Tuesday, March 17, 2015

राष्ट्रीय चेतना की अद्वितीय गायिका : सुभद्रा कुमारी चौहान

                                                                  - चन्द्रिका प्रसाद 'चन्द्र
तेरह अप्रैल, सन् उन्नीस सौ उन्नीस के पहले भी आता रहा है परंतु यह तारीख भारतीय
राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास में अंग्रेजों के बर्बरता की कहानी याद दिलानेवाली तारीख बन गई।
बाग-बगीचे देशभर में है परंतु 'जलियावाला बागÓ अकेला ऐसा बाग है जहां अब घूमने और
सैर सपाटे के लिए लोग नहीं अतीत पर आंसू बहाने जाते हैं, जनरल डायर की नृशंसता पर
थूकने जाते हैं। मेले मिलने के लिए होते हैं लेकिन १३ अप्रैल १९१९ के बाद से यहां मेला जख्मों
को याद करने के लिए भरता है। श्रद्धांजलि सभा के रूप में परिवर्तित जलियांवाला बाग, हिंदी
कविता में सुभद्रा कुमारी चौहान की याद दिलाता है। बाग में हुए हत्याकांड पर कितनी ही
कविताएं लिखी गई परंतु सुभद्रा की 'जलियावाला बाग में बसन्तÓ सब पर भारी है। वसंत
आया- यहां कोकिला नहीं काक हैं शोर मचाते। काले-काले कीट भ्रमर का भ्रम उपजाते। कलियां
भी अधखिली मिली हैं कंठक फुल से। वे पौधे वे पुष्प शुष्क हैं अथवा झुल से। आना है ऋतुराज!
किंतु धीरे से आना। यह है शोक स्थान, यहां मत शोर मचाना। कितने ही निरीह बच्चे, स्त्रियां,
बूढ़े इस बाग में गोलियों से भून दिए गए और उसी जनरल डायर को ब्रिटिश संसद ने सम्मानित
किया था। स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में सुभद्रा कुमारी चौहान एकमात्र ऐसी सेनानी थीं
जिन्होंने अपनी लेखनी के साथ स्वयं आजादी के संघर्ष में भाग लिया। छोटे-छाटे बच्चों को घर में
छोडक़र या साथ लेकर पति लक्ष्मण सिंह के साथ अनेक बार जेल गईं। उनके संघर्ष का कार्य क्षेत्र
जबलपुर था। हिंदी क्षेत्र उन्हें 'झांसी की रानीÓ के बराय नाम याद करता है, ऐसा लगता है जैसे
झांसी की रानी का नाम लक्ष्मी बाई नहीं सुभद्रा कुमारी चौहान था। इस कविता, ने जितनी
लोकप्रियता प्राप्त की शायद ही कोई चरित-काव्य इसके बरक्स हो। 'खूब लड़ी मरदानी वह तो
झांसी वाली रानी थीÓ रचना-काल से लेकर आज तक लोगों को मुंह जबानी याद है। जब कवि
छद्म नाम से राष्ट्रीय भावों को अभिव्यक्त करने लगे थे, तब भी सुभद्रा ने छद्म नही ंकिया-
जाओ रानी! याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी और यह कहने से गुरेज नहीं किया- दिखा गई पथ
सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी। खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी। स्त्रियों
के हिस्से में वात्सल्य और करुण रस का ठप्पा लगा दिया गया है, सुभद्रा की कविताएं ओज
भरती हैं, 'मैं नहीं चाहती  रोनाÓ लिखती हैं। वीरों का कैसा हो वसन्त में कहती हैं- भूषण
अथवा कवि चन्द नहीं। बिजली भर दे, वह छन्द नहीं है। कलम बंधी, स्वच्छंद नहीं। फिर हमें
बताए कौन? हंत। वीरों का कैसा हो वसंत। जबलपुर नगर पालिका भवन के सामने सुभद्रा की
मूर्ति को देखते हुए प्रिय सहेली महीयसी महादेवी से कही हुई उनकी पंक्तियां याद आती है- 'मेरे
मन में तो मरने के बाद भी धरती छोडऩे की कल्पना नहीं है। मैं चाहती हूं, मेरी एक समाधि हो,
जिसके चारों ओर नित्य मेला लगता रहे, बच्चे खेलते  रहें, स्त्रियां गाती रहें और कोलाहल होता
रहें इसी मूर्ति अनावरण पर महादेवी ने कहा था- नदियों का कोई स्मारक नहीं होता, दीपक की
लौ को  सोने से मढ़ दीजिए पर इससे क्या होगा? हम सुभद्रा के संदेश को दूर-दूर तक फैलाने
