Monday, June 24, 2013

उत्तराखंड: बाढ़ के बीच कैसे बचा केदारनाथ मंदिर?

 सोमवार, 24 जून, 2013 को 11:58 IST तक के समाचार
नदियों के फ्लड वे में बने गाँव और नगर बाढ़ में बह गए.
आख़िर उत्तराखंड में इतनी सारी बस्तियाँ, पुल और सड़कें देखते ही देखते क्यों उफनती हुई नदियों और टूटते हुए पहाड़ों के वेग में बह गईं?
जिस क्षेत्र में भूस्खलन और बादल फटने जैसी घटनाएँ होती रही हैं, वहाँ इस बार इतनी भीषण तबाही क्यों हुई?
उत्तराखंड की त्रासद घटनाएँ मूलतः प्राकृतिक थीं. अति-वृष्टि, भूस्खलन और बाढ़ का होना प्राकृतिक है. लेकिन इनसे होने वाला क्लिक करेंजान-माल का नुकसान मानव-निर्मित हैं.
अंधाधुंध निर्माण की अनुमति देने के लिए सरकार ज़िम्मेदार है. वो अपनी आलोचना करने वाले विशेषज्ञों की बात नहीं सुनती. यहाँ तक कि जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के वैज्ञानिकों की भी अच्छी-अच्छी राय पर सरकार अमल नहीं कर रही है.
वैज्ञानिक नज़रिए से समझने की कोशिश करें तो अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इस बार नदियाँ इतनी कुपित क्यों हुईं.
नदी घाटी काफी चौड़ी होती है. बाढ़ग्रस्त नदी के रास्ते को फ्लड वे (वाहिका) कहते हैं. यदि नदी में सौ साल में एक बार भी बाढ़ आई हो तो उसके उस मार्ग को भी फ्लड वे माना जाता है. इस रास्ते में कभी भी बाढ़ आ सकती है.
लेकिन क्लिक करेंइस छूटी हुई ज़मीन पर निर्माण कर दिया जाए तो ख़तरा हमेशा बना रहता है.

नदियों का पथ

नदियों के फ्लड वे में बने गाँव और नगर बाढ़ में बह गए.
केदारनाथ से निकलने वाली मंदाकिनी नदी के दो फ्लड वे हैं. कई दशकों से मंदाकिनी सिर्फ पूर्वी वाहिका में बह रही थी. लोगों को लगा कि अब मंदाकिनी बस एक धारा में बहती रहेगी. जब मंदाकिनी में बाढ़ आई तो वह अपनी पुराने पथ यानी पश्चिमी वाहिका में भी बढ़ी. जिससे उसके रास्ते में बनाए गए सभी निर्माण बह गए.
क्लिक करेंकेदारनाथ मंदिर इस लिए बच गया क्योंकि ये मंदाकिनी की पूर्वी और पश्चिमी पथ के बीच की जगह में बहुत साल पहले ग्लेशियर द्वारा छोड़ी गई एक भारी चट्टान के आगे बना था.
नदी के फ्लड वे के बीच मलबे से बने स्थान को वेदिका या टैरेस कहते हैं. पहाड़ी ढाल से आने वाले नाले मलबा लाते हैं. हजारों साल से ये नाले ऐसा करते रहे हैं.
पुराने गाँव ढालों पर बने होते थे. पहले के किसान वेदिकाओं में घर नहीं बनाते थे. वे इस क्षेत्र पर सिर्फ खेती करते थे. लेकिन अब इस वेदिका क्षेत्र में नगर, गाँव, संस्थान, होटल इत्यादि बना दिए गए हैं.
यदि आप नदी के स्वाभाविक, प्राकृतिक पथ पर निर्माण करेंगे तो नदी के रास्ते में हुए इस अतिक्रमण को हटाने के बाढ़ अपना काम करेगी ही. यदि हम नदी के फ्लड वे के किनारे सड़कें बनाएँगे तो वे बहेंगे ही.

विनाशकारी मॉडल

पहाडं में सड़कें बनाने के ग़लत तरीके विनाश को दावत दे रहे हैं.
मैं इस क्षेत्र में होने वाली सड़कों के नुकसान के बारे में भी बात करना चाहता हूँ.
पर्यटकों के लिए, तीर्थ करने के लिए या फिर इन क्षेत्रों में पहुँचने के लिए सड़कों का जाल बिछाया जा रहा है. ये सड़कें ऐसे क्षेत्र में बनाई जा रही हैं जहां दरारें होने के कारण भू-स्खलन होते रहते हैं.
इंजीनियरों को चाहिए था कि वे ऊपर की तरफ़ से चट्टानों को काटकर सड़कें बनाते. चट्टानें काटकर सड़कें बनाना आसान नहीं होता. यह काफी महँगा भी होता है. भू-स्खलन के मलबे को काटकर सड़कें बनाना आसान और सस्ता होता है. इसलिए तीर्थ स्थानों को जाने वाली सड़कें इन्हीं मलबों पर बनी हैं.
ये मलबे अंदर से पहले से ही कच्चे थे. ये राख, कंकड़-पत्थर, मिट्टी, बालू इत्यादि से बने होते हैं. ये अंदर से ठोस नहीं होते. काटने के कारण ये मलबे और ज्यादा अस्थिर हो गए हैं.
इसके अलावा यह भी दुर्भाग्य की बात है कि इंजीनियरों ने इन सड़कों को बनाते समय बरसात के पानी की निकासी के लिए समुचित उपाय नहीं किया. उन्हें नालियों का जाल बिछाना चाहिए था और जो नालियाँ पहले से बनी हुई हैं उन्हें साफ रखना चाहिए. लेकिन ऐसा नहीं होता.
हिमालय अध्ययन के अपने पैंतालिस साल के अनुभव में मैंने आज तक भू-स्खलन के क्षेत्रों में नालियाँ बनते या पहले के अच्छे इंजीनियरों की बनाई नालियों की सफाई होते नहीं देखा है. नालियों के अभाव में बरसात का पानी धरती के अंदर जाकर मलबों को कमजोर करता है. मलबों के कमजोर होने से बार-बार भू-स्खलन होते रहते हैं.
इन क्षेत्रों में जल निकास के लिए रपट्टा (काज़ वे) या कलवर्ट (छोटे-छोटे छेद) बनाए जाते हैं. मलबे के कारण ये कलवर्ट बंद हो जाते हैं. नाले का पानी निकल नहीं पाता. इंजीनियरों को कलवर्ट की जगह पुल बनने चाहिए जिससे बरसात का पानी अपने मलबे के साथ स्वत्रंता के साथ बह सके.

