Thursday, August 14, 2014

मध्यप्रदेश में वन्यप्राणी प्रबंधन

भारत के केन्द्र में स्थित मध्यप्रदेश देश का ह्रदय स्थल है। मध्यप्रदेश का कुल वन क्षेत्रफल 94689 वर्ग कि.मी. है जो देश के कुल वनक्षेत्र का लगभग 12 प्रतिशत है। एवं मध्यप्रदेश के भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 31 प्रतिशत है। प्रचुर वन संपदा से आच्छादित मध्यप्रदेश का भारत में वन्यप्राणी संरक्षण एवं प्रबंधन की दृष्टि से विशेष स्थान है एवं वन्यप्राणी प्रबंधन के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी विख्यात है। प्रदेश के वन्यप्राणी संरक्षित क्षेत्रों के अंतर्गत 10895 वर्ग कि.मी. वनक्षेत्र आता है जो प्रदेश के कुल वनक्षेत्र का 11.5 प्रतिशत है।
वन्यप्राणी संरक्षण एवं प्रबंधन के उद्देश्य से प्रदेश में 9 राष्ट्रीय उद्यान एवं 25 अभ्यारण्य गठित किए गए हैं। 9 राष्ट्रीय उद्यानों में से 6 राष्ट्रीय उद्यानों (कान्हा, बांधवगढ़, पन्ना, पेंच, सतपुड़ा, संजय) को टाइगर रिजर्व का दर्जा दिया गया है। करेरा एवं घाटीगाँव अभ्यारण्य विलुप्तप्राय: दुर्लभ पक्षी सोनचिड़िया के संरक्षण के लिए तथा सैलाना एवं सरदारपुर एक अन्य विलुप्तप्राय: दर्लभ पक्षी खरमोर के संरक्षण के लिए तथा तीन अभ्यारण्य चंबल, केन एवं सोन घड़ियाल जलीय वन्यप्राणियों के संरक्षण के लिए गठित किए गए हैं।
भोपाल का वनविहार राष्ट्रीय उद्यान एक अनोखा राष्ट्रीय उद्यान है, जो एक आधुनिक चिड़ियाघर के रूप में भी मान्यता प्राप्त है। यह राष्ट्रीय उद्यान शहर के अंदर स्थित होकर वन्यप्राणी संरक्षण के लिए जागरूकता लाने में महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है। डिन्डौरी जिले में घुघुवा में एक फॉसिल राष्ट्रीय उद्यान भी है, जहां 6 करोड़ वर्ष पुराने वृक्षों के फॉसिल संरक्षित किये गये हैं।
अंतर्राष्ट्रीय तौर पर दुर्लभ एवं लुप्तप्राय: प्रजातियों में से एक प्रजाति बाघ मध्यप्रदेश में सबसे अधिक पाई जाती है। इसके अलावा नदी डाल्फिन, घड़ियाल, तेंदुआ, गौर, बारासिंघा, कालाहिरण, खरमौर एवं सोनचिड़िया प्रजातियां प्रदेश की महत्वपूर्ण तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर की दुर्लभ एवं विलुप्तप्राय धरोहर में शामिल हैं।
इस सम्पन्न प्राकृतिक विरासत का वर्तमान पीढ़ियों के लिए लाभ सुनिश्चित करने के साथ-साथ आने वाली पीढ़ियों के लिए इसे बचाए रखना भी प्रदेश के वन्यप्राणी प्रबंधन की बड़ी चुनौती है। तेजी से बढ़ती हुई मानव आबादी और वन्यप्राणियों से प्राप्त होने वाले विविध उत्पादों की बढ़ती अंतर्राष्ट्रीय तस्करी के कारण वन्यप्राणियों का संरक्षण दिनोंदिन कठिन और अधिक चुनौतिपूर्ण होता जा रहा है। इसके फलस्वरूप प्रदेश के सभी वन्यप्राणी क्षेत्रों में प्रबंधन और संरक्षण की चुनौतियों में बढ़ोत्तरी हुई है। इन चुनौतियों से निपटने के लिए मध्यप्रदेश शासन वन विभाग द्वारा कई कदम उठाए गए हैं।
पर्यावरण संरक्षण की गहराती चुनौतियों के बीच विगत कुछ वर्षों में वन्यजीवों के संरक्षण का मुद्दा भी समाज की प्राथमिकता सूची में ऊपर आया है और बढ़ते जैविक दबाव के कारण वनों की स्थिति निरंतर बिगड़ते जाने के कारण प्रदेश में वन्यप्राणियों का प्रबंधन अधिक चुनौतिपूर्ण होता गया है। वन्यप्राणियों की खाल व शरीर के अन्य अवयवों की अंतर्राष्ट्रीय बाजार में माँग बढ़ने के कारण अनेक वन्यप्राणियों का शिकार व तस्करी जैसी समस्याएं विगत दो-एक दशक में काफी तेजी से बढ़ रही हैं। इसी प्रकार नीलगाय, जंगल सुअर, चीतल और काला हिरण जैसे शाकाहारी वन्यप्राणियों की संख्या बढ़ने के कारण प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में वन्यजीवों के कारण खेतों में फसलों को होने वाला नुकसान किसानों के लिए पहले से अधिक समस्या उत्पन्न करने लगा है वन क्षेत्रों में जैविक दबाव बढ़ने से माँसाहारी हिंसक वन्य प्राणियों का आबादी क्षेत्र में आने और मवेशियों का शिकार कर लेने अथवा जन हानि करने की घटनाओं में भी बढ़ोत्तरी हुई है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में नैतिकता के अतिरिक्त वैज्ञानिक तथ्यों की दृष्टि से भी वन्य जीवों के संरक्षण की जरूरतों को पूरा करना आवश्यक होता जा रहा है।
