Monday, March 25, 2013

गरीब लोग कृपया टिकट न मांगें

 चंद्रमणि त्रिपाठी राजनीति में उस पीढ़ी के आखिरी लोगों में से एक थे जो विकट गरीबी में जिये, संघर्ष किया और राजनीति में अपना मुकाम बनाया। आज के दौर में धनबल, बाहुबल, जातीय गणित और वंश परम्परा यही कुल मिलाकर टिकट दिये जाने की बुनियादी योग्यता है। इन स्थितियों के चलते राजनीतिक दलों में कर्मठ, ईमानदार, जुझरू लेकिन आर्थिक रूप से विपन्न कार्यकर्ताओं के लिए कोई जगह नहीं। कम्युनिस्ट पार्टियों को छोड़कर प्राय: सभी राजनीतिक दलों का यही चरित्र है। सत्ता का स्वाद चखने के पहले तक भाजपा इस दुगरुण से दूर थी, लेकिन अब उसकी प्राथमिकताएं बदल गई हैं। हाल ही में चले पार्टी के महाजनसम्पर्क अभियान में एक मण्डल अध्यक्ष ने जब पार्टी से वाहन के इंतजाम की बात की तो जिलाध्यक्ष से उसे ऐसी ही फटकार मिली. कि एक गाड़ी रखने की हैसियत नहीं रखते तो फिर मण्डल अध्यक्ष बन ही क्यों गए? मैं एकऐसे कर्मठ उम्मीदवार के बारे में जानता हूं जो फिलहाल एक जिले की पार्टी इकाई का अध्यक्ष है, उसे पार्टी के प्रदेश नेतृत्व ने इसलिए टिकट नहीं दी क्योंकि उसकी गरीबी का हवाला प्रस्तुत किया गया था।
यही नहीं एक ऐसे आपराधिक पृष्ठभूमि के व्यक्ति को टिकट दी गई, जो आज भी सूटकेस के वजन से बड़े से बड़े नेताओं की औकात को तौलता है।
स्वर्गीय चंद्रमणि त्रिपाठी को पहली बार लोकसभा की टिकट के लिए इन्हीं स्थितियों से गुजरना पड़ा था। सन् 1998 में उनकी उम्मीदवारी को सुनिश्चित करने जाने अनजाने एक किरदार मैं भी बन गया। तब मैं देशबन्धु में नौकरी करता था। श्री त्रिपाठी से मेरी वैचारिक निकटता जाहिर थी। मैं उनके लड़ाकू तेवर, संघर्ष क्षमता और बेबाक बयानी का कायल था। उन दिनों टिकट की गुणाभाग चल रही थी। भाजपा रीवा की महारानी प्रवीण कुमारी पर उम्मीदवारी का दांव लगाकर विफल हो चुकी थी। अब जो नाम उभरे उनमें से श्री त्रिपाठी का नाम सबसे वजनदार था। पार्टी का शीर्ष नेतृत्व हर हाल पर चुनाव जीतने की गरज से कई विकल्पों पर काम कर रहा था। दिल्ली से मेरे एक पत्रकार मित्र ने सूचना दी कि रीवा की लोकसभा टिकट किसी बड़े पूंजीपति को दी जा रही है। मैं अनुमान नहीं लगा पा रहा था, क्योंकि रीवा का कोई बड़ा पूंजीपति भाजपा में नहीं था। श्री त्रिपाठी मेरे दफ्तर आए और उन्होंने भी इस बात की तस्दीक की कि टिकट किसी पूंजीपति को ही दी जा रही है, अब मैं दौड़ से बाहर हूं।
टिकट कमेटी की बैठक खजुराहो में थी और उमा भारती का प्रभाव चरमोत्कर्ष पर था। कमेटी में कालेज के दिनों के मेरे नेता व मुझ पर स्नेह रखने वाले प्रहलाद पटेल भी थे। मैंने चंद्रमणि जी से कहा- अखबार में कुछ लिख ही सकता हूं आपकी मदद के नाम पर। दूसरे दिन के अंक में पहले पन्ने में मेरी टिप्पणी छपी- शीर्षक था.. गरीब लोग कृपया टिकट न मांगे। जहां तक स्मरण है..मैंने लिखा था कि राजनीति में एक छोटे से छोटा कार्यकर्ता भी पार्टी की टिकट व चुनाव लड़ने की ललक लिए हुआ आता है। पहले कार्यकर्ता की निष्ठा, उसका जुझरूपन, वैचारिक दृढ़ता और मॉस अपील टिकट का आधार बना करती थी, लेकिन अब ऐसे लोगों के लिए बैठकों का जाजम बिछाने, नारा लगाने, झण्डे बांधने व अखबार के दफ्तरों तक खबरें पहुंचाने का काम सुनिश्चित है। टिकट की योग्यता का आधार उम्मीदवार का कारोबार, बैंक बैलेंस, बड़े नेताओं को उपकृत करने की व कोई भी इंतजाम करने का कौशल बन गया है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सुचिता और संस्कारों में फली-फूली भाजपा में भी यही रोग लग गया है। अब खजुराहो में टिकट कमेटी की बैठक है पर उम्मीदवारी के सौदे दिल्ली में हो रहे हैं। अब यदि चंद्रमणि त्रिपाठी अपने राजनीतिक संघर्षो व गरीबों के लिए की गई जेल यात्राओं का कैसा भी इकबालिया बयान करें कौन सुनने वाला है। चंद्रमणि जी की कद काठी कोई दूध घी व पौष्टिक खाद्य की वजह से इतनी चुस्त दुरुस्त नहीं है, अपितु राजनीतिक मोर्चो और प्रदर्शनों में उन पर पुलिस की इतनी लाठियां बरसीं हैं कि वह हरी-भरी हो गई। 