हिमालयी क्रोध

भू-वैज्ञानिकों के अनुसार नया पर्वत होने के हिमालय अभी भी बढ़ रहा है.
पर्यटकों के कारण दुर्गम इलाकों में होटल इत्यादि बना लिए गए हैं. ये सभी निर्माण समतल भूमि पर बने होते है जो मलबों से बना होती है. नाले से आए मलबे पर मकानों का गिरना तय था.
हिमालय और आल्प्स जैसे बड़े-बड़े पहाड़ भूगर्भीय हलचलों (टैक्टोनिक मूवमेंट) से बनते हैं. हिमालय एक अपेक्षाकृत नया पहाड़ है और ये अभी भी उसकी ऊँचाई बढ़ने की प्रक्रिया में है.
हिमालय अपने वर्तमान वृहद् स्वरूप में करीब दो करोड़ वर्ष पहले बना है. भू-विज्ञान की दृष्टि से किसी पहाड़ के बनने के लिए यह समय बहुत कम है. हिमालय अब भी उभर रहा है, उठ रहा है यानी अब भी वो हरकतें जारी हैं जिनके कारण हिमालय का जन्म हुआ था.
हिमालय के इस क्षेत्र को ग्रेट हिमालयन रेंज या वृहद् हिमालय कहते हैं. संस्कृत में इसे हिमाद्रि कहते हैं यानी सदा हिमाच्छादित रहने वाली पर्वत श्रेणियाँ. इस क्षेत्र में हजारों-लाखों सालों से ऐसी घटनाएँ हो रही हैं. प्राकृतिक आपदाएँ कम या अधिक परिमाण में इस क्षेत्र में आती ही रही हैं.
केदारनाथ, चौखम्बा या बद्रीनाथ, त्रिशूल, नन्दादेवी, पंचचूली इत्यादि श्रेणियाँ इसी वृहद् हिमालय की श्रेणियाँ हैं. इन श्रेणियों के निचले भाग में, करीब-करीब तलहटी में कई लम्बी-लम्बी झुकी हुई दरारें हैं. जिन दरारों का झुकाव 45 डिग्री से कम होता है उन्हें झुकी हुई दरार कहा जाता है.

कमज़ोर चट्टानें

कमजोर चट्टानें बाढ़ में सबसे पहले बहती हैं और भारी नुकसान करती हैं.
वैज्ञानिक इन दरारों को थ्रस्ट कहते हैं. इनमें से सबसे मुख्य दरार को भू-वैज्ञानिक मेन सेंट्रल थ्रस्ट कहते हैं. इन श्रेणियों की तलहटी में इन दरारों के समानांतर और उससे जुड़ी हुई ढेर सारी थ्रस्ट हैं.
इन दरारों में पहले भी कई बार बड़े पैमाने पर हरकतें हुईं थी. धरती सरकी थी, खिसकी थी, फिसली थीं, आगे बढ़ी थी, विस्थापित हुई थी. परिणामस्वरूप इस पट्टी की सारी चट्टानें कटी-फटी, टूटी-फूटी, जीर्ण-शीर्ण, चूर्ण-विचूर्ण हो गईं हैं. दूसरों शब्दों में कहें तो ये चट्टानें बेहद कमजोर हो गई हैं.
इसीलिए बारिश के छोटे-छोटे वार से भी ये चट्टाने टूटने लगती हैं, बहने लगती हैं. और यदि भारी बारिश हो जाए तो बरसात का पानी उसका बहुत सा हिस्सा बहा ले जाता है. कभी-कभी तो यह चट्टानों के आधार को ही बहा ले जाता है.
भारी जल बहाव में इन चट्टानों का बहुत बड़ा अंश धरती के भीतर समा जाता है और धरती के भीतर जाकर भीतरघात करता है. धरती को अंदर से नुकसान पहुँचाता है.
इसके अलावा इन दरारों के हलचल का एक और खास कारण है. भारतीय प्रायद्वीप उत्तर की ओर साढ़े पांच सेंटीमीटर प्रति वर्ष की रफ्तार से सरक रहा है यानी हिमालय को दबा रहा है. धरती द्वारा दबाए जाने पर हिमालय की दरारों और भ्रंशों में हरकतें होना स्वाभाविक है.
(रंगनाथ सिंह से बातचीत पर आधारित)

