Tuesday, July 31, 2012

वंशज को राजपाट, कुनबे को किला

जयराम शुक्ल
इन दिनों समूची कांग्रेस राहुल गांधी को लेकर बिछी है और उनसे जिस तरह सत्ता व संगठन की कमान सम्हालने को लेकर अनुनय-विनय कर रही है मानो कि वे राजनीति के ऐसे हातिमताई हों, जिनके पास सभी समस्याओं का हल चुटकियों में है। स्थितियां कमोबेश ऐसे ही बन रही हैं जैसे कि पिछली मर्तबा भाजपाइयों ने लालकृष्ण आडवाणी को "पीएम इन वेटिंग"˜घोषित करके निर्मित कर दी थी। कांग्रेस में वंशवादी राजनीति की विरासत को सम्हालने में "˜टाइमिंग" का बड़ा महत्व रहा है।
इन्दिराजी को सत्ता की बागडोर सौंपने में पण्डित नेहरू को कोई हड़बड़ी नहीं थी। वे उनके प्रधानमंत्रित्व काल या यों कहें कि जीवन काल तक "गूंगी गुड़िया" ही बनी रहीं। लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद घाघ कांग्रेसियों ने "˜गूंगी गुड़िया" को आगे करके राज करने की सोची थी जिसे इन्दिराजी के रणचन्डी रूप ने ध्वस्त कर दिया। इन्दिराजी स्वतंत्रता संग्राम में तपकर राजनीति में आई थीं व राजनीति के सभी पैतरों की मूक साक्षी रहीं। बांग्लादेश उदय और लोकसभा में इन्दिराजी के नेतृत्व में कांग्रेस की ऐतिहासिक जीत के बाद इन्दिराजी के स्वभाव में बदलाव आया और देवकान्त बरुआ सरीखे चाटुकार नेताओं के "˜इन्दिरा इज इन्डिया" का नारा देने के बाद कांग्रेस का आन्तरिक लोकतंत्र 1 सफदरजंग (इन्दिराजी का सरकारी आवास) में कैद हो गया। और भविष्य में कैसे-कैसे चाटुकार लोग सूबों के मुख्यमंत्री बने, नारायणदत्त तिवारी की मिसाल अभी भी दी जाती है जो बतौर मुख्यमंत्री इन्दिरा मैडम की सैंडिल पोंछते हुए अखबारों में छपे थे।
वंशवादी राजनीति को आगे बढ़ाने का सार्वजनिक उद्घोष भी इन्दिरा गांधी ने ही संजय गांधी को आगे बढ़ाकर किया था। सन् 72 से लेकर 77 तक संजय गांधी सत्ता के समानांतर या यों कहें ज्यादा ताकतवर केन्द्र रहे। सन् 80 में वे अचानक कालकवलित न हो जाते तो सत्ता की वंश परंपरा को वही आगे बढ़ाते। राजनीति से निहायत विलग और सर्वथा निरपेक्ष राजीव गांधी दुर्घटनावश राजनीति में आए और इन्दिराजी की मौत से उपजी सहानुभूति की प्रचण्ड लहर पर सवार होकर देश की कमान संभाली। देश की जमीनी वास्तविकताओं से अनभिज्ञ राजीव गांधी अपनी पार्टी के ही शातिर और महत्वाकांक्षी नेताओं के दुश्चक्र में फंसकर बोफोर्स मामले में बदनाम हुए व कालान्तर में सत्ताच्युत भी। यदि राजीव गांधी अपने स्वयं के राजनीतिक पराक्रम की वजह से प्रधानमंत्री बने होते तो वीपी सिंह जैसे लोगों को उसी तरह मसल देते जैसे कि गूंगी गुड़िया इन्दिरा गांधी ने कांग्रेस में मोरारजी भाई देसाई को फेंटे से लगा दिया था।
सोनिया गांधी विदेशी मूल की ही सही पर नेहरू-गांधी खानदान की श्रृंखला में सबसे मजबूत कड़ी साबित हुई हैं। राजीव गांधी की मौत के बाद कांग्रेसियों के अनुग्रह और आग्रह के बाद भी पार्टी की राजनीति से दूर रहीं। इन छ: वर्षो में वे कांग्रेसियों और देश की जनता की नेहरू-गांधी खानदान के प्रति "इन्टेंसिटी" को एक होशियार राजनीतिज्ञ की तरह तजवीजती रहीं। यही वजह है कि 1996 में कांग्रेस की कमान संभालने के बाद से लेकर आज तक पार्टी के भीतर उनके सामने कोई चुनौती पेश करने वाला सिर नहीं उठा सका। जबकि इन्दिराजी 77 के पहले तक और 80 से 84 के बीच भी पार्टी के भीतर इतनी ताकतवर नहीं रहीं जितनी कि सोनिया गांधी आज हैं। यहां तक कि नेहरू को भी पार्टी में चुनौती देने वाले हुआ करते थे।