हमारे प्रदेश में वन्यप्राणी प्रबंधन की व्यवस्था को मोटे तौर पर तीन भागों में समझा जा सकता है। ये पहलू हैं - प्रशासनिक, तकनीकी एवं मानवीय। प्रशासनिक पहलुओं के अंतर्गत अभ्यारण्य और राष्ट्रीय उद्यानों की स्थापना तथा कानूनी संरक्षण आता है। इसके अंतर्गत राष्ट्रीय उद्यानों व अभ्यारण्यों में कर्मचारियों की पदस्थिति, दूरस्थ अंचलों में काम करने के लिए आवश्यक संसाधन एवं अधोसंरचना तथा आधुनिक तकनीक मुहैया कराये जाने के साथ-साथ दक्षता बढ़ाने के लिए आधुनिकतम प्रशिक्षण जरूरी है। प्रबंधन के तकनीकी पक्ष में वन्यप्राणियों के रहवास क्षेत्र का उचित प्रबंधन सम्मिलित है। इसके बिना वन्य जीव चैन से नहीं रह सकते। इसी के साथ वन्य जीवों के स्वभाव, खान-पान, प्रजनन जैसी जैविक गतिविधियों पर वैज्ञानिक शोध से प्राप्त जानकारी के आधार पर प्रबंधकीय निर्णय लिये जाते हैं। वन्यजीव प्रबंधन की तकनीकी पहुलओं में वैज्ञानिक शोध तथा दस्तावेजीकरण, जरूरत के अनुसार वन्यप्राणियों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक स्थानांतरित करने, प्रजनन (ब्रीडिंग) जैसे जटिल और श्रमसाध्य कार्य किए जाते हैं। वन्यप्राणी प्रबंधन का मानवीय#पहलू वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रशासकीय और तकनीकी पहलुओं से भी अधिक महत्वपूर्ण हो चला है। वन्यप्राणी क्षेत्रों की स्थापना के फलस्वरूप प्रभावित गाँवों का स्वैच्छिक विस्थापन तथा पुनर्बसाहट वन्य प्राणियों की सुरक्षा के साथ-साथ ग्रामीणों के हित में है। इसके लिए भारत सरकार द्वारा उपलब्ध कराई गई आकर्षक मुआवजा राशि विस्थापित परिवारों को समुचित रूप से पुनर्बसाहट के लिए दी जाती है।
प्रदेश हित में वन्यजीवों के संरक्षण की जरूरतों को देखते हुए राज्य की वन नीति 2005 में वन्यप्राणी संरक्षण के महत्वपूर्ण तत्व सम्मिलित किए गए हैं। इसके अंतर्गत प्रदेश में वन्यप्राणी संरक्षण के लिए संरक्षित क्षेत्रों के प्रबंधन हेतु वन अधिकारियों और कर्मचारियों के प्रशिक्षण, वन्यप्राणी संरक्षण क्षेत्रों की प्रबंधन योजनाएं तैयार करने, स्थानीय समुदाय की वनाधारित जरूरतों को पूरा करने, संरक्षित क्षेत्रों में सूख चुके प्राकृतिक जल स्त्रोतों को पुनर्जीवित करने, वन्यप्राणी स्वास्थ्य की सुरक्षा एवं उनमें संक्रामक रोगों को रोकथाम की व्यवस्था करने, जैसे महत्वपूर्ण कार्यों को सम्मिलित किया गया है। वन क्षेत्रों से भटककर आबादी वाले क्षेत्रों में आ जाने वाले वन्य जीवों को पकड़कर वापस वन क्षेत्रों में छोड़ने के लिए उपयुक्त स्थानों पर आधुनिक उपकरणों एवं प्रशिक्षित अमले से सुसज्जित वाईल्ड एनिमल रेस्क्यू मोबाईल स्क्वाड्स का गठन, वन्य प्राणियों के अवैध शिकार एवं तस्करी पर प्रभावी अंकुश लगाना, वन्यप्राणी फॉरेन्सिक प्रयोगशालायें स्थापित करना, वन्यप्राणी के अवैध शिकार एवं उनके अवयवों की तस्करी रोकने के लिए सीमावर्ती राज्यों के साथ प्रभावी समन्वय बनाना और कारगर मुखबिर तंत्र तैयार करना राज्य की वन नीति के महत्वपूर्ण तत्व हैं। आधुनिक दृष्टिकोण पर आधारित मध्यप्रदेश राज्य की वन नीति 2005 वन्यप्राणी प्रबंधन को मजबूती देते हुए प्रदेश के विकास को टिकाऊ आधार प्रदान करने की क्षमता रखती है। राज्य सरकार इन पर कार्यवाही के लिए कटिबध्द और प्रयासरत है।
प्रदेश में वन्यप्राणी प्रबंधन के कई पहलुओं पर विगत कुछ वर्षों में काम में तेजी लाने का प्रयास किया जा रहा है। इसके अन्तर्गत घायल वन्यप्राणियों की प्राण रक्षा, चिकित्सा व रखरखाव के लिए कान्हा टाइगर रिजर्व मण्डला, पन्ना टाइगर रिजर्व पन्ना, पेंच टाइगर रिजर्व सिवनी, बाँधवगढ़ टाइगर रिजर्व उमरिया, सतपुड़ा टाइगर रिजर्व पचमढ़ी, माधव राष्ट्रीय उद्यान शिवपुरी, वन विहार राष्ट्रीय उद्यान भोपाल, वन वृत्त जबलपुर तथा वन वृत्त इंदौर में 9 वन्यजीव रेस्क्यू स्क्वाड्स का गठन किया गया है। इसी प्रकार वन्यप्राणी अपराधों पर नियंत्रण में कसावट लाने के लिए भोपाल में राज्य स्तरीय तथा सतना, सागर, इटारसी, जबलपुर तथा इंदौर में क्षेत्रीय टाइगर स्ट्राईक फोर्स की स्थापना की गई है। टाइगर स्ट्राईक फोर्स की इन इकाईयों के माध्यम से वन्यप्राणी अपराधों पर नियंत्रण के लिए वांछित स्वतंत्र और निष्पक्ष विजिलेंस व्यवस्था बनाने के प्रयास भी किए जा रहे हैं। इसी प्रकार मध्यप्रदेश में पहली बार दो प्रशिक्षित डाग स्कवाड तैयार किए गए हैं जो वन अपराधों के अन्वेषण में बहुत उपयोगी होंगे। वन्यप्राणी अपराध के संबंध में जन साधारण को शिकायत दर्ज कराने के लिए नि:शुल्क टेलीफोन की सुविधा (फोन नबर 155312) भी उपलब्ध कराई गई है जिसका लाभ लेते हुए कोई भी वन अथवा वन्यप्राणी अपराध की सूचना वन विभाग को दे सकता है। वन्यप्राणी प्रबंधन में आधुनिकतम सूचना प्रौद्योगिकी का उपयोग विभाग द्वारा पहले ही किया जा रहा है जिसे और व्यापक पैमाने पर अपनाने और व्यवस्थाओं को पारदर्शी बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं।
इसके अतिरिक्त अवैध शिकार की रोकथाम हेतु पुलिस एवं वन विभाग के संयुक्त तत्वावधान में वर्ष 1995 में टाइगर सैल का गठन किया गया है। इसी प्रकार जिला स्तर पर भी टाइगर सैल का गठन किया गया है। जिसका प्रमुख उद्देश्य अवैध शिकार एवं व्यापार की रोकथाम तथा सीमावर्ती प्रान्तों से समुचित समन्वय स्थापित करना है।