Saturday, June 22, 2013

सेबक राम मरा कबसे

अलसुबह भैय्याजी को रोने की सामूहिक आवाजों ने नींद से जगा दिया। वे घर के बाहर निकले तो सड़क पर पानी छिछला था। कान सामूहिक विलाप के समवेत स्वरों की ओर थे और आंखें छिछले पानी में कुछ खोज रहीं थीं। अचानक उनकी छठी इन्द्रिय ने सूचना दी कि भैय्याजी ये पानी नहीं है, आपकी प्रिय क्षेत्रीय जनता के आंखों का आंसू है जो यहां तक बहकर पहुंच गया। भैय्याजी की आत्मा में बैठा भावुक समाजसेवी यकायक जाग उठा। उन्होंने कुर्ता-पाजामा पहना, ड्रायवर को गाड़ी लगाने के लिए आवाज दी। पत्नी ने पूछा- सुबह-सुबह कहां चल दिए। भैय्याजी ने बताया, पड़ोस के गांव रोने के लिए जाना है। सामने चुनाव हैं सो रोनेवालों के साथ रोना तो पड़ेगा ही। किसी कुशल प्रबंधक की तरह पत्नी ने भैय्याजी के कलफदार कुर्ते को एक दो जगह ब्लेड से चीरा और पाजामें में कीचड़ मल दिया। भैय्याजी पत्नी की अकल के मुरीद थे आखिर वे सजधज के रोने जाते तो लोग क्या कहते?
रोना भी एक कला है। इसके लिए गला भर नहीं गति-लय, आरोह और अवरोह भी चाहिए होता है। गांवों में महिलाएं रोने के अन्दाज के लिए जानी जाती है। बेटी किसी की बिदा हो रही हो, स्वर जानकर दूर से पूरा गांव जान जाता कि फलाने की बहू रो रही है। ज्यादातर मामलों में लोगों को मजबूरी में रोना होता है। दिल हंसता है, मुंह से रुदन के  स्वर निकलते हैं और आंखों से आंसू। जो ऐसे गमगीन मसले पर रोने के लिए अभ्यस्त नहीं है वे फिल्मों से प्रेरणा प्राप्तकर पिपरमेंट का प्रयोग करते हैं। मुंह से कैसी भी आवाज निकले आंखों से टप्प-टप्प आंसू गिरे, लोग इसे रोना ही मानेंगे। भैय्याजी के जेब में पिपरमेंट की डिबिया थी। गांव के सीवान तक पहुंचे ही रोने की आवाजें तेज व साफ सुनाई दे रही थीं। उन्होंने देखा एक घर के चौगान पर गांव के लोग स्त्री-पुरुष-बच्चे जमा थे। ज्यादा देर से रोने वाले सुबक रहे थे, कुछेक के मुंह से विलाप के मद्धिमसुर निकल रहे थे, जो हाल में आए थे वे तेज-तेज रो रहे थे। भैय्याजी नवागंतुक थे, लिहाजा पिपरमेंट लगी रूमाल आंखों में रखकर जोर-जोर से रोने लगे। भैय्याजी को रोते देख सब चुप हो गए और कौतुकी नजरों से देखने लगे। दरअसल भैय्याजी इलाके के सबसे ज्यादा रसूखवाले आदमी थे। दो बार एमएलए रह चुके थे। आखिरी के छ: महीनों में मंत्री भी रहे। इन आखिरी के छ: महीनों में क्षेत्र की जनता को इतना रुलाया कि जब चुनाव हुआ तो भैय्याजी के तिबारा चुनाव जीतने के अरमां आंसुओं में बह गए। सो इसलिए वे आंसू और रोने के महात्म को भली भांति समझने लगे थे। वे किसी के जश्न में शामिल हों या नहीं पर इलाके के मरे-जरे लोगों के दाह संस्कार, दशगात्र, तेरही-बरखी में जरूर जाते थे। भले ही बेटा की मनउती में बुढ़ऊ मरे हों और वह दिल ही दिल खुश हो, पर भैय्याजी उसका भी कंधा पकड़कर दो-चार टुप्प आंसू बहा लेते और भर्राई आवाज में कहते चिन्ता न करो बेटा 'मैं हूं न..। भैय्याजी उस दिन जाते ही रोने में भिड़ गए। ज्यादा लोग, ज्यादा रुदन, ज्यादा आंसू, ज्यादा असर। वे पूछ ही नहीं पाए कि आखिर सब लोग रो क्यूं रहे हैं? ऐसे में पूछना जोखिम भरा रहता है। लोग मान सकते हैं कि भैय्याजी जैसे रसूख वाले नेता को इतनी भी खबर नहीं कि उनके क्षेत्र में क्या हो रहा है। 
वह गांव के मुखिया का घर था। भैय्याजी ने नजरें दौड़ाईं तो देखा मुखिया, उनके बेटे, मुखियाइन और सभी लोग सकुशल थे। उनमें से किसी की आंखों में आंसू की एक लकीर तक नहीं! मुखियाजी जैसे ही किसी नए आने वाले को ढांढस बंधाते हुए घटना बताने की चेष्टा करते वह फफक-फफक कर रो पड़ता। फिर उसे रोते हुए देख, नया आने वाला रोने लगता। बस सुबह से यही सिलसिला चल रहा था। मुखिया क्या... किसी ने कुल्ला-मुखारी तक नहीं की थी। और मुखिया के घरवाले व उनके मुंहलगे नौकर के अलावा कोई जान भी नहीं पा रहा था कि असली वजह क्या है? भैय्याजी के आने के बाद शोक का ग्लैमर भी बढ़ गया था। पड़ोस के गांवों से भी लोगों के आने का सिलसिला शुरू हो गया था। मुखिया सांसत में थे। वे तो नौकर की बेवकूफी के चक्कर में फंस गए थे। यदि दरवाजे पर शोक मनाने वाले सैकड़ों लोगों की भीड़ न लगी होती तो वे अपने नौकर को इतने जूते मारते कि वह किसी काम का न बचता। इस बीच वहां इलाके के दूसरे समाजसेवियों की मोटरें आती दिखीं। भैय्याजी को गमगीन व रोते देख नए उत्साही समाजसेवी व चुनाव की उम्मीदवारी के उम्मीदवार और तेज से रोने लगते। मुखियाजी को लगा कि इलाके के सारे लोग एक साथ रोएंगे तो उनके आंसुओं की धारा से मेरी ये बखरी ही बह जाएगी। मुखिया ने दिल मजबूत किया.. और शांति-शांति-शांति की आवाज लगाई। सब चुप... सन्नाटा छा गया। मुखिया ने रहस्य खोला दरअसल सुबह-सुबह मेरा ये हरामजादा नौकर मुझसे यह कहते हुए लिपटकर रोने लगा.. कि सेबकराम मर गया.. बाबूजी.. सेबकराम के बिना आप कैसे जी पाएंगे..। बस उसके तेज रोने की आवाज से पड़ोसी आ गए.. रोते गए.. दरअसल सेबकराम - मेरे एलसीसियन कुत्ते का नाम था। यह बात सही है कि मैं उसे बहुत चाहता था। मुखिया के चुप होते ही.. भैय्याजी बोले- भाइयों मैं भी जानता था कि 'सेबकरामजी..ही मरे हैं और मेरे आंसू भी उन्हीं को समर्पित हैं। आज के दौर में जब आदमी-आदमी को ही सांप की तरह डसता है। चुनाव आने पर वोटर नेताओं की खाल 
में भुस भरता है, ऐसे दौर में ... आदमी से जानवर ज्यादा वफादार है। आइए हम सब दो मिनट की मौन श्रद्धांजलि दें। इन दो मिनटों में भैय्याजी मन ही मन अपने नेता होने पर रो रहे थे।