19 माह के आपातकाल में जेल में उन्हें आड़ा बेड़ी पहनाकर- फांसी के कैदियों के लिए बनाए गए तनहाई सेल में रखा गया था। चंद्रमणि जी पढ़े लिखे हैं, ओजस्वी वक्ता हैं विधायक रह चुके हैं, लेकिन इन सब योग्यताओं के ऊपर उनकी गरीबी भारी पड़ती है, सो वे नाहक उम्मीद पाले हैं कि पार्टी उन्हें लोकसभा का टिकट दे सकती है..।
टिप्पणी में और भी कई भावनात्मक बातें थीं। मैंने त्रिपाठी जी को अखबार की दस प्रतियां दी व कहा कि खजुराहो जाकर टिकट कमेटी के सदस्यों तक पहुंचवा दीजिए। अब इसके बाद की जो घटना हुई वह चंद्रमणि ने नहीं अपितु उनने बताई जिनकी टिकट इस टिप्पणी के फेर में कट गई। वे हमारे मित्र थे और मुङो दूर-दूर तक उम्मीद नहीं थी कि जिस पूंजीपति की चर्चा की जा रही है वे यही हैं। वजह वे उस समय तक भाजपा में शामिल नहीं हुए थे। मेरे उस मित्र ने जिसका मैं गुनहगार था ने बताया कि.. उमाभारती जी आपका अखबार लहराते हुए टिकट कमेटी की बैठक में पहुंची। टिप्पणी को बांचकर सुनाया भी और कहा कि मैं यहां बुंदेलखण्ड में सामंती ताकतों के खिलाफ कैसे लड़ती हूं, किन-किन खतरों से मेरा वास्ता नहीं पड़ता, वो मैं जानती हूं!
भाजपा की इमेज को तोड़ना होगा कि यह बनियों-पूंजीपतियों की पार्टी है। साफ संदेश देना होगा कि इस पार्टी में संघर्ष करने वाले गरीब कार्यकर्ताओं के लिए भी जगह है। बैठक खत्म हुई, अगले हफ्ते लोकसभा के उम्मीदवारों की सूची में भाजपा प्रत्याशी के रूप में चंद्रमणि त्रिपाठी का नाम था। वे दमदारी से चुनाव लड़े और अच्छे मतों से जीते।
चुनाव की राजनीति से तेजी से खारिज हो रहे जमीनी नेताओं की जमात में चंद्रमणि त्रिपाठी निश्चित ही बचे खुचे नेताओं में से रहे हैं। 2009 के लोकसभा चुनाव में निर्वाचित होकर पहुंचे सदस्यों के बारे में इलेक्शन वॉच का अध्ययन बताता है कि एक तिहाई सांसदों का किसी न किसी तरह राजनीति से वंशानुगत कनेक्शन है। 30 साल से कम उम्र के तमाम सांसदों को सीट विरासत में मिली है। 40 साल से कम उम्र के 66 सांसदों में दो तिहाई किसी न किसी राजनीतिक परिवार के हैं, 35 वर्ष से कम उम्र का हर कांग्रेसी सांसद, राजनीति की वंश परम्परा को बढ़ा रहा है। संसद में पहुंचने वाले सदस्यों की घोषित आय (काला धन इसमें शामिल नहीं) के अनुसार हर चुनाव के बाद 30 फीसदी की दर से करोड़पति बढ़ रहे हैं। जहां तक अपराधिक पृष्ठभूमि व बाहुबलियों का सवाल है तो देश के कुल 4896 सांसदों व विधायकों में से 1450 के खिलाफ अपराधिक प्रकरण दर्ज है। इनमें से कई ऐसे जिन पर हत्या, डकैती, लूट, बलात्कार के आरोप हैं।
यद्यपि एक सत्य यह भी है कि गरीब पृष्ठभूमि के अस्सी फीसदी सांसद विधायक पांच साल पूरा होने तक कोठी व कारों के मालिक भी बन जाते हैं। राजनीति जिस दिशा की ओर चल पड़ी है, ऐसे में सोचता हूं कि गृहमंत्री होते हुए एक कमरे में गुजारा करने वाले इंद्रजीत गुप्त, सिर्फ एक अटैची की पूंजी वाले नृपेन चक्रवर्ती, पब्लिक बसों में सफर करने वाले मनोहर पर्रिकर (गोवा के मुख्यमंत्री),एक रिक्शे वाले की गृहस्थी की हैसियत रखने वाले त्रिपुरा के मुख्यमंत्री मानिक सरकार, देश के सबसे गरीब मंत्री ए के ऐंटोनी, जमीनी संघर्ष से आगे बढ़ी ममता बनर्जी और सादगी की प्रतिमूर्ति कुशाभाऊ ठाकरे जैसों की राजनीतिक वंश परम्परा को कौन बढ़ाएगा?
- लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09425813208.