वन्यप्राणी संरक्षण हेतु राष्ट्रीय उद्यान एवं अभ्यारण्यों में 361 पेट्रोलिंग कैम्प, 86 निगरानी चौकियां, 136 चैकपोस्ट, 202 वायरलैस स्टेशन स्थापित किए गए हैं। पेट्रोलिंग हेतु वाहन प्रदाय किए गए हैं। साथ ही कर्मचारियों को 1571 वायरलैस हैण्डसेट्स भी उपलब्ध कराए गए हैं।
संरक्षित क्षेत्रों (राष्ट्रीय उद्यान एवं अभ्यारण्यों) से लगे हुए वन क्षेत्रों में भी वन्यप्राणी संरक्षण पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता महसूस की गई है। इस परिप्रेक्ष्य में वन्यप्राणियों की सुरक्षा हेतु मध्यप्रदेश में टाईगर स्ट्राइक फोर्स के अंतर्गत संरक्षित क्षेत्रों की सीमा से लगे हुए क्षेत्रीय वनमण्डल के वनक्षेत्रों में संवेदनशील 56 परिक्षेत्रों का चयन किया गया है। इन परिक्षेत्रों में वन चौकियों का निर्माण किया जाकर चौकियों को गाड़ियों, बंदूकों, वायरलैस सेट्स आदि आधुनिक उपकरणों से सुसज्जित करने की कार्यवाही प्रगति पर है। गाड़ियों का क्रय किया जा चुका है। जिससे प्रभावी रूप से वन्यप्राणी अपराधों में अंकुश लगाया जा सकेगा।
इसी प्रकार पारंपरिक रूप से शिकार करने वाली जातियां जैसे बहेलिया, पारधी, मूँगिया इत्यादि जातियों पर विशेष निगरानी रखी जाती है तथा इन जातियों के बच्चों की शिक्षा के लिए पन्ना एवं शिवपुरी में स्कूल संचालित किए जा रहे हैं तथा वैकल्पिक रोजगार हेतु भी कुछ जगह व्यवस्था की पहल की गई है।
प्रदेश में कान्हा, बांधवगढ़ एवं पेंच टाइगर रिजर्वों के लिए केन्द्र शासन द्वारा स्पेशल टाइगर प्रोटेक्शन फोर्स के गठन की स्वीकृति दी गई है, जिसके संबंध में कार्यवाही की जा रही है। इसी प्रकार मानव एवं वन्यप्राणियों के बीच का द्वंद कम करने के प्रयास भी किए जा रहे हैं। जिसके तहत वन्यप्राणियों द्वारा जनहानि, जनघायल एवं पशुहानि किए जाने पर मुआवज का प्रावधान किया गया है। जनहानि के प्रकरणों में एक लाख रूपए तथा इलाज पर हुआ व्यय, जनघायल के प्रकरण में इलाज हेतु अधिकतम बीस हजार रूपये तथा स्थायी अपंगता होने पर 75 हजार रूपए तथा इलाज पर किया गया व्यय क्षतिपूर्ति के रूप में दिया जाता है।
वन सीमा से 5 कि.मी. की परिधि में स्थित ग्रामों में वन्यप्राणियों द्वारा फसल हानि किए जाने पर मुआवजा दिए जाने का भी प्रावधान किया गया है।
पन्ना टाइगर रिजर्व में गत वर्षों में बाघों के विलुप्त होने के कारण वर्ष 2009 में 2 बाघिनें एवं 1 बाघ लाकर पन्ना में पुर्नस्थापित किया गया था। मई, 2010 में पन्ना टाइगर रिजर्व में स्थानांतरित एक बाघिन द्वारा 4 बच्चों को जन्म देने के साथ ही पन्ना टाइगर रिजर्व में बाघों की सफलपूर्वक पुर्नस्थापना की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई है। यह अपने आप में वन्यप्राणी प्रबंधन का एक उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
इसी तरह बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व में गौर की पुर्नस्थापना हेतु शीघ्र ही कान्हा से 15-20 गौरों का लाकर पुर्नस्थापित करने की कार्यवाही प्रगति पर है।
वन्यप्राणियों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए वन विभाग द्वारा कुछ अभिनव प्रयास भी किए जा रहे हैं। जैसे- वन विहार राष्ट्रीय उद्यान में व्यक्तियों एवं संस्थाओं में वन्यप्राणी संरक्षण के प्रति जागरूकता उत्पन्न करने के लिए वन्यप्राणियों को निश्चित अवधि के लिए गोद लेने की अभिनव योजना प्रारंभ की गई है। जिसके अच्छे परिणाम आए हैं।
प्रदेश के वन्यप्राणी संरक्षण क्षेत्रों में विगत कुछ वर्षों में पर्यटन का विस्तार काफी तेजी से हुआ है। अत्यधिक पर्यटन के कारण वन्यप्राणियों की सुरक्षा को कोई क्षति न होने पाए यह सुनिश्चित करते हुए प्रदेश के वन्यप्राणी क्षेत्रों में आने वाले पर्यटकों के नियमन के साथ-साथ पर्यटन सुविधाओं का विस्तार भी वन्यप्राणी प्रबंधन की प्राथमिकताओं से अभिन्न रूप से जुड़ा है। इसके अन्तर्गत ईको पर्यटन विकास के माध्यम से गैर परम्परागत क्षेत्रों में भी पर्यटन सुविधाओं का विकास करते हुए नए-नए क्षेत्रों को पर्यटकों में लोकप्रिय बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं।
पर्यटकों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए मध्यप्रदेश में चार टाइगर रिजर्वों (कान्हा, बांधवगढ़, पेंच एवं पन्ना) में भ्रमण हेतु ऑनलाईन बुकिंग की सुविधा वर्ष 2008 से प्रारंभ की गई है, जिसका पर्यटकों को व्यापक लाभ मिल रहा है। इसी प्रकार वन्यप्राणी संरक्षण में व्यक्तियों एवं अशासकीय संस्थाओं से सहयोग प्राप्त करने के लिए मध्यप्रदेश टाइगर फाउंडेशन सोसायटी का गठन किया गया है एवं इच्छुक व्यक्तियों एवं संस्थाओं द्वारा वन्यप्राणी संरक्षण हेतु इस सोसायटी में काफी योगदान दिया जा रहा है।
कुल मिलाकर मध्यप्रदेश शासन वन विभाग प्रदेश वन्यप्राणी प्रबंधन की चुनौतियों से निपटने के लिए पूरी तरह प्रतिबध्द और प्रयासरत है।
प्रदीप भाटिया