Wednesday, June 19, 2013

जब-जब 'धर्मनिरपेक्षता' के नाम पर गरमाई राजनीति

 बुधवार, 19 जून, 2013 को 15:19 IST तक के समाचार
बाबरी मस्जिद
प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह ने मंत्रि परिषद के विस्तार के बाद दिल्ली में नीतीश कुमार को एक धर्मनिरपेक्ष नेता बताया और नीतीश कुमार की 'बाँछें खिल उठीं'. उन्होंने प्रधानमंत्री को इसके लिए धन्यवाद भी दिया.
नरेंद्र मोदी का भारतीय जनता पार्टी में रुतबा बढ़ा तो जनता दल यूनाइटेड और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में 'तलाक' हो गया. इसके बाद 'धर्मनिरपेक्षता' चर्चा में आ गई.
पल-पल बदलते राजनीतिक परिवेश में 'धर्मनिरपेक्षता' क्या है, इससे बड़ा सवाल अब यह हो गया है कि कौन-कौन धर्मनिरपेक्ष हैं.
संविधान के मुताबिक भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है लेकिन आजाद भारत के इतिहास में ऐसे कई मौके आए, जब धर्म ने राजनीति और सरकारों के फैसलों को प्रभावित किया है.
एक नज़र ऐसे कुछ ऐतिहासिक मौकों पर -

राजेंद्र प्रसाद ने किया सोमनाथ मंदिर का उदघाटन

सोमनाथ मंदिर
राजेंद्र प्रसाद ने सोमनाथ मंदिर में शिव मूर्ति की स्थापना की
भारत की धर्मनिरपेक्षता पर सवाल न उठे इसलिए पंडित क्लिक करेंजवाहर लाल नेहरू ने सोमनाथ मंदिर के नवीनीकरण और पुनर्स्थापना का काम देख रही कमेटी से खुद को अलग कर लिया था.
पंडित नेहरू ने सौराष्ट्र (गुजरात राज्य के गठन से पहले सौराष्ट्र संविधान के तहत राज्य था) के तत्कालीन मुख्यमंत्री को मंदिर के निर्माण और उदघाटन में सरकारी पैसा खर्च न करने का निर्देश दिया था.
नेहरू ने तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद से मंदिर का उदघाटन न करने का आग्रह किया था. उनका तर्क था कि धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के प्रमुख को मंदिर के उदघाटन से बचना चाहिए.
हालांकि नेहरू का आग्रह दरकिनार कर राजेंद्र प्रसाद ने सोमनाथ मंदिर में शिव मूर्ति की स्थापना की थी.
रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब 'इंडिया आफ्टर गांधी' में लिखा है, प्रधानमंत्री (नेहरू) सोचते थे कि सरकारी अधिकारियों को सार्वजनिक जीवन में धर्म या धर्मस्थलों से नहीं जुड़ना चाहिए. वहीं राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद मानते थे कि उन्हें सभी धर्मों के प्रति बराबर और सार्वजनिक सम्मान प्रदर्शित करना चाहिए.
सोमनाथ मंदिर के उदघाटन के वक्त 1951 में राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि 'भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है लेकिन नास्तिक राष्ट्र नहीं है'.

नेहरू ने पारित करवाया हिंदू कोड बिल

पंडित जवाहर लाल नेहरू
पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि का काफ़ी ध्यान रखा
जब प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू हिंदुओं के पारिवारिक जीवन को व्यवस्थित करने के लिए हिंदू आचार संहिता विधेयक लाने की कोशिश में थे, तब तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद इसके खुले विरोध में थे.
राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद का कहना था कि लोगों के जीवन और संस्कृति को प्रभावित करने वाला कानून न बनाया जाए.
हिंदू महासभा और अन्य हिंदूवादी संगठनों ने भी इसका कड़ा विरोध किया था, लेकिन विरोध को दरकिनार करते हुए सरकार ने हिंदू आचार संहिता विधेयक पारित किया.
विधेयक का विरोध करने वालों ने तब तत्कालीन क़ानून मंत्री बीआर अंबेडकर के बारे में जातिसूचक टिप्पणियां की थीं और कहा था कि एक दलित को ब्राह्मणों के मामले में दखल नहीं देना चाहिए.