अब रही बात राहुल गांधी के लांचिंग की। तो यह अपने देश की रीढ़विहीन राजनीतिक पौध और कारपोरेट कम्पनियों में बदल गई पार्टियों की सोच है कि वे माल की गुणवत्ता में जाने की बजाय ब्रान्ड की लोकप्रियता पर ज्यादा विश्वास करती हैं। गुणवत्ता की दृष्टि से राहुल गांधी बिहार और फिर उत्तरप्रदेश के चुनावों में भले ही सुपर फ्लाप हों पर वे कांग्रेस के "ब्रान्ड" और "पोस्टर ब्वाय" हैं, सो जड़ों से कटे और भविष्य से भयभीत कांग्रेस नेताओं को सिर्फ राहुल गांधी ही ऐसे नजर आते हैं जो कांग्रेस को राजनीतिक मंदी की बाजार से उबार सकते हैं। लेकिन यहां फिर "टाइमिंग" फैक्टर है। प्रणब मुखर्जी का राष्ट्रपति बन जाना मात्र ही राहुल गांधी को दूसरे नम्बर पर बैठाने का अवसर प्रदान नहीं करता। कांग्रेस के योजनाकारों में बस यही चिन्तन और मन्थन का विषय है। राहुल गांधी की क्षमता को लेकर पार्टी के भीतर से जो स्वर उभर रहे हैं, वे कोई बेगाने नहीं हैं अपितु सोच-विचार और सोनिया गांधी की सहमति के आधार पर ही हैं। सलमान खुर्शीद जैसे नेताओं के वजूद को 10 जनपथ से ही क्लोरोफिल मिलता है। इन्दिराजी के जमाने में वसंत साठे जैसे नेता हुआ करते थे, जो इन्दिरा गांधी की सहमति से ही उनके खिलाफ वक्तव्य देकर देशव्यापी बहस का विषय बना दिया करते थे।
सलमान खुर्शीद कुछ-कुछ ऐसी ही भूमिका निभाने की कोशिश में हैं। घपलों- घोटालों, पूंजीपरस्त व जनविरोधी नीतियों, कमरतोड़ महंगाई के चलते यूपीए द्वितीय अपने विकर्षण के चरमबिन्दु पर है, ऐसे में राहुल गांधी की लांचिंग कितनी जोखिम भरी है, कम से कम सोनिया गांधी तो यह जानती ही हैं। इसलिए यह मानकर चलिए कि आज की तारीख में राहुल गांधी की क्षमता पर सवाल खड़ा करके उन्हें चुनौती के गरम तवे पर बैठने से जो रोके वही 10 जनपथ का सबसे करीबी है। आम कांग्रेसियों को भी यह उलटवांसी समझ में आनी चाहिए।
लेकिन इन सबके बावजूद जो एक बात चिन्ता का विषय है, वह यह कि क्या हमारे देश के लोकतंत्र की नियति यही है कि उस पर वंशवादी राजनीति की मुस्के कसी जाएं, या वह ऐसी पार्टियों के चलते सांस लें जिनका खुद का आन्तरिक लोकतंत्र दम तोड़ चुका हो। वे कारपोरेट कम्पनी की फर्म में बदल चुकी हों। राहुल की बात छोड़ भी दें तो यूपी में वंशवादी राजनीति की लगाम अखिलेश यादव के हाथों में है। पत्‍नी, पिता, ताऊ, चाचा, मामा, नात-रिश्तेदार मिलकर पार्टी चलाएं। यही बिहार में लालू यादव कर चुके हैं। टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले में जेल की हवा खा चुकीं करुणानिधि की लाडली बेटी कनिमोङि संभव है कि अगली बार तामिलनाडु की सत्ता को बतौर मुख्यमंत्री संभालें। शेख अब्दुल्ला के वंशज फारुख के पुत्र उमर अब्दुल्ला कश्मीर के मुख्यमंत्री इसी योग्यता के चलते बने हैं। शरद पवार अपनी इकलौती लाडली सुप्रिया सुले के लिए महाराष्ट्र में बिसात बिछा रहे हैं। उड़ीसा में नवीन पटनायक, बीजू की बीज परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं। वंशवादी परम्परा की इन स्थितियों के चलते ममता, नीतीश, नरेन्द्र मोदी और शिवराज सिंह जैसे नेताओं की उपस्थिति सकून देने वाली और उम्मीदों का दिया जलाए हुए है।
संसद में वंशवादी राजनीति के बारे में एक अध्ययन बताता है कि वर्ष 2009 में देश के तकरीबन एक तिहाई सांसदों का वंशानुगत कनेक्शन था। 30 साल से कम उम्र के तमाम सांसदों को सीट विरासत में मिली थी। 40 साल के कम उम्र में 66 सांसदों में दो तिहाई से ज्यादा सांसद किसी न किसी राजनीतिक परिवार के सदस्य थे। 35 साल से कम उम्र का हर कांग्रेसी सांसद किसी न किसी वंश परंपरा को आगे बढ़ा रहा है। आज एक ओर जहां अमेरिका और इंग्लैण्ड (राजवंश की परपंरा के होने बावजूद) अपनी लोकतंत्रीय उदात्तता को नित-नया विस्तार दे रहे हैं। लोकतंत्र में आम आदमी की भागीदारी और सर्वग्राहिता (अश्वेत ओबामा के राष्ट्रपति बनने की कथा याद करें) दिनों-दिन बढ़ रही हैं, वहीं दूसरी ओर विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने का दम भरने वाले हम लोकतंत्र को कुनबों और कारपोरेट बनती जा रही पार्टियों के बाड़े की ओर हांक रहे हैं। और अंत में विंध्य के एक चर्चित कवि रामाधार विद्रोही की दो पक्तियां बतौर उपसंहार।
"राजा के हाथ हैं सलाखें/ परजा के पास सिर्फ आंखें/ वंशज को राजपाट/ कुनबे को किला/ कोई भी तंत्र हो यही सिलसिला।

