Wednesday, March 18, 2015

भूमि अधिग्रहण विधेयक: 6 सवालों में

  • 17 मार्च 2015
भारत में विवादास्पद भूमि अधिग्रहण विधेयक पर हंगामा बढ़ता ही जा रहा है.
विपक्ष इस विधेयक को भारतीय किसानों के हितों के ख़िलाफ़ बता रहा है.
नए भूमि अधिग्रहण विधेयक में ऐसे प्रावधान शामिल हैं जो ख़ास परियोजनाओं के लिए क़ानून को आसान बनाते हैं.
मोदी सरकार का कहना है कि इससे देश भर में जो अरबों डॉलर की परियोजनाएं रुकी पड़ी हैं, उन्हें शुरू किया जा सकेगा.
आख़िर क्या है भूमि अधिग्रहण विधेयक, ये क्यों बनाया गया और इसका क्यों इतना अधिक विरोध हो रहा है?
भारत में भूमि विवाद पर किताब लिखने वाले संजॉय चक्रवर्ती ने इस मुद्दे को समझाने की एक कोशिश की.

भारत में ज़मीन इतनी अहम क्यों है?

भूमि अधिग्रहण कानून
भारत में भूमि आधी से ज़्यादा आबादी के लिए रोज़ी रोटी का प्रमुख साधन है.
एक दशक पहले तक एक किसान के पास औसतन सिर्फ़ तीन एकड़ ज़मीन होती थी, जो अब और भी घट गई है.
केरल, बिहार, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु जैसे राज्यों में औसत जोत का आकार आधे से दो एकड़ के बीच है.
इस संदर्भ में देखें तो फ्रांस में भूमि जोत का आकार औसतन 110 एकड़, अमरीका में 450 एकड़ और ब्राजील और अर्जेंटीना में तो इससे भी अधिक है.
भारतीय अर्थव्यवस्था में खेती सबसे कम उत्पादक क्षेत्र है. देश के जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में कृषि क्षेत्र का योगदान 15 फीसदी है जबकि खेतों में काम करने वालों की संख्या देश के कुल कार्यबल के आधे से अधिक है.
इस तरह ज़मीन भारत का दुलर्भतम संसाधन तो है ही, साथ ही, इसकी उत्पादकता भी बेहद कम है.
ये एक गंभीर समस्या है और ये भारत की ग़रीबी का मूल कारण भी है.

भारत में भूमि अधिग्रहण की जरूरत क्यों है?

भूमि अधिग्रहण कानून
उत्पादकता में तेजी लाने के दो बुनायादी तरीके हैं. पहला, कृषि को अधिक उत्पादक बनाया जाए और दूसरा, ज़मीन को खेती के अलावा किसी अन्य काम के लिए इस्तेमाल किया जाए.
आज़ादी के बाद भारत में विकास की प्रक्रिया बिल्कुल इसी नुस्ख़े पर चली.
बड़े पैमाने पर सिंचाई और कृषि को आधुनिक बनाने का सरकारी प्रयास किया गया, इसके साथ ही सरकार के नेतृत्व में औद्योगिकीकरण और शहरीकरण का अभियान भी चलाया गया.
कृषि को बड़े पैमाने पर आधुनिक बनाने के लिए प्रयास किए गए, जिसमें राज्य की अगुआई में औद्योगिकीकरण और शहरीकरण अभियान भी शामिल है.
इन दोनों प्रक्रियाओं के कारण व्यापक स्तर पर भूमि अधिग्रहण हुआ.
आज़ाद भारत ने भूमि अधिग्रहण के लिए जिस क़ानून का सहारा लिया वो 1894 में बना था. इसने एक झटके में बड़ी ज़मीदारियों और विवादास्पद मामलों को एक साथ हल कर दिया.

कितनी भूमि का अधिग्रहण हुआ?

