जाएं, लेकिन देश की जनता न तो उनकी ईमानदारी चाटकर जी सकती है और न ही उनकी मनमोहक छवि की संध्या आरती उतारकर। राजीव गांधी के बोफोर्स दौर का वही चर्चित शेर फिर रह-रह कर याद आता है जो आरिफ मोहम्मद खान जैसे कांग्रेस के बागियों ने उस वक्त उछाला था..तू इधर-उधर की न बातकर बता ये काफिला क्यों लुटा, तेरी रहजनी से गिला नहीं तेरी रहबरी का सवाल है।.. गठबंधन धर्म के चलते हम मजबूर हैं इसलिए 2जी स्पेक्ट्रम, एस-बैंड, आदर्श, कामनवेल्थ जैसे लाखों -लाख करोड़ के घोटाले होते गए और हम धृतराष्ट्र की तरह देश की जनता के धन को लुटते हुए देखते रहे। विदेश से कालाधन लाने के सवाल पर किंतु-परंतु भी क्या गठबंधनधर्म की मजबूरी है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने टीवी चैनलों के संपादकों के साथ गठबंधन सरकारों के साथ भ्रष्टाचार की नियति को जिस अंदाज के साथ जोडऩे की चेष्ठा की है शायद ही कोई जानकार उनके इस कथन के साथ इत्तेफाक रखे। देश के इतिहास में गैर कांग्रेस और गैर भाजपा के नेतृत्व वाली जितनी भी गठबंधन सरकारें बनी हैं उन पर कभी भी भ्रष्टाचार के इतने गंभीर आरोप नहीं लगे। सन् सतहत्तर से गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हुआ। मोरारजीभाई देसाई से लेकर चरण सिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर, देवेगौड़ा और इंद्रकुमार गुजराल के प्रधानमंत्रित्व में गठबंधन सरकारें बनीं, पर इनके कार्यकाल में भ्रष्टाचार के एेसे एक भी मामले सामने नहीं आए जिनका दृष्टांत दिया जा सके या लोगों की जुबान पर चढ़े हों। इन सरकारों के गिरने के कारण दलीय नेताओं की महत्वाकांक्षा रही है या दलों के नीतिगत मसले। दरअसल डॉ.मनमोहन सिंह का प्रधानमंत्री बनना ही इस देश में लोकतांत्रिक प्रणाली के पतन का प्रादर्श प्रकरण(मॉडल केस) है। डॉ. सिंह सीधे जनता से चुनकर लोकसभा नहीं पहुंचे हैं। उन्हें कांग्रेस के सांसदों व विधायकों ने वोट देकर राज्यसभा के लिए चुना है। प्रधानमंत्री के रूप भी वे संसद सदस्यों द्वारा निर्वाचित नहीं अपितु सोनिया गांधी द्वारा नामांकित किए गए हैं। इस लिहाज से वे सीधे देश के प्रति नहीं अपितु सोनिया गांधी और कांग्रेस के लिए प्रथमत: उत्तरदायी हैं। इसलिए जब वे कहते हैं कि उन्हें देश की जनता ने प्रधानमंत्री पद पर चुना है तो बड़ा अजीब सा लगता है। मनमोहन सिंह कांग्रेस व सोनिया गांधी के लिए मजबूरी हो सकते हैं पर देश उन्हें ढ़ोने के लिए कदापि मजबूर नहीं। अब सवाल यह उठता है कि देश में भ्रष्ट गठबंधन सरकार को मध्यावधि चुनाव के डर से क्या चलने दें? क्या देश में किसी सरकार को इस बात की इजाजत दी जा सकती है कि वह अपनी एेसी शर्त जनता पर थोपे? डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने साठ के दशक में नारा दिया था कि जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं करतीं। लेकिन यथास्थितिवाद से अभ्यस्त हो चुकी इन जिंदा कौमों में क्या इतना माद्दा बचा है कि वे दिल्ली के विजय चौक को काहिरा के तहरीर चौक में तब्दील कर सकें?

लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी संपादक हैं।
21फरवरी 2011 को प्रकाशित (प्रतिक्रिया के लिए 9425813208 में एसएमएस करें)