Thursday, July 26, 2012

तुलसी ने रामायण क्यों लिखा

                                                              चिन्तामणि मिश्र
 तुलसी ने रामायण की रचना पराजित समाज के विवेक को स्वालम्बन के सहारे पुनर्जीवित करने के लिए की। तुलसी की रामायण के पात्र साधू-सन्यासी योगी बन कर कदंराओं में तपस्या करने नहीं जाते, वे जीवन के संघर्ष से पलायन करके योग साधना भी नहीं करते, चरित्र निर्माण के लिए वे समाज के भीतर ही अपने दायित्वों का निर्वाह करते हैं।
                              तु लसी के युग का लोक जीवन, सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक अलाव की आंच में भुंज रहा था। प्रशासनिक दृष्टि से मुगल शासन अपने वैभव के चरम पर था, और सामंती ताकतें लोक जीवन की उर्वर धरती को बंजर बनाने पर तुली हुर्इं थी। बार-बार का अकाल और भूख से बिलबिलाती फटेहाल गरीब जनता सामंतों की वैभव-वृद्धि के लिए बेगारी करने के लिए गुलाम थी। आम लोग अपनी परम्परा, अपनी संस्कृति से बलात हकाले जा रहे थे। तुलसी अपने समय की इन स्थितियों को बेहद गहराई से देख रहे थे और इसे अनुभव भी कर रहे थे। सारा देश निराशा,पस्ती और पलायन के चक्रव्यूह में जा फंसा था। तुलसी का समय जन-नायक विहीन समय था। तुलसी आम रचनाकार नहीं थे, अगर होते तो आसानी से यथास्थिति के साथ समझौता करके फतहपुर सीकरी और आगरा में जलालुदीन के जलाल का आनन्द उठाते और नव-रत्नों की बिरादरी में शामिल हो जाते। लेकिन तुलसी ने जो रास्ता चुना वह क्रांन्ति-दृष्टा साहित्यकार ही चुन सकता है। तुलसी ने अपनी लेखनी से जन-क्रांन्ति के लिए कार्यक्रम दिए और सामाजिक तथा सामंती अत्याचारों से बिलबिलाती मनुष्य जाति को अद्भुत  नायक प्रदान किया । तुलसी ने अपने ही समय की विषमताओं और शोषण से निपटने के लिए अनूठे शस्त्र ही नहीं दिए बल्कि इन शस्त्रों को कालजयी बना दिया, अमृत्व से शोधित कर दिया। तुलसी ने रामायण की रचना करके अपने वर्तमान समय के लिए ही नहीं बल्कि भविष्य की जन-पीढ़ी को राम के रूप में  महानायक  सौंपा।   हम तो बस इतना जाने, तुलसीदास के बारे में/ राह बताएं दिया दिखाएं, आंधी में, अंधियारे में/ हमरे दुख में, सुख में  तुलसी  बड़े सहायक हैं/ तुलसी साधू-सन्तों जैसे तुलसी सबके नायक हैं।
तुलसी की रामायण समाज और मनुष्य विरोधी ताकतों पर जम कर हमला करती है। तुलसी ने मनुष्यता को बचाने के लिए रामराज्य की परियोजना देकर शासकों के समक्ष चुनौती प्रस्तुत करते हुए बताया कि प्रजा का कल्याण किस तरह से किया जा सकता है। राम के अयोध्या का सम्राट बनने पर उनका शासन प्रजा के लिए कैसा था, इस पर सदियों से विवाद चल रहा है। इस विवाद को छोड़ कर देखें कि तुलसी की राज्य संचालन को लेकर और शासक का कैसा अपनी जनता के लिए व्यवहार होना चाहिए इसे  तुलसी ने अपनी रामायण में रामराज्य के नाम से जैसा लिखा वह अनूठा ही नहीं है, बल्कि आभास देता है कि तुलसी का राजनैतिक चिन्तन व्यवहारिक और विशाल है। तुलसी के रामराज्य सम्बन्धी विचार प्रगतिवादी,लोकतांत्रिक और जन कल्याणकारी हैं।
     तुलसी के राम अत्यंत व्यापक हैं। कलियुग तुलसी के युग का यथार्थ है और रामराज्य उनका सुखद स्वप्न जो दैहिक, दैविक, भौतिक तापों से रहित है। तुलसी के राम में लोकनायकत्व घुला-मिला है। राम उन सब के हैं, जो किसी प्रकार की विषमता अथवा अभाव से ग्रस्त हैं। वे दीन-बन्धु हैं। दरिद्रता रूपी दशानन को मारने वाले हैं। तुलसी ने वाल्मीक या भवभूति के राम को पुन-स्थापित नहीं किया है। उन्होंने युग-बोध के आलोक में राम की कल्पना की है। किसी भी समाज में कोई रचना पढ़े-लिखे लोगों द्वारा स्वीकृत होती है, अपनाई जाती है। लेकिन तुलसी की रामायण एकमात्र ऐसी पोथी है जिसे सामान्य लोगों ने अपनाया। जिन्हें पढ़ना-लिखना नहीं आता, उन लोगों ने इसे कंठस्थ रखा और जीवन के विविध अवसरों पर शक्ति ग्रहण की।    मेरे कुल के कामों में, तुलसी हाथ बटाने वाला/ ऐसा अच्छा,ऐसा गड़बड़, रस्ता हमें दिखाने वाला/ तुलसी हमरे साथ दरी पर, बैठें और  बतिआएं/ जहां कहीं अटके गाड़ी  तुलसी  हाथ  लगाएं
तुलसी ने राम को आलम्बन बना कर नैतिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और पारिवारिक समाधान खोजा और युगधर्म का प्रवर्तन किया। तुलसी ने देखा कि आमजन भ्रष्टाचार,अन्याय,अधर्म,सामन्तों की बेईमानी से कराह रहा है, तो राम के रूप में एक सम्बल और रामराज्य के रूप में कल्याणकारी शासन की पठौनी सांैपी। तुलसी धर्म-ध्वजा लेकर चलने वाले मात्र साधू नहीं थे, वे खुली नजरों  से समाज की भीतरी दशा को रेखाकिंत करने वाले जागरूक रचनाकार थे। गांधी बार-बार जिस रामराज्य की बात करते हैं, वह तुलसी का ही रामराज्य है। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि गांधी ने तुलसी से प्रेरणा ली। गांधी का आचरण और उनकी वाणी तुलसी तथा उनकी रामायण की रौशनी से आलोकित होते रहे। गांधी ने अपनी पुस्तक हिन्द स्वराज्य में सत्याग्रह के सिद्धांत का विवेचन इस कथन से किया है-कवि तुलसीदास ने कहा है कि दया धरम को मूल है,देह मूल अभिमान, तुलसी दया न छोड़िए,जब लग घट में प्रान। मुझे तो यह वाक्य शास्त्र वचन की तरह लगता है। तुलसी के इन वाक्यों पर मुझे भरोसा है। अपनी इसी पुस्तक में गांधी ने तुलसी की चौपाई- ‘पराधीन सपनेहु सुख नाहीं’ का उल्लेख करते हुए लिखा कि जब तक हमारे देश में अंग्रेज हैं, तब तक हमें चैन नहीं मिल   सकता। फरवरी 1921 में कलकत्ता की एक सभा में गांधी ने कहा था- यदि तुलसीदास की रामायण को गहराई से पढंÞे तो मेरी राय से सहमत होगें कि संसार की आधुनिक भाषाओं के साहित्य में उसके मुकाबले कोई दूसरी किताब नहीं ठहरती। तुलसी और उनकी रामायण ने गांधी को ही नहीं करोड़ों-करोड़ लोगों को निराशा और दुख के क्षणों में जीने की राह बताई।               राम कथा की गंगा लेकर  तुलसी चले भगीरथ जैसे
                  पग-पग पर  उत्सव  मेला,और पग-पग पर तीरथ ऐसे
तुलसी ने रामायण की रचना पराजित समाज के विवेक को स्वालम्बन के सहारे पुनर्जीवित करने के लिए की। तुलसी की रामायण के पात्र साधू-सन्यासी योगी बन कर कदंराओं में तपस्या करने नहीं जाते, वे जीवन के संघर्ष से पलायन करके योग साधना भी नहीं करते, चरित्र निर्माण के लिए वे समाज के भीतर ही अपने दायित्वों का निर्वाह करते हैं। तुलसी ने रामायण के माध्यम से अनेक पारिवारिक एवं सामाजिक आदर्श प्रस्तुत किए । इसका अध्ययन करने वाला किसी भी स्थिति में इस भ्रम में नहीं पड़ सकता कि उसका कर्तव्य क्या है।   राम भरोसे  पर्वत पर  है,  तुलसी  की  फुलवारी/ हम तो  घोड़ा  बेच  कर  सोते, राम करें रखवारी/ तुलसी की क्या करें बड़ाई तुलसी एक न दूसर भाई/ घर-घर  तुलसी बनी रहे और बनी रहे राम दुहाई
                                   - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
                                       सम्पर्क सूत्र - 09425174450.