ज़मीन अधिग्रहण
एक अनुमान के मुताबिक़, 1947 में आजादी मिलने के बाद से अब तक कुल भूमि का 6 फीसदी हिस्सा यानी 5 करोड़ एकड़ भूमि का अधिग्रहण या उसके इस्तेमाल में बदलाव किया जा चुका है.
इस अधिग्रहण से 5 करोड़ लोग से ज़्यादा लोग प्रभावित हुए हैं.
भूमि अधिग्रहण से सबसे अधिक प्रभावित होने वाले भू-मालिकों को ज़मीन की काफी कम क़ीमत मिली. कई को तो अब तक कुछ नहीं मिला.
ज़मीन के सहारे रोज़ी रोटी कमाने वाले भूमिहीन लोगों को तो कोई भुगतान भी नहीं किया गया.
ज़मीन अधिग्रहण के बदले किया गया पुनर्वास बहुत कम हुआ या जो हुआ वो बहुत निम्न स्तर का था.
इस मामले में सबसे ज़्यादा नुकसान दलितों और आदिवासियों को हुआ.
ज़मीन हासिल करने की ये व्यवस्था पूरी तरह अन्यायपूर्ण थी, जिसके कारण लाखों परिवार बर्बाद हुए.
इस प्रक्रिया ने बुनियादी संरचनाएं, सिंचाई और ऊर्जा व्यवस्था, औद्योगिकीकरण और शहरीकरण से लैस आधुनिक भारत को जन्म दिया.

भूमि अधिग्रहण का विरोध क्यों?

अन्ना हज़ारे
1980 के दशक से ही कई नागरिक अधिकारी संगठनों ने भूमि अधिग्रहण के सरकार के तरीक़े पर सवाल खड़े करने शुरू कर दिए.
ग़ैर सरकारी संगठन 'नर्मदा बचाओ आंदोलन' विवादास्पद बांध परियोजना के विरोध का अगुआ बना और जबरन भूमि अधिग्रहण के ख़िलाफ़ कुशल प्रबंधकों के लिए प्रशिक्षण का आधार बन गया.
इस मामले में निर्णायक मोड़ तब आया जब साल 2006-2007 में विदेशी निवेशकों को आकर्षित करने के लिए टैक्स फ्री विशेष आर्थिक क्षेत्र बनने लगे.
नंदीग्राम
नंदीग्राम में किसानों की ओर से कड़ा विरोध हुआ था.
इसके फलस्वरूप, पश्चिम बंगाल केनंदीग्राम में सरकार की केमिकल हब बनाने की योजना का हिंसक प्रतिरोध हुआ.
इसके अलावा खानों, कारखानों, टाउनशिप और हाईवे के लिए किसानों की ज़मीन लिए जाने के ख़िलाफ़ उग्र प्रदर्शन और आंदोलन किए गए.
कई नागरिक अधिकार समूहों का तर्क है कि विशेष आर्थिक क्षेत्र एक सरकारी तरीक़ा था भारत के उद्योगपतियों द्वारा किसानों की ज़मीन पर कब्जा करने का.
और इस तरह भूमि अधिग्रहण के विरोध में प्रदर्शन एक राष्ट्रव्यापी घटना बन गई है.

सरकार ने क्या बदलाव किए?

ज़मीन अधिग्रहण
बीते दिसम्बर में मोदी सरकार ने एक अध्यादेश जारी कर 2013 में यूपीए सरकार द्वारा लाए गए भूमि अधिग्रहण बिल से 'किसानों की सहमति' और 'सामाजिक प्रभाव के आंकलन' की अनिवार्यता को हटा दिया.
यह रक्षा, राष्ट्रीय सुरक्षा, ग्रामीण बुनियादी संरचनाएं, सस्ते घर, औद्योगिक कॉरिडोर और अन्य आधारभूत संरचनाओं के लिए अधिग्रहण पर लागू कर दिया गया.
नए विधेयक में अधिग्रहण के लिए लगने वाले समय में कई साल की कमी कर दी.
इससे प्रॉपर्टी बाज़ार में दाम बहुत गिर जाएंगे, जो संभवतः दुनिया में सबसे क़ीमती है.