सीधी के नाम को लेकर टेढ़ी बहस

फिलहाल-जयराम शुक्ल
सफेद बाघ और सिंगरौली की कोयला खदानों के लिए जगप्रसिद्ध सीधी जिले को लेकर इन दिनों दिलचस्प बहस चल रही है। मुद्दा है, क्यों न सीधी का नाम बाणभट्ट की प्रसिद्ध संस्कृत रचना कादम्बरी के नाम से कर दिया जाए। यानी कि जैसे यूपी में कई जिलों के पुराने नामों को विलोपित करके कौशाम्बी और गौतमबुद्धनगर धर दिया गया है वैसे ही सीधी को विलोपित करके इसे कादम्बरी जिला के नाम से जाना जाए। इस हेतु विधिवत प्रस्ताव भी पारित किए गए हैं और थ्रू-प्रापर-चैनल प्रदेश सरकार के समक्ष भेज दिया गया है या भेजे जाने की प्रक्रिया में है। सीधी को कादम्बरी बनाने को बेताब लोगों कहना है कि बाणभट्ट सोन नदी के किनारे भॅवरसेन-चंदरेह में पैदा हुए और उन्होंने कादम्बरी जैसी कालजयी कृति की रचना की है, इसलिए जिस तरह देवलोंद में सोन नदी पर बने बांध का नाम बाणसागर किया गया है उसी तरह सीधी का नाम कादम्बरी रख दिया जाए। राजनीति और साहित्य के अनूठे घालमेल वाली यह अधकचरी पहल यदि सफल होती है तो सीधी दुनिया का एेसा पहला अभागा जिला होगा जिसका नाम किसी उपन्यास की खातिर विलोपित कर दिया जाएगा।
सीधी को कादम्बरी में बदलने के खिलाफ भी साहित्य और राजनीति के घालमेल वाला मोर्चा कमर कसकर सामने आ गया है। इस मोर्चे ने बात को तार्किक ढंग से रखने के लिए अपने पूरे पराक्रम के साथ एक पुस्तिका ...कौन तुम बाणभट्ट... प्रकाशित की है। पुस्तिका में विभिन्न ग्रंथों का संदर्भ देकर यह साबित करने की कोशिश की गई है कि बाणभट्ट का सीधी से कोई वास्ता नहीं रहा, लिहाजा इतिहास में वर्णित सिद्ध-भूमि सीधी का नाम कादम्बरी रखना यहां के वासियों के साथ भावनात्मक अन्याय तो होगा ही, इतिहास को गलत परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने का पाप भी बैठेगा। फिलहाल स्थिति यह है कि अध्ययन और तथ्यों से दूर-दूर का वास्ता रखने वाले बयानवीरों को परस्पर विरोधी साहित्यिक खेमे तर्क -कुतर्क की खुराक दे रहे हैं और जनता-जनार्दन की पीड़ा से बेखबर ये योद्धा सीधी से भोपाल तक मुद्दे की मुगदर भांजने में जुटे हैं।
कौन तुम बाणभट्ट?
बाणभट्ट सम्राट हर्षवद्र्धन के मगध में पैदा हुए या सोन नदी के किनारे भॅवरसेन-चंदरेह में यह बहस बेमानी है। लोकमानस से जुड़ी सर्वसिद्ध बात यह कि सोन नदी सीधी की आत्मा में रची बसी है वही सोन नदी सातवीं सदी में शोणभद्र के रूप में बाणभट्ट के रगों में भी जीवनधारा बनकर बहती थी। इस नाते सीधी और बाणभट्ट का रिश्ता अटूट है। वैसे भी किसी कालजयी व्यक्तित्व को समय-काल और सीमा में बांधना उसकी साधना के साथ अन्याय है। आदि शंकराचार्य केरल में जन्मे थे पर आज वे चारों धामों और देश भर के मठ-मंदिरों और साधु-संतों के अखाड़ों में अमर हैं। कहने को महर्षि वाल्मीक तमसा(टमस) के तट पर पैदा हुए पर पंजाब और हरियाणा के दलितों के बीच उनकी प्राण प्रतिष्ठा ईश्वर तुल्य है। महर्षि अगस्त्य के बारे में जितना तमिल, तेलगू और मलयाली साहित्य में लिखा गया है उतना हिंदी-संस्कृत में नहीं। कारण अगस्त्य जी का जीवन और पराक्रमकाल बड़ा हिस्सा दक्षिण भारत में बीता। कहने का आशय यह कि सूरदास या तुलसीदास का जन्म कहां हुआ यह मायने नहीं रखता, मायने यह रखता है कि हम उनके व्यक्तित्व को कितनी निकटता से महसूस करते हैं और उनके कृतित्व से कितनी प्रेरणा लेते हैं। इसलिए बाणभट्ट कहीं पैदा हुए हों उनका रिश्ता सीधी से उतनी ही निकटता का है जितनी कि मगध से। अब सवाल उठता है कि सीधी का नाम कादम्बरी क्यों रखा जाए। सीधी के नाम में क्या खोट है और कादम्बरी में क्या विशेषता है? कादम्बरी संस्कृत में बाणभट्ट की कोई पौराणिक या अध्यात्मिक रचना तो है नहीं जिसे हम गीता, महाभारत या रामायण की श्रेणी में रख सकें और उसका पाठ करके दैविक अनुभूति कर सकें। कादम्बरी एक रहस्य और रोमांस से भरी प्रेमकथा है जिसका शिल्प और विन्यास इतना उत्कृष्ट है कि समालोचकों ने उसे संस्कृत की कालजयी रचनाओं में से एक माना है। आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी ने इसका सरस हिंदी अनुवाद किया है। यह एक काल्पनिक कथा है। जिसमें चंद्रपीड़ और पुंडरीक नामक पात्रों के तीन जन्मों का उल्लेख है। अतीव सुंदरी चांडाल कन्या और एक वैशम्पायन नाम का तोता है। कहानी इन्हीं पात्रों के इर्द-गिर्द घूमती है। पूरी कथा दो भागों में विभक्त है। पूर्वभाग बाणभट्ट ने लिखा है और उत्तरभाग उसके पुत्र भूषण भट्ट ने। कादम्बरी उपन्यास के जरिए बाणभट्ट नायक और नायिका के प्रारंभिक लौकिक प्रेम को शापवश जन्मातंर में समाप्त कर पुन: अलौकिक प्रेम द्वारा मानव के लिए आदर्श प्रेम का दिव्य संदेश देते हैं। हिंदी में कादम्बरी का अनुवाद पढ़ते हुए देवकीनंदन खत्री की चंद्रकांता संतति याद आएगी। हिंदी फिल्मों में दिलीप कुमार- वैजयंतीमाला की मधुमती और सुनीलदत्त-नूतन की फिल्म मिलन में कादम्बरी की झलक देखने को मिलती है। वैसे हिन्दी शब्दकोष मे कादम्बरी का अर्थ है कदम्ब के फूल से बनी हुई शराब।
भला नाम में क्या धरा है
सीधी जिले को कादम्बरी जिला बना देने की मांग ठीक वैसे ही है जैसे इलाहाबाद के लोग मांग करें कि हमारे जिले का नाम मधुशाला धर दिया जाए। हरिवंश राय बच्चन ने तो यहीं हिंदी साहित्य की सबसे ज्यादा पढ़ी व गाई जाने वाली कृतियों में से एक मधुशाला की रचना यहीं की थी। किसी का नाम बदल देने से क्या उसका चाल-चरित्र और चेहरा बदल जाता है? मायावती ने नोयडा का नाम बदल कर गौतमबुद्ध नगर धर दिया तो बलात्कार-हत्याएं बंद हो गईं? गंभीर अपराधों को अंजाम देने वाले जालिमों का क्या अंगुलिमान की तरह ह्रदय परिवर्तन हुआ? नहीं, निठारी जैसे पैशाचिक कृत्य इसी गौतमबुद्ध नगर में हुआ। पश्चिम बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार फंडामेंटलिस्टों के ढर्रे पर चलती हुई कलकत्ता को कोलकाता बना दिया। क्या नाम बदल जाने के बाद वहां आदमी ने आदमी पर सवारी करना बंद कर दिया? नहीं न.. वही भुखमरी वही बेरोजगारी। उसी कोलकाता की सडक़ों पर हाथों में झुनझुना बजाते आदमी घोड़ों की तरह नधकर बग्घी खींचता है। नाम बदलने से कुछ भी नहीं बदलता। इस तरह की पहल दिल और सोच की संकीर्णता को प्रदर्शित करती है। डीएमके ने मद्रास को चेन्नई करवा दिया और शिवसेना ने बंबई को मुंबई। दोनों ही दल देश में अपनी संकीर्ण सोच के लिए जाने जाते हैं। सीधी तो प्यारा सा सरस और संगीतमयी ध्वनि गुंजित करने वाला दो अक्षरों का मासूम सा नाम है। क्या तकलीफ हो सकती है इस नाम से भला किसी को। सीधी को कादम्बरी बना देने से भला इसके किस गौरव की बहाली हो जाएगी भाई। क्या कादम्बरी इसकी दरिद्रता के दुर्भाग्य को मिटा देगी? है कोई गारंटी?
अपने सीधेपन पर मारा गया सीधी
सीधी तो सचमुच अपने सीधेपन पे मारा गया। सिंगरौली को उससे काट कर अलग कर दिया गया। दुनिया के सबसे बड़े पॉवर काम्पलेक्स बनने का गौरव छिन गया। तब तो किसी ने उफ तक नहीं की। छोटी सी सीधी के विशाल ह्रदय ने इसे जज्ब कर लिया। इससे पहले की बात करेें तो सफेद बाघ मिला इसके बरगड़ी-कुसमी के जंगल में लेकिन दस्तावेजों में कहीं रीवा दर्ज है तो कहीं बांधवगढ़। यहां तक कि एक बार डाक विभाग ने टिकट जारी किया तो बताया गया कि सफेद बाघ बांधवगढ़ का है। मैंने संचार मंत्रालय को कड़ा विरोध पत्र लिखा था तब कहीं जाकर संशोधन किया गया। यानी कि जिसका जब भी मन आया सीदी-साधी सीधी के हितों के साथ खेल किया। वैसे भी सीधी के इतिहास के कालखंडों को आप तीन युगों में बांट सकते हैं। पहला शिकारगाह युग- राजा रजवाड़ों के इस युग में सीधी के जंगलों में जानवरों के शिकार हुए और बस्तियों में आदमियों के। दूसरा एेशगाह युग- स्वतंत्र भारत के पूर्वाद्ध में यह जिला राजनेताओं के ऐशगाह के रूप में इस्तेमाल हुआ। कहीं से किसी को यहां चुनाव लडऩे भेज गया गया। सतना के आनंदचंद्र जोशी, नरसिंहगढ़ के राजा भानुप्रकाश सिंह यहां आए और जीत कर दिल्ली पहुंचे, फिर कभी मुडक़र झांका नहीं। लोहियाजी ने तो बिहार के एक सेठ जी रामसहाय को चुनाव लडऩे भेज दिया था। इस एेशगाह युग में सीधी में स्कूल-अस्पताल से ज्यादा पहाडिय़ों व नदियों के किनारे आलीशान डाकबंगले बनाए गए। फिर आया चारागाह युग- इस युग में नौकरशाहों- इंजीनियरों-ठेकेदारों और नेताओं के संगठित समूह(या गिरोह)ने यहां की महत्वाकांक्षी योजनाओं- परियोजनाओं को चरा और अपनी तिजोरियों को भरा। आज कुसमी के आदिवासी मलेरिया से इसलिए मर जाते हैं कि उनके पास कुनैन की गोली तक खरीदने का सावकाश नहीं, वहीं दूसरी ओर एेसे भी लोग हैं जो इसी सीधी के संसाधनों से करोड़ों अरबों के साथ खेलते हैं। असली चुनौती तो इस दुर्भाग्य को मिटाना है न कि लोगों का ध्यान बटाकर उन्हें सीधी बनाम कादम्बरी के झगड़े में उलझाना।

14 फरवरी 2011 --लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी संपादक हैं।

