Thursday, July 26, 2012

तुलसी ने रामायण क्यों लिखा

                                                              चिन्तामणि मिश्र
 तुलसी ने रामायण की रचना पराजित समाज के विवेक को स्वालम्बन के सहारे पुनर्जीवित करने के लिए की। तुलसी की रामायण के पात्र साधू-सन्यासी योगी बन कर कदंराओं में तपस्या करने नहीं जाते, वे जीवन के संघर्ष से पलायन करके योग साधना भी नहीं करते, चरित्र निर्माण के लिए वे समाज के भीतर ही अपने दायित्वों का निर्वाह करते हैं।
                              तु लसी के युग का लोक जीवन, सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक अलाव की आंच में भुंज रहा था। प्रशासनिक दृष्टि से मुगल शासन अपने वैभव के चरम पर था, और सामंती ताकतें लोक जीवन की उर्वर धरती को बंजर बनाने पर तुली हुर्इं थी। बार-बार का अकाल और भूख से बिलबिलाती फटेहाल गरीब जनता सामंतों की वैभव-वृद्धि के लिए बेगारी करने के लिए गुलाम थी। आम लोग अपनी परम्परा, अपनी संस्कृति से बलात हकाले जा रहे थे। तुलसी अपने समय की इन स्थितियों को बेहद गहराई से देख रहे थे और इसे अनुभव भी कर रहे थे। सारा देश निराशा,पस्ती और पलायन के चक्रव्यूह में जा फंसा था। तुलसी का समय जन-नायक विहीन समय था। तुलसी आम रचनाकार नहीं थे, अगर होते तो आसानी से यथास्थिति के साथ समझौता करके फतहपुर सीकरी और आगरा में जलालुदीन के जलाल का आनन्द उठाते और नव-रत्नों की बिरादरी में शामिल हो जाते। लेकिन तुलसी ने जो रास्ता चुना वह क्रांन्ति-दृष्टा साहित्यकार ही चुन सकता है। तुलसी ने अपनी लेखनी से जन-क्रांन्ति के लिए कार्यक्रम दिए और सामाजिक तथा सामंती अत्याचारों से बिलबिलाती मनुष्य जाति को अद्भुत  नायक प्रदान किया । तुलसी ने अपने ही समय की विषमताओं और शोषण से निपटने के लिए अनूठे शस्त्र ही नहीं दिए बल्कि इन शस्त्रों को कालजयी बना दिया, अमृत्व से शोधित कर दिया। तुलसी ने रामायण की रचना करके अपने वर्तमान समय के लिए ही नहीं बल्कि भविष्य की जन-पीढ़ी को राम के रूप में  महानायक  सौंपा।   हम तो बस इतना जाने, तुलसीदास के बारे में/ राह बताएं दिया दिखाएं, आंधी में, अंधियारे में/ हमरे दुख में, सुख में  तुलसी  बड़े सहायक हैं/ तुलसी साधू-सन्तों जैसे तुलसी सबके नायक हैं।
तुलसी की रामायण समाज और मनुष्य विरोधी ताकतों पर जम कर हमला करती है। तुलसी ने मनुष्यता को बचाने के लिए रामराज्य की परियोजना देकर शासकों के समक्ष चुनौती प्रस्तुत करते हुए बताया कि प्रजा का कल्याण किस तरह से किया जा सकता है। राम के अयोध्या का सम्राट बनने पर उनका शासन प्रजा के लिए कैसा था, इस पर सदियों से विवाद चल रहा है। इस विवाद को छोड़ कर देखें कि तुलसी की राज्य संचालन को लेकर और शासक का कैसा अपनी जनता के लिए व्यवहार होना चाहिए इसे  तुलसी ने अपनी रामायण में रामराज्य के नाम से जैसा लिखा वह अनूठा ही नहीं है, बल्कि आभास देता है कि तुलसी का राजनैतिक चिन्तन व्यवहारिक और विशाल है। तुलसी के रामराज्य सम्बन्धी विचार प्रगतिवादी,लोकतांत्रिक और जन कल्याणकारी हैं।