क्या विरोध उचित है?

विरोध
ऐतिहासिक नाइंसाफ़ियों के रिकॉर्ड को देखें तो इसका जवाब 'हां' है, ख़ासकर ग्रामीण भारत में हाशिए की आबादी के लिहाज से.
लेकिन ज़मीन की क़ीमत को देखते हुए इस विरोध को उचित नहीं ठहराया जा सकता है,. खासकर शहरी क्षेत्र के नज़दीक जो ज़मीनें हैं, वहां क़ीमतें आसमान छू रही हैं और इन इलाक़ों में ज़मीन मालिकों के लिए बहुत ज़्यादा मुनाफ़ा देने वाली हैं.
इसके अलावा, इस विधेयक में ऐसा कुछ नहीं है जो सबसे आसान शिकार आदिवासी आबादी की भूमि अधिग्रहण चक्र से सुरक्षा कर सके.
ये कई तरह की भ्रष्ट गतिविधियों के शिकार हैं, मसलन स्थानीय भू माफ़िया कम क़ीमत देकर या बिना सहमति के उनकी ज़मीनें छीन लेता है और इसमें राजनीतिक दखलंदाज़ी भी शामिल है.
भारत में एक समान किसान नहीं है और ना ही कोई एक अकेला भूमि बाज़ार है.
एक तरफ़ तो ज़मीन की क़ीमतें इतनी ज़्यादा हैं कि वे आजीवन खेती करने से हुई आय का 25 से 100 गुना हैं.
दूसरी तरफ़ ज़मीन की क़ीमतें दो से चार गुना ऊंची हैं.
अधिग्रहण विधेयक में जो सबसे अहम बात होनी चाहिए, वो ये कि भारत की भौगोलिक और आर्थिक विविधता से साथ साथ विशेष स्थानीय संस्कृति और इतिहास को पहचानना चाहिए.