दो राह समय के रथ का घर घर नाद सुनो

फिलहाल- जयराम शुक्ल
इस साल की बसंत बयार अरब विश्व में जनक्रांति के शोले लेकर आई है। 1989 में चीन के थिएनमेन चौक में जिन तोपों ने लोकतंत्र की ललक और लाल तानाशाही से मुक्ति की लालसा को बर्बरता के साथ कुचल दिया था, काहिरा के तहरीर चौक में उन्हीं तोपों की नाल पर बेखौफ बैठी मिस्त्र की तरूणाई नई विश्वव्यवस्था की इबारत लिखने के लिए डटी हुई है। अब तक अमेरिका के दुमछल्ले बनकर राज कर रहे अरब मुल्कों के बूढ़े अय्याश शासनाध्यक्षों, शेखों और सुल्तानों के खिलाफ वहां की अवाम ने अंगड़ाई ली है। ट्यूनीशिया से शुरू हुआ जास्मिन रिवाल्यूशन यमन, जार्डन होते हुई मिस्त्र पहुंच गया है। लीबिया, अल्जीरिया, बहरीन, अल्बानिया, सीरिया, सूडान जैसे मुल्कों में इस जनक्रांति की लपटें महसूस की जा रही हैं। काहिरा का तहरीर चौक अरब के शासनाध्यक्षों की तानाशाही और स्वेच्छाचरिता से मुक्ति प्रतीक स्थल बन चुका है। इस जनक्रांति की धमक से डरकर चीन ने अपने नागरिकों के लिए सूचना के सारे दरवाजे बंद कर दिए हैं। लंका के विपक्षी दल ने अल्टीमेटम दिया है कि सत्तातंत्र ने दमनकारी कदमों को नहीं रोका तो यहां भी अवाम मिस्त्र के नक्शों-कदम पर चल सकती है। अराजकता की पराकाष्ठा और बर्बाद अर्थव्यवस्था के बीच खड़े पाकिस्तान में ज्वालामुखी के फटने के पूर्व सी नि:स्तब्धता है। अरबसागर से उठी जनक्रांति की बसंती-बयार के झोंके से भारत महाद्वीप भी अछूता नहीं रह सकता। भ्रष्टाचार की महागाथाओं, कालेधन की चकाचौंध के बीच बढ़ती मंहगाई, बेरोजगार युवाओं की पलटन और बेबस किसानों के कलेजे देश की सड़ी-गली और भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ दहक रहे हैं। बस कपास तक एक चिंगारी पहुंचने का इंतजार है। यह जनक्रांति न तो खुमैनी के अल्फाजों में इस्लामिक नव-जागरण की शुरूआत है और न ही वहां के विपक्षी दलों का सत्ताविरोधी अभियान। यह गुस्सा इजराइल और अमेरिका के खिलाफ भी नहीं है। अरबसागर की लहरों से उठा यह तूफान गरीबी, शोषण, गैरबराबरी, भ्रष्टाचार व अराजकता के खिलाफ एक जैसा सोचने वाले बड़े-बूढ़े, छात्रों-नौजवानों, बच्चों और महिलाओं का समवेत जन अभियान है। फिलहाल उन्हें इस बात की फिक्र नहीं कि सामने विकल्प क्या है। अभी तो जिद व्यवस्था के परिवर्तन की है और लक्ष्य है करो या फिर मरो। बकौल राष्ट्रकवि दिनकर-दो राह, समय के रथ का घर घर नाद सुनो। सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
इस जनक्रांति के मायने
उत्तरी अफ्रीका से अरब खाड़ी तक, अमीर-गरीब मुल्कों के सभी शासक खुद को एक जैसी स्थिति में पा रहे हैं। इनमें से ज्यादातर अमेरिका की सरपरस्ती में भ्रष्ट निरंकुश शासन की अध्यक्षता कर रहे हैं। दुनिया को लोकतंत्र और मानवाधिकारों की नसीहत देने वाले अमेरिका ने कभी भी अरब मुल्कों में लोकतंत्र की बयार नहीं देखनी चाही। यहां के शासकों ने भी कभी जनाकांक्षाओं का महत्व नहीं दिया। इस जनक्रांति की बुनियाद पर दुनिया की सूचना क्रांति है,जिसने आहत आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति को स्वर दिया। विकीलीक्स खुलासों से उन्हें पता चला कि उनके शासक किस तरह देश के हितों का गिरवी रखकर अकूत दौलत के स्वामी बन चुके हैं। मुल्क की अवाम की बेहतरी के लिए उनके पास न कोई योजना है और न ही सोचने के लिए वक्त। भूख और गरीबी के खिलाफ जब ट्यूनाशिया की अवाम सडक़ पर उतरी तो उसके गुस्से को देखकर अमेरिका की छत्रछाया में 23 सालों से राज कर रहे तानाशाह बेन अली की जमीन खिसक गई। ट्यूनीशिया की सफलता से उत्साहित यमन के नागरिक भी सडक़ों पर उतर आए। राष्ट्रपति अली अब्दुल्ला को जनता को यह वचन देना पड़ा कि अब वह न तो अपने कार्यकाल को आगे बढ़ाऐंगे और न ही अपने पुत्र को उत्तराधिकारी घोषित करेंगे। अवाम के क्रांतिकारी तेवर को देखते हुए जार्डन के बादशाह अब्दुल्ला ने बिना कोई वक्त गंवाए प्रधानमंत्री समेत समूची सरकार को बर्खास्त कर दिया। इन तीनों मुस्लिम देशों में अवाम की बगावत के पीछे न तो कट्टरपंथी हैं और न ही कथित जेहाद की कोई भूमिका है। ये लोकतांत्रिक व्यवस्था में खुली सांस लेना चाहते हैं और जवाबदेह सत्ता में अपनी भागीदारी के महत्व को समझने लगे हैं। एक गुमनाम सा छोटा देश ट्यूनीशिया अरब विश्व में लोकतांत्रिक नवजागरण के ध्वजवाहक के रूप में इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया। यद्यपि अभी यह देखना होगा कि यह जनक्रांति प्रकारांतर में क्या शक्ल अख्तियार करती है, वैसे यह काफी कुछ हद तक मिस्त्र के हश्र पर निर्भर करता है।
तहरीर चौक पर मिश्र की तगदीर
इस समय पूरी दुनिया की नजरें मिस्त्र के प्रतिपल बदलते हुए घटनाक्रम पर टिकी हुई है। मुक्तिस्थल के प्रतीक के तौर पर उभर चुके तहरीर चौक पर क्रांतिकारी राष्ट्रपति मुबारक का तत्काल दफा करने की मांग को लेकर डटे हैं। मुबारक ने सितंबर तक की मोहलत मांगी है। क्रांतिकारियों को यह मंजूर नहीं। राष्ट्रपति अपने स्तर पर डैमेज कंट्रोल करने का यत्न कर रहे हैं। अपनी सरकार में उन्होंने आमूलचूल परिवर्तन किया है। उमर सुलेमान को उपराष्ट्रपति बनाकर आगे किया है लेकिन वे अप्रभावी साबित हो रहे हैं। तहरीर चौक पर जुटे क्रांतिकारियों के समूह की खासियत यह है कि इनके नेतृत्व में न तो मिश्र के रूढि़वादी नरमपंथी गुट मुस्लिम ब्रदरहुड का कोई प्रभाव है और न ही विपक्ष के नेता अलबरदेई को कोई भाव मिल रहा है। मिश्र में जिस तरह से स्वस्फूर्त प्रदर्शन शुरू हुआ है उसी तरह एक कलेक्टिव लीडरशिप पूरे अभियान की अगुआई कर रही है। करो या मरो के जज्बे के साथ मैदान पर उतरे युवा क्रांतिकारी यह मान चुके हैं कि अभी नहीं तो कभी नहीं। इधर अमेरिका के लिए मिस्त्र अरब मुल्कों में से सबसे अहम है। यहां उसका काफी कुछ दांव पर लगा हुआ है। अमेरिका अब तक मिश्र को 35 बिलियन डालर की मदद दे चुका है। मुबारक के हर कदम उसी के इशारे पर संचालित हो रहे हैं। मुबारक 30 सालों से मध्यपूर्व में पश्चिम के लिए महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं। मिश्र के इजराइल से दोस्ताना संबंध हैं। अमेरिका के लिए चिंता की बात यह है कि कहीं मिश्र की सत्ता उसके विरोधी तत्वों के हाथों न चली जाए। वह बड़ी चालाकी के साथ सत्ता हस्तातंरण की बात कर रहा है। फिलहाल उसके सामने दो विकल्प हैं। पहला यह कि फौज के समर्थन के साथ उपराष्ट्रपति उमर सुलेमान कमान संभाल लें। दूसरे उसने क्रांतिकारियों के बीच परमाणु नियंत्रण एजेंसी विएना के प्रमुख रहे अलबरदेई को भी स्थापित करने की कोशिश की है। अलबरदेई की अमेरिकी घनिष्टता का देखते हुए क्रांतिकारी शायद ही उन्हें स्वीकार कर पाएं। प्रदर्शनकारियों के क्रोध के निशाने पर भले ही अमेरिका और इजराइल न हों लेकिन यह बताने की जरूरत नहीं कि जिन होस्नी मुबारक को दफा करने का आंदोलन चल रहा है उनकी असली ताकत अमेरिका की ही सरपरस्ती रही है। अमेरिका के हिसाब से यदि किसी को सत्ता की कमान दी गई तो वह मुबारक का ही क्लोन होगा। इस बीच अमेरिका के सूचनातंत्रों ने यह भी प्रचारित करना शुरू कर दिया है कि इस प्रदर्शन के पीछे कहीं न कहीं अलकायदा की भी भूमिका है। एक रणनीति के तहत यह प्रचार इसलिए भी किया जा रहा है ताकि यदि जरूरत पड़े तो क्रांतिकारियों को अलकायदा के नाम पर कुचला जा सके। इसमें भी कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि अमेरिका इस जनक्रांति को बदनाम करने के लिए कुछ विघटनकारी व विध्वंसक तत्व प्लांट कर सकता है। इधर आयतुल्ला खुमैनी काहिरा की क्रांति को 1979 में ईरान में हुई इस्लामिक क्रांति की अनुगूंज मान रहे हैं। वे होस्नी मुबारक को ईरान के शाह रजा पहलवी की तरह अमेरिका और इजराइल का पिठ्ठू करार दे रहे हैं। कुछ भी हो तहरीर चौक पर जुटे क्रांतिकारियों की इच्छाशक्ति पर यह निर्भर करता है कि वे मिश्र के तगदीर की इबारत किस तरह लिखते हैं। वैसे न तो अमेरिका ओर न ही खुमैनी के लिए यह आसान नहीं होगा कि ट्यूनिशिया से शुरू हुई जनक्रांति की दिशा व दशा अपने हिसाब से तय कर सके।
तो क्या करे भारत
भारत के लिए यह समय न तो अरब खाड़ी से उठी जनक्रांति की लहरों के गिनने का है और न ही तूफान का देखकर शुतुरमुर्ग की तरह सिर गड़ाकर खुद का महफूज समझने का। मिश्र से भारत की दोस्ती सदियों से रही है। दोनों ही देश संपन्न संास्कृतिक विरासत वाले देश हैं। नेहरू और नासिर की दोस्ती की बुनियाद पर ही गुटनिरपेक्ष आंदोलन खड़ा हुआ था। पहले तो भारत मिश्र की जनक्रांति से यह सबक ले कि यदि भ्रष्टाचार और गरीबी के खिलाफ समय रहते ठोस कदम नहीं उठाए गए तो तहरीर चौक के तूफान को दिल्ली के विजय चौक तक पहुंचने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। दूसरे मिश्र की जनक्रांति का सम्मान करे व मिश्र से उसी तरह दोस्ती को यथावत रखे जैसे कि मोरारजी भाई देसाई ने ईरान के रजा पहलवी के पतन के बाद खुमैनी के साथ बरकरार रखी थी।
7 फरवरी 2011 को प्रकाशित
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कुछ तो गड़बड़ है जी