वन्य जीव संरक्षण – एक अहम जरूरत

भारत में पिछले एक दशक के दौरान पहली बार बाघों की संख्या में वृद्धि हुई है। इसके लिए संरक्षण के बेहतर प्रयासों को श्रेय जाता है। इस समय बाघों की संख्या 1706 है, जो वर्ष 2008 की संख्या के मुकाबले 295 अधिक है। उस समय बाघों की संख्या 1411 थी।
      लेकिन यह इस मामले में संतुष्टि की छोटी सी बात है। मुख्य बात यह है कि पिछले वर्षों से बाघों की संख्या में लगातार कमी हो रही है, जो चिंता का कारण है।
      बड़ी बिल्ली की अन्य प्रजाति- तेंदुए के बारे में भी कहानी कोई अलग नहीं है। वर्ष 2012 के पहले नौ महीनों में भारत में 252 तेंदुए की मौत हुई, जो भारतीय वन्य जीव संरक्षण सोसायटी के पास उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार वर्ष 1994 से यह संख्या सबसे अधिक है।  सन 1911 में यह संख्या 187 थी। एक दशक पहले यह संख्या औसतन लगभग 200 प्रति वर्ष थी।    
      जैसा हमने लिखा है, भारत में जनवरी महीने में कम से कम तीन और बाघों की मृत्यु हो गई है। 1994 से 2010 तक हमने 923 बाघ खो दिए हैं। देश में लगभग 100 वर्ष पहले बाघों की संख्या करीब 40 हजार थी, जो अब मुट्ठी भर रह गई है। बाघों की संख्या में कमी की कहानी वास्तव में समूचे विश्व में एक समान ही है। अनुमान है कि विश्व में बाघों की संख्या कोई 3500 से 4000 के आसपास है। इनमें से आधे भारत में हैं।
      लगभग आधे से ज्यादा तेंदुए अवैध व्यापार के लिए मार दिए जाते हैं। बावजूद इसके कि बाघ वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत सुरक्षित हैं, उसका शिकार किया जाता है। उसके शरीर के अंगों, खासकर खाल का गैर-कानूनी तरीके से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापार किया जाता है। चीतों के बारे में भी यही स्थिति है। उनका रहने का क्षेत्र मात्र दस प्रतिशत क्षेत्र में रह गया है और सिमटकर लगभग 75 लाख एकड़ हो गया है। आवास के अलावा बाघ अपने शिकार की प्रजातियां भी खोता जा रहा है। इससे इसका मनुष्यों के साथ टकराव हो गया है जिसके परिणामस्वरूप बाघों का ज्यादा शिकार होने लगा है। हालांकि सरकार ने सन 1972 में वन्यजीव संरक्षण अधिनियम पारित करके बाघों के शिकार पर प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन समस्या अभी भी वैसी ही बनी हुई है। अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि पहाड़ी और वन्य क्षेत्रों में सड़कों के जाल और पन-बिजली परियोजनाओं जैसे विकास कार्यों के कारण बाघों के प्राकृतिक आवास में काफी कमी हो गई है। इससे लिए वनों के निकट लोगों की तेजी से बढ़ती हुई आबादी एक अन्य कारण है।
      यदि कुछ बुनियादी बातों पर ध्यान दिया जाए तो इस स्थिति में बदलाव की अभी भी आशा है, ये बाते हैं – बाघों के अवैध शिकार पर कड़ी नजर, लोगों में इस बात की जागरुकता पैदा करना कि बाघों का संरक्षण स्वयं मानवता के हित में है, क्योंकि पर्यावरण व्यवस्था में संतुलन और वन्य क्षेत्रों के निकट रहने वाले लोगों की रोजमर्रा की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए बाघों का होना जरूरी है। इस क्षेत्र में समर्पित गैर सरकारी संगठनों का संज्ञान लेकर उनकी भागीदारी बढ़ाने और उन्हें पूर्ण समर्थन देने से भी लाभ होगा।
      कुछ निराशाओं के बावजूद, परियोजना बाघ के अच्छे परिणाम निकले हैं। सत्तर के दशक में जब बाघों की जनसंख्या सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई थी, उस समय 1973 में यह परियोजना शुरू की गई थी।  सत्तर के दशक में जहां यह संख्या 1200 पहुंच गई थी वहां नब्बे के दशक में यह 3500 हो गई, हालांकि बाद में इसमें फिर कमी होने लगी थी।
      हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने राज्य सरकारों और संघ शासित प्रदेशों को बाघ संरक्षण योजनाएं तैयार करने को कहा है। उसने उन्हें ऐसा करने के लिए छह महीने का समय दिया है। यह योजनाएं कार्यान्वित किए जाने से पहले राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण की स्वीकृति के लिए भेजी जानी हैं। गत वर्ष जुलाई में उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रीय पार्कों और वन्य जीव अभ्यारण्य में पर्यटन पर अंतरिम प्रतिबंध लगाया था। अभ्यारण्यों को बाघों के आवास की आवश्यकता के अनुसार तैयार किया गया है, पर इस ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। न्यायालय ने इन क्षेत्रों में पर्यटन पर लगा अंतरिम प्रतिबंध बाद में हटा लिया। लेकिन सभी हितधारकों से इस बारे में उपयुक्त कार्रवाई करने को कहा गया है।
      दुर्लभ जीवों के संरक्षण को महत्व देने के लिए देश में पांच और वन्य जीवों के पांच और पार्क बनाने को स्वीकृति दी गई है। बाघों से छह और संरक्षणस्थल बनाने का भी प्रस्ताव है। इनकों मिलाकर ऐसी अभ्यारण्यों की संख्या 41 से बढ़कर 52 हो जाएगी। राष्ट्रीय पार्कों और वन्यजीव अभ्यारण्यों की संख्या भी उत्तरोत्तर बढ़ रही है।  
योजना आयोग ने भी 12वीं योजना में बाघ संरक्षण के लिए आवंटन में उदारता बरती है। कहने का तात्पर्य है कि बाघ संरक्षण को बड़ा महत्व दिया गया है। आयोग ने 12वीं योजना में बाघ संरक्षण के लिए 5889 करोड़ रुपए का आवंटन किया है जबकि 11वीं योजना में यह राशि मात्र 651 करोड़ रुपए थी। इससे आवंटित राशि में नौ गुना वृद्धि होने का पता चलता है। अन्य सभी दुर्लभ प्रजातियों के लिए आवंटित राशि 3600 करोड़ रुपए है। इनमें हाथी, शेर, हिरन, गैंडा और तेंदुआ शामिल हैं, जिनकी संख्या 45,000 से अधिक है। यह दलील दी जाती है कि बाघ को महत्व देने से अन्य कुछ प्रजातियां जैसे हिरन व गैंडा स्वतः लाभान्वित होंगी। यह किसी हद तक सत्य हो सकता है लेकिन अन्य प्रजातियों के बारे में संभवतः अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।
हजारों वर्ष से बाघों के शिकार को हैसियत का प्रतीक मान लिया गया है। उसे यादगार के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसके अंग एशिया की परंपरागत दवाइयों में प्रयोग किए जाते हैं। इसके परिणामस्वरूप 1930 तक बाघों की संख्या में कमी आती रही। बाघों की नौ प्रजातियों में से तीन प्रजातियां पहले ही विलुप्त हो गई हैं। इसलिए खासकर बाघों की आबादी और सामान्य रूप में वन्य जीवों की अन्य प्रजातियों की घटती संख्या पर रोक लगाने के लिए अधिक कारगर उपाय करने की आवश्यकता है। यह हमारे हित में है और इस बारे में त्रुटि महंगी सिद्ध हो सकती है। चुनौती बड़ी जरूर है लेकिन इसे पूरा करना ही होगा। (पसूका) press information beureo

आज सिर्फ 3,200 बाघ बचे हैं.