Saturday, March 23, 2013

पनघट पर पहरे और बेचारे नंदलाल

देश भर के दीवानों को शरद यादव का शुक्रगुजार होना चाहिये कि उन्होंने सियासत के इस बेरहम दौर में दीवानों के व्यथा की परवाह की। पार्लियामेंट में जब ये कानून पास हो रहा था कि लड़कियों को देखना और घूरना जुर्म होगा, तब बहुतों की जुबान पर साठोत्तर दशक का वो फिल्मी गीत आ गया होगा 'दीवानों से मत पूछो, दीवानों पे क्या गुजरी है। दिल को सुकून मिला कि शरद यादव जी भी ऐसा सोचते हैं। उन्होंने कहा कि यह कानून तो मोहब्बत के अंत की उद्घोषणा है। भला कोई किसी को नहीं देखेगा, पीछा नहीं करेगा तो प्यार का अंकुरण कैसे प्रस्फुटित होगा। शरद बाबू ने मार्के की बात कही। साठोत्तर दशक की हर दूसरी रोमांटिक फिल्मों में छेड़छाड़-पीछा करना और चुहुलबाजी केन्द्रीय थीम हुआ करती थी। जब कानून पास ही हो गया तो लगे हाथ उन फिल्मों को सेंसर की हवालात में डाल देना चाहिये। क्या पता नारी उत्थान संगठनों का अगला मुद्दा यही हो और हमारे नेता फिर पसीज जाएं। कवियों को त्रिकालदर्शी यूं ही नहीं कहा जाता। फिल्म गीतकार आनंद बक्षी कोई तीस साल पहले भावी समाज व सरकार का रुख भांप चुके थे, तभी तो लिखा 'तेरा पीछा न छोड़ंूगा शोणिये, भेज दे चाहे जेल में या 'अब चाहे लग जाए हथकडिय़ां यारा मैंने तो हां कर दी। अब सरकार ने आनंद बक्षी की भविष्यवाणी के अनुरूप पूरे इंतजाम कर दिये हैं।
हर कानून के साथ एक अर्थगणित भी जुड़ी होती है। निश्चित ही मनमोहन, चिदम्बरम और अहलूवालिया की यही सोच होगी। कानून कड़ाई से लागू हुआ तो सौंदर्य और फैशन बाजार पर इसका असर दिखेगा। सौंदर्यशास्त्र कहता है कि महिलायें इसलिये श्रृंगार करती हैं और सजती हैं कि पुरुष रीझें। पुरुष रीझेगा तो घूरेगा, पीछा करेगा और यह सब करेगा तो जेल जाएगा। संभव है इस कानून की सीधी मार सौंदर्यबाजार पर भले पड़े पर मंदी के दौर में मध्यवर्गीय परिवार के अपव्यय को बचाएगा। गांवों की बारातों में अभी भी बाराती और घराती महिलाओं के बीच बताशे और चावल के आदान-प्रदान और देखा-देखी के चलन का रिवाज बचा है। अब बताशेबाजी की तो सीधे हवालात में। सो अब बारात भी जाइये तो सोच समझकर हरकतें करिये, वरना.... हां। मुझे लोकप्रिय मंचीय कवि सुनील जोगी की पंक्तियां याद आ रही हैं 'कलयुग में न आना मेरे कृष्ण कन्हैया। कल्पना करिये कि वही गोकुल- वही गोपी- वही ग्वाल- वही कृष्ण आज के दौर में होते तो क्या होता। जैसे ही कोई गोपी फरियाद करती कि 'मोहे पनघट में नंदलाल छेड़ गयो रे। बस इतना ही पुलिस को संज्ञान लेने के लिये काफी और नंदलाल हवालात में। खुदा न खास्ता बंहियां मरोड़ी और गगरी फोड़ी जैसा बयान दे देतीं तो, जमानत के लाले पड़ जाते।  द्वापर में कंस की जेल से तो वे जन्मते ही सटक लिये थे, कलयुग में तो जितनी बार गगरी फोड़ते उतनी बार अंदर होते और बेचारे नंदबाबा को खसरा मिसिल लेकर अदालतों के चक्कर लगाने पड़ते। सो सुनील जोगी के अलाप में मेरा भी एक स्वर समझिये कि 'कलयुग में न आना रे मेरे कृष्ण कन्हैया। 
आदमी-औरत के जन्म से ही मोहब्बत का सिलसिला शुरू हुआ होगा व वक्त के साथ इसके रंग-ढंग बदले होंगे। हमारे दौर में मोहब्बत की कहानी एक रूमाल से शुरू होती थी, उसे मैच्योर होने में दशकों लग जाते थे। धरमवीर भारती के उपन्यास 'गुनाहों का देवता में तो नायक-नायिका जिंदगी भर साथ में रहने के बाद भी प्यार का इजहार नहीं कर पाते। अब तो फास्टफूड की तरह लव फटाफट। इजहार करने के लिये फेसबुक तो है न। सो फास्ट फूड, फेसबुक ने लव फटाफट का दौर ला दिया। जब समाज की वर्जनाएं टूटती हैं, मर्यादायें मरती हैं, संवेदना आंकड़ों में बदल जाती है, लोकलाज और लोकभय, पब डिस्कोथेक व रियल्टी शो की रंगीनियों में खो जाता है। तब ऐसा ही दौर शुरू होता है जिसके पेश-ए-नजर आज हम हैं। वैसे बता दें लोक की अदालत और उसके कानून से बड़ी अब तक न कोई अदालत हुई है और न कोई दण्डाधिकारी। उसकी सजा इतनी करारी है कि उससे न तो देवताओं का लंपट राजा इंद्र बचता और न वह सृष्टि के निर्माता ब्रह्मा को बख्शती। और उस लोक की चेतना अभी मरी नहीं है, संवेदनाओं के समापन और इतिहास के अंत की यूरोपीय घोषणा के बावजूद भी। 