फिलहाल-जयराम शुक्ल
मुझे अच्छी तरह याद है कि मेरे गांव के एक लडक़े को भर्ती होने के तीन महीने के भीतर ही सिपाही की नौकरी इसलिए गंवानी पड़ी थी क्योंकि उसके पुलिस वैरीफिकेशन में बताया गया था कि इसके खिलाफ थाने एक सौ सात सत्रह के तहत मामला दर्ज है। एक सौ सात सत्रह कोई गंभीर मामला नहीं है। शांति-भंग की आशंका को आधार बनाकर पुलिस किसी के खिलाफ यह मामला दर्ज कर सकती है, आप के खिलाफ भी। लेकिन पीजे थॉमस साहब के खिलाफ भ्रष्टाचार का गंभीर मामला दर्ज है यह बताए जाने के बावजूद उन्हें देश के चीफ विजीलेंस कमिश्रर(सीवीसी) जैसे संवैधानिक पद पर नियुक्ति दे दी गई। अपने देश में सिपाही की नौकरी के लिए तो पुलिस वैरीफिकेशन होता है पर भ्रष्टाचरियों पर नजर रखने वाले सर्वोच्च पद पर एेसे व्यक्ति को नियुक्त कर दिया जाता है जो हाल ही में टूजी-स्पेक्ट्रम की श्याम-कोठरी से निकलकर आया है, जिस पर खुद भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं, और उन पर मामला चलाने की मंजूरी केरल की राज्य सरकार ने दे रखी है। यानी कि कुछ न कुछ गड़बड़ है। यदि वकील प्रशांत भूषण की याचिका पर सुप्रीमकोर्ट संज्ञान न लेता और केंद्र सरकार को इस कदाचरण के लिए फटकार न लगाता तो मामला यूं ही चलता रहता। भाजपा लाख चिल्लाती या आरोप लगाती रहती, इसे राजनीतिक अदावत का मामला बताकर पल्ला झाड़ लिया जाता।
पीजे थॉमस में ऐसा क्या?
मामले में कहीं न कहीं गंभीर गड़बड़ इसलिए लगती है क्योंकि सीवीसी की चयन समिति में प्रधानमंत्री की हैसियत से डॉ.मनमोहन सिंह थे, जिन्हें राजनीति और निजी जीवन में सादगी, ईमानदारी, विद्वता की प्रतिमूर्ति माना जाता है। गृहमंत्री की हैसियत से पी चिंदम्बरम साहब भी थे जो खुद आला दर्जे के वकील और बेलौस राजनीतिज्ञ हैं। खैर सुषमा स्वराज जी तो नेता प्रतिपक्ष की हैसियत से थीं। सत्तापक्ष की राय से असहमत होना उनका राजनीतिक धर्म भी है। श्रीमती स्वराज ने थॉमस की नियुक्ति को लेकर सवाल खड़े किए थे, लेकिन उनकी आपत्ति का दरकिनार करते हुए बहुमत के आधार पर थॉमस को सीवीसी बना दिया गया। अब सरकार की ओर से सुप्रीमकोर्ट को बताया जा रहा है कि उन्हें थॉमस पर चल रहे मामले की जानकारी नहीं थी और न ही थॉमस ने अपने बायोडाटा में इसका कोई जिक्र किया था। गफलत इसलिए हो गई और अब सरकार थॉमस की नियुक्ति पर विचार करेगी। क्या यह गंभीर बात नहीं कि देश का मुखिया संसदीय लोकतंत्र के मूल्यों को दरकिनार करते हुए नेता प्रतिपक्ष की आपत्ति को यूं ही हवा में उड़ा दे? बिंदास बोल बोलने वाले गृहमंत्री चिदंबरम बड़े वकील होते हुए भी अपनी ही सरकार की भावी फजीहत का आकलन न कर सकें? आखिर थॉमस में ऐसी क्या बात है कि उनके लिए सरकार को ही दांव पर लगा दिया गया? झूठ पर झूठ बोला गया। यदि आप मानते हैं कि यूपीए के सत्ता-सूत्र दस जनपथ से संचालित हैं तो क्या आप को नहीं लगता कि कहीं न कहीं कुछ गंभीर गड़बड़ है।
मजबूरी या नई राजनीतिक शैली
घपलों,घोटालों और घोटालेबाजों को हटाने में किंतु-परंतु और थॉमस जैसी विवादस्पद नियुक्तियों ने यह सोचने-विचारने का मौका दिया है कि मिस्टर क्लीन डॉ.मनमोहन सिंह की चुप्पी उनकी मजबूरी है या फिर उन्होंने अपनी एेसी खास राजनीतिक शैली ईजाद कर ली है। वैसे इस पर ज्यादा रोशनी सत्ता के गलियारों से वास्ता रखने वाले सियासी नगमानिगार ही डाल सकते हैं, पर अब यह साफ नजर आने लगा है कि डॉ.मनमोहन सिंह की वह छवि नहीं रही जो यूपीए प्रथम के दौर में थी। सही मायने में देखा जाए तो डॉ.मनमोहन सिंह के राजनीतिक गुरू पीवी नरसिंहराव थे, उन्होंने ही अपनी सरकार में वित्तमंत्री बनाकर इनकी राजनीतिक प्राणप्रतिष्ठा की थी। नरसिंहराव की खास शैली थी कि वे पेचीदा मसलों को फ्रीज कर चुप्पी ओढ़ लेते थे। कॉमनवेल्थ, टूजी-स्पेक्ट्रम, आदर्श सोसायटी घोटाला और अब थॉमस मामलें में डॉ.मनमोहन सिंह का अंदाज कुछ-कुछ राव से ही मेल खाता है। इनकी कैफियत में बस इतना ही जोड़ा जा सकता है कि मजबूरी इन्हें विरासत में मिली है। लेकिन एेसी भी मजबूरी क्या कि गुनाह होते रहें और ये चुपचाप देखते रहें। राष्ट्रकवि दिनकर ने सही लिखा है- जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध। यूपीए द्वितीय के कार्यकाल में जो कुछ न कुछ गड़बड़ है, डॉ. सिंह को चुप्पी तोडक़र या तो उसे दुरस्त करना होगा या फिर गड़बड़ करने वालों की जमात में शामिल होना स्वीकार करना पड़ेगा।
एक थे एंडरसन, एक थे क्वात्रोची
चर्चित सीवीसी पीजे थॉमस कोई एेसे अकेले पॉवरफुल शख्स नहीं हैं जिनके लिए कॉग्रेस सरकार सबकुछ ताक पर रखकर ढाल बन गई हो। बोफोर्स तोप मामले इटली के सौदागर ऑटिवो क्वात्रोची और भोपाल में गैस लीककर जनसंहार करने वाली यूनियन कार्बाइड के मुखिया एन्डरसन भी एेसे
सौभाग्यशालियों में से एक थे जिनपर अदृश्य सत्ता की कृपा रही है। यद्यपि थॉमस का मामला इन दोनों से सर्वथा भिन्न और अलग मिजाज का है पर जहां तक इन्हें बचाने के लिए सत्ता की मर्यादा को ही दांव लगा देने की बात हो वहां पर तीनों एक ही श्रेणी में रखे जा सकते हैं। भोपाल में बीस हजार लोगों की मौत के सौदागर एन्डरसन के लिए दिल्ली से आए विशेष संदेश के आधार पर रास्ता खाली कराया गया और विशेष विमान से अमेरिका भाग जाने दिया गया। उस समय राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे और प्रदेश मे अर्जुन सिंह के नेतृत्व वाली कॉगे्रस सरकार। हजारों मौतों के दोषी एन्डरसन के साथ किस रहस्यमयी सत्ता की सदाशयता प्राप्त थी आज भी यह खोज का विषय है। क्वात्रोची का मामला भी एेसा ही है। क्वात्रोची को क्लीनचिट देने के मामले में सीबीआई आज भी कठघरे में खड़ी है। क्वात्रोची को कानून के फंदे से बचाने के लिए तत्कालीन कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज ने भी तो किसी न किसी अदृश्य सत्ता के इशारे पर ही एेसी पैतरेबाजी दिखाई होगी।
और अंत में
इस बीच यदि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी जी का यह वक्तव्य आ जाए कि पी.जे. थामस यह नाम ही काफी है सारे गुनाह ढंकने के लिए तो आश्चर्य न मानिएगा। मुझे याद है कि पिछले के पिछले गुजरात चुनाव में जब चुनाव आयोग ने मोदी सरकार को कसा था तो मोदी साहब ने शब्दों को चबाते हुए संकेतों में कुछ यूं बताया था ये जेम्स माइकल लिंगदोह हैं और किसके इशारे पर इतनी सख्ती बरत रहे हैं समझ सकते हैं। इससे और ज्यादा स्पष्ट या तो तोगडिय़ा जी कर सकते हैं या फिर अशोक सिंहल।
30 जनवरी 2011 को प्रकाशित

