Thursday, July 26, 2012

लौट आओ, ओ प्रवासी मीत मेरे!


! जिनकी दृष्टि में देश नहीं, अपनी सभ्यता और संस्कृति की स्मृति नहीं वे किस बिना पर कह सकेंगे कि हमें भारतीय होने पर गर्व है। उन्हें दायित्व बोध का स्मरण दिलाना होगा कि हमारी मनीषा सुबह के भटके को शाम के लौटने पर भूला हुआ नहीं मानती,उसका तहे दिल से स्वागत करती है। लौट आओ ओ प्रवासी मीत मेरे।

चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र 
जब यूरोप ठंड से सिकुड़ता है तो वहां के ज्यादातर पक्षी प्रवास पर भारत, लम्बी दूरियां तय करते बिना पार-पत्र के चले आते हैं। देश के पक्षी विहार, वन-झील उनके संवादों के कलरव से गुंजित हो उठते हैं। उड़ीसा, गुजरात, राजस्थान, दिल्ली, उत्तरांचल के पक्षी विहार स्थलों की शोभा इन विविध वर्णी मेहमानों के कारण कई गुना बढ़ जाती है। राष्टÑकवि दिनकर ने इन्हें भगवान के डाकिये कहा था, जो एक महादेश से दूसरे महादेश जाते हैं। विश्व बंधुत्व और भाईचारा का संदेश देते ये पक्षी सीमाओं का अतिक्रमण कर मनुष्यों को भी साथ रहने-जीने का संदेश देकर फिर अपने देश वापस चले जाते हैं। घोसले से उड़ा पक्षी अपने चुनगुनों के लिए दाने की तलाश में दिन भर भटकता है। संचय के लिए डलिया नहीं ले जाता, अपने गलफड़ों में दाने भरकर शाम को सीधा पेड़ पर बनाये अपने घोसलें में वापस आता है। बच्चों (चिरई-चुनगुनों) की चहचहाहट घोसलें की दिन भर की शांति को स्वर देती है। बच्चों का मुंह (चोंच) खुल जाता है। मां की दिन भर की भागदौड़, उसकी तपस्या सार्थक हो जाती है। रात में पंछी विश्राम करते हैं वे विश्रांति का अर्थ और परिवार के साथ का सुख मनुष्यों से बेहतर भोगते हैं।
        व्यवसाय के लिए निकले प्राचीन काल के भारतीय अन्य प्रदेशों से कमाकर लाए हुए धन का कुछ हिस्सा बचाकर सार्वजनिक हितों में खर्च करते थे। तालाब खुदवाते थे, बगीचे लगाते थे, अपने लिए नहीं समाज के लिए और देश के लिए। तालाब इतना गहरा खुदवाते थे कि स्रोत पानी से ही तालाब के व्रतबंध और विवाहादि सम्पन्न होते थे। बगीचे का विवाह होता था तभी वृक्ष का फल खाया जाता था। औदार्य और उत्सर्ग का उदाहरण तालाब और वृक्ष से बड़ा कुछ हो ही नही सकता-‘तरुवर फल नहिं खात है, सरबर पियहिन पानि।’ करोड़ों-अरबों कमाने वाले भारतीयों को अपने वे पूर्वज क्यों नहीं याद आते। आज वे विकास का कचरा और चिमनी का धुआं छोड़कर करोड़ों की जान से खेलने वाले हमारे भाई ही हैं, क्या उनकी दृष्टि में पूर्वजों का कोई प्रदेय स्मरणीय नहीं है। समाज इन्हें किस रूप में याद करेगा।
     पक्षी, बसेरे वाले पेड़ नहीं भूलते, घोंसले नहीं भूलते, आंगन तक नहीं भूलते, न पेड़ उन्होंने लगाए न आंगन बनाये परंतु मनुष्य ने अपने लगाए पेड़ काटे, आंगन भूला और जिस पेड़ ने उसको छाया दी, झूला झुलाया, गर्मी सर्दी और वर्षा में राहत दी, उसे क्षण भर में नष्ट करने का अफसोस तक जाहिर नहीं किया। कृतज्ञता बोध का अंत होना मनुष्यता के समाप्त होने की शुरुआत है। प्रकृति को समझने का प्रयास वेदों ने किया। शास्त्र पुराणों ने उससे रिश्ते बनाए, उनसे बातें की, उसके प्रत्येक रूपों को स्वीकारा। उनकी प्रार्थना की, स्तुतियां कहीं। मैदानों से निकलने वाली नदियों को भी गंगा के समान माना। किसी भी नदी के उत्तराविमुख होने को पवित्रतम स्थिति कहा। भंवरसेन(सीधी) में पूर्व की ओर बहती सोन को एकाएक उत्तरमुख बहते देख हिमालय याद आया, गंगा याद आई, हिरण्यवाह का प्रीतिकूट बरबस बाण की कादम्बिरी की याद दिला देता है। नदियों का एकाएक मुड़कर देखना अपने उद्गम को देखना है कि देखो मैं कहां तक आ गई, लेकिन तुमको भूल नहीं पाई, उस