शाहबानो केस पर सियासत

संविधान में धर्मनिरपेक्षता

1976 में 42वें संविधान संशोधन के तहत धर्मनिरपेक्ष शब्द को संविधान की प्रस्तावना में शामिल किया गया था. भारत का कोई भी अधिकारिक धर्म नहीं है. देश के नागरिक अपनी मर्जी से किसी भी धर्म का पालन कर सकते हैं. सभी धर्मों के अनुयायियों को भारत में बराबर अधिकार प्राप्त हैं. धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता. सरकार की जिम्मेदारी सभी धर्मों के लोगों की सुरक्षा और उन्हें बराबर अवसर उपलब्ध करवाना है.
धर्म के राजनीति पर असर का एक बडा़ उदाहरण शाहबानो केस भी है.
मध्य प्रदेश के इंदौर की रहने वाली पांच बच्चों की मां शाहबानो को सुप्रीम कोर्ट में केस जीतने के बाद भी अपने पति से हर्जाना नहीं मिल सका. कारण था मुस्लिम मामलों को लेकर हुई राजनीति.
मुस्लिम धर्मगुरुओं को पारिवारिक और धार्मिक मामलों में अदालत का दख़ल मुस्लिम अधिकारों के लिए खतरा लगा.
1973 में बने ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पुरज़ोर विरोध किया.
आखिरकार 1986 में क्लिक करेंराजीव गांधी की सरकार ने मुस्लिम धर्मगुरुओं के दबाव में आकर मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 1986 पारित किया.
हालांकि बिल पारित होने के बाद हिंदूवादी संगठनों ने राजीव गांधी पर मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप लगाया था.

सिख दंगों पर राजीव गांधी का बयान

1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री क्लिक करेंइंदिरा गांधी की उनके सिख अंगरक्षकों ने हत्या कर दी. इसके बाद देशभर में क्लिक करेंसिख विरोधी दंगे हुए. दिल्ली समेत देश के कई इलाकों में हुए इन दंगों में हजारों सिखों की हत्या कर दी गई थी.
इंदिरा के जन्मदिवस 19 नवंबर 1984 को दिल्ली के बोट क्लब पर उनकी याद में रखी गई सभा में राजीव गांधी ने कहा था, 'इंदिराजी की हत्या के बाद देश के कुछ हिस्सों में दंगे हुए हैं. हम जानते हैं कि लोग बहुत गुस्से में थे और कुछ दिनों तक ऐसा लग रहा था जैसे पूरा भारत हिल गया हो. किसी बड़े पेड़ के गिरने के बाद उसके आसपास की धरती का हिलना स्वाभाविक है.'
तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के इस बयान को दंगों को जायज़ ठहराने की कोशिश के बतौर देखा जाता रहा है. इसके बाद हुए लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने हिंदुओं के इकतरफा समर्थन के कारण 411 सीटें जीतीं.

बाबरी विध्वंस

आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी
छह दिसंबर 1992 को क्लिक करेंराष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और शिवसेना जैसे हिंदुत्ववादी संगठनों के कारसेवकों ने अयोध्या की भूमि पर 16वीं शताब्दी से खड़ी बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया.
बाबरी विध्वंस से पहले और बाद में भीषण दंगे हुए, जिनमें कई हजार लोगों की जान गई.
जिस वक़्त बाबरी मस्जिद गिराई गई, उस वक़्त उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी और केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी.
छह दिसंबर को ही अयोध्या में इकट्ठे लाखों कारसेवकों को लालकृष्ण आडवाणी और संघ परिवार के कई अन्य नेताओं ने संबोधित किया था.
रैली से पहले आयोजकों ने सुप्रीम कोर्ट को आश्वासन दिया था कि मस्जिद को नुकसान नहीं पहुंचाया जाएगा.
क्लिक करेंबाबरी विध्वंस की जांच के लिए गठित लिब्राहन आयोग ने 16 साल की पड़ताल के बाद जून 2009 में पेश अपनी रिपोर्ट में कहा था कि बाबरी विध्वंस पूर्व नियोजित था.

गुजरात दंगों पर नारायणन की नसीहत

2002 के गुजरात दंगे
केआर नारायणन का मानना था कि केंद्र सरकार चाहती तो गुजरात के दंगों को रोक सकती थी
क्लिक करेंगुजरात दंगों के दौरान तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायणन ने केंद्र सरकार की कड़ी आलोचना करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को कई पत्र लिखे थे.
हालांकि इन पत्रों को कभी सार्वजनिक नहीं किया गया.
सूचना के अधिकार के तहत केंद्रीय सूचना आयोग ने इन पत्रों को सार्वजनिक करने का आदेश दिया था लेकिन दिल्ली हाईकोर्ट ने जुलाई 2012 में सूचना आयोग के आदेश पर रोक लगा दी थी.
रेडिफ डॉट कॉम को 2005 में दिए एक साक्षात्कार में पूर्व राष्ट्रपति के आर नारायणन ने माना था कि गुजरात दंगों में सरकार और प्रशासन ने मदद की थी.
नारायणन के मुताबिक उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी को कई पत्र लिखकर और मुलाकात करके दंगे रोकने के लिए ठोस कदम उठाने के लिए कहा था लेकिन 'सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रही.'
नारायणन का कहना था कि केंद्र सरकार के पास सेना भेजकर दंगे रोकने का संवैधानिक अधिकार और जिम्मेदारी थी.
नारायणन के मुताबिक केंद्र सरकार ने दंगों के दौरान देश के तमाम नागरिकों को सुरक्षा देने के अपने राजधर्म का पालन नहीं किया था.