कारपोरेट के लिए कारपेट, किसानों को गोली

देश में शायद ही कोई एेसा दिन हो जो किसानों की त्रासदी लेकर न आए। कहीं ओले-पाले-सूखे से बर्बाद फसल व सूदखोरी से त्रस्त होकर फांसी में लटकने की, तो कहीं विस्थापन और भूमि अधिग्रहण के खिलाफ प्रदर्शन-धरने में पुलिस की लाठी गोली खाने की खबरें। इलाहाबाद में यूपी के किसान एक निजी कारखाने के लिए ़1400 एकड़ जमीन अधिग्रहीत किए जाने के खिलाफ आंदोलनरत हैं। यानी कि हर तरफ सलीब पर अन्नदाता किसान ही टंगा है। भ्रष्टाचार, कालाधन, कश्मीर-समस्या, आतंकवाद और नक्सलवाद पर बहस और राजनीतिक बुद्धिविलास के चलते किसानों के मर्म और दर्द को सोचने समझने की फुर्सत ही नहीं। हताशा में वह या तो अपनी जान दे रहा है या फिर गुस्से में आंदोलन-प्रदर्शन करते हुए पुलिस की लाठी-गोली खाकर मर रहा है। दरअसल नब्बे के दशक से शुरू हुआ नव-उदारवाद अब अपने असली रंग पर आ रहा है। औद्योगिक घराने ऑक्टोपस की तरह पूरे देश में पसर रहे हैं। किसान कहीं सेज (स्पेशल इकॉनामिक जोन) के नाम पर अपनी जमीन से बेदखल हो रहा है,तो कहीं सीमेंट और थर्मल प्लांट के लिए। विस्थापन उसकी नियति बन चुकी है।
कारपोरेट के लिए कारपेट
औद्योगिकीकरण में अव्वल दर्जा पाने के लिए इन दिनों राज्य सरकारों में होड़ सी मची है। वायब्रेंट गुजरात की तर्ज पर हर राज्य ज्यादा से ज्यादा पूंजी निवेश आकर्षित करना चाहते हंै। स्थितियां कुछ इस तरह बदल चुकी हैं कि पहले जहां औद्योगिक घराने अपना धंधा फै लाने के लिए आरजू मिन्नत किया करते थे, आज राज्य सरकारें उनके लिए पलक पॅावड़े बिछाए बैठी हैं। जाहिर है कि उनकी हर जायज और नाजायज मांगों के लिए सरकारेें अपनी नीतियां तक बदलने को तैयार हैं। अपने मध्यप्रदेश का ही उदाहरण लें। सिंगरौली क्षेत्र में थर्मल प्लांट लगाने जा रहे एक औद्योगिक घराने के लिए राज्य सरकार की कैबिनेट ने यह मंजूरी दे दी कि वह अधिग्रहीत जमीन को गिरवी रख करके बैंकों से कर्ज ले सकती है। यानी कि किसानों की जमीन का अधिग्रहण करके बैंकों में उसे बंधक बनाइए और कर्जा लेकर अपनी फैक्ट्री चलाइए। कैबिनेट के इस महत्वपूर्ण फैसले पर किसी ने भी अंगुली नहीं उठाई। वजह विपक्ष में भी कारपोरेट के हितरक्षक टट्टू बैठे हैं। कहने का आशय यह कि औद्योगिक घरानों के लिए क्या पक्ष क्या प्रतिपक्ष सभी एक जैसे हैं। किसानों के हितों की चिंता किसी को नहीं। जून 2010 में मध्यप्रदेश सरकार ने नई औद्योगिक नीति की घोषणा की है। पूरी नीति पढ़ जाइए कहीं भी एक लाइन एेसी नहीं मिलेगी जो किसानों का हित साधने वाली हो। लोगों को पीने के लिए पानी मिले या न मिले, खेतों की सिंचाई हो न हो पर सरकार को इस बात की चिंता ज्यादा है कि कारखानों को पानी का पूरा इंतजाम होना चाहिए। इसीलिए अभी से ही नहरों के पानी के औद्योगिक इस्तेमाल के फैसले लिए जाने लगे हैं। यकीन मानिए बाणसागर और बरगी के पानी का बड़ा हिस्सा फैक्ट्रियों के पेट में ही जाने वाला है।
सिंगुर से सिंगरौली तक
औद्योगिकीकरण के नाम पर विस्थापित किए जा रहे किसानों की त्रासदी कमावेश पूरे देश में एक जैसी ही है। औने-पौने मुआवजे में इन्हें जमीन से बेदखल किया जा रहा है। जहां किसानों के हितों की बात करने वाला नेतृत्व मिला, वहां संगठित तरीके से विरोध के स्वर भी सुनाई दिए। यह बात अलहदा है कि उनकी आवाजें लाठी गोली के दम पर दबा दी गई या सरकारों को मुआवजे-पुनर्वास पर फिर से विचार करने के लिए विवश होना पड़ा। मसलन पश्चिम बंगाल के सिंगुर-नंदीग्राम में विस्थापन और मुआवजे को लेकर किसानों का आक्रोश इतना भडक़ा कि टाटा और इन्डोनेशिया की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी को वहां से बोरिया-बिस्तरा समेटकर भागना पड़ा। किसानों की आहत-आक्रोशित भावनाओं को चरमपंथी कैसा भुनाते हैं और फिर कानून-व्यवस्था के लिए किस तरह चुनौती बन जाते हैं सिंगुर-नंदीग्राम इसका उदाहरण है। कल यदि सतना-रीवा-सिंगरौली के विस्थापित किसान संगठित होकर एक धरातल पर आने पाए तो यहां क्या स्थिति बनेगी अंदाजा लगा सकते हैं। यह भी ध्यान रखें कि सिंगरौली पहले से ही नक्सलियों के निशाने पर है और विस्थापन की त्रासदी भी सबसे ज्यादा इसी इलाके के लोग भोग रहे। दरअसल विस्थापन का दंश इतना गहरा और कष्टदायी होता है कि इसे कई-कई पीढिय़ां भोगती हैं। जमीन से बेदखल कर दिया जाना जिंदगी से बेदखल कर दिए जाने जैसा मृत्युतुल्य कष्ट है। क्योंकि इस बेदखली से सिर्फ गांवों व खेतों भर का अस्तित्व नहीं मिटता अपितु वहां के लोगों की स्मृतियां, परंपराएं, संस्कृति, कुल के देवी-देवता सभी अस्तित्वहीन हो जाते हैं। देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी समय-समय पर अपनी व्यवस्थाएं देकर राज्य को इस त्रासदी के संबंध में चेतावनियां दी हैं। विस्थापन और पुनर्वास एेसा संवेदनशील मसला है यदि इसे सुलझाने में मानवीय दृष्टिकोण नहीं अपनाए गए तो इसके फलस्वरूप जो स्थितियां निर्मित होंगी उसका निदान सत्ता की लाठी-गोली, तुपक-तलवार भी नहीं कर सकती।
हरियाणा से सबक ले सरकार
प्रदेश की शिवराज सिंह सरकार ने औद्योगिकीकरण के लिए मोदी के वायब्रेंट गुजरात को अपना रोल-मॉडल बनाया है। यह अच्छी बात है। लेकिन विस्थापन-पुनर्वास और मुआवजे के लिए हरियाणा की भूपिंदर सिंह हुड्डा सरकार से सबक ले सकती है। हुड्डा सरकार को सेज के लिए विस्थापित किए जा रहे किसानों के आक्रोश ने एेसी भू-अधिग्रहण नीति बनाने के लिए विवश या यूं कहिए प्रेरित किया कि आज यह नीति वहां के किसानों की काफी कुछ हद तक हितरक्षा के लिए कारगर मानी जा रही है। 2007 में घोषित की गई इस नीति में अधिग्रहीत की जाने वाली भूमि की महत्ता के आधार पर मुआवजा तय किया गया है। यह मुआवजा न्यूनतम 8 लाख रुपए प्रति एकड़ से लेकर 20 लाख रुपए प्रति एकड़ है। शहर से लगी हुई भूमि न्यूनतम 20 लाख रुपए एकड़ तो दूरदराज गांवों की जमीन 8 लाख रुपए एकड़ से कम नहीं। यही नहीं इस नीति में प्रावधान किया गया है कि किसानों की जमीन पर स्थपित होने वाला उद्योग एक परिवार से एक व्यक्ति को नौकरी तो देगा ही, अधिग्रहीत भूमि की प्रति एकड़ 15000 रुपए सालाना रॉयल्टी भी देनी होगी। 33 वर्षों के लिए निर्धारित यह रॉयल्टी हर साल 500 रुपए के हिसाब से बढ़ती जाएगी। सेज,टेक्रोलॉजी, फूडपार्क जैसे उपक्रमों के लिए अधिग्रहीत की गई भूमि के लिए यह रॉयल्टी 30000 रुपए वर्षिक होगी, जिसमें 1000 रुपए सालाना इन्क्रीमेंट लगाया जाएगा। यही नहीं विस्थापितों को घर बनाने के लिए 350 स्क्वेयर यार्ड तथा जीविका के लिए 2.75 गुणा 2.75 मीटर के कॉमर्शियल बूथ दिए जाएंगे। पिछले तीन वर्षों से हरियाणा में विस्थापित किसानों के एक भी धरना,आन्दोलन-प्रदर्शन नहीं हुए। क्या किसानपुत्र शिवराज सिंह अपने सूबे के किसानों के लिए एेसा नहीं कर सकते? औद्योगिक पूंजीनिवेश के लिए जिस तरह उनकी सरकार ने नई औद्योगिक नीति की रचना की है क्या यह जरूरी नहीं कि किसानों के लिए नई पुनर्वास और अधिग्रहण नीति बनाई जाए? विकास का संतुलन तभी बनेगा जब थर्मल प्लांट का टरबाइन भी चले और ट्रैक्टरों से लदा किसानों का अन्न भी मंडियों में पहुंचे।
-लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी संपादक हैं।
24 जनवरी 2011 को प्रकाशित