Tuesday, March 17, 2015

राष्ट्रीय चेतना की अद्वितीय गायिका : सुभद्रा कुमारी चौहान

                                                                  - चन्द्रिका प्रसाद 'चन्द्र
तेरह अप्रैल, सन् उन्नीस सौ उन्नीस के पहले भी आता रहा है परंतु यह तारीख भारतीय
राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास में अंग्रेजों के बर्बरता की कहानी याद दिलानेवाली तारीख बन गई।
बाग-बगीचे देशभर में है परंतु 'जलियावाला बागÓ अकेला ऐसा बाग है जहां अब घूमने और
सैर सपाटे के लिए लोग नहीं अतीत पर आंसू बहाने जाते हैं, जनरल डायर की नृशंसता पर
थूकने जाते हैं। मेले मिलने के लिए होते हैं लेकिन १३ अप्रैल १९१९ के बाद से यहां मेला जख्मों
को याद करने के लिए भरता है। श्रद्धांजलि सभा के रूप में परिवर्तित जलियांवाला बाग, हिंदी
कविता में सुभद्रा कुमारी चौहान की याद दिलाता है। बाग में हुए हत्याकांड पर कितनी ही
कविताएं लिखी गई परंतु सुभद्रा की 'जलियावाला बाग में बसन्तÓ सब पर भारी है। वसंत
आया- यहां कोकिला नहीं काक हैं शोर मचाते। काले-काले कीट भ्रमर का भ्रम उपजाते। कलियां
भी अधखिली मिली हैं कंठक फुल से। वे पौधे वे पुष्प शुष्क हैं अथवा झुल से। आना है ऋतुराज!
किंतु धीरे से आना। यह है शोक स्थान, यहां मत शोर मचाना। कितने ही निरीह बच्चे, स्त्रियां,
बूढ़े इस बाग में गोलियों से भून दिए गए और उसी जनरल डायर को ब्रिटिश संसद ने सम्मानित
किया था। स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में सुभद्रा कुमारी चौहान एकमात्र ऐसी सेनानी थीं
जिन्होंने अपनी लेखनी के साथ स्वयं आजादी के संघर्ष में भाग लिया। छोटे-छाटे बच्चों को घर में
छोडक़र या साथ लेकर पति लक्ष्मण सिंह के साथ अनेक बार जेल गईं। उनके संघर्ष का कार्य क्षेत्र
जबलपुर था। हिंदी क्षेत्र उन्हें 'झांसी की रानीÓ के बराय नाम याद करता है, ऐसा लगता है जैसे
झांसी की रानी का नाम लक्ष्मी बाई नहीं सुभद्रा कुमारी चौहान था। इस कविता, ने जितनी
लोकप्रियता प्राप्त की शायद ही कोई चरित-काव्य इसके बरक्स हो। 'खूब लड़ी मरदानी वह तो
झांसी वाली रानी थीÓ रचना-काल से लेकर आज तक लोगों को मुंह जबानी याद है। जब कवि
छद्म नाम से राष्ट्रीय भावों को अभिव्यक्त करने लगे थे, तब भी सुभद्रा ने छद्म नही ंकिया-
जाओ रानी! याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी और यह कहने से गुरेज नहीं किया- दिखा गई पथ
सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी। खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी। स्त्रियों
के हिस्से में वात्सल्य और करुण रस का ठप्पा लगा दिया गया है, सुभद्रा की कविताएं ओज
भरती हैं, 'मैं नहीं चाहती  रोनाÓ लिखती हैं। वीरों का कैसा हो वसन्त में कहती हैं- भूषण
अथवा कवि चन्द नहीं। बिजली भर दे, वह छन्द नहीं है। कलम बंधी, स्वच्छंद नहीं। फिर हमें
बताए कौन? हंत। वीरों का कैसा हो वसंत। जबलपुर नगर पालिका भवन के सामने सुभद्रा की
मूर्ति को देखते हुए प्रिय सहेली महीयसी महादेवी से कही हुई उनकी पंक्तियां याद आती है- 'मेरे
मन में तो मरने के बाद भी धरती छोडऩे की कल्पना नहीं है। मैं चाहती हूं, मेरी एक समाधि हो,
जिसके चारों ओर नित्य मेला लगता रहे, बच्चे खेलते  रहें, स्त्रियां गाती रहें और कोलाहल होता
रहें इसी मूर्ति अनावरण पर महादेवी ने कहा था- नदियों का कोई स्मारक नहीं होता, दीपक की
लौ को  सोने से मढ़ दीजिए पर इससे क्या होगा? हम सुभद्रा के संदेश को दूर-दूर तक फैलाने