जिन्ना पर आडवाणी की टिप्पणी

लालकृष्ण आडवाणी
कभी हिंदुत्व की आवाज रहे आडवाणी को जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बताना काफ़ी महँगा पड़ा
भारतीय जनता पार्टी नेता लालकृष्ण आडवाणी ने 2005 की अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान मोहम्मद अली जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष नेता बताया था. उन्होंने पाकिस्तान के क़ायद-ए-आज़मक्लिक करेंजिन्ना के मजार पर रखी गेस्टबुक में लिखा था, "बहुत कम लोग होते हैं जो इतिहास बनाते हैं. क़ायद-ए-आज़म उन चुनिंदा लोगों में से एक हैं. सरोजिनी नायडू ने उन्हें हिंदू मुस्लिम एकता का दूत बताया था. उनका संबोधन एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की सशक्त सहभागिता है, जिसमें हर नागरिक को अपने धर्म का पालन करने का अधिकार हो. देश नागरिकों के धर्म के आधार पर कोई फर्क नहीं करेगा. मैं इस महान व्यक्तित्व को सलाम करता हूं."
आडवाणी के इस बयान का भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने कड़ा विरोध किया था. आडवाणी ने सफाई भी दी, लेकिन वो बेकार गई.
अंततः उन्हें पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा, जिसे बाद में वापस ले लिया गया. इस विवाद से आडवाणी की छवि पर इतना असर हुआ कि उन्हें आख़िर पार्टी का अध्यक्ष पद छोड़ना ही पड़ा.