अपने विन्ध्य के भविष्यफल की शेष-कथा

पिछले हफ्ते अपने विन्ध्य का भविष्यफल बांचते हुए यहां के अधोसंरचना विकास व संभावित औद्योगिकीकरण और उससे जुड़ी भू-अधिग्रहण, विस्थापन और पुनर्वास की समस्या को रेखांकित करने की हल्की सी कोशिश की थी। इस संदर्भ में कई पाठक मित्रों की गंभीर प्रतिक्रि याएं व सुझाव आए। इस बहस को अगले कॉलम में जारी रखेंगे, फिलहाल अपने विन्ध्य की खेती-किसानी, प्रकृति व पर्यावरण संतुलन पर औद्योगीकरण के प्रभाव की भावी तस्वीर का आंकलन करने की कोशिश करते हैं।
उन्नत खेती का ख्वाब: साल दर साल सूखा-ओला-पाला जैसे प्राकृतिक प्रकोप झेलने के लिए अभिशप्त हो चुके किसान भाइयों को इस साल फिर वही 33 वर्षीय पुरानी दिलासा है। बस जल्दी ही बाणसागर का पानी अपने खेतों में आने ही वाला है। उधर बरगी बांध का पानी चल चुका समझो। अपने विन्ध्य में नहरों के जरिए सोन-नर्मदा और गंगा का मेल होने ही वाला है। बस अब वह दिन दूर नहीं जब हर खेत को पानी और हर हाथ को काम मिलेगा। सन् नब्बे में भाजपा यही नारा देकर सत्ता में आई थी। फिलहाल प्रदेश में उसी का राज है। सो इसलिए बीस साल पहले का नारा अब फलीभूत होने वाला है। अपना विन्ध्य पंजाब-हरियाणा के नक्शो-कदमों पर चलने ही वाला है। किसान तिनफसली उपज लेने लगेंगे। अन्न से धन की वर्षा होने लगेगी। वे मोटर पर सवार होकर शॉपिंग मॉल में खरीदारी करने जाया करेंगे। किसानों के अपने शीतगृह होंगे, जहां सब्जियां,फल-फूल, दूध-दही, घी-मख्खन का भंडार होगा। अब सल्फास खाकर कोई भी किसान नहीं मरेगा। शब्दजालों का जो भविष्यफल कई सालों से हम बांचते आ रहे हैं फिलहाल इस साल भी वही समझिए।
हकीकत यह है: अपने विन्ध्य में सिंचाई का औसत रकबा लगभग तेरह से पंद्रह प्रतिशत है। पिछले पांच सालों से यहां सामान्य औसत वर्षा(9000से1100मिमी के बीच) से लगभग आधी ही होती आई है। सूखा-ओला-पाला, इल्ली,आंधी-तूफान के बिना शायद ही कोई साल गुजरा हो। बिजली की दशा बयान करने लायक नहीं। हजारों की संख्या में किसान बिजली चोरी के मामले में फंसे हैं। इनमें से सैकड़ों जेलयात्रा कर चुके हैं। खाद-बीज का कर्जा ऊपर से बना हुआ है। खेती का रकबा दिनों-दिन सिमट रहा है। जमीन का एक बड़ा हिस्सा नहरों, चौड़ी सडक़ों, बायपास, रेललाइन बिछाने व तीन-तीन नेशनल पार्कों(पन्ना,बांधवगढ़ व संजय) के बफर जोन बनाने में नप रहा है। फिर ऊपर से दर्जनों की संख्या में सीमेंट कारखाने व थर्मल प्लांट्स के करार हुए हैं। सरकार की लाठी और अपने धन की लुकाठी के दम पर उद्योगपतियों ने औने-पौने दामों में जमीन का अधिग्रहण शुरू कर दिया है। खेतों पर फसलों की जगह चिमनियां उगेंगी। नई खबर यह है कि सीमेंट और बिजली के कारखाने लगाने वाले उद्योगपति एग्रोफार्मिंग के क्षेत्र में भी अपना कारोबार फैलाने जा रहे हैं। जेपी, रिलाएंस और रूचि सोया(कैलाश सहारा) ने इस क्षेत्र में भी घुसपैठ करना शुरू कर दिया है। ये औद्योगिक घराने यहां कारपोरेट फार्मिंग शुरू करेंगे। तो गरीब किसानों की काश्तकारी की जमीन पर चारों ओर से गिद्धि नजर लगी हुई है। अब रही बात बाणसागर और बरगी की नहरों से आने वाले पानी की, तो यकीन मानिए खेतों से ज्यादा कारखाने इनका पानी पिएंगे। सीमेंट और थर्मल प्लांट पानी के सहारे चलने वाले उद्योग हैं। यदि इनकी प्रोजेक्ट रिपोर्ट पर जाएं तो पता चलेगा कि पानी की जितनी जरूरत पेयजल व सिंचाई के लिए है उससे कहीं ज्यादा जरूरत इन उद्योगों का पड़ेगी। उदाहरण के लिए सतना शहर को बीस से पच्चीस लाख लीटर पीने के पानी की रोज आवश्यकता होती है, जबकि शहर से लगे हुए इलाके में खुलने जा रही रेवती सीमेंट फैक्ट्री को रोजाना कम से कम तीस लाख लीटर पानी की जरूरत होगी जिसे प्रदाय करने की जिम्मेवारी सरकार ने ली है। एेसी ही छह फैक्ट्रियां सतना के इर्द-गिर्द और आने वाली हैं। अभी हाल ही में सीधी जिला पंचायत ने एक प्रस्ताव पारित करके नहरों के पानी का एक फैक्ट्री को इस्तेमाल की स्वाकृति दी है। किसानों के हिस्से का पानी कारखानों का दिए जाने की सरकारी प्राथमिकता की यह एक हैरतअंगेज शुरुआत है।
तो उपचार क्या : अपने विन्ध्य के किसानों के सामने विकल्प के तौर पर वही मशहूर फिल्मी तराना है- जीना यहां मरना यहां इसके सिवा जाना कहां। तो इन्हीं परिस्थतियों के बीच से रास्ता निकालना होगा। हमारा कहना यह है कि सरकार खदानों पर आधारित उद्योगों के लिए जितनी बेताब है,उतनी ही बेताबी खेती पर आधारित उद्योगों को लेकर दिखाए। यदि आते-आते बाणसागर व बरगी का पानी यहां के खेतों में आ गया और अस्सी फासदी भी सिंचाई संभव हो पाई तो समझिए कि यहां के कृ षि उत्पादन का टर्नओवर व देश की अर्थव्यवस्था में यहां के किसानों का योगदान, यहां स्थापित होने वाले उद्योगों के टर्नओवर व अर्थव्यवस्था को उद्योगपतियों के योगदान से कई गुना ज्यादा होगा। इसलिए जरूरी है कि किसानों को सुविधाएं उपलब्ध कराने में सरकार उतनी ही सदाशयता दिखाए जितनी कि उद्योगपतियों के लिए दिखा रही है। शुरुआत छोटी सुविधाओं को उपलब्ध कराने के साथ की जा सकती है। मसलन विन्ध्य के सभी जिलों में कम से कम जनपद स्तर पर शीतभंडारगृह व अन्न भंडारण के लिए वेयरहाउस बनाए जाएं। छोटे व सीमांत किसानों के लिए माइक्रोफाइनेंस जैसी स्कीम बनाएं ताकि किसान छोटी-मोटी जरूरतों के लिए सूदखोरों व व्यवहरों के आगे हाथ न पसारे। सिंचित व भविष्य में सिंचित होने वाली जमीन का किसी भी स्थिति में उद्योगों के लिए अधिग्रहण न किया जाए, चाहे इस हेतु उद्योगों का करार तोडऩा ही क्यों न पड़े। पहले पहाड़ी, बंजर व परती जमीन चिन्हित की जाए व इस किस्म की जमीन की उपलब्धता के आधर पर ही उद्योगों की स्थापना के बारे में विचार किया जाए। पानी का मामला सबसे गंभीर विषय है। सरकार पर एक एेसी कड़ी नीति बनाने पर दबाव बनाया जाए कि बाणसागर और बरगी से मिलने वाला पानी पहले पेयजल के लिए आरक्षित हो, इसके बाद खेतों को सिंचाई के लिए मिले, तदोपरांत सरप्लस पानी उद्योगों को दिया जाए। औद्योगिक इकाइयां किसी भी स्थिति में भूगर्भीय जल का दोहन न करने पाएं, इस पर कानूनी रोक तो लगे ही इसकी निगरानी के लिए मॉनिटरिंग कमेटियां बनाई जाए। औद्योगिक इकाइयां के खर्चे पर बरसाती पानी के संरक्षण के लिए संसाधन व संरचनाएं विकसित की जाएं। कारपोरेट फार्मिंग यहां के किसानों के कितने हित में है या नहीं, पहले विशेषज्ञों से इसका अध्ययन करवाया जाए इसके बाद ही एेसी खेती के लिए अनुमति दी जाए।
जरूरी सलाह: बड़े कारपोरेट जहां जाते हैं पहले वहां वे अपने हिसाब से माहौल बनाने के लिए निवेश करते हैं। बिजनेस की भाषा में इसे इनवायरमेंट मेकिंग कहा जाता है। ये सबसे पहले वहां के प्रभावशाली वर्ग मसलन, विधायक, सांसद, नगर व ग्रामीण क्षेत्र के अन्य छोटे-बड़े निर्वाचित प्रतिनिधि, पत्रकार व अन्य बौद्धिक वर्ग। इन्हें छोटे-मोटे ठेके, लायजनिंग का काम देकर एेसा उपकृत करते हैं कि ये भी उन्हीं की भाषा बोलने लगते हैं। सरकार और उसकी मशीनरी भी इन्ही की लंबरदार बन जाती है। उद्योग-धंधा जम जाने के बाद इन सब की औकात दो टके की भी नहीें बचती, क्योंकि तब तक ये भोपाल और दिल्ली में सत्ता के गलियारे में इतने मजबूत हो चुके होते हैं कि स्थानीय राजनीति भी इन्ही के इशारे पर संचालित होने लगती है। इसलिए सलाह यह है कि इनके झांसे में फंसे बगैर खुद के व अपने गांव-समाज के भाइयों के भावी व्यापक हित को सोचें इसके बाद ही कोई निर्णय लें। फूट डालो व राज करो की नीति को समझें, छोटे से फायदे के लिए गांव व वहां के लोगों के हितों को दांव पर न लगा दें। लेकिन यह भी ध्यान रखें कि कई कारपोरेट घराने एेसे भी हैं जो वाकयी लोकहित का ध्यान रखते हैं, इसलिए अच्छे-बुरे की परख उनके कार्यों के आधार पर समझें। और मोटी-मोटी बातों में यह तो जान ही लें कि हमारे लिए खेती भी जरूरी है और उद्योग भी, लेकिन देखने वाली बात यह है कि दोनों के बीच आवश्यक संतुलन बना रहे।
प्रकाशित- 10 जनवरी 2011