लौट आओ, ओ प्रवासी मीत मेरे!


! जिनकी दृष्टि में देश नहीं, अपनी सभ्यता और संस्कृति की स्मृति नहीं वे किस बिना पर कह सकेंगे कि हमें भारतीय होने पर गर्व है। उन्हें दायित्व बोध का स्मरण दिलाना होगा कि हमारी मनीषा सुबह के भटके को शाम के लौटने पर भूला हुआ नहीं मानती,उसका तहे दिल से स्वागत करती है। लौट आओ ओ प्रवासी मीत मेरे।

चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र 
जब यूरोप ठंड से सिकुड़ता है तो वहां के ज्यादातर पक्षी प्रवास पर भारत, लम्बी दूरियां तय करते बिना पार-पत्र के चले आते हैं। देश के पक्षी विहार, वन-झील उनके संवादों के कलरव से गुंजित हो उठते हैं। उड़ीसा, गुजरात, राजस्थान, दिल्ली, उत्तरांचल के पक्षी विहार स्थलों की शोभा इन विविध वर्णी मेहमानों के कारण कई गुना बढ़ जाती है। राष्टÑकवि दिनकर ने इन्हें भगवान के डाकिये कहा था, जो एक महादेश से दूसरे महादेश जाते हैं। विश्व बंधुत्व और भाईचारा का संदेश देते ये पक्षी सीमाओं का अतिक्रमण कर मनुष्यों को भी साथ रहने-जीने का संदेश देकर फिर अपने देश वापस चले जाते हैं। घोसले से उड़ा पक्षी अपने चुनगुनों के लिए दाने की तलाश में दिन भर भटकता है। संचय के लिए डलिया नहीं ले जाता, अपने गलफड़ों में दाने भरकर शाम को सीधा पेड़ पर बनाये अपने घोसलें में वापस आता है। बच्चों (चिरई-चुनगुनों) की चहचहाहट घोसलें की दिन भर की शांति को स्वर देती है। बच्चों का मुंह (चोंच) खुल जाता है। मां की दिन भर की भागदौड़, उसकी तपस्या सार्थक हो जाती है। रात में पंछी विश्राम करते हैं वे विश्रांति का अर्थ और परिवार के साथ का सुख मनुष्यों से बेहतर भोगते हैं।
        व्यवसाय के लिए निकले प्राचीन काल के भारतीय अन्य प्रदेशों से कमाकर लाए हुए धन का कुछ हिस्सा बचाकर सार्वजनिक हितों में खर्च करते थे। तालाब खुदवाते थे, बगीचे लगाते थे, अपने लिए नहीं समाज के लिए और देश के लिए। तालाब इतना गहरा खुदवाते थे कि स्रोत पानी से ही तालाब के व्रतबंध और विवाहादि सम्पन्न होते थे। बगीचे का विवाह होता था तभी वृक्ष का फल खाया जाता था। औदार्य और उत्सर्ग का उदाहरण तालाब और वृक्ष से बड़ा कुछ हो ही नही सकता-‘तरुवर फल नहिं खात है, सरबर पियहिन पानि।’ करोड़ों-अरबों कमाने वाले भारतीयों को अपने वे पूर्वज क्यों नहीं याद आते। आज वे विकास का कचरा और चिमनी का धुआं छोड़कर करोड़ों की जान से खेलने वाले हमारे भाई ही हैं, क्या उनकी दृष्टि में पूर्वजों का कोई प्रदेय स्मरणीय नहीं है। समाज इन्हें किस रूप में याद करेगा।
     पक्षी, बसेरे वाले पेड़ नहीं भूलते, घोंसले नहीं भूलते, आंगन तक नहीं भूलते, न पेड़ उन्होंने लगाए न आंगन बनाये परंतु मनुष्य ने अपने लगाए पेड़ काटे, आंगन भूला और जिस पेड़ ने उसको छाया दी, झूला झुलाया, गर्मी सर्दी और वर्षा में राहत दी, उसे क्षण भर में नष्ट करने का अफसोस तक जाहिर नहीं किया। कृतज्ञता बोध का अंत होना मनुष्यता के समाप्त होने की शुरुआत है। प्रकृति को समझने का प्रयास वेदों ने किया। शास्त्र पुराणों ने उससे रिश्ते बनाए, उनसे बातें की, उसके प्रत्येक रूपों को स्वीकारा। उनकी प्रार्थना की, स्तुतियां कहीं। मैदानों से निकलने वाली नदियों को भी गंगा के समान माना। किसी भी नदी के उत्तराविमुख होने को पवित्रतम स्थिति कहा। भंवरसेन(सीधी) में पूर्व की ओर बहती सोन को एकाएक उत्तरमुख बहते देख हिमालय याद आया, गंगा याद आई, हिरण्यवाह का प्रीतिकूट बरबस बाण की कादम्बिरी की याद दिला देता है। नदियों का एकाएक मुड़कर देखना अपने उद्गम को देखना है कि देखो मैं कहां तक आ गई, लेकिन तुमको भूल नहीं पाई, उस विवाहिता कन्या की तरह जो ससुराल जाते हुए मुड़ मुड़कर मायके के घर, पेड़, पौधे, नदी, तालाब देखती आंसुओं के धुंध में डूबी चलती चली जाती है। जड़ों की स्मृति बनी रहे, गर्भनाल संबंध बना रहे, इससे व्यक्ति की हैसियत और निष्ठा का आभास होता है। अपने मूल की पहचान बनी रहे, यह सुखद और पवित्रतम स्थिति है। जो व्यक्ति अपनी जड़ों से कट जाते हैं वे आजीवन उड़ते हुए पत्तों की तरह अस्थिर हो अपनी पहचान खो देते हैं। मारीशस और ट्रिनिनाड-टुबैगो में रहते हुए भी भारतीय प्रवासी अपने पूर्वजों की संस्कृति से आज भी जुड़े हैं। वहां भी उन्होंने एक बिहारी-भोजपुरी भारत बना रखा है। परंतु ऐसे भी कुछ लोग हैं जिन्होंने अपना देश छोड़ा, परिवार छोड़ा। विदेश में अपार सम्पत्ति अर्जित की, उन्हें अपनी मिट्टी का कर्ज अदा करने की कभी याद नहीं आई। जिस मिट्टी ने उन्हें इस लायक बनाया वे उस मातृभूमि को भूल गए। साथी, मित्र परिजन को भूल रोजगारी मां को ही असली मां मान बैठे। हमारे पक्षी शायद ही कभी प्रवासी रहे। उन्हें हर प्रकार का मौसम इस देश में ही मिलता रहा। इतनी ऋतुएं किसी अन्य देश में नहीं होती, इसीलिए मौसम बदलते ही वे सिर्फ स्थान बदलते हैं, दूर देशों में नहीं जाते। कदाचित इसी कारण भारतवासी समुद्र पार विदेश जाने को अच्छा नहीं मानते थे और जाने वाले पर विशेष प्रतिबंध लगाते थे।
    कालांतर में देश के विद्यार्थी, मनीषी, चिंतक, वकील, व्यवसायी, विदेश गये। अपनी विशिष्ट छाप वहां छोड़ी। विवेकानन्द ने विश्व को भाई-बहन मानकर संबोधित किया। भारत के पहले वे अमेरिका, ब्रिटेन में चर्चित हुए। कवीन्द्र रवीन्द्र विश्ववंद्य हुए परंतु अपनी माटी की सुगंध कभी नहीं भूले। नोबेल   का सारा पैसा विश्वभारती को सौंप दिये। भारतीय की देन भारती को समर्पित। अब तो भारत का पैसा विदेशों में जमा करने का चलन है। इन्हें भी भारतीय कहा जाता है, ये भी भारत के नागरिक हैं। भारत का पैसा विदेशी बैंकों में और भारत पर विदेशी बैंकों का कर्ज? विश्व में इसकी शायद ही कहीं मिसाल मिले। अजीब विरोधाभास है, इस प्रवृत्ति और प्रकृति में। किसी की परिकल्पना से देश का गायब हो जाना शुभ संकेत नहीं है।  जननी और जन्मभूमि के प्रति स्मरण का पुण्य भाव क्यों गुम होता जा रहा है। व्यक्तिवादी सोच ने समाज को हाशिये पर ढकेल दिया है। ‘हमारे’ के स्थान पर ‘मेरा’ शब्द क्यों भारी होता जा रहा है? महात्मा गांधी किसी गरीब के बेटे नहीं थे, लेकिन भारत की असली आत्मा को करीब से जाकर देखा। गरीबी देखी भर नहीं उसे महसूस किया और ताउम्र एक धोती में गुजारा किया।
       गांधी के राजघाट में फूल चढ़ाने वालों में क्या कभी गांधी-दर्शन की किंचित अनुभूति हुई। अफ्रीकी अदालतें गांधी की बहसों से बगले झांकती थी। उनकी अफ्रीकी भारतीयों में जबरदस्त धाक थी। वे वहां बस सकते थे। इक्कीस वर्ष की वकालत छोड़कर देश के  लिए आए। उनका विरोध अंग्रेजी व्यवस्था से था। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह उनके अस्त्र थे। एक भी नेता देश भर में अपरिग्रही नहीं दिखता। जिनकी दृष्टि में देश नहीं, अपनी सभ्यता और संस्कृति की स्मृति नहीं वे किस बिना पर कह सकेंगे कि हमें भारतीय होने पर गर्व है। उन्हें दायित्व बोध का स्मरण दिलाना होगा कि हमारी मनीषा सुबह के भटके को शाम के लौटने पर भूला हुआ नहीं मानती,उसका तहे दिल से स्वागत करती है। लौट आओ ओ प्रवासी मीत मेरे।
                                 - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
                                     सम्पर्क सूत्र - 09407041430.