Tuesday, June 18, 2013

गठबंधन की अंधी सुरंगों में झांकते हुए

अब इसमें कोई शक नहीं कि गठबंधन सरकारें देश की स्थायी नियति बन चुकी हैं। नरसिंहराव के नेतृत्व वाली कांग्रेस  सरकार अंतिम एकल सरकार थी। आज देश की जैसी राजनीतिक स्थिति है उसके चलते मोदी नहीं महामोदी आ जाएं या राहुल गांधी क्यों न जवाहरलाल नेहरु के अवतार बन जाएं, भाजपा या कांग्रेस की एकल सरकार बनना असंभव है।  हां, जदयू के राजग से अलग होने के बाद तीसरे मोर्चे जिसे फेडरल फ्रंट का नाम दिया गया है, की संभावना की बातें की जा रही हैं और इस दिशा में क्षत्रपों ने पहल शुरू कर दी है। फेडरल फ्रंट की सरकार का बनना अभी भविष्य के गर्भ में है लेकिन उसके स्थायित्व और नेतृत्व को लेकर बुद्धिविलास भी शुरु हो गया है। लाख टके का सवाल यह है कि गैर भाजपा-गैर कांग्रेस का तीसरा मोर्चा क्या उसी तरह केन्द्र सरकार को स्थायित्व दे सकता है जैसा कि यूपीए और एनडीए ने दिया है? चलिए पहले हाल-चाल जानते हैं एनडीए के भविष्य के।
मोदी हैं... पर मुद्दे कहां- चेहरे को आगे करके चुनाव की राजनीति करना भाजपा का नया शगल नहीं है। मोदी से पहले अटलबिहारी वाजपेयी ऐसे नेता थे जिनके नाम पर वोट मांगा गया था। वह चर्चित नारा आज भी याद होगा- अटल बिहारी- कमल निशान  - मांग रहा हिन्दुस्तान। भाजपा के गठित होने के बाद से 1996 तक लगातार यह नारा लगा, फिर 13 दिन की सरकार और इसके बाद सफल डेढ़ पारी। अटलजी पण्डित नेहरू से लेकर इन्दिरा गांधी के दौर तक विपक्ष के सर्वप्रिय और ऐसे लाडले नेता थे जिन पर मौजूदा सरकारें भी भरोसा करतीं थी, उनके तीखे हमलों के बाद भी। अटलजी की दृष्टि समावेशी थी और बतौर विपक्षी वे हमेशा रचनात्मक राजनीति के ध्वजवाहक बने रहे। मोदी युवा आक्रोश की अभिव्यक्ति बनकर उभरे हैं। देश का युवा मोदी जैसा आक्रामक, कुछ हद तक तानाशाह और निर्णय लेने में दृढ़  नेतृत्व चाहता है। उसकी वरीयता में लोकतंत्र की उदात्तता नहीं अपितु जैसे को तैसा वाला नायक चाहिए। पर क्या मोदी में अटलजी जैसे सर्वस्वीकार्यता है, नहीं। जदयू का अलग हो जाना पहला संकेतक है। अन्य दलों की स्वीकारिता की बात कौन करें मोदी को अभी अपने ही दल में पग-पग संघर्ष करना पड़ेगा। दरअसल मोदी कारपोरेट की कृपा, मीडिया के मायाजाल और सोशल मीडिया के प्रपोगंडा से निकले हुए महारथी हैं, उनके अस्त्र-शस्त्र इन्द्रजाल रचने वाले जादूगर की तरह छद्म और नकली हैं, उनके प्रति सम्मोहन की स्थिति ठीक वैसी है है जैसी कि 1988 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की थी। वही  वीपी सिंह ढाई साल में देश की जनता की नजर से ऐसे गिरे कि लोगों में इतनी दिलचस्पी भी नहीं बची कि वे अंतिम दिनों में कैसे जिए कैसे मरे।
रही बात नीतिगत मुद्दों की। आर्थिक नीतियों के मामले में एनडीए-यूपीए एक दूसरे की पूरक हैं। नरसिंह राव के कार्यकाल में शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण, विनिवेश और एफडीआई पर दोनों गठबंधन सरकारों का एक सा नजरिया रहा। आंतरिक सुरक्षा और आतंकवाद के मोर्चे पर एनडीए के पास कहने को कुछ नहीं क्योंकि देश ने यूपीए के समय से ज्यादा संहातिक हमले  एनडीए के दौर में झेले। भ्रष्टाचार के मोर्चे पर भी यूपीए-एनडीए भाई-भाई हैं। दोनों की सूरत में कोई फरक नहीं। यूपीए के हर भ्रष्टाचार की नाल एनडीए के गर्भ से जुड़ी है। अलग बात सिर्फ हिन्दुत्व और राममंदिर की बात हो सकती है, लेकिन शिलापूजन से लेकर धर्म सम्मेलनों की जो नौटंकी देश के हिन्दू देखते आए  उसके चलते मंदिर और हिन्दुत्व के मामले में भाजपा की कोई विश्वसनीयता नहीं बची। बहुलतावादी संस्कृति के देश में ऐसे मुद्दे सुर्खियों पर आ सकते हैं पर देश के मानस का मुखपृष्ठ नहीं बना सकते।
यूपीए-नेतृत्व का संकट- यूपीए-टू की लोकप्रियता का सूचकांक पिछले नौ  वर्षों में सबसे निचले स्तर पर है। डा. मनमोहन सिंह के जिस भद्र छवि को लेकर यूपीए दोबारा चुनाव में आई थी, अब वही चेहरा टीवी पर दिखता है तो दर्शक स्विच आफ कर देते हैं और अखबारों के पन्ने पलट देते हैं। जिन राहुल गांधी को आगे किया गया उनके चेहरे में वो ऊष्मा और ताजगी नहीं दिखती जिसकी युवा वर्ग को तलाश है। राजीव गांधी को दून मण्डली ने फंसाया था तो राहुल हारवर्डियों, आईआईटियन और बी स्कूल के बंदों से घिरे हैं। राजनीति में उतरे कोई दस-बारह साल होने को आए शायद ही उनका कोई वक्तव्य या नारा किसी को याद हो। सोनिया गांधी का तिलस्म अभी भी है पर वह आम जनता के बीच नहीं सिर्फ पार्टीजनों तक है। यूपीए-टू के घपले-घोटालों और मंत्री नेताओं की जेल यात्राओं ने जनता के समक्ष एक भ्रष्ट सरकार की आकृति को स्थायी बना दिया है। अनिर्णय-भ्रम और गैर जिम्मेदराना वक्तव्यों ने जनता को न सिर्फ निराश किया बल्कि   उनकी नजर में एक खुदगर्ज और मसखरी सरकार की अवधारणा को चरितार्थ किया। यद्यपि लोकपयोगी योजनाओं के मामले में दोनों कार्यकालों का ट्रैक रिकार्ड बेहतर रहा, लेकिन वह अपने पूर्व नेता राजीव गांधी की सौ रुपए बनाम दस रुपए के यक्ष प्रश्न का हल नहीं ढूंढ पायी। मनरेगा- सार्वजनिक वितरण प्रणाली, जैसी फ्लैगशिप योजनाओं में अरबों रुपए बहे और भ्रष्टाचार की गटरगंगा उफनाती ही रही। देश की जनता का मूड यूपीए के खिलाफ है पर एनडीए उसका विकल्प बनता नहीं दिखता। भाजपा ने मोदी को आगे करके कांग्रेस की बिन मांगी मुराद पूरी कर दी है। यूपीए और एनडीए दोनों देश में साम्प्रदायिक और धार्मिक ध्रुवीकरण को लेकर आशावान है। हिन्दुत्व भाजपा की रौ पर कितना बहता है इसका ंआंकलन तो ऐन चुनाव के समय संभव है , पर मोदी के उभार ने मुसलमानों को कांग्रेस की ओर वापस लौटाने का रास्ता साफ कर दिया है।
फेडरल फ्रंट यानी की बहुते जोगियों का मंदिर- एनडीए के कुनबे से जदयू के अलग होने के बाद तीसरे मोर्चे या कथति फेडरल फ्रंट  की ओर देश की नजरें टिक गई है। फेडरल फ्रंट की अवधारणा लगभग वैसे ही है जैसे कि 1995 में देवगौड़ा-गुजराल की सरकार की थी।  पहले वाममोर्चे के नेतृत्व में सरकार बनाने की सहमति बनी और ज्योति बसु को बतौर प्रधानमंत्री उम्मीदवार स्वीकार किया गया पर माकपा पॉलित ब्यूरो ने ऐन वक्त पर बसु का नाम आगे बढ़ने से रोक लिया। जल्दबाजी या मजबूरी में एचडी देवगौड़ा जैसे नियाहत क्षेत्रीय नेता प्रधानमंत्री बने। अल्पमत का गठबन्धन कांग्रेस के सपोर्ट पर टिका था। अल्पायु में मौत तय थी, सो हुयी। फेडरल फ्रंट को भी फिलहाल इसी नजर से देखा जा सकता है, पर इस बार विरोधाभाष और अन्तरद्वंद्व ज्यादा है। मसलन फ्रंट का नाम और उसकी जरूरत की पहली आवाज ममता बनर्जी की ओर से आई। जाहिर है वाममोर्चा इस फ्रंट को लेकर शायद ही दिलचस्पी दिखाए। जयललिता का रुझान मोदी की ओर है और करुणानिधि अनिश्चय में। चूंकि एक धुरी जदयू के नीतिश कुमार होंगे सो लालू के राजद का इस में शामिल होने का सवाल ही नहीं। मुलायम यूपी जीतने के बाद से तीसरे मोर्चे की बात कर रहे हैं तो स्वाभाविक  तौर पर बसपा कांग्रेस के करीब खिसकेगी। देवीलाल का चौटाला कुनबा फ्रंट के साथ होगा। कुलमिलाकर अभी तक जो मुकम्मल तस्वीर  उभर रही है, उसमें नवीन पटनायक, चन्द्रबाबू नायडू, मुलायम सिंह, नीतिश कुमार का ही अक्स उभरता है और ऐसे महत्वाकांक्षी नेताओं का एकसाथ रहना ‘बहुते जोगी मंदिर नासा’ जैसी स्थिति बनती है। देश की राजनीति अनिश्चय के मुकाम पर खड़ी है। फिलहाल  सभी संभावनाएं व विकल्प खुले हैं। फेडरल फ्रंट मजबूती से उभरे, या फिर चुनाव के पहले यूपीए व एनडीए की ओर ध्रुवीकरण तेज हो। राजनीति में कुछ भी हो सकता है बकौल एस राधाकृष्णन् यह तड़ित की तरह चंचल और भुजंग की भांति कुटिल होती है। देखिए व इन्तजार करिए।
लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं।  सम्पर्क सूत्र- 09425813208      
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Friday, June 14, 2013