जेनेवा, 30 जुलाई 2014
वर्ल्ड वाइड फंड (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) ने एक रिपोर्ट में बताया है कि 100 साल पहले जंगल में 1,00,000 बाघ हुआ करते थे, लेकिन आज सिर्फ 3,200 बाघ बचे हैं.
डब्ल्यूडब्ल्यूएफ ने बाघ वाले 13 देशों- भारत, बांग्लादेश, भूटान, चीन, कंबोडिया, इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया, म्यांमार, नेपाल, रूस, थाईलैंड और वियतनाम- द्वारा बाघ संरक्षण की दिशा में किए जा रहे प्रयासों में मदद करने की पेशकश भी की है.
डब्ल्यूडब्ल्यूएफ ने मंगलवार को बाघ दिवस के मौके पर जारी अपनी रिपोर्ट में चेताया है कि शिकार और पर्यावास की समस्या के कारण एशियाई बाघ वनों से विलुप्त हो सकते हैं.
रिपोर्ट में कहा गया है, ‘जंगली बाघों को शिकार का सबसे अधिकर खतरा है क्योंकि इनके अंग पारंपरिक दवाओं, लोक उपचार में प्रयोग होते हैं और कुछ एशियाई संस्कृतियों में इसे प्रतिष्ठा का प्रतीक माना जाता है.’
डब्ल्यूडब्ल्यूएफ ने वन्यजीव तस्करी निगरानी नेटवर्क के आंकड़ों के हवाले से बताया है कि जनवरी 2000 से लेकर अप्रैल 2014 के बीच पूरे एशिया में अधिकारियों ने कम से कम 1,590 बाघों के अंग जब्त किए, जिन्हें पारंपरिक औषधियों में लिए मारा गया था.
डब्ल्यूडब्ल्यूएफ ने रिपोर्ट में स्वीकार किया है कि भारत, नेपाल और रूस के जंगलों में मौजूद बाघों के आंकड़े तो उसके पास हैं, लेकिन म्यांमार, कंबोडिया, चीन, इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया और थाईलैंड के आंकड़ा उपलब्ध नहीं हैं.
डब्ल्यूडब्ल्यूएफ ने इन देशों में जंगलों में मौजूद बाघों की गिनती करने और बाघों को बचाने का आग्रह किया है.