Friday, March 22, 2013

दोमुंहे और सांप की कलेजी

नेताजी हाल ही में चार धाम की तीर्थयात्रा और गंगाजी में पितरों का तर्पण करके लौटे। देवस्थानों में कुछ न कुछ छोड़ने का संकल्प लेने का दस्तूर है। मसलन तम्बाकू, शराब, कोई बुरी लत, खानपान की चीजें। मैंने पूछा क्या छोड़ आए... नेताजी ने बताया ‘सांप की कलेजी, कभी नहीं खाऊंगा?’ मैंने कहा जो सम्भव नहीं उसे छोड़ने का संकल्प कैसा? पितरों की गति का खयाल तो रखना चाहिए था... वाह... छोड़ा भी तो क्या... सांप की कलेजी! नेताजी बोले- भैय्ये खुदा न खास्ता, चीन   वीन जाने का फॉरेन टूर मिला तो वहां तो आदमी सांप ही खाते हैं! सो मैंने भविष्य का ध्यान रखा। मैंने कहा -नेताजी यदि गयाधाम में जीवनभर सच नहीं बोलने का संकल्प ले आते तो यह तो आपके काम की भी बात होती और पितर भी मजे से तर जाते! नेता जी बमके- तुम पत्रकार लोग उलटवांसी ही बोलते हो... जानते नहीं गांधीजी कह गए ‘सत्य अहिंसा परमोधर्म:। यह तो हमारी पूंजी है कि हम निरा सच बोलें!’ फिर वे राजा बिसुनाथ प्रताप सिंह की कहानी पर उतर आए! राजा मांडा ने बोफोर्स का भांडा फोड़ा... कहा राजीव गांधी व उनकी मण्डली ने कमीशन खाया। जनता ने सच माना। राजीव गांधी को सत्ता से उतार दिया। कमीशन से चौगुनी रकम जांच में खर्च हो गई। जांच राजीव गांधी तक पहुंच ही न पाई। जनमोर्चा बना तो राजा मांडा ने कहा-‘वे चुनाव नहीं लड़ेंगे!’ पर इलाहाबाद से चुनाव भी लड़ा-कैफियत दी कि जनभावना के आगे मजबूर था। फिर जनता दल बनाते समय बोला हम प्रधानमंत्री नहीं बनेंगे, ताऊ देवीलाल को बनाएंगे। फिर प्रधानमंत्री भी बन गए कैफियत दी कर्त्तव्य के आगे मजबूर था। ताऊ देवीलाल को भी फेंटे से लगा दिया। सो सच ऐसे ही बोलिए, फिर आपकी सुविधानुसार भावनात्मक तरीके से मजबूर करने के लिए लोग हैं ही। 
अपने सूबे के भैयाजी ने महीने भर पहले कहा था कि इंटरनेट, सिन्टरनेट, फेसबुक-ट्विटर युवाओं को बरबाद करने वाली बातें हंै। युवाओं को चाहिए कि वे कसकर लंगोट बांधा करें, विवेकानन्द के बताए मार्ग पर चला करें। रोज सबेरे ईश विनय कर शीश नवाएं। सूर्य नमस्कार करके उसकी अजस्त्र ऊर्जा को ग्रहण करें। देश के निर्माण में योगदान दें। बाद में  पता चला भैयाजी खुद ट्विटर में टूट पड़े और अब कार्यकर्ताओं को ट्वीट किया करते हैं।  एक आईटी सेल खुल गया है जो उनके फेसबुक और ट्विटर के एकाउन्ट को अपग्रेड व मेन्टेन करता है। सो भैय्या बातें हैं बातों का क्या? बोलने में क्या जाता है, बोल दो... फिर जनता के सामने अपने कर्त्तव्य के सामने, वक्त के साथ मजबूर हो जाओ। अपना नफा-नुकसान देखकर जो मन पड़े सो बोलो- वक्त उसे उसी तरह परिभाषित कर देगा- जैसे विक्रमादित्य के दरबार में मूरख कालिदास के वक्तव्यों को विद्योत्तमा परिभाषित करती थी। अब देखो न विधानसभा में यूपीएससी में हिन्दी के लिए संकल्प पारित हो रहा है। संकल्प के साथ होंगे- मुख्यमंत्री, मंत्री, विधायक सभी। पर पूछो तो किसके बच्चे हिन्दी में पढ़ते हैं। कितनों के नाम सरकारी स्कूलों में लिखा है? अरे जब सरकारी चपरासी अपने बच्चों को पब्लिक स्कूल में अंग्रेजी पढ़ाता है... तो इनकी क्या बात करना, जिनकी ख्वाहिश रहती है कि बच्चा पैदा होते ही इंग्लिश में किलकारी भरे। पर संकल्प लेने में क्या... ले लो। वक्त इस संकल्प को भी परिभाषित कर देगा... देखा ये लोग कितने महान हैं, अपने बच्चों की अंग्रेजी को कुर्बान करते हुए... अंतिम छोर पर खड़े उस मजदूर के बच्चे के भविष्य के लिए कितना महान संकल्प ले रहे हैं, जो फुटही सरकारी स्कूल में ट्विंकल-ट्विंकल लिटिल स्टार की बजाए... सिरी गानेसाए नमहा, से क ख ग घ डं. पढ़ने की शुरुआत करता हैं।