Monday, July 23, 2012


जयराम शुक्ल
एक रिमही कहावत है कि "डार से चूके बांदर और बात से चूके मनई" के लिए सुधार के दुबारा मौके नहीं आते। अपने प्रदेश में कांग्रेस के लिए कुछ ऐसी ही स्थिति है। अव्वल तो संसदीय ज्ञानी चौधरी राकेश सिंह और कल्पना पारुलेकर का कूदकर आसंदी तक (विधानसभाध्यक्ष के बैठने के आसन) तक पहुंचना और सभापति ज्ञान सिंह के साथ झूमाझटकी करना निहायत अनैतिक, असंसदीय और शर्मनाक था लेकिन अब सदस्यता बहाली के लिए विपक्ष जिस तरह गिड़गिड़ाने की मुद्रा में खड़ा दिख रहा है उससे निकट भविष्य में और भी भद्द पिटने वाली है। पता नहीं इन विधायकों और इनके पैरवीकारों में सवा साल के शेष बचे कार्यकाल का मोह क्यों है। कायदे से चाहिए यह था कि कांग्रेस के सभी विधायक अपने इस्तीफे सौंपकर सड़क में आ जाते और शेष बचे सवा साल में भ्रष्टाचार और कानून व्यवस्था को लेकर निर्णायक लड़ाई छेड़ने की रणनीति बनाते, पर एक हफ्ते के भीतर ही जिस तरह एबाउट टर्न लिया उससे यह अन्दाजा लगाया जा सकता है कि कांग्रेस में संघर्ष की धार कुंद हो चुकी है और सड़क पर मोर्चा लेने का माद्दा नहीं बचा।
पिछले कुछ सालों में संसदीय लोकतंत्र के मंदिरों में इससे भी शर्मनाक दृश्य देखने को मिले हैं। मामला चाहे कर्नाटक का सदन के भीतर मोबाइल में ब्लू फिल्म देखने का रहा हो, या फिर जम्मू-कश्मीर की विधानसभा की हाथापाई का। उत्तरप्रदेश की विधानसभा तो अपने विधायकों की खुलेआम नंगई के लिए प्रसिद्ध हो चुकी है। मध्यप्रदेश की विधानसभा का ट्रैक रेकार्ड भी कुछ अच्छा नहीं रहा। यहां भी सदन के भीतर जूते चल चुके हैं (याद करें-पंढ़रीनाथ कृदंत और मेघावाले प्रकरण)। जनता शासनकाल में सुरेश सेठ हाथी लेकर सदन में घुस चुके हैं तो एक बार अच्युतानंद मिश्र (तत्कालीन मऊगंज विधायक) सदन में पहलवानी दिखा चुके हैं।
कल्याणी पाण्डे प्रकरण भी पटवा के मुख्यमंत्रित्व और ब्रजमोहन मिश्र के स्पीकर काल में हो चुके हैं। तब कांग्रेस विपक्ष में थी और अभूतपूर्व हंगामे के साथ पन्द्रहियों पुरानी विधानसभा की लॉबी में सदन की समानांतर कार्रवाइयां चलाईं। सन् 96-97 में नए विधानसभा भवन के नामकरण को लेकर हफ्तों हंगामा चला। इंदिरा गांधी की नाम पट्टिका तोड़कर पांवों से कुचली गई।
इसके बाद नेता प्रतिपक्ष रहे गौरीशंकर शेजवार के नेतृत्व में तत्कालीन विधानसभाध्यक्ष श्रीनिवास तिवारी के केबिन का ऐसा ही घेराव किया गया, जैसा कि इस बार ईश्वरदास रोहाणी का किया गया था। तिवारी जी ने न तो घेराव कर रहे विपक्षी विधायकों की अवहेलना कर कोई सभापति बैठाकर कार्रवाई चलवाने की कोशिश की और न ही ऐसी कोई स्थिति बनने दी कि किसी विधायक को सदस्यता से बर्खाश्त किया जाए। हां यह जरूर हुआ कि कुछ ही दिनों बाद नेता प्रतिपक्ष शेजवार को पद से हटना पड़ा और बाबूलाल गौर नेता प्रतिपक्ष बने। कहने का आशय यह कि विधानसभा में सत्ता व विपक्ष के बीच इससे भी ज्यादा गरमा-गरमी के मौके आए लेकिन बाद में सब कुछ संभल गया।
संसदीय लोकतंत्र में यदि विधानसभा या लोकसभा में निर्वाचित सदस्यों की बातें न सुनी जाए तो ऐसी उत्तेजना स्वाभाविक है चाहे फिर उसे संसदीय परंपरा के अनुकूल मानिए या प्रतिकूल। विपक्ष इस बार धारदार मुद्दों के साथ सदन में हाजिर था। भ्रष्टाचार को लेकर वह पुख्ता प्रमाणों के साथ सरकार को घेरना चाहता था। लेकिन विपक्षी सदस्य इस बार वह संयम नहीं दिखा पाए जो पिछले साल के शीतकालीन सत्र में अविश्वास प्रस्ताव के समय दिखाया था। नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह राहुल ने जिस तथ्यपरक तरीके से अविश्वास प्रस्ताव को बिन्दुवार रखा उससे उनकी नेतृत्व क्षमता के प्रति समूचे प्रदेश में विश्वास पैदा हुआ था। संभवत: सदन में अविश्वास प्रस्ताव का यह उन विरलतम क्षणों में से एक था जब विपक्ष ने बर्हिगमन के बजाय सत्तापक्ष के उत्तर को धैर्यपूर्वक व संजीदगी से सुना। इसके बाद के सत्रों में जो कुछ हुआ या तो वह सुनियोजित या प्रायोजित था या फिर नेता प्रतिपक्ष से भी एक कदम जाने की कोशिशें। पिछली मर्तबे भी कल्पना पारुलेकर (विधायक महिदपुर) का वह कृत्य निंदनीय, अशोभनीय और शर्मनाक था, जब उन्होंने लोकायुक्त जस्टिस पीपी नावलेकर के मुखौटे के साथ टैम्परिंग करके आरएसएस का स्वयंसेवक साबित कर दिया। प्रकारान्तर में मुकदमा दर्ज हुआ, गिरफ्तारी हुई और बजट सत्र के कई मूल्यवान दिन पारुलेकर प्रकरण के नाम पर स्वाहा हो गए। कांग्रेस को यहां भी बगले झांकने पड़े।
राजनीति तो वैसे भी शह और मात का खेल है। जरा भी गुंजाइश मिली तो मात तय है। इस बार विधानसभा निर्बाध चलती तो सत्ता की सरपरस्ती में रचे जाने वाले भ्रष्टाचार के कई अध्यायों का उघड़ना तय था। विपक्ष ने तो विधानसभाध्यक्ष रोहाणी के खिलाफ भी जबरदस्त तैयारी कर रखी थी।
रोहाणी-रज्जाक प्रकरण सदन में गूंजता, इसके अलावा किसानों से जुड़े भी मसले थे, जो भाजपा की किसान महापंचायत के जवाब होते। सरकार तो यह ताके बैठी थी कि विपक्ष उत्तेजनावश जरा भी फिसले तो उसके ऊपर चढ़ बैठे। यही हुआ भी। पुराने अनुभवों व दृष्टान्तों के आधार पर ऐसा नहीं लगता कि बर्खाश्त विधायकों को हाईकोर्ट से कोई राहत मिलेगी। शायद इसीलिए सदस्यता बहाली के लिए विपक्ष का स्वर दिनों-दिन कातर होता जा रहा है। मुख्यमंत्री और बर्खाश्तगी का प्रस्ताव व समर्थन करने वाले मंत्रीद्वय- नरोत्तम मिश्र और कैलाश विजयवर्गीय अब डैमेज कन्ट्रोल में लगे हैं। नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह राहुल ने विधानसभाध्यक्ष को नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत का दृष्टान्त देकर पत्र लिखा है कि बिना दूसरा पक्ष सुने कोई फैसला कर देना न्याय के सिद्धान्त के खिलाफ है। दोनों बर्खाश्त विधायकों ने भी विधानसभाध्यक्ष को पत्र लिखकर अपने असंसदीय आचरण के लिए खेद प्रकट किया है व क्षमा याचना की है। इन सभी स्थितियों के मद्देनजर संभव है कि विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर दोनों बर्खाश्त सदस्य बहाल कर दिए जाएं, लेकिन इसके बाद सवा साल तक कांग्रेस क्या अपने ही किए से उबर पाएगी, जबकि इस बार उसके सामने करो या मरो जैसी स्थिति है। कांग्रेस के पास अब आगे की क्या रणनीति है यह तो उसके क्षत्रप और योजनाकार ही जानें लेकिन मेरी नजर में उसकी स्थिति तपते हुए लाल फौलाद पर बाल्टी भर पानी डाल दिए जाने जैसी है। चुनाव के पहले तक उसकी कुंद धार पर किस तरह पैनापन आएगा यह देखने वाली बात होगी।
(लेखक दैनिक स्टार समाचार के सम्पादक एवं वरिष्ठ साहित्यकार हैं)
jairamshuklarewa@gmail.com