हर जिले में डेरा डालो वोटरों पर घेरा डालो


अनूठा होगा अन्त्योदय मेला, शुरुआत रीवा से, हाजिर रहेगी समूची शिवराज सरकार
जयराम शुक्ल
रीवा। भारतीय जनता पार्टी की प्रदेश सरकार औ२र संगठन ने नए साल से एक रोचक कार्यक्रम की शुरुआत करने जा रही है। सरकारी तौर पर इसे अन्त्योदय मेला का नाम दिया गया है, पर इसे आप हर जिले में डेरा डालो वोटरों पर घेरा डालो कार्यक्रम भी कह सकते हैं। पहली कड़ी में यह मेला तेरह जनवरी को रीवा में भरने जा रहा है। इस मेले में जिले भर के हितग्राहियों को जोडक़र उन्हें मौके पर ही सरकारी योजनाओं का लाभ दिया जाएगा। इस कार्यक्रम की महत्ता का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि मेले में मुख्यमंत्री समेत लगभग सभी मंत्री और मुख्य सचिव समेत सभी प्रमुख सचिव मौजूद रहेंगे। इधर इसी के समानांतर संगठन, लाभान्वित होने वाले हितग्राहियों को पार्टी का सदस्य बनाने का अभियान चला रहा है।
अपने ढंग के इस अनूठे मेले की सफलता के लिए रीवा में पूरा जिला प्रशासन कमर कस कर भिड़ा हुआ है। मेले की कमान कमिश्रर डॉ. रवीन्द्र पस्तोर को सौंपी गई है। बताते हैं कि अन्तयोदय मेला डॉ. पस्तोर की ही दिमाग की उपज है, मौलिक रूप से पहले गरीब सम्मेलन की परि कल्पना की गई थी, पर जब यह प्रस्ताव मुख्यमंत्री के सामने आया तो इसका नाम बदलकर अन्त्योदय मेला हो गया और इसका दायरा बढ़ाकर प्रदेशव्यापी कर दिया गया। मेले में 22विभागों की 126योजनाओं के हितग्राहियों को न्योता गया है। इस मेले में विभिन्न योजनाओं का लाभ लेने के लिए 70 हजार से ज्यादा आवेदन आए हैं। मुख्यमंत्री इस मेले को मिल रहे रिस्पॉन्स से इतने उत्साहित हैं कि भोपाल में मंगलवार की कैबिनेट की बैठक में इसकी चर्चा खासतौर पर की। पहले चरण मे फिलहाल 31 मार्च तक हर संभाग के किसी एक जिले में अन्त्योदय मेला आयोजित करने की है।
संगठन का काम इसके बाद शुरू होता है। संगठन के लोगों का इसकी जिम्मेवारी सौपी गई है कि वे लाभान्वित होने वाले हर हितग्राही के पास पहुंचें व कोशिश करें कि वे पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर लें। प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा ने इस योजना का ब्लूप्रिंट तैयार करके अपने सभी जिला अध्यक्षों सहेज दिया है। सत्ता और संगठन के समन्वय से तैयार की गई रणनीति यदि पचास फीसदी भी सफल हो गई तो समझिए कोई दस लाख से ज्यादा सदस्य भाजपा की सूची मे और जुड़ जाएंगे। दिलचस्प बात यह कि जहां प्रदेश कांग्रेस में अध्यक्ष और विधायक दल में नेता प्रतिपक्ष को लेकर भडफ़ोर मची हुई है वहीं भाजपा चुपचाप कांग्रेस के प्रभाव वाले क्षेत्रों में अंगद की तरह अपने पैर जमाने की जुगत पर काम कर रही है वह भी गरीबों को ज्यादातर केंद्र व्दारा वित्तपोषित योजनाओं का लाभ देकर।
प्रकाशित-5जन2011