Thursday, March 14, 2013

सूरज की परिक्रमा मेरे गर्भ से गुजरती है


चिन्तामणि मिश्र 
छब्बीस फरवरी को संसद ने कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ किए जा रहे यौन उत्पीड़न के खिलाफ रोक लगाने सम्बन्धी कानून को पास कर दिया है। इसके तहत ऐसी शिकायतों को नब्बे दिनों के अन्दर निपटारा करना जरूरी बना दिया है। बलात्कार की शिकार महिलाओं को त्वरित न्याय दिलाने के लिए फास्ट कोर्ट भी गठित कर हो गई हैं और बलात्कार के लिए कठोर सजा का भी प्रावधान किया गया है।
सरकार और महिला संगठनों सहित बहुत से सामाजिक संगठनों की सोच है कि इस तरह की व्यवस्था से महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों पर अंकुश लगेगा, किन्तु ऐसा हो पाना आसान नहीं है। हमारे देश में महिलाओं से जुड़े हुए अपराधों के लिए अभी अड़तालिस कानून हैं। जब तक कानून लागू करने वालों की मानसिकता नहीं बदलती और सामाजिक ढांचा पुरुष एकाधिकार की सार्वभौमिकता से बाहर नहीं निकलता तब तक महिलाओं के साथ अन्याय की घटनाएं कम होना सम्भव नहीं है।
जरूरत इस बात की है कि कानूनों का इस्तेमाल इस प्रकार किया जाए कि अपराधिक प्रवृति के लोग खौफ खाए और ऐसे अपराध की जांच करने वाली एजेन्सी हर कदम पर संवेदनशील भी हों ।
यौन शोषण के खिलाफ नया कानून लागू हुए कई सप्ताह बीत गए किन्तु बलात्कार रोज हो रहे हैं। यहां तक कि दिल्ली में ही बलात्कार बन्द होने का नाम नहीं ले रहे हैं। चौबीस घन्टे में सात बलात्कार पुलिस ने दर्ज किए हैं। यह तब हो रहा है जब देश की विभिन्न अदालतों ने बलात्कार के मामलों में सुनवाई और फैसले की अवधि कुछ सप्ताह कर दी है। ऐसा लगता है कि औरतों की मुसीबत में तब तक सुधार नहीं हो सकता तब तक समाज और कानून लागू करने वाले लोगों के भीतर संवेदना का अकाल रहेगा। पुलिस आज तक नागरिकों के मित्र के रूप में अपनी छवि बनाने में कामयाब नहीं हुई है।
दरअसल, हमारे राजनेताओं को पुलिस का जनविरोधी चेहरा ही पसन्द है, क्योंकि अपने स्वार्थ के लिए उनको पुलिस का नाजायज इस्तेमाल करना ही रास आता है। आम आदमी और आम औरत के लिए पुलिस का आचरण भय और मनमानी का है। अभी मुजफरपुर रेलवे स्टेशन पर चलती ट्रेन से एक बुजुर्ग महिला को रेलवे सुरक्षा बल के सिपाहियों न धक्का देकर डिब्बे से बाहर फेक दिया और यह औरत गाड़ी के नीचे आ कर मर गई । इसकी गलती केवल इतनी थी कि उसके पास एक्सप्रेस ट्रेन का टिकिट था और वह गलती से शताब्दी ट्रेन में चढ़ गई थी।
जिन पर सुरक्षा का दायित्व है वे ही लोगों के प्राण ले रहे हैं। यह सरकारी आंतक है क्योंकि इसे सरकार की ही पुलिस कर रही है। ऐसी घटनाएं रोज हो रही है। कौन इनकी नकेल कसेगा? असल में हमने ऐसा वातावरण ही नहीं बनाया जिससे महिलाएं और लड़कियों का अपने शरीर पर हक हो और वे पुरुष हिंसा से मुक्त जीवन जी सके। औरतों को उपभोग की वस्तु समझने की मानसिकता के चलते वे न तो अपने घर में सुरक्षित हैं और न बाहर उनको सुरक्षा मिल पाती है। हम ऐसा समाज बनाने में लगे हैं जहां विज्ञापनों और फिल्मों में औरत को लगभग नग्न दिखा दिया जाता है। हमारे देश के सेन्सर बोर्ड को, मुन्नी बदनाम हुई, शीला की जवानी और मै तंदूरी मुर्गा हूं यार- गटका ले मुङो अलकोहल जैसे गानों से आपत्ति नहीं है। शायद ऐसे गानों को मंजूरी देते समय सेन्सर बोर्ड के मेम्बर मस्त होकर झपकी लेते रहते हैं। एक विज्ञापन में दिखाया जाता है कि कोई विशेष सेविंग क्रीम चुबंन के ही लिए लगाया जाती है। एक विज्ञापन हम सब को चाकलेट खाने की एक अनोखी कला सिखाता है। एक बिस्कुट का विज्ञापन पति को शंका में डाल देता है और वह भागता हुआ घर आता है। एक से जी नही भरता, ये दिल मांगें मोर जैसे वाक्य जब बच्चों और युवाओं के कान में पड़ते हैं तो इनका अर्थ कोई उन्हें नहीं समझता। वे खुद समझ कर अपने तरीके से इसका प्रयोग शुरू कर देते हैं। सड़क पर चलती हर लड़की या औरत उन्हें मुन्नी और चमेली ही नजर आने लगती है। आप कागज पर कानून बनाते रहिए और औरतों लड़किओं का जीना दूभर करते रहिए, समाज की बखिया उधेड़ते रहिए । नतीजा वही होगा जो सामने हैं। हकीकत बेहद कड़वी है, किन्तु जैसा हमारे देश में चल रहा है उससे तो लगता है कि महिलाओं का शारीरिक शोषण करने का माहौल देश की सरकारें ही बना रही हैं। सरकारों ने हर कालोनी,मुहल्लों,गांवों में शराब की दुकानें बड़ी उदारता से खोल दी हैं। मेरी बस्ती में तो मरघट में ही शराब की दुकान खोल दी है। सरकारी रिपोर्टे ही चुगली कर रही है कि अधिकांश यौन अपराधी नशे में पाए गए ।
सरकारें स्कूल और अस्पताल खोलने के लिए पैसा न होने का विधवा विलाप करती है और साकी बन कर जाम भरती है। इसी के साथ हमारे धर्म गुरूओं ने समाज को औरतों के पक्ष में झकझोरने की दिशा में ईमानदारी से अपनी ताकत का इस्तेमाल कभी नहीं किया। इनके प्रवचनों,तकरीरों, में अगले जनम में स्वर्ग तथा जन्नत में प्रवेश करने तथा वहां मनमाफिक सब कुछ करने का प्रवेश पत्र पाने का तरीका तो बताया जाता है, लेकिन इस संसार में सही और सलीके से रहने के लिए ऐसी सिखावन नहीं दी जाती कि लोग इस संसार को भी जन्नत बना ले।
सदियों से अधिपत्य जमाने का अभ्यस्त धर्म भला औरतों को पुरुष समाज के शोषण से आजाद कैसे होने दे सकता है। धर्म की दिलचस्पी शोषण का चक्रव्यूह तोड़ने में नहीं, बल्कि उसे मजबूत बनाने में है। यह कैसी आजादी हमारी हथेलिओं में रख दी गई है कि जिसने सामाजिक चक्रव्यूह को बदला ही नहीं, आज भी औरतों के गोपन अंगों के साथ जोड़ कर सार्वजनिक रूप से गालियां दी जाती हैं। हर गाली में मां-बहिनों के साथ बलात्कार होता है। समाज बलात्कार को आम घटना मान रहा है। प्रत्येक अपराध का बीज समाज में मौजूद होता है। समाज ही उन परिस्थितियों को जन्म देता है जिनसे अपराध के लिए आदमी को बढ़ावा मिलता है। किसी अनाम कवि ने कहा था- मैं औरत हूं/आकाश मेरी बैसाखियों पर टिका है/ इंद्रधनुष मेरी आंखों का काजल है/ सूरज की परिक्रमा मेरे गर्भ से गुजरती है/ पर अफसोस/मेरी अभिव्यक्ति की बयार अभी आना बाकी है।
इस बयार को लाने के लिए समाज और सरकारें सक्रिय हों। अब सरकारों और समाज को बजरबट्टू का खेल दिखाना बन्द करना चाहिए। जरूरत कागजी कानूनोंे की नहीं है, जरूरत है कानून व्यवस्था और समाज की सोच के सड़ांध को विदा करने की।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09425174450. 