Thursday, July 12, 2012

प्रशंसा लोक का स्वप्निल यथार्थ

 चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
 प्रशंसा प्रिय होना मनुष्य का सहज स्वभाव है, इसीलिए वह प्रशंसा करना और प्रशंसित होना चाहता है। अच्छे कार्यों और गुणों की प्रशंसा साहित्य और लोक में सदैव से होती रही है। प्रशंसा, उत्साहवर्धन कराती है, परंतु कभी-कभी अनावश्यक प्रशंसा से मनुष्य का सिर भी फिर जाता है और वह जितना होता नहीं मान लेता है और वहीं से वह हास्य का पात्र या निन्दा की वस्तु बन जाता है। साहित्य में उदात्तता की प्रधानता ही उसका मूल्य निर्धारित करती है, बशर्ते उसके लोक कल्याण की भावना सन्नहित हो, परंतु पर्याप्त लोक रंजन भी हो। बिना लोकरंजन के वह बोझिल और अग्राह्य हो जाएगा। दर्शन और अध्यात्म की तरह वह चिंतन विशिष्टों का होकर रह जाएगा। सामान्य शिष्ट भी अपशिष्ट होकर रह जाएंगे। इसी कारण द्वैत-अद्वैत की चिंतन परंपरा जनचेतना का विषय कभी नहीं बन सकी। प्रबंधों के लिए भले ही समन्वय आवश्यक हो, लेकिन मुक्तकों में छूट की गुंजाइश है। भय से उपजे भाव ने प्रार्थनाएं कीं, यह श्रुति परंपरा का प्राथमिक आख्यान है। ‘कस्मै देवाय हविषा विद्येम’ के भाव में डर पैदा करने वाले की प्रशंसा से भयमुक्ति की संभावना बता देता है। ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ के अनुसार एक ही हरि की अनंत कथाएं विचारकों और कवियों ने कही है। वाल्मीकि के राम से लेकर भवभूति, तुलसी, केशव, रघुराज सिंह, राम हर्षण, भगवान सिंह के अपने अपने राम हैं। अपने सम्प्रदाय में सभी चर्चित और अप्रतिम  भी। प्रशंसा की अति और कहने के ढंग की विचित्रता को ही अतिशयोक्ति और उक्ति वैचित्रय कहा जाता है। लोक साहित्य में भी इसकी अबाध-परम्परा है।
     हिन्दी साहित्य के आदिकाल से लेकर आधुनिक काल के प्रारंभ तक विरुदावलियों एवं प्रशंसात्मक कविताओं की भरमार है। वीरगाथाओं में नायक की जोड़ का कोई होता ही नहीं था। ‘रासो से लेकर भूषण तक’ की अतिशयोक्तियों का कोई जबाव नहीं। सूफियों की नायिकाओं का क्या कहना-बेणी (जूड़ा) के बाल जब खुलते हैं तब सरग से पाताल तक अंधेरा छा जाता है। ‘ओनई घटा परी जग छांहा’ का काल्पनिक सौंदर्य सचमुच नेत्रों की कोर चौड़ी कर देता है, आश्चर्य भरी मुस्कराहट अधरों पर सहज रूप से आ जाती है। विरह में जल-भरने से कौए और भौंरे काले हो गए, परबर पक गए। गेहंू का हृदय फट गया। तुलसी के राम और सीता का सौंदर्य तो दैवीय है, व्यतिरेक उपमान-रूपक तो कहीं ठहरते नहीं। कल्पना करें-‘नील सरोवर श्याम, अरुण-तरुण-वारिज-नयन’ और ‘नीलावुंज श्यामल कोमलांग’ रूपधारी व्यक्ति आपके सामने आ जाए, उसे देखकर मुगध होंगे कि क्षुब्ध। आजकल बहुरूपिये जब स्वांग बनाकर सड़कों पर दिखते हैं तब कौन सा सौंदर्य बोध उत्पन्न होता है। विरहिणी जब सांस लेती है, छोड़ती है, तो छ: सात हाथ आगे-पीछे होती है ऐसा लगता है कि वह हिंडाले पर बैठी श्वास-प्रश्वास से झूल रही है। कल्पना की इंतिहा तो तब हो जाती है जब ‘चन्द्र के भरम, मोद होत है कमोदिन को, ससि शंक, पंकजिनी फूल न सकति है’ ऐसी स्थिति शिशिर के सूर्य की, ‘सेनापति’ की कविता में होती है।  समूचा रीतिकाल, कुछ अपवादों को छोड़कर इसी ऊहा, अजूबा और अति से भरा हुआ है।
    लोक काव्य की कल्पनाएं भी उत्कृष्ट साहित्य से कम प्रभावित नहीं  हुई। कहावतों लोकोक्तियों में जहां समाज का यथार्थ है, वहीं उनके कूटों, पहेलियों और बुझौवल में कल्पना की ऊंची उड़ान भी है। ‘सरग नसेनी’, ‘धूसर की रसरी’, और ‘आकाश में धोती का सूखना’ कल्पना शक्ति की व्यंजना है। कबीर, तुलसी, सूर, इसीलिए बड़े कवि हो सके कि उनके काव्यों में लोक तत्वों की भरमार है। उपर्युक्त सौंदर्य वर्णनों में कम-अधिक की विवेचना अपनी पसंद पर निर्भर है। सीता का सौंदर्य तुलसी की आंखों का सौंदर्य है। सीता शब्द से सौंदर्य का कोई बोध नहीं होता, लेकिन ‘मन्द-उदरी’(मन्दोदरी) शब्द तो सौंदर्य का प्रतिमान है। जायसी के नायिका की कमर बर्र(ततैया) के मध्य भाग की तरह है।  परंतु मंदोदरी के सौंदर्य, विवेक और रावण से अविच्छिन्न प्रेम की मिसाल सिर्फ महसूस की जा सकती है,। कवियों के पहुंच से भी बाहर रहा आया उसका एकनिष्ठ प्रेम। कोमल से कोमलांगी शब्द बना है। सुकुमारियां कोमलकाय होती हैं, चिकनी-तनु, नाजुक, तन्वी, तन्वंगी, नाजनीन, मृदुल, लोचदार, सौम्य, सुकुमार भी होती हंै।
     बीते दिनों गांव गया था। हमारे क्षेत्र के योग्यतम शिक्षक, गुरु, रिश्ते में मेरे बाबा अब स्वर्गीय के शिक्षक पुत्र ने उनके संकलित किए अतिरंजित सात अजूबे दिखाए। लोक में सुकुमारितास की आश्चर्यजनक पहेली है। मन ने इन्हें पढ़कर महसूस किया कि तेरे जैसा कहीं, कोई, देखा, न सुना। इन्हें पाठकों के साथ शेयर (बांटना) करना चाहता है। पाठक भी सबसे सुकुमार नायिका खोजें- देखें कौन हातिमताई, ख्वाजा नसरुद्दीन, तेनालीराम या बीरबल बनकर सर्वोत्तम हल निकालता है। एक ने कहा- एक दिन भात के मांड को कपड़े से छानकर पीने वाली सुकुमारी का वर्ष भर पेट दर्द करता रहा। वह पंडितों से पूछती है कि वर्ष भर अन्न खाने वाले कैसे जीते होंगे- कपड़ा क छाना मैं पियौं मांड़, बरिस दिना मोर पेट पिरान। ऐ पंडित! मैं पूछौं तोंसे अन्न खाय नर जीवैं कैसे। दूसरी बोली-‘मकड़ी के जाल के पहिरेंउ चीर, छिल्ल गइ मोर सगल शरीर/ ए पंडित! मैं पूछौं तोंसे, वस्त्र पहिन नर जीवैं कैसे।’ मकड़ी के जाले का   वस्त्र पहनने से शरीर छिलने वाली सुकुमारी इस बात से चिंतित है कि वस्त्र पहनने वाले कैसे जीते होेंगे। तीसरी कहां कम थी- ‘दही जमायों मैं बड़मोर, दही क फांस गड़ा मोर पोर। ए पंडित मैं पूछौं तोसे, दही खाय नर जीवैं कैसे?’ चौथी बोल पड़ी- म्यांना चढ़ि चल्यौं नहाइ, बरिस दिन मोर कूल पिरान। ए पंडित मैं पूछौं तोंसे, रह चलुआ नर जीवैं कैसे। पांचवीं ने कहा-‘एक खोंखइले से उड़ी पांखी, ओका उड़त देखि मोर आंखि/ वोंहि पांखी क लाग बतास, उड़ि गयो मैं कोस पचास।’ छठी हंसकर बोली-‘एक परोसिन कूटिस धान, ओकर शब्द परा मोरे कान/ओ बटखरा ऐसा छरा, हमरे हाथ म छाला परा।’ सातवीं कहां कमजोर थी बोली-‘पान क पत्ता खायन, बरिस दिन मोर डाढ़ पिरान। ए पंडित ! मैं पूछौं तोसें, बीड़ा खाय नर जीवै कैसे ।  लोकायन में इसका उत्तर अपेक्षित है कि इन सात सुकुमारियों में सबसे नाजुक-नाजनीन कौन है? एक से बढ़कर एक सुकुमारिता सुनकर दांतों तले अंगुली स्वयंमेव दब जाती है इनके पांव जमीन में पड़ते ही मैले हो जाने की संभावना है।
                                  - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
                                          सम्पर्क सूत्र - 09407041430.

धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा


      चिन्तामणि मिश्र
 राष्टÑपति चुनाव के प्रसंग में जदयू और भाजपा के मध्य शीतयुद्ध चल रहा है। इस मुंह-चिथाई में राष्टÑपति उम्मीदवार के चयन का मामला पीछे खिसक कर गुजरात के मुख्य मंत्री मोदी पर धर्मनिरपेक्षता की चादंमारी की जा रही है। इस झड़प के पीछे सन 2014 में होने जा रहे लोकसभा चुनाव में राजद गठबंधन की ओर से प्रधानमंत्री की कुर्सी है। भाजपा इस गठबंधन में बड़ी पार्टी है अस्तु उसका प्रधानमंत्री की कुर्सी पर दावा स्वाभाविक है। जदयू अपनी हैसियत को ध्यान में रखते हुए भाजपा के दावे का सीधी तौर पर विरोध नहीं कर सकती, किन्तु कूटनीतिक रास्ते से भाजपा के भीतर सुनामी लाने में जुटी है।  हालात ऐसे बनते जा रहे हैं कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद की दौड़ में भाजपा उतारने के लिए विवश है। संघ भी मोदी के लिए राजी है। मोदी का विरोध बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने करना शुरू कर दिया है और श्रद यादव भी भड़के हैं। मोदी पर इनका खुला आरोप है कि वे हिन्दुत्व के पक्षधर हैं, धर्मनिरपेक्षता के लिए मोदी का समर्थन नहीं किया जा सकता है। हमारे देश में धर्मनिपेक्षता ऐसा शब्द है, जिसको हर राजनैतिक दल एटीएम कार्ड की तरह हर जगह इस्तेमाल करता रहता है। असलियत तो यही है कि धर्मर्निपेक्षता एक मिथक है। सन् 1976 में संविधान के 42 वें संशोधन में भारत को प्रभुत्वसम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाया गया था। इस पंथनिरपेक्ष को स्वार्थवश धर्मनिरपेक्ष बना लिया गया, जाकि पंथ और धर्म में बहुत फर्क है। पंथनिरपेक्ष के लिए संविधान में ‘सेक्यूलर’ शब्द का प्रयोग किया गया है। शब्दकोष में ‘सेक्यूलर’ शब्द का अर्थ- अनन्त, उदासीन, प्रपंची, अधार्मिक, लौकिक आदि लिखा है। इस तरह भारत सेक्यूलर राष्टÑ है और देश तथा सरकार का कोई घोषित धर्म नहीं है। सरकार को सभी धर्मों के प्रति तटस्थ और उदासीन रहना चाहिए।
     लेकिन सरकार तो स्वंय हर धार्मिक आयोजनों में अपनी टांग अड़ाती रहती है। कौन धार्मिक जुलूस किस रास्ते से जाएगा, त्यौहारों पर कौन देवी-देवता या ताजिया किस स्थान पर स्थापित किया जाएगा। इसका फैसला सरकार करती है। हमारे राष्टÑपति, प्रधानमंत्री और अन्य मंत्रीगण कभी किसी मंदिर में पूजा अर्चना करते दिखाई देते हैं तो कभी किसी मजार, दरगाह में चादर चढ़ाने जा पहुंचते हैं, कभी गुरुद्वारों में मत्था टेकने और सरोपा ग्रहण करने हाजिरी लगाते हैं। बौद्धों, जैनियों, ईसाइयों, पारसियों के धार्मिक आयोजनों में उन्हीं की तरह वे पोशाक, पगड़ियां धारण करने पहुंच जाते हैं।
   बिहार सहित हर प्रदेश में किसी  भी सरकारी पैसों से बनने वाले बांध, पुल, सड़क,भवन आदि का भूमि-पूजन हिन्दू विधि-विधान से पंडित द्वारा कराया जाता है, इसमें यजमान मुख्यमंत्री होते हैं। कांग्रेस अध्यक्ष ने अभी कुछ सप्ताह पहले अजमेर की दरगाह में केन्द्र सरकार के ही एक मंत्री के माध्यम से चादर चढ़ाई है। कशमीर के राज्यपाल अमरनाथ के शिवलिंग के दर्शन करने पहले दिन पहुंच गए और विधि विधान से गुफा में पूजा अर्चना की। हर साल केन्द्र सरकार के मंत्री और कई अधिकारी सरकार के पैसे से हज करने जाते हैं। इसके बचाव के लिए यह सफाई कोई मायने नहीं रखती कि हाजिओं की देखभाल के लिए जाते हैं। अगर सरकार में बैठकर धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देनी है तो सरकारी पैसों से सरकार चलाने वालों को सार्वजनिक रूप से किसी भी धार्मिक कर्मकांड से दूर रहना होगा।
          असल में  हमारे देश में राजनीतिक दल और नेता विचारधारा पर  नहीं टिके हैं। हर दल अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग नजरिया अपना लेते हैं। राजनीति बहुत अविश्वसनीय हो चुकी है। नरेन्द्र मोदी के पहले लालकृष्ण आडवाणी हिन्दुत्ववादी नेता के रूप में स्थापित थे, राष्टÑीय जनतांत्रिक गठबंधन के कई घटक दलों ने उनके नेतृत्व को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था। भाजपा के अटल विहारी वाजपेयी को उदार बताते हुए नीतीश कुमार और रामविलास पासवान जैसे स्व-घोषित धर्मनिरपेक्षता के झंडाबरदार लोग वाजपेयी मंत्री मंडल में शामिल हो गए थे। नीतीश कुमार पूरे समय राजग सरकार में मंत्री रहे और  बिहार में भाजपा के साथ मिल कर सरकार चला रहे हैं।  गुजरात में हुए नरसहांर के समय उन्होंने नरेन्द्र मोदी की सांम्प्रदयिकता को मुद्दा क्यों नहीं बनाया, मोदी की सरकार के खिलाफ कार्यवाही की मांग क्यों नहीं की?
     पिछले दो दशक की राजनीति में धर्मनिरपेक्षता  के मूल्य को जो लगातार ठोकरे खानी पड़ रही हैं, उसके लिए अकेले सांप्रदायिक ताकतों को दोषी नहीं कहा जा सकता है। धर्मनिरपेक्ष ताकतें ज्यादा दोषी हैं, क्योंकि वे धर्मनिरपेक्षता की दावेदार बन कर अवमूल्यन करती हैं। असल में राजनीति में जो दिखता है वह होता नहीं है। आरएसएस की कूटनीति को नीतीश कुमार समझ नहीं पाए हैं। संघ अपने हाथ में दो लड्डू रखे है। दांव चल गया तो मोदी को प्रधानमंत्री बना देगें और काम नहीं बना तो आडवाणी को प्रधानमंत्री बनने के लिए रास्ता साफ हो जाएगा। जैसे आडवाणी के सामने पहिले अटल विहारी वाजपेयी उदार हुआ करते थे, अब नरेन्द्र मोदी के मुकाबिले आडवाणी उदार बन जाएंगे। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि आम जनता में नरेन्द्र मोदी की छवि कुशल प्रशासक और   विकास-पुरुष की हैं। ऐसा सोचने वालों का बहुत बड़ा प्रतिशत है जो देश के बिगड़े हालातों में मोदी मेेंं अपना और देश का  तारणहार देख रहा है। हकीकत तो यह है कि देश के  पंूजीपतियों की मनमोहन स्ािंह के बाद पहली पसंद नरेन्द्र मोदी हैं। मोदी समय-समय पर हिन्दुत्ववादी हुंकार भर जरूर लेते हैं, किन्तु उन्हें सब से ज्यादा भरोसा पूंजीपतियों का है।
  असल में संसदीय राजनीति में उचित और अनुचित होने का कोई पैमाना बचा ही नहीं है। सत्ता के लिए सांठ-गांठ ही सा कुछ है। तमाम तरह के मतभेदों के बाद भी गठबंधन चलते ही हैं क्योंकि किसी में भी गठबंधन से बाहर जाने का साहस ही नहीं है। वैसे भी इन गठबंधनों का विचारात्मक आधार नहीं है। सत्ता के लिए समीकरण का नाम गठबंधन है। कौन धर्मनिरपेक्ष है और कौन साम्प्रदायिक है, इसका कोई महत्व नहीं है। धर्मनिरपेक्षता को सीढ़ी बना कर सत्ता के शिखर पर जाने का धतकरम है कि जो नहीं है उसकी गावं-गुहार करते रहो।    
                                        - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
                                             सम्पर्क सूत्र - 09425174450.