अपने विन्ध्य का भविष्यफल बांचते हुए

नए साल में अपनी राशि का भविष्यफल पढ़ते हुए अनायास ही यह विचार उठता है कि जिस विन्ध्यभूमि के हम सब निवासी हैं आखिर उसका भविष्यफल कैसा होगा, और क्या होना चाहिए? अभी तक तो हमारी पीढ़ी ने इसके गौरवशाली अतीत के बारे में सुना है और खंडित वर्तमान के साथ वास्ता पड़ा है। खंडित इस मायने में कि कभी यह एक भरा पूरा प्रदेश रहा है। राजनीति की नियति चक्र के चलते भारतीय मानचित्र में जहां यह पिछली सदी में विलोपित हो गया वहीं इस सदी में तीन नए प्रदेश उग आए। खैर यह उन प्रदेशों की राजनीतिक इच्छाशक्ति, सांस्कृतिक और भावनात्मक एकता का फलादेश था, दुर्भाग्य से इसे हम चाहकर भी नहीं पा सके। बहरहाल आज हम जिस मुकाम पर हैं और जो स्थितियां सामने हैं, उन्हीं का आकलन करते हुए विन्ध्य की भावी तस्वीर का लेखा-जोखा लगाते हैं।
पूंजीनिवेश की तथा-कथा: पिछले कुछ महीनों से शोर-शराबे के साथ बस एक ही बात कही जा रही है कि विन्ध्य की किस्मत आने वाले वर्षों में पलटने ही वाली है। वजह देश के उद्योगपति हम पर मेहरवान हो उठे हैं और वे यहां अकूत पूंजी निवेश करने जा रहे हैं। अपना सिंगरौली दुनिया का सबसे बड़ा पॉवर हब बन जाएगा। कैमोर की तराई से लेकर सतना, रीवा और सीधी इतने बड़े सीमेंट काम्प्लेक्स में बदल जाएगा कि देश की हर पांचवीं इमारत इसी धरती की कोख से निकले चूना पत्थर से बनी सीमेंट से बनेंगे। विन्ध्य के बुंदेलखंड के हिस्सों के जिलों पन्ना, छतरपुर और टीकमगढ़ की रत्नगर्भा जमीन से ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड की मल्टीनेशनल कंपनियां हीरा, सोना प्लैटिनम खोदेंगी। खजुराहो को लॉसबेगास जैसी भव्यता मिलेगी। अपने विन्ध्य का यह भविष्यफल तो अक्टूबर की खजुराहो ग्लोबल इनवेस्टर सम्मिट में मुख्यमंत्री, उनकी मंत्रिपरिषद और उद्योगपतियों ने अपने-अपने ढंग से बांचा, और बताया कि कोई सवा लाख करोड़ का पूंजीनिवेश आने वाले पांच वर्षों के भीतर किया जाएगा। यह तो रहा हमारे विन्ध्य के आर्थिक भविष्य का सैद्धांतिक पक्ष।
अब इसका व्यवहारिक पक्ष जानिए। ये उद्योग कोई हवा मे तो खुलेंगे नहीं। इन्हें चहिए होगी बड़े क्षेत्रफल की जमीन। कारखाना खड़ा करने के लिए और चूना पत्थर व कोयला खदानों के लिए। जाहिर है कि किसानों की खेती की जमीन का बड़ा हिस्सा इन कारखानों में उसी तरह जबरिया जज्ब कर लिया जाएगा जैसे कि सिंगरौली क्षेत्र में पहले रिहंद जलाशय के लिए, फिर कोयला परियोजनाओं के लिए, फिर ताप बिजलीघरों के लिए। अब तक तीन मर्तबे अपनी जर-जमीन से बेदखल किए जा चुके किसान दुनिया के सबसे बड़े पॉवर हब के लिए चौथी और पांचवीं बार बेदखल किए जाएंगे। जैसा कि दस्तूर है सरकार और आद्यौगिक घराने विस्थापितों को भारी-भरकम मुआवजे की राशि, नौकरी का वायदा और शानदार पुनर्वास का प्रलोभन देंगे,और जमीन कब्जाने के बाद सबकुछ भूल जाएंगे या कानूनी पचड़ों में फंसा देंगे। कुछ औद्योगिक घरानों ने तो जमीन की खरीद फरोख्त का नायाब तरीका निकाला है जिसके तहत उनके एजेंट किसानों से कोई दूसरा उद्देश्य बताकर जमीन खरीदना शुरू कर दिया है ताकि पुनर्वास और रोजगार के वायदे के पचड़े से पहले से ही मुक्त रहें। यानि कि भविष्य यह है कि आने वाले वर्षों में अपनी विन्ध्यभूमि पर कदम-कदम आसमान छूती चिमनियां सीना ताने खड़ी मिलेंगी। खेती का रकबा सिमट जाएगा। किसान कभी मुआवजा पाने वाली लाइन में तो कभी अपनी ही जमीन पर तने कारखानों के पर्सनल दफ्तर के सामने नौकरी के लिए रिरयाता पाया जाएगा। और खुदा न खास्ता कभी अपने हक-हकूक के लिए संगठित हुआ और आवाज बुलंद करने की कोशिश की तो उसे विकास विरोधी, अराजक तत्व या जरूरत पड़ी तो नक्सली तक करार किया जा सकता है।
तो फिर उपचार क्या है: राशियों पर बैठे क्रूर ग्रह नक्षत्रों की भांति यहां भी शांति के सहज उपचार हाजिर हैं ताकि अपने विन्ध्य के भविष्यफल का सैद्धांंतिक पक्ष फलीभूत हो। जैसे, जिन किसानों की भूमि उद्योगों के लिए अधिग्रहीत की जाए उन्हें भूमि के मूल्य के आधार पर उस उद्योग का शेयरहोल्डर भी बनाया जाए ताकि भविष्य में वे भी उस उद्योग के मुनाफे के भागीदार बन सकें। प्रभावित परिवार के नौकरी लायक सदस्य को उद्योग के हिसाब से प्रशिक्षित किया जाए ताकि वे योग्यतानुसार सम्मानजनक पद पर काम कर सकें। विस्थापन, पुनर्वास और पर्यावरण के नियमों का सौ फीसदी पालन सुनिश्चित किया जाए। इसका उल्लंघन पाए जाने पर दोषियों को कठोर दंड देने के साथ ही उद्योग के संचालन पर रोक लगाई जाए।
सलाह: निर्वाचित जनप्रतिनिधि औद्योगिक घरानों की देमानी करने की बजाय जिन्होंने वोट दिया है उनके प्रहरी की भूमिका निभाएं, भले ही सरकार उनकी हो वे तोंते की तरह हां में हां न मिलाएं। इस सहज उपचार के बाद यकीन मानिए आप अपने विन्ध्य का उसके भविष्यफल के सैद्धांतिक पक्ष के काफी हद तक करीब पाएंगे।
अधोसंरचना विकास: जब विन्ध्य में डेढ़ लाख करोड़ रूपयों की भारी-भरकम राशि का पूंजीनिवेश होगा तो निश्चित ही इस क्षेत्र के अधोसंरचना विकास की जरूरत होगी। अपने सरकार की मानें तो आने वाले वर्षों में यहां सभी फोर से सिक्स लेन की चमचमाती सडक़ें बन जाएंगी। इन पर सौ-सौ टनों तक के बड़े ट्राले, सीमेंट का परिवहन करनेे वाले कैप्सूलनुमा दैत्याकार हाइवा ट्रक, यात्रियों के परिवहन के लिए सजी-धजी एयरकंडीशन्स बसें, नए-नए मॉडलों की चमचमाती कारें, अन्न से लदे हुए ट्रैक्टर्स, फर्राटा मारतीं बाइक्स दौड़ेंगी। यह सब पूंजीनिवेश के प्रताप से संभव होगा। अंबानी, बिरला, जेपी, धूत, रुइया, जिंदल, राहेजा, सहारा जैसे उद्योगपतियों की रोजमर्रा की आवाजाही शुरू हो जाएगी। जाहिर है कि ये यहां आकाशमार्ग से अवतरित हुआ करेंगे, इसलिए भविष्य में सतना, रीवा, सिंगरौली में स्तरीय हवाईअड्डे बनेंगे। इनके कारखानों के परिसर में हैलीपैड बनेंगे। ललितपुर-सिंगरौली रेल लाइन बन जाने के बाद तीव्रगामी-दूरंतों रेलगाडिय़ां दौडऩे लगेंगी। बड़े-बड़े मॉल, शॉपिगं काम्प्लेक्स खुल जाएंगे। यह तो रहा अधोसंरचना विकास के भविष्यफल का सैद्धांतिक पक्ष।
अब जानिए व्यावहारिक पक्ष। यहां कोई परियोजना कैसे रूपाकार लेती है बाणसागर परियोजना और ललितपुर-सिंगरौली रेललाइन इसके आदर्श मॉडल हैं। बाणसागर 1978 में मोरारजी देसाई ने शुरू किया था। तब इसकी मियाद दस साल और लागत 330 करोड़ आंकी गई थी। परियोजना को शुरू हुए 33 साल होने को हैं। लागत बढक़र 3300 करोड़ से ज्यादा की हो गई, काम आधा भी पूरा नहीं हो पाया। ललितपुर-सिंगरौली रेललाइन, हर बजट सत्र में लूपलाइन से निकलती है फिर शंट कर दी जाती है। यह सिलसिला भी पिछले तीस साल से चल रहा है। एनडीए सरकार के जमाने में स्वर्ण चतुर्भुज राष्ट्रीय राजमार्ग परियोजना बनी पर उसमें विन्ध्य से गुजरने वाले राष्ट्रीय राजमार्गों को शामिल नहीं किया गया। अब आप इससे अंदाजा लगा सकते हैं कि अब तक अधोसंरचना विकास हमारे लिए कितना बड़ा छलावा साबित होता आया है। अब यह मान भी लें कि फोरलेन या सिक्स लेन की सडक़े बनती भी हैं तो या तो ये पीपीपी या बीओटी मॉडल में बनेंगी जिसका पैसा भी हमी से वसूला जाएगा या फिर वे ठेकेदार बनाएंगे जो नेता भी हैं क्योंकि ठेके पाना इन्हीं का जन्म सिद्धअधिकार है। तो ये चमचमाती सडक़ें कैसे बनेंगी पूर्व के उदाहरणों से आप समझ सकते हैं। हां एक बात तय है कि हर औद्योगिक परिसर में हैलीपैड अवश्य बनेंगे जहां उद्योगपति अपना कामकाज देखने आया करेंगे और फुर्सत के समय में हमारे प्रिय नेता क्षेत्र का दौरा करने के लिए।
फिर वही उपचार: तो फिर एेसा क्या किया जाए जिससे अपने विन्ध्य का विकास वैसा ही हो जैसा कि सैद्धांतिक रूप से होना चाहिए। हमारे हिसाब से पहले यहां की अधोसंरचना विकसित हो, उद्योग-धंधे बाद में खुलें । जरूरत पड़े तो इसके लिए कानून बनाया जाए। जहां उद्योग लगाया जाना है वहां सबसे पहले बुनियादी सुविधाएं सुनिश्चित की जाएं। औद्योगिक घरानों से यह अंडरटेकिंग ली जाए कि वे कारपोरेट सरोकार निभाने के नाम पर स्कूल, कॉलेज, अस्पताल वहीं खोलेंगे जहां पर उद्योग लगाएंगे। सरकार वाहवाही लूटने व आंकड़े दुरुस्त करने के लिए नहीं, अपितु यथार्थ के धरातल पर परिस्थितियों का अध्ययन करने के बाद जनहित को ही सर्वोपरि रखते हुए ही उद्योगपतियों से कोई करार करे।
सलाह: सरकार के हर निर्णय और उद्योगपतियों के प्रत्येक कदम पर नजर रखने की जरूरत। आवश्यकता पडऩे पर सूचना के अधिकार व अन्य कानूनी प्रावधानों का सहारा लिया जाए। विन्ध्यक्षेत्र के हित, तरक्की और बरक्कत के लिए राजनीतिक दलबंदी और सामाजिक हदबंदियों को तोड़ते हुए सभी एक जुट होकर आगे आएं।

प्रकाशन तिथि-3जनवरी 2011