सीता का अंतिम बयान


मैं सीता हूं। वाल्मीकि ने मेरी कहानी नहीं लिखी। मैं किसका बीज हूं,किसकी कोख में पली,कोई नहीं जानता। मेरी दारुण जन्मकथा काव्य इतिहास के पन्ने में इसलिए नहीं है कि वह समाज का आदर्श पृष्ठ नहीं हो सकता। सभी धरती पर जन्म लेते हैं,मैं धरती से पैदा हुई। यह संयोग था कि उसी दिन महाराज जनक के हल जोतने का शुभ मुहुर्त था,जो तदयुगीन राजकीय परम्परा थी और मैं खेत में सद्य: जाता के रूप में मिली और जनक नंदिनी कहलाई। कन्याजन्म नहीं हुआ बल्कि कन्या मिली। किस अशुभ घड़ी में मैं जन्मी,कोई नहीं जानता लेकिन जिसे मैं मिली वे निहाल हो गए। ऐसा भी नहीं कि वे पुत्रियों के लिए कल्पते रहे या उन्हें पुत्री इष्ट यज्ञ करना पड़ा हो। मेरी ही समवयस्क उनकी तीन जायज पुत्रियां थीं। जन्म से अवांछित,अयाचित,मैं नामधारी पिता शीलध्वज जनक के लिए चिंता का कारण बन गई। वे उस समय के सबसे बड़े दार्शनिक राजा थे। जिनको विदेह राज कहा जाता था। ऋषि-महर्षियों के तत्व चिंतन का समाधान मेरे पिता जनक से मिलता था। हो सकता है कि जनक घर में पहली किलकारी मेरी गूंजी हो,एतदर्थ बधाव बजा हो,परंतु रोचन कहां भेजू,यह सोचकर महाराज ने उत्सव न किया हो।
कुछ ही दिनों में उर्मिला,मांडवी,श्रुतिकीर्ति के जन्मते ही मेरा ही जन्मोत्सव हुआ। मैं दीदी थी। मां सुनयना और पिता की सबसे प्यारी पुत्री के रूप में लोक और काव्य ने मुङो ही जाना।
मैं सुन्दर थी,ऐसा लोक ओर काव्य में वर्णित है। विद्वान राजा और पिता ने जाने क्या सोचकर मेरा स्वयंवर रचाया। और विरोधाभास यह कि शर्ते भी तय कर दीं। हैं न विचित्र बात।
स्वयंवर याने अपने मन से वर का चुनाव। शर्त यदि होती तो मेरे तरफ से होनी थी। स्वयंवर का पहला सार्वजनिक प्रयोग मुझ पर किया गया। धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने की शर्त स्वयंवरा की नहीं,पिता की थी। देश-देश के राजा स्वयंवर में आये थे। मैं पार्वती पूजन के लिए पुष्प वाटिका गई थी। वहां मैंने राम को देखा और मन ही मन उन्हें अपना वर मान लिया। यह पूरी तरह मेरे अंतर्मन का भाव था। राम ने मेरे भाव को समझ। धनरुभग हुआ लेकिन पूरी प्रक्रिया तक पिता अपनी प्रतिज्ञा से दुखी रहे,इसीलिए मेरी अन्य बहनों के लिए कोई के लिए कोई स्वयंवर कोई शर्त नहीं रखी। मेरे साथ तीनों बहनें भी भरत,लक्ष्मण और शत्रुघ्न के साथ बिना किसी स्वयंवर परम्परा के साथ ब्याही गईं। माताओं का असीम प्यार ससुराल में पाकर मैं अपने वर्तमान पर खुश थी।
राज-परम्परा के अनुसार महाराज दशरथ ने ज्येष्ठ पुत्र राम का राज्याभिषेक करने की तैयारी की। सारे अयोध्या ने देखा कि विमाता के दो वरदानों से आबद्ध दशरथ ने राम को चौदह बरस का वनवास और भरत को राज्य का उत्तराधिकारी घोषित करने में आत्मबलिदान भी कर दिया। राम को वनवास मिला। उनके न चाहते हुए भी मैं उनके साथ वन गई। साथ में लक्ष्मण भी गए।
राम के हर कष्ट में मैं भागीदार रही। दुख मेरी नियति में था। मैंने दुखों को सहलाया। पूरी अयोध्या का लोकमत राम के साथ था।
लक्ष्मण ने पिता को कामातुर कहा। राजाज्ञा का उल्लंघन करने की सलाह दी। राम ने लोकमत को ठुकराकर राजाज्ञा का पालन किया। वन में भी खुश थी मैं,इसलिए कि राम मेरे साथ हैं।
वाल्मीकि की पूरी कथा के केन्द्र में राम थे। उन्हें महामानव के रूप में प्रतिष्ठापित करने का संकल्प आदिकवि के मन में था,इसीलिए राम अपने जीवन के प्रारंभ से लेकर अंत तक लीला करते हैं। निष्कम्य,निष्करुण,निष्कलुस रहकर वे अपने कुल,राज और स्वधर्म का पालन पूरी निष्ठा से करते रहे। वे निर्लिप्त जीवन जीते रहे। हां! रावण द्वारा अपहरित होने पर मेरे प्रति उनका विलाप संलिप्तता प्रदर्शित करता है।
अशोक वाटिका में हनुमान मेरे लिए जीवन का संदेश लेकर आए। मैं उनके साथ चलने के लिए तैयार थी परंतु हनुमान तो सिर्फ पता लगाने आए थे,साथ में लाने का आज्ञापत्र नहीं था।
मेरा अपहरण राम के पुरुषार्थ के लिए चुनौती था। विवाद की शुरुआत राम ने सूर्पनखा की कान नाक-काट कर दी थी। बहन के अपमान का बदला मेरा अपहरण करके उसने लिया। लेकिन जब भी वह मुङो राजरानी या पत्‍नी बनाने की बात करने आता,हमेशा मंदोदरी को साथ लेकर आता। मंदोदरी के दिल पर तब क्या गुजरती होगी,मैं महसूस करती हूं,क्योंकि मैं एक पत्‍नी हूं।
राम ने रावण का वध किया। मैं ललक रही थी कि राम,सीधे मुङो लेने,देखने, मेरे आंसू पोंछने आएंगे,लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
राम का आदेश था कि मैं सुस्नाता तथा दिव्य वस्त्र धारण करके आऊं। पालकी में नहीं,पैदल चलकर,लज्जा को स्वदेह में विलीन करके,राक्षसों,वानरों,भालुओं के सामने से होकर आऊं। लक्ष्मण,सुग्रीव,हनुमान को भी यह निर्णय अच्छा नहीं लगा। उन लोगों ने अनुमान लगाया कि राम के मन में पत्‍नी के प्रति प्रेम नहीं रह गया। राम ने कहा था- सुनो,तुम्हारे लिए,रावण द्वारा स्पर्श जनित दोष के परिमाजर्न के लिए एवं स्वयं के सम्मान रक्षार्थ रावण का वध किया था। तुम घसीटी जाकर रावण के अंक में थी,उसने तुम्हें कुदृष्टि से देखा था। तुमको ग्रहण करने में हमारे कुल-गौरव का क्या होगा। जनक नंदिनी! तुम्हारे प्रति अब मेरे मन में कोई चाह नहीं है। न्याय करना ही यथेष्ठ नहीं, न्याय दिखना भी चाहिए के अनुसार त्रिलोक वासियों को साक्षी मानकर मेरी परीक्षा ली गई। प्रख्यात वंश की कुलवधु सीता ने अग्नि परीक्षा दी। मैं निष्पाप थी,शायद यह पहली और आखिरी अग्नि परीक्षा किसी पति परायणा पत्‍नी द्वारा दी गई थी।
राम का राज्याभिषेक हुआ। मैं महारानी बनी। कुछ दिन सुख के बीते। मेरे सतीत्व को लेकर लोकापवाद फैला। राम जानते थे कि यह लोकापवाद मिथ्या है परंतु उन्होंने मुङो घर से निकाल दिया। मैं गर्भिणी थी। वाल्मीकि के आश्रम में वनवासियों ने मुङो शरण दी। मेरे पति ने मुङो घर से निकालकर एक झूठ को सच साबित कर दिया। लोकापवाद का सामना करते हुए यदि वे सारी प्रजा के सामने कह देते-सीता निदरेष है,लोकापवाद मिथ्या है और मैं स्वत: सीता के साथ निष्कासित जीवन जिऊंगा। जब मेरा निष्कासन हुआ था,वे मेरे साथ गईं थी,अब मैं उनके साथ जा रहा हूं। लेकिन राम ने ऐसा कुछ नहीं किया। वनवास में मैं अपने पुत्रों के साथ जीती रही। ऋषि,लव-कुश को रामकथा के गीतों का अभ्यास कराते रहे। मेरी अंतिम आस थी,शायद राम को कभी अपनी गलती का अहसास हो और मुङो वापस लेने मनाने आएं। मैं धरती की बेटी थी वही मेरी अंतिम शरण्य है। मां ! मैं आ रही हूं,तुम्हारी गोद में,जैसे तुमने जन्म में मुङो गोद लिया था,अंत में भी उसी तरह अपने में छिपा लो। - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09407041430. लोकायन चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र 