सलीब पर विपक्ष की विश्वसनीयता

 हाल ही में कानून और व्यवस्था तथा भ्रष्टाचार को लेकर राष्टÑीय एजेन्सियों ने अधिकृत आंकड़े प्रसारित किए थे। नेशनल क्राइम रेकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के विश्लेषण के आधार पर टाइम्स आॅफ इण्डिया ने मध्यप्रदेश को ‘रेप कैपिटल’ घोषित कर दिया। वह इसलिए क्योंकि पूरे देश में महिलाओं के साथ दुष्कर्म में यह प्रदेश अव्वल रहा। बालिका भू्रण की सबसे ज्यादा हत्याएं भी लाड़ली लक्ष्मी के प्रदेश के नाम पर ही दर्ज हैं। अपराधिक घटनाओं के मामले में केरल के बाद प्रदेश का दूसरा नम्बर है। लड़कियों के साथ छेड़खानी के मामले में राजधानी भोपाल देश का सबसे तेजी से उभरता हुआ महानगर है। यानी कि आंकड़ों की मानें तो ‘जननी और लाड़ली’ पर सबसे ज्यादा खतरे यही हैं। देश में दूसरे नम्बर पर दर्ज अपराधिक घटनाएं, लॉ-एण्ड आर्डर तथा आम आदमी को हिफाजत की असली तस्वीर बयान करती है।  भ्रष्टाचार के मामले में अपने प्रदेश का ट्रैक रेकार्ड आंखें खोल देने वाला है। केन्द्र व राज्य की एजेन्सियों ने पिछले 18 महीनों में 2080 करोड़ रुपये के घोटाले पकड़े। इन्दौर में परिवहन विभाग के एक तृतीय श्रेणी कर्मचारी ने यहां 300 करोड़ की सम्पत्ति छापे में मिली, तो एक साल पहले जोशी दम्पत्ति के आवास से आयकर के दस्ते ने तो 3 करोड़ रुपये नगद बरामद किए। सत्ता के गलियारों के दो दमदार खिलाड़ी दिलीप सूर्यवंशी और सुधीर शर्मा के यहां ईडी और आयकर विभाग इनकी परिसम्पत्तियों का आंकलन कर रहा है। राजनीतिक व प्रशासनिक हवाले में इन दोनों धनकुबेरों के कारोबार में सत्ताधारी दल के मंत्री, नेताओं की भागीदारी की बातें उठ रही हैं।
हाल ही के नगरी निकाय के चुनाव, प्रदेश में लॉ एण्ड आर्डर तथा भ्रष्टाचार की इसी पृष्ठिभूमि में हुए और भाजपा को भारी विजय मिली। भाजपा को सबसे शानदार जीत कांग्रेस के क्षत्रपों के ही इलाके में मिली। कमलनाथ, दिग्विजय, सुभाष यादव सभी इलाकों में भाजपा का परचम लहराया। कई सीटों पर तो कांगे्रस मुकाबले पर ही नही रही। कुछेक सीटें जो कांग्रेस के खाते में आर्इं, वे प्रमुख विपक्षी दल को इज्जत बचाने की दिशा में महज तिनके का सहारा है। इससे पहले महेश्वर में विधानसभा उप चुनाव में कांग्रेस को 32 हजार से ज्यादा मतों से ऐतिहासिक हार हुई। राजनीति में ऐसी मान्यता रही है कि जनता दो साल बाद से ही सत्ताधारी दल से उकताने लगती है और तीसरे साल के बाद से वह अपना गुस्सा किसी ने किसी बहाने व्यक्त करने लगती है। पर अपने प्रदेश में ऐसा नहीं हुआ। अब तक जितने भी उपचुनाव हुए लगभग सभी भाजपा के खाते में गए। चुनावी साल के पहले के छोटे-बड़े चुनाव परिणामों को यदि एन्टी इन काम्बेन्सी का राडार माना जाए तो इस राडार के यही संकेत हैं कि तीसरी बार भी शिवराज और उनकी भाजपा...।   प्रदेश में राजनीति की ऐसी स्थिति एक उलझी हुई गुत्थी है जिससे साफ-साफ जवाब मिलना आसान नहीं। फिर भी जनता की नब्ज टटोले और उसके मूड को भांपने का यत्न करें तो पता चलेगा कि वह इन स्थितियों को झेलने के बावजूद भी विपक्ष (कांग्रेस) पर इतना भरोसा नहीं कर पा रही है कि वह भाजपा का विकल्प बने। उसके स्मृति पटल पर दिग्विजय काल पत्थर पर लकीर की तरह अंकित है और सामने बिजली, सड़क, पानी के दृश्यों की झांकी रह-रहकर उभर आती है। नौ साल से सत्ता से च्युत होने के बाद भी कांग्रेस के क्षत्रपों में सत्ता की ठसक वैसी ही है, क्योंकि ये क्षत्रप अभी भी केन्द्र की सत्ता से जुड़े हैं इसलिए विपक्ष धर्म से इसका कभी कोई सीधा वास्ता नही रहा। प्रदेश नेतृत्व में जिस तरह पचौरी के बाद भूरिया थोपे गए, उससे कांगे्रस के जमीनी कार्यकर्ताओं को निराशा ही लगी। गुटों में बंटी कांग्रेस के नेताओं को इस बात से ज्यादा वास्ता है कि अपना भले ही न बना हो दूसरे का कितना बिगड़ा।  इसके उलट चुनाव नजदीक आने के साथ ही भाजपा ज्यादा एग्रोसिव दिखती है। बड़बोले प्रभात झा की जुबान विपक्षी नेताओं को नश्तर सी चुभकर परेशान करती रहती है तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की शालीनता व सर्वग्राहिता फौरीतौर पर मरहम बन जाती है।  कुल मिलाकर अपराध और कानून व्यवस्था को लेकर नेशनल क्राइम रेकार्ड ब्यूरो के आंकड़े और भीषण भ्रष्टाचार की इबारतें क्या असर डाल पाएंगी, जब प्रदेश की  जनता विपक्ष को ही विश्वसनीय नहंी मान पा रही है। या यूं कहें कि विपक्ष जनता के अन्तस और मर्म को नहीं समझ पा रहा है और न ही उस दिशा में कोई सार्थक   कोशिश कर रहा है।