विवाहिता कन्या की तरह जो ससुराल जाते हुए मुड़ मुड़कर मायके के घर, पेड़, पौधे, नदी, तालाब देखती आंसुओं के धुंध में डूबी चलती चली जाती है। जड़ों की स्मृति बनी रहे, गर्भनाल संबंध बना रहे, इससे व्यक्ति की हैसियत और निष्ठा का आभास होता है। अपने मूल की पहचान बनी रहे, यह सुखद और पवित्रतम स्थिति है। जो व्यक्ति अपनी जड़ों से कट जाते हैं वे आजीवन उड़ते हुए पत्तों की तरह अस्थिर हो अपनी पहचान खो देते हैं। मारीशस और ट्रिनिनाड-टुबैगो में रहते हुए भी भारतीय प्रवासी अपने पूर्वजों की संस्कृति से आज भी जुड़े हैं। वहां भी उन्होंने एक बिहारी-भोजपुरी भारत बना रखा है। परंतु ऐसे भी कुछ लोग हैं जिन्होंने अपना देश छोड़ा, परिवार छोड़ा। विदेश में अपार सम्पत्ति अर्जित की, उन्हें अपनी मिट्टी का कर्ज अदा करने की कभी याद नहीं आई। जिस मिट्टी ने उन्हें इस लायक बनाया वे उस मातृभूमि को भूल गए। साथी, मित्र परिजन को भूल रोजगारी मां को ही असली मां मान बैठे। हमारे पक्षी शायद ही कभी प्रवासी रहे। उन्हें हर प्रकार का मौसम इस देश में ही मिलता रहा। इतनी ऋतुएं किसी अन्य देश में नहीं होती, इसीलिए मौसम बदलते ही वे सिर्फ स्थान बदलते हैं, दूर देशों में नहीं जाते। कदाचित इसी कारण भारतवासी समुद्र पार विदेश जाने को अच्छा नहीं मानते थे और जाने वाले पर विशेष प्रतिबंध लगाते थे।
    कालांतर में देश के विद्यार्थी, मनीषी, चिंतक, वकील, व्यवसायी, विदेश गये। अपनी विशिष्ट छाप वहां छोड़ी। विवेकानन्द ने विश्व को भाई-बहन मानकर संबोधित किया। भारत के पहले वे अमेरिका, ब्रिटेन में चर्चित हुए। कवीन्द्र रवीन्द्र विश्ववंद्य हुए परंतु अपनी माटी की सुगंध कभी नहीं भूले। नोबेल   का सारा पैसा विश्वभारती को सौंप दिये। भारतीय की देन भारती को समर्पित। अब तो भारत का पैसा विदेशों में जमा करने का चलन है। इन्हें भी भारतीय कहा जाता है, ये भी भारत के नागरिक हैं। भारत का पैसा विदेशी बैंकों में और भारत पर विदेशी बैंकों का कर्ज? विश्व में इसकी शायद ही कहीं मिसाल मिले। अजीब विरोधाभास है, इस प्रवृत्ति और प्रकृति में। किसी की परिकल्पना से देश का गायब हो जाना शुभ संकेत नहीं है।  जननी और जन्मभूमि के प्रति स्मरण का पुण्य भाव क्यों गुम होता जा रहा है। व्यक्तिवादी सोच ने समाज को हाशिये पर ढकेल दिया है। ‘हमारे’ के स्थान पर ‘मेरा’ शब्द क्यों भारी होता जा रहा है? महात्मा गांधी किसी गरीब के बेटे नहीं थे, लेकिन भारत की असली आत्मा को करीब से जाकर देखा। गरीबी देखी भर नहीं उसे महसूस किया और ताउम्र एक धोती में गुजारा किया।
       गांधी के राजघाट में फूल चढ़ाने वालों में क्या कभी गांधी-दर्शन की किंचित अनुभूति हुई। अफ्रीकी अदालतें गांधी की बहसों से बगले झांकती थी। उनकी अफ्रीकी भारतीयों में जबरदस्त धाक थी। वे वहां बस सकते थे। इक्कीस वर्ष की वकालत छोड़कर देश के  लिए आए। उनका विरोध अंग्रेजी व्यवस्था से था। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह उनके अस्त्र थे। एक भी नेता देश भर में अपरिग्रही नहीं दिखता। जिनकी दृष्टि में देश नहीं, अपनी सभ्यता और संस्कृति की स्मृति नहीं वे किस बिना पर कह सकेंगे कि हमें भारतीय होने पर गर्व है। उन्हें दायित्व बोध का स्मरण दिलाना होगा कि हमारी मनीषा सुबह के भटके को शाम के लौटने पर भूला हुआ नहीं मानती,उसका तहे दिल से स्वागत करती है। लौट आओ ओ प्रवासी मीत मेरे।
                                 - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
                                     सम्पर्क सूत्र - 09407041430.

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