Monday, March 11, 2013

बम शंकर बोलो हरी हरी...

ले सब्रो कानाअत साथ मियां, सब छोड़ यह बातें लोभ भरी.
जो लोभ करे उस लोभी की, नहीं खेती होती जान हरी.
संतोख तवक्कुल हिरनों ने, जब हिर्स की खेती आन चारी.
फिर देख तमाशे कुदरत के, और लूट बहारें हरी भरी.
जब आशा तिश्ना दूर हुई, और आई गत संतोख भरी.
सब चैन हुए आनंद हुए, बम शंकर बोलो हरी हरी.
टुक अपनी किस्मत देख मियां, तू आप बड़ा दातारी है.
पर हिर्सो तमाअ के करने से, अब तेरा नाम भिखारी है.
हर आन मरे है लालच पर हर साअत लोभ अधारी है.
ऐ लालच मारे, लोभ भरे, सब हिर्सो हवा की ख्वारी है.
जब आशा तिश्ना दूर हुई, और आई गत संतोख भरी.
सब चैन हुए आनंद हुए, बम शंकर बोलो हरी हरी.
गर हिर्सो हवा और लालच की, है दौलत तेरे पास धरी.
तू ख़ाक समझ इस दौलत को, क्या सोना रूपा लाल ज़री.
हाथ आया जब संतोख दरब, तब सब दौलत पर धुल पड़ी.
कर ऐश मज़े संतोखी बन, जय बोल मुरलिया वाले की.

जब आशा तिश्ना दूर हुई, और आई गत संतोख भरी.
सब चैन हुए आनंद हुए, बम शंकर बोलो हरी हरी.

अब इस दुनिया में कुछ चीज़ नहीं, इस लोभी के निस्तारे की.
है कीचड़  उस पर लिपट रही, सब हिर्सो हवा के गारे की.
क्या कहिये व की बात "नजीर", उस लूभी लोभ सवांरे की.
सब यारों मिल कर जय बोलो,  इस बात पे नंद  दुलारे की .

जब आशा तिश्ना दूर हुई, और आई गत संतोख भरी.
सब चैन हुए आनंद हुए, बम शंकर बोलो हरी हरी.
-नज़ीर अकबराबादी