     तुलसी के राम अत्यंत व्यापक हैं। कलियुग तुलसी के युग का यथार्थ है और रामराज्य उनका सुखद स्वप्न जो दैहिक, दैविक, भौतिक तापों से रहित है। तुलसी के राम में लोकनायकत्व घुला-मिला है। राम उन सब के हैं, जो किसी प्रकार की विषमता अथवा अभाव से ग्रस्त हैं। वे दीन-बन्धु हैं। दरिद्रता रूपी दशानन को मारने वाले हैं। तुलसी ने वाल्मीक या भवभूति के राम को पुन-स्थापित नहीं किया है। उन्होंने युग-बोध के आलोक में राम की कल्पना की है। किसी भी समाज में कोई रचना पढ़े-लिखे लोगों द्वारा स्वीकृत होती है, अपनाई जाती है। लेकिन तुलसी की रामायण एकमात्र ऐसी पोथी है जिसे सामान्य लोगों ने अपनाया। जिन्हें पढ़ना-लिखना नहीं आता, उन लोगों ने इसे कंठस्थ रखा और जीवन के विविध अवसरों पर शक्ति ग्रहण की।    मेरे कुल के कामों में, तुलसी हाथ बटाने वाला/ ऐसा अच्छा,ऐसा गड़बड़, रस्ता हमें दिखाने वाला/ तुलसी हमरे साथ दरी पर, बैठें और  बतिआएं/ जहां कहीं अटके गाड़ी  तुलसी  हाथ  लगाएं
तुलसी ने राम को आलम्बन बना कर नैतिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और पारिवारिक समाधान खोजा और युगधर्म का प्रवर्तन किया। तुलसी ने देखा कि आमजन भ्रष्टाचार,अन्याय,अधर्म,सामन्तों की बेईमानी से कराह रहा है, तो राम के रूप में एक सम्बल और रामराज्य के रूप में कल्याणकारी शासन की पठौनी सांैपी। तुलसी धर्म-ध्वजा लेकर चलने वाले मात्र साधू नहीं थे, वे खुली नजरों  से समाज की भीतरी दशा को रेखाकिंत करने वाले जागरूक रचनाकार थे। गांधी बार-बार जिस रामराज्य की बात करते हैं, वह तुलसी का ही रामराज्य है। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि गांधी ने तुलसी से प्रेरणा ली। गांधी का आचरण और उनकी वाणी तुलसी तथा उनकी रामायण की रौशनी से आलोकित होते रहे। गांधी ने अपनी पुस्तक हिन्द स्वराज्य में सत्याग्रह के सिद्धांत का विवेचन इस कथन से किया है-कवि तुलसीदास ने कहा है कि दया धरम को मूल है,देह मूल अभिमान, तुलसी दया न छोड़िए,जब लग घट में प्रान। मुझे तो यह वाक्य शास्त्र वचन की तरह लगता है। तुलसी के इन वाक्यों पर मुझे भरोसा है। अपनी इसी पुस्तक में गांधी ने तुलसी की चौपाई- ‘पराधीन सपनेहु सुख नाहीं’ का उल्लेख करते हुए लिखा कि जब तक हमारे देश में अंग्रेज हैं, तब तक हमें चैन नहीं मिल   सकता। फरवरी 1921 में कलकत्ता की एक सभा में गांधी ने कहा था- यदि तुलसीदास की रामायण को गहराई से पढंÞे तो मेरी राय से सहमत होगें कि संसार की आधुनिक भाषाओं के साहित्य में उसके मुकाबले कोई दूसरी किताब नहीं ठहरती। तुलसी और उनकी रामायण ने गांधी को ही नहीं करोड़ों-करोड़ लोगों को निराशा और दुख के क्षणों में जीने की राह बताई।               राम कथा की गंगा लेकर  तुलसी चले भगीरथ जैसे
                  पग-पग पर  उत्सव  मेला,और पग-पग पर तीरथ ऐसे
तुलसी ने रामायण की रचना पराजित समाज के विवेक को स्वालम्बन के सहारे पुनर्जीवित करने के लिए की। तुलसी की रामायण के पात्र साधू-सन्यासी योगी बन कर कदंराओं में तपस्या करने नहीं जाते, वे जीवन के संघर्ष से पलायन करके योग साधना भी नहीं करते, चरित्र निर्माण के लिए वे समाज के भीतर ही अपने दायित्वों का निर्वाह करते हैं। तुलसी ने रामायण के माध्यम से अनेक पारिवारिक एवं सामाजिक आदर्श प्रस्तुत किए । इसका अध्ययन करने वाला किसी भी स्थिति में इस भ्रम में नहीं पड़ सकता कि उसका कर्तव्य क्या है।   राम भरोसे  पर्वत पर  है,  तुलसी  की  फुलवारी/ हम तो  घोड़ा  बेच  कर  सोते, राम करें रखवारी/ तुलसी की क्या करें बड़ाई तुलसी एक न दूसर भाई/ घर-घर  तुलसी बनी रहे और बनी रहे राम दुहाई
                                   - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
                                       सम्पर्क सूत्र - 09425174450.

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