और आचरण में उसके महत्व को माने, वही असल स्मारक है।
सुभद्रा की रचनाओं में वात्सल्य की सहजता और तरलता का प्रवाह है। आज जब बच्चों के
जीवन में बचपन विदा हो रहा है। माँ-बाप निरंतर निषेध और शिक्षा का पाठ पढ़ाते रहते हैं
ऐसे में सुभद्रा की एक कविता बरबस याद आती है। सूरदास के कृष्ण भी मिट्टी खाते थे, यशोदा
ने जब छड़ी लेकर धमकाना शुरु किया तो कृष्ण ने मुंह खोला परंतु वहां माँ को मिट्टी नहीं
संसार दिखा और वे विस्मृत हो गई थी। सुभद्रा के बेटी की सरलता मन मोह लेती है- 'मैं बचपन
को बुला रही थी, बोल उठी बिटिया मेरी। नंदन वन सी फूल उठी, वह छोटी सी कुटिया मेरी।
माँ ओ कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आई थी। कुछ मुंह में कुछ लिए हाथ में, मुझे खिलाने
लाई थी। मैंने पूछा- यह क्या लाई? बोल उठी वह माँ काओ। हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से, मैंने
कहा- तुम्ही काओÓ कौन सा व्यक्ति कौन इन बोलनि पर बलिहार नहीं होगा। बेटी के वात्सल्य
की यह पहली और सर्वश्रेष्ठ कविता है। जबकि सारा साहित्य पुत्र-प्रेम को ही वात्सल्य मानता है।
(स्वतंत्रता संग्राम) आंदोलनों में सुभद्रा की महत्ती भूमिका रही। वे ठकुरानी थी, राजा की पत्नी
थी लेकिन जिसने राष्ट्र प्रेम की चुनरी ओढ़ ली वह तो रंक हो जाएगा। वे हरिजनों के बीच बहुत
समादृत थी। बापू के अस्थि विसर्जन के अवसर पर ६ किलोमीटर पैदल सैकड़ों स्त्रियों के साथ
गईं जबकि अनेक स्त्रियां मोटर कार से गई थीं। कार वालों को सभा में जाने दिया गया और
पैदल वालों को रोक दिया गया। कलेक्टर से सुभद्रा भिड़ गई, कोई भी कांग्रेसी नहीं बोला,
शुक्ल जी, मिश्र जी, सुभद्रा ने कहा जब तक ये स्त्रियां भीतर नहीं जाएगी, अस्थि विसर्जन
कायक्रर्म नहीं होगा। अन्त में सभी को भीतर जाने की स्वीकृति के बाद ही वे मानी। अपनी ही
सरकार के विरूद्ध आजीवन लड़ती रही। पुत्री के कन्यादान की परम्परा पर उन्होंने कहा- मैं
कन्यादान नहीं करूंगी। क्या मनुष्य मनुष्य को दान करने का अधिकारी है? क्या विवाह के
उपरांत मेरी बेटी मेरी नहीं रहेगी। आज के नारी विमर्श के युग के पहले सुभद्रा के इस चिंतन
और क्रियान्वयन पर कितने सवाल उठे होंगे? जातिवाद की संकीर्ण तुला पर ही वर की योग्यता
को अस्वीकार करते हुए सुभद्रा चौहान ने पुत्री सुधा का प्रेम विवाह कथा- सम्राट प्रेमचंद के
सुपुत्र अमृत राय से करने की स्वीकृति दी। 'पथ के साथीÓ में महादेवी ने जिस शिद्दत से सुभद्रा
को याद किया है, वैसा संस्मरण हिंदी की निधि हैं। वे लिखती है - 'अपने इस आकार में छोटे
साम्राज्य को उन्होंने अपनी ममता के जादू से इतना विशाल बना रखा था कि उसके द्वार पर न
कोई अनाहूत रहा और न निराश लौटा। जिन संघर्षों के बीच से उन्हें मार्ग बनाना पड़ा वे किसी
भी व्यक्ति को अनुदार और कटु बनाने में समर्थ थे। पर सुभद्रा के भीतर बैठी सृजनशीलता नारी
जानती कि कांटों का स्थान जब चरणों के नीचे रहता है तभी वे टूटकर दूसरों को बेधन की शक्ति
खोते है। भारतीय गृहणी की सारी कलाएं सुभद्रा के जीवन में विराम पाती थीं। रानी झांसी की
समाधि पर उन्होंने लिखा था- 'यहीं कहीं पर बिखर गई वह, छिन्न विजय माला सी।Ó ऐसा
लगता है जैसे उन्होंने इसे अपने लिए ही लिखा था। माखनलाल चतुर्वेदी ने कहा था- सुभद्रा का
जाना ऐसा मालूम होता है मानो 'झांसी की रानीÓ की गायिका झांसी की रानी से कहने गई
हो, फिरंगी खदेड़ दिया गया और मातृभूमि आजाद हो