सफ़ेद बाघों का ऐतिहासिक रिकॉर्ड

लुइसियाना में न्यु ओरलियंस के औडूबोन चिड़ियाघर में व्हाइट टाइगर
एक शिकारी की डायरी में 1960 से पचास साल पहले रीवा में 9 सफ़ेद बाघों का जिक्र है. द जर्नल ऑफ द बॉम्बे नेचरल हिस्ट्री सोसाइटी की खबर के अनुसार 1907 और 1933 के बीच 17 सफ़ेद बाघ गोली के शिकार हुए. ई. पी. गी ने जंगल में रहने वाले 35 सफ़ेद बाघों का 1959 तक का विवरण इकट्ठा किया, इसमें असम, जहां उनका चाय बागान था, की संख्या को शुमार नहीं किया गया है, हालांकिअसम के आर्द्रतावाले जंगल को गी द्वारा काले बाघों के बसेरे के लिए उपयुक्त बताया गया है. जंगल में रहने वाले कुछ बाघों में लालनुमा धारियां थीं, उन्हें "लाल बाघ" के नाम से जाना जाता है. 1900 के दशक के शुरू में दो सफ़ेद बाघों को गोली मारने के बाद उनके नाम पर ऊपरी असम के टी एस्टेट का नाम बोगा-बाघ या "व्हाइट टाइगर" पड़ गया. ऑर्थर लोक के लेखन "द टाइगर ऑफ ट्रेनगानु" (1954) में सफ़ेद बाघों का जिक्र है.
कुछ क्षेत्रों में, यह जानवर स्थानीय परंपरा का एक हिस्सा है. चीन में इसे पश्चिम के देवता बैहू (जापान में बायक्कू और कोरिया में बैक-हो ) के रूप में सम्मान दिया जाता है, जो उंटमून और धातु से सम्बद्ध है. दक्षिण कोरिया के राष्ट्रीय झंडे में टैगवेक प्रतीक के रूप में सफ़ेद बाघ को दर्शाया गया है – सफ़ेद बाघ बुराई का प्रतीक है, इसके विपरीत हरा ड्रैगनअच्छाई का. भारतीय अंधविश्वास में सफ़ेद बाघ हिंदू देवता का अवतार माना गया है, और माना जाता है जो कोई इसे मारेगा वह साल भर के अंदर मर जाएगा. सुमात्रा और जावा के शाही घराने को सफ़ेद बाघों का वंशज होने का दावा किया जाता था और इन जानवरों को शाही घराने का पुनर्जन्म माना जाता था. जावा में सफ़ेद बाघ को विलुप्त हिंदी साम्राज्यों और भूत-प्रेत से सम्बद्ध किया जाता था. सत्रहवीं सदी के राजदरबार के संरक्षक का प्रतीक भी यही था.
मुगल साम्राज्य (1556-1605) के दौरान भारत के जंगलों में काली धारीवाले सफ़ेद बाघ देखे गए थे. ग्वालियर के निकट शिकार करते हुए अकबर की 1590 साल की एक पेंटिंग में चार बाघ दिखाई देते हैं, जिनमें से दो सफ़ेद लगते हैं.[12] इस चित्रकारी को आपhttp://www.messybeast.com/genetics/tigers-white.htm में देख सकते हैं. इसके अलावा 1907 और 1933 के बीच भारत के विभिन्न क्षेत्रों: उड़ीसा, बिलासपुरसोहागपुर और रीवा, में सफ़ेद बाघों के अधिक से अधिक 17 उदाहरण दर्ज किए गए. 22 जनवरी 1939 को नेपाल की तराई के बरदा शिविर में नेपाल के प्रधानमंत्री ने एक सफ़ेद बाघ को गोली मार दी. आखिरी बार देखे गए जंगली सफ़ेद बाघ को 1958 में गोली मार दी गयी थी, और माना जाता है कि जंगल से बाघ विलुप्त हो चुके हैं.[9] तब से भारत में जंगल में रहने वाले सफ़ेद बाघों के बारे में कहानियां बनती रही हैं, लेकिन इन्हें किसी ने विश्वासयोग्य नहीं माना है. औपचारिक रूप से बताया गया है कि जिम कॉर्बेट अपने "मैन-इटर ऑफ कुमाऊं" (1964)[49] में एक सफ़ेद बाघिन का सन्दर्भ देते हैं कि उनके लिए सफ़ेद बाघ सामान्य से अधिक कुछ भी नहीं थे, उन्होंने दो नारंगी शावकों के साथ इस सफ़ेद बाघिन पर फिल्म बनाया था. कॉर्बेट की यह श्वेत-श्याम फिल्म की फुटेज जंगल में रहने वाले सफ़ेद बाघ की शायद एकमात्र ऐसी फिल्म है जो अस्तित्व में है. इससे यह भी साफ होता है कि जंगल में सफ़ेद बाघों का अस्तित्व था और वहां उन्होंने बच्चे भी पैदा किए थे. इस फिल्म का इस्तेमाल नैशनल जियोग्राफी के दस्तावेजी-नाट्य रूपांतर "मैन-ईटर्स ऑफ इंडिया" (1984) में किया गया था जो कि कॉर्बेट के जीवन के बारे में और उनकी 1957 की इसी नाम की एक पुस्तक पर आधारित था. सफ़ेद बाघ का एक सिद्धांत कहता है कि वे अन्तःसंयोग के सूचक थे, क्योंकि अत्यधिक शिकार और प्राकृतिक आवास के खत्म होने के परिणामस्वीरूप बाघों की आबादी कम होती चली गयी. 