और आचरण में उसके महत्व को माने, वही असल स्मारक है।
सुभद्रा की रचनाओं में वात्सल्य की सहजता और तरलता का प्रवाह है। आज जब बच्चों के
जीवन में बचपन विदा हो रहा है। माँ-बाप निरंतर निषेध और शिक्षा का पाठ पढ़ाते रहते हैं
ऐसे में सुभद्रा की एक कविता बरबस याद आती है। सूरदास के कृष्ण भी मिट्टी खाते थे, यशोदा
ने जब छड़ी लेकर धमकाना शुरु किया तो कृष्ण ने मुंह खोला परंतु वहां माँ को मिट्टी नहीं
संसार दिखा और वे विस्मृत हो गई थी। सुभद्रा के बेटी की सरलता मन मोह लेती है- 'मैं बचपन
को बुला रही थी, बोल उठी बिटिया मेरी। नंदन वन सी फूल उठी, वह छोटी सी कुटिया मेरी।
माँ ओ कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आई थी। कुछ मुंह में कुछ लिए हाथ में, मुझे खिलाने
लाई थी। मैंने पूछा- यह क्या लाई? बोल उठी वह माँ काओ। हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से, मैंने
कहा- तुम्ही काओÓ कौन सा व्यक्ति कौन इन बोलनि पर बलिहार नहीं होगा। बेटी के वात्सल्य
की यह पहली और सर्वश्रेष्ठ कविता है। जबकि सारा साहित्य पुत्र-प्रेम को ही वात्सल्य मानता है।
(स्वतंत्रता संग्राम) आंदोलनों में सुभद्रा की महत्ती भूमिका रही। वे ठकुरानी थी, राजा की पत्नी
थी लेकिन जिसने राष्ट्र प्रेम की चुनरी ओढ़ ली वह तो रंक हो जाएगा। वे हरिजनों के बीच बहुत
समादृत थी। बापू के अस्थि विसर्जन के अवसर पर ६ किलोमीटर पैदल सैकड़ों स्त्रियों के साथ
गईं जबकि अनेक स्त्रियां मोटर कार से गई थीं। कार वालों को सभा में जाने दिया गया और
पैदल वालों को रोक दिया गया। कलेक्टर से सुभद्रा भिड़ गई, कोई भी कांग्रेसी नहीं बोला,
शुक्ल जी, मिश्र जी, सुभद्रा ने कहा जब तक ये स्त्रियां भीतर नहीं जाएगी, अस्थि विसर्जन
कायक्रर्म नहीं होगा। अन्त में सभी को भीतर जाने की स्वीकृति के बाद ही वे मानी। अपनी ही
सरकार के विरूद्ध आजीवन लड़ती रही। पुत्री के कन्यादान की परम्परा पर उन्होंने कहा- मैं
कन्यादान नहीं करूंगी। क्या मनुष्य मनुष्य को दान करने का अधिकारी है? क्या विवाह के
उपरांत मेरी बेटी मेरी नहीं रहेगी। आज के नारी विमर्श के युग के पहले सुभद्रा के इस चिंतन
और क्रियान्वयन पर कितने सवाल उठे होंगे? जातिवाद की संकीर्ण तुला पर ही वर की योग्यता
को अस्वीकार करते हुए सुभद्रा चौहान ने पुत्री सुधा का प्रेम विवाह कथा- सम्राट प्रेमचंद के
सुपुत्र अमृत राय से करने की स्वीकृति दी। 'पथ के साथीÓ में महादेवी ने जिस शिद्दत से सुभद्रा
को याद किया है, वैसा संस्मरण हिंदी की निधि हैं। वे लिखती है - 'अपने इस आकार में छोटे
साम्राज्य को उन्होंने अपनी ममता के जादू से इतना विशाल बना रखा था कि उसके द्वार पर न
कोई अनाहूत रहा और न निराश लौटा। जिन संघर्षों के बीच से उन्हें मार्ग बनाना पड़ा वे किसी
भी व्यक्ति को अनुदार और कटु बनाने में समर्थ थे। पर सुभद्रा के भीतर बैठी सृजनशीलता नारी
जानती कि कांटों का स्थान जब चरणों के नीचे रहता है तभी वे टूटकर दूसरों को बेधन की शक्ति
खोते है। भारतीय गृहणी की सारी कलाएं सुभद्रा के जीवन में विराम पाती थीं। रानी झांसी की
समाधि पर उन्होंने लिखा था- 'यहीं कहीं पर बिखर गई वह, छिन्न विजय माला सी।Ó ऐसा
लगता है जैसे उन्होंने इसे अपने लिए ही लिखा था। माखनलाल चतुर्वेदी ने कहा था- सुभद्रा का
जाना ऐसा मालूम होता है मानो 'झांसी की रानीÓ की गायिका झांसी की रानी से कहने गई
हो, फिरंगी खदेड़ दिया गया और मातृभूमि आजाद हो

No comments:

Post a Comment