Monday, March 4, 2013

ऊंचे कद की बौनी सियासत


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 राजनीतिक दलों में वैचारिक दीवालियापन आता है तो व्यक्तिवादी राजनीति सिर चढ़कर बोलती है। भाजपा के पास कोई मुद्दे नहीं, मंदिर, भ्रष्टाचार और आतंकवाद जैसे मुद्दों पर वह एक कदम आगे बढ़कर ढाई कदम पीछे हटने जैसी स्थिति में है। मोदी वस्तुत: भाजपा के वैचारिक संक्रमण काल की उपज हैं। कॉरपोरेट और मीडिया के एक वर्ग ने उनका ऐसा विराट व्यक्तित्व रच दिया कि भाजपा उन्हीं की छाया में विश्राम पाने लगीं।
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आयरिश चिन्तक एचजी वेल्स विज्ञान की फंतासी कथाओं के लिए प्राख्यात रहे हैं। वे नये-नये यंत्रों की परिकल्पना को कथा का आधार बनाते थे। एक कथा में एक ऐसे यंत्र की परिकल्पना की जो आपके मनोभाव को पढ़कर बता देती है।
सुविधा के लिए आप उसे पोल खोलक यंत्र कह सकते हैं। यदि पोलखोलक यंत्र  आपके हाथ लग जाए और आप भाजपा के शीर्ष नेताओं के पास टेस्ट करने पहुंच जाए तो पता चल जाएगा कि अपने नरेन्द्र भाई मोदी को वाकई कितने लोग चाहते हैं। मंच में जो लोग मोदी का कशीदा काढ़ते नहीं थक रहे हैं, क्या वास्तव में वो मोदी को अपना नेता मानते हैं। आडवाणी, राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, मुरली मनोहर जोशी, नितिन गडकरी से लेकर यशवंत सिन्हा तक सब मोदी के वर्णित कद और व्यक्तित्व से इतने भयाक्रांत हैं कि राष्ट्रीय अधिवेशन में इन सबको नमो-नमो भजना पड़ा।
किसी संस्था का एक व्यक्ति के सामने बौनी हो जाना उस संस्था के पतन की शुरुआत है। भले ही आज कई राज्यों में भाजपा की सरकारें हों और अगली बार फिर चुनकर आ जाए लेकिन एक संस्था के रूप में भाजपा का तेजी से होता क्षरण फिलहाल रुकने वाला नहीं। नरेन्द्र भाई मोदी ने गुजरात में जो व्यक्तिवादी राजनीति का रास्ता दिखाया है उसी के नक्श-ओ- कदम पर मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ भी चल पड़े हैं। कर्नाटक में यदुरप्पा पर निर्भरता का हश्र पार्टी भोग ही रही है। दरअसल राजनीतिक दलों में वैचारिक दीवालियापन आता है तो व्यक्तिवादी राजनीति सिर चढ़कर बोलती है। भाजपा के पास कोई मुद्दे नहीं, मंदिर भ्रष्टाचार और आतंकवाद जैसे मुद्दों पर वह एक कदम आगे बढ़कर ढाई कदम पीछे हटने जैसी स्थिति में है।
पर परमाणु डील के मसले पर अविश्वास प्रस्ताव के दौरान भाजपा सांसदों द्वारा नोटो के प्रदर्शन के बाद लालकृष्ण आडवाणी भ्रष्टाचार के खिलाफ ‘भुज उठाइ प्रण कीन्ह’ के संकल्प के साथ देश में एक नई रथ यात्रा के साथ निकले पर उन्हें कदम-कदम पर अपने ही पार्टी के भ्रष्ट नेताओं व उनकी शिकायतों का पुलिंदा बांचने को मिला। मध्यप्रदेश के सतना आते-आते तो उन्हीं के नजरों के सामने ..कैश फॉर कवरेज.. हुआ। भाजपा की राज्य सरकारों के बड़े घोटाले सामने आए।
कर्नाटक के रेड्डी बंधुओं की निकटता ने लोकसभा में सुषमा स्वराज की धार भोथरी कर दिया। एनडीए सरकार के समय के एनरान घोटाला, विनिवेश घोटाला से लेकर ताजा तरीन हेलीकाप्टर घोटाले से उसके तार जुड़े। अब हम यह कैसे मान लें कि घोटालों ठीहे पर खड़ी कोई पार्टी दूसरी घोटालेबाज पार्टी को पूरे आत्मविश्वास से चुनौती दे सकती है। घोटालों के मामले में कांग्रेस और भाजपा एक-दूसरे की क्लोन या यूं कहें जीराक्स कॉपी हैं। आतंकवाद के मामले में भी भाजपा आक्रामक नहीं हो सकती क्योंकि अक्षरधाम, पार्लियामेन्ट, जेके असेम्बली, समझोता एक्सप्रेस, गोधरा जैसी वारदातें इसी के कार्यकाल में हुईं। इसी पार्टी के नेता जसवंत सिंह थे जो आतंकवादियों को छोड़ने कंधार गए थे। इस सबके बावजूद भी एनडीए सरकार के विराट व्यक्तित्व वाले प्रधानमंत्री के सब्र का बांध नहीं फूटा।
मंदिर के मसले पर भी भाजपा भीषण दुविधा में फंसी है उसे संघ की मंशा को भी साधे रखना है और यूपीए के कथित सेकुलरिस्टों को भी। मोदी वस्तुत: भाजपा के वैचारिक संक्रमण काल की उपज हैं। कॉरपोरेट और मीडिया के एक वर्ग ने उनका ऐसा विराट व्यक्तित्व रच दिया कि भाजपा उन्हीं की छाया में विश्राम पाने लगीं। मोदी को न अपने साथी नेताओं की परवाह है न संघ की। इसलिए यदि वे कहते हैं कि संजय जोशी को संगठन से निर्वासित कर दिया जाय तो इस स्वेच्छाचारिता का विरोध करने का दम न संघ को है और न भाजपा को।
कांग्रेस जैसे विशाल संगठन के पतन की शुरूआत भी लगभग ऐसी ही हुई थी, देवकांत बरुआ ने ..इन्दिरा इज इण्डिया.. का चर्चित नारा दिया था। सन् 72 की प्रचण्ड जीत के बाद अटल जी की ..सिंहवाहिनी, रणचण्डी.. की उपमा वाली इन्दिरा जी ने पार्टी को अपनी छाया में समेट लिया। जगन्नाथ पहाड़िया जैसे मुख्यमंत्री की तस्वीरें तब चप्पल पोछते हुए छपा करती थीं और नारायण दत्त तिवारी सभा में मैडम का चप्पल संभालते नजर आते थे। कांग्रेस के आंतरिक लोकतंत्र का कचूमर इसी दौर में निकला और सन् 75 में देश के नागरिकों के मौलिक अधिकारों को छीनते हुए आपातकाल लागू किया गया। इसके बाद से कांग्रेस व्यक्ति व वंशवादी राजनीति पर चल निकली। तबसे लेकर अब तक उसके नेतृत्व का गलियारा संकरा से संकरा होता जा रहा है। भले ही उसके हाथ से बिहार, उत्तर प्रदेश और दक्षिण के कई राज्य सदा के लिए निकल गए।
व्यक्तिवादी राजनीति के मामले में कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के लिए रोल मॉडल तो है ही भाजपा भी उसी दिशा में बढ़ने का प्रयास कर रही है। मोदी पर निर्भरता का मामला कुछ ऐसा ही है। यद्यपि किसी पार्टी द्वारा प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का पद पहले से ही तय कर देना पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र का गला दबाना तो है ही संविधान की मूलभावना के भी खिलाफ है। संविधान में व्यवस्था यह है कि लोकसभा या विधानसभा में बहुमत वाले दलों के निर्वाचित सदस्य अपना नेता निर्वाचित करें। इस सांविधानिक परम्परा के तिरोहित हुए कई दशक बीत गए। पार्टियों का शीर्ष नेतृत्व तानाशाही के अंदाज में अपने सुविधानुसार व्यक्ति को मुख्यमंत्रियों के पद के लिए विधायकों पर थोपता है।
कांग्रेस में तो एक और शर्मनाक परम्परा का चलन है, संगठन चुनाव में निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा इस्तीफा देकर नेतृत्व के सामने मनोनयन का आग्रह करना। याद होगा कि सीताराम केशरी के बाद जब सोनिया गांधी ने पार्टी का नेतृत्व संभाला और राष्ट्रीय कार्यपरिषद की निर्वाचित प्रतिनिधियों ने सामूहिक रूप से त्यागपत्र दे दिया था। ऐसा करने वालों में एके एन्टनी भी थे और अजरुन सिंह भी। आज शिवराज सिंह मध्यप्रदेश में भाजपा के सर्वमान्य नेता हैं, लेकिन यह सबको मालुम है कि बाबूलाल गौर को हटाकर प्रमोद प्रधान, अरुण जेटली और संजय जोशी की तिकड़ी ने किस तरह प्रदेश की सत्ता में इनकी प्राणप्रतिष्ठा की थी। बहरहाल आज जिस तरह प्रधानमंत्री के पद पर मोदी के नाम की चर्चा है ऐसे ही 2009 में लालकृष्ण आडवाणी की थी। एक शब्द बहुप्रचारित हुआ था ..पीएम इन वेटिंग.. आडवाणी आज वेटिंग सूची से भी नदारद हैं। ..नरेन्द्र भाई मोदी.. पीएम इन वेटिंग के उम्मीदवार हैं। देखिए ये वेटिंग कन्फर्म होती है या आडवाणी जी की तरह अगले चुनाव में सूची से बाहर।
- लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं। सम्पर्क-09425813208.