1965 में वाशिंगटन डी. सी. में हिलवुड एस्टेट, जो अब एक म्युजियम की तरह संचालित है, में मार्जोरी मेरीवेदर पोस्ट के "इंडिया कलेक्शन" में एक चेयर था जिसकी गद्दी सफ़ेद बाघ के चमड़े की थी. इसकी एक रंगीन तस्वीर लाइफ पत्रिका के 5 नवंबर 1965 के अंक में छपी थी.[50] अक्तूबर नैशनल जिओग्राफी के 1975 के अंक में संयुक्त अरब अमीरात के रक्षामंत्री के दफ्तर की प्रकाशित तस्वीरों में सफ़ेद बाघों की भरमार है.[51] अभिनेता सीजर रोमेरो के पास एक सफ़ेद बाघ की खाल थी.

लोकप्रिय संस्कृति[संपादित करें]

सफ़ेद बाघों को साहित्य, वीडियो गेम, टेलीविजन और कॉमिक किताबों में अकसर पेश किया जाता है. ऐसे मिसालों में स्वीडिश रॉक बैंड केंट भी शामिल है, जिसने 2002 में अपने सबसे अधिक ब्रिकी हुए एलबम वेपेन एंड एमुनेशन के कवर पर सफ़ेद बाघ को दिखाया. यह बैंड की ओर से हावथ्रोन सर्कस के मुख्य आकर्षण को उनके अपने शहर एस्किलस्टूना के स्थानीय चिड़ियाघर में लाये गए सफ़ेद बाघ के लिए श्रद्धांजलि थी. अमेरिका के सिंथ-रॉक बैंड द कीलर ने भी अपने "ह्युमन" गीत के वीडियो में सफ़ेद बाघ को दिखाया. 1980 के दशक में सफ़ेद बाघ के नाम पर अमेरिका के एक आकर्षक धातु का भी नाम व्हाइट टाइगर रखा गया.
अरविंद अदिगा के उपन्यास "द व्हाइट टाइगर" ने 2008 में मैन बुकर प्राइज जीता. मुख्य किरदार और सूत्रधार अपने आपको "द व्हाइट टाइगर" कहता है. यह बच्चे के रूप में उसे दिया गया एक उपनाम था जो दर्शाता है कि "जंगल" (उसका शहर) में वह अनोखा था, यह भी कि वह दूसरों से कहीं अधिक होशियार था.
सफ़ेद बाघों से संबंधित खेलों में ज़ू टाइकून (Zoo Tycoon) और वारक्राफ्ट युनिवर्स (Warcraft universe) शामिल हैं. माइटी मोरफिन पावर रेंजर्सऔर जापानी सुपर सेंटाई दोनों श्रृंखलाओं में व्हाइट टाइगर की थीम वाली मेका (mecha) का इस्तेमाल किया गया है, पावर रेंजर श्रृंखला की उत्पत्ति सुपर सेंटाई से ही हुई है. Power Rangers: Wild Force और इसके सेंटाई प्रतिरूप से उत्पन्न व्हाइट रेंजर में भी व्हाइट टाइगर की थीम वाला मेका के साथ-साथ व्हाइट टाइगर की शक्ति भी है.
कनाडा के ओंटारियो के बोमैनविल ज़ू के एक प्रशिक्षित सफ़ेद बाघ का उपयोग एनिमोर्फ्स टीवी श्रृंखला में किया गया था. हीरोज ऑफ माइट एंड मैजिक IV में भी सफ़ेद बाघों को दिखाया गया है, जहां वे नेचर टीम की लेवल 2 यूनिट हैं. यहां तक कि डेक्स्टर्स लैबोरेटरी में व्हाइट टाइगर और द जस्टिस फ्रेंड्स थे, और एनीमे रॉनिन वारियर्स में व्हाइट ब्लेज नाम के एक सफ़ेद बाघ को कई बार दिखाया गया है. गिल्ड वार्स फैक्शंस में व्हाइट टाइगर्स को एक जंगली, पालनेलायक "पालतू" साथी के रूप में दिखाया गया है. अंत में, सफ़ेद बाघों की लोकप्रियता के कारण निजी उपयोगकर्ताओं नेElder Scrolls IV: Oblivion के मौड्स या खेल पैच बनाने के लिए खजित प्रजातियों के बाघों में परिवर्तन करके उनमें वास्तविक लगने वाली ऊंचाई और मानक शारीरिक आकार सहित सफ़ेद बाघों के अभिलक्षणों का समावेश करना शुरू किया.
इसी तरह बीस्ट वार्स का पात्र टिगोट्रोन जो व्हाइट टाइगर कॉमिक बुक का हीरो है, सफ़ेद बाघ के रूप में बदल जाता है. The Chronicles of Narnia: The Lion, the Witch and the Wardrobe फिल्म में सफ़ेद बाघ को व्हाइट विच के लिए लड़ते हुए दिखाया गया है.

Tuesday, August 12, 2014

'जब रेप होता है तो धर्म कहाँ जाता है?'


 मंगलवार, 12 अगस्त, 2014 को 12:54 IST तक के समाचार
म्यूज़ियम का एक दृश्य
"पाँच पांडवों के लिए पाँच तरह से बिस्तर सजाना पड़ता है लेकिन किसी ने मेरे इस दर्द को समझा ही नहीं क्योंकि महाभारत मेरे नज़रिए से नहीं लिखा गया था!"
बीईंग एसोसिएशन के नाटक 'म्यूज़ियम ऑफ़ स्पीशीज़ इन डेंजर' की मुख्य किरदार प्रधान्या शाहत्री मंच से ऐसे कई पैने संवाद बोलती हैं.
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के सहयोग से मंचित इस नाटक में सीता और द्रौपदी जैसे चरित्रों के माध्यम से महिलाओं की हालत की ओर ध्यान खींचने की कोशिश की है लेखिका और निर्देशक रसिका अगाशे ने.
रसिका कहती हैं, "सीता को देवी होने के बाद भी अग्नि परीक्षा देनी पड़ी थी और इसे सही भी माना जाता है लेकिन मेरा मानना है कि 'अग्नि परीक्षा' जैसी चीज़ें ही रेप को बढ़ावा देती हैं."

ये विरोध का तरीका है

म्यूज़ियम का एक दृश्य
नाटक में शूर्पणखा पूछती है, "मेरी गलती बस इतनी थी कि मैंने राम से अपने प्यार का इज़हार कर दिया था? इसके लिए मुझे कुरूप बना देना इंसाफ़ है?"
शूर्पणखा सवाल उठाती है, "अगर शादीशुदा आदमी से प्यार करना ग़लत है तो राम के पिता की तीन पत्नियां क्यों थीं?"
रसिका कहती हैं, "16 दिसंबर को दिल्ली गैंगरेप के बाद इंडिया गेट पर मोमबती जलाने और मोर्चा निकालने से बेहतर यही लगा कि लोगों तक अपनी बात को पहुंचाई जाए और इसके लिए इससे अच्छा माध्यम मुझे कोई नहीं लगा."

कट्टरपंथियों का डर नहीं

म्यूज़ियम का एक दृश्य
नाटक में सीता का किरदार निभाने वाली प्रधान्या शाहत्री हैं, "सच से डरना कैसा? ये हमारा विरोध करने का तरीका है और हम जानते हैं, हम ग़लत नहीं हैं."
जब आस्था का मामला आता है तो घर परिवार से भी विरोध होता है. द्रौपदी की भूमिका निभाने वाली किरण ने बताया कैसे घर वाले उनसे नाराज़ हो गए थे.
रसिका का कहना था, "ये पहली बार नहीं है कि किसी ने द्रौपदी और सीता के दर्द को लिखने की कोशिश की है और उस वक़्त धर्म कहाँ जाता है जब किसी लड़की का रेप हो जाता है."

हिंदू सभ्यता पर हमला?

म्यूज़ियम का एक दृश्य
"कुंती ने हमारा सेक्स टाइमटेबल बनाया ताकि किसी भाई को कम या ज़्यादा दिन न मिलें." द्रौपदी जब मंच से ये संवाद बोलती हैं तो तालियां गूंज उठती हैं.
नाटक की सीता पूछती हैं, "लोग पूछेंगे कि सीता का असली प्रेमी कौन था? वो रावण जिसने उसकी हां का इंतज़ार किया या वो राम जिसने उस पर अविश्वास किया?"
सिर्फ़ हिंदू मान्यताओं पर ही छींटाकशी क्यों, इसके जवाब में वह कहती हैं, "हमने ये कहानियां बचपन से सुनी हैं. हमें ये याद हैं और इसलिए हम इसके हर पहलू पर गौर कर सकते हैं."