रूपए की इज्जत का सवाल है बाबा

उस दिन जब रुपया धड़ाम से नीचे गिरा तो अर्थशास्त्रियों के बीच हाहाकार मच गया। तेजडिय़ों, मंदडिय़ों के चेहरे सूख गए। शेयर बाजार में सेनसेक्स और निफ्टी के कांटे हार्टअटैक नापने की मशीन के कांटे की तरह ऊपर-नीचे हो रहे थे। टीवी चैनलों से चिन्तित आवाजें आ रही थीं। देश की अर्थव्यवस्था हांफ रही है, वित्तमंत्री जी कुछ करिए। वित्तमंत्री जी देश को दिलासा दे रहे थे कि सब कुछ ठीक हो जाएगा... डॉलर की अकड़ जल्दी ही ढ़ीली पड़ जाएगी। अभी हमारे बंदे पता लगा रहे हैं कि कौन-कौन सा क्षेत्र एफडीआई (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) के लिए बचा है। उन इलाकों की भी खोज की जा रही है जहां मल्टीनेशनल्स या अमेरिकी पूंजी से चलने वाले कारपोरेट घरानों को तेल-गैस- कोयला - हीरा और अन्य खनिज खोदने के पट्टे दिए जाएं। इनका पता लगते ही डालरों की बरसात होने लगेगी और अपना रुपया फिर तन जाएगा।
अपुन अर्थशास्त्री नहीं है, लिहाजा पहले तो रुपए गिरने की खबर सुनी तो लगा.. रिजर्व बैंक के खजाने से रुपए की पेटी या ट्रंक धड़ाम से नीचे गिरा होगा। रुपए का गिरना और उठना अपन बीपीएल (बिलो पॉवर्टी लाइन) वालों को समझ में नहीं आता। वैसे भी हम गरीबी रेखा के नीचे गिरे हुए लोग हैं। फिर भी अपने मोहल्ले में रहने वाले और सरकारी स्कूल में इकॉनामिक्स-कॉमर्स पढ़ाने वाले मास्साब से पूछा कि सर जी ये रुपया गिरता कैसे है? मास्साब संविदाकर्मी थे, डीईओ-बीईओ को रिश्वत देकर नौकरी पाई थी, .. सो उस टीस को अपनी व्याख्या में घोलते हुए कहा कि जैसे मेरा प्रिन्सिपल डीईओ के, डीइओ शहर के नेता के, नेताजी-मुख्यमंत्री के,  मुख्यमंत्री आलाकमान के चरणों पर पाटापसार गिरते हैं, वैसे ही अपना रुपया डॉलर के चरणों में गिर गया है। मास्साब बोले- जब समूचे देश में ही नीचे गिरने की होड़ मची हो तो बेचारा रुपया कब तक थमा-तना रहेगा। हाल ही में देखा ... कि क्रिकेटर रुपए के लिए कितना नीचे गिर सकते हैं। सरकार के कई नेता मथानी घपले घोटालों में फंसकर नीचे गिर गए। कोई चारित्रिक रूप से नीचे गिरता है तो कोई नैतिक रूप से। इसे ऐसई गिरे रहने दो। मैंने कहा - मास्साब सवाल ये है कि अपना रुपया डॉलर के सामने गिरा है, ये अपने देश के स्वाभिमान से जुड़ा मामला है। गांधीजी चर्चिल के सामने तो नहीं गिरे। विवेकानंद ने शिकागो में भूखे भारत की धार्मिक व अध्यात्मिक शान के झण्डे को फहराया। धमकी पर धमकी के बाद भी इन्दिरा जी अमेरिका के आगे नहीं गिरी। मास्साब आखिर अपने रुपए का कुछ तो स्वाभिमान होना चाहिए। जब देखो तब डॉलर के आगे पसर जाता है। मास्साब ने ज्ञान की पिटारी खोली और जानकारी दुरुस्त करते हुए बताया अपने प्रधानमंत्री कौन है? डा. मनमोहन सिंह हैं न। ये वही मनमोहन सिंह है कभी जिनके दस्तखत रिजर्व बैंक के नोट पर रहते थे। फिर ये आईएमएफ (इन्टरनेशनल मनिटरी फंड) और वल्र्ड बैंक में नौकरी करने गए। इन दोनों जगहों में डॉलर का ही बोलबाला है। फिर इन्डिया लौटे तो नरसिंहराव के खजांची बन गए। जब खजांची बने तो देखा खजाने में एक डॉलर भी नहीं। चन्द्रशेखर जी देश का सोना गिरवी करवा गए थे। मनमोहनजी ने जुगत लगाई और देश के खिड़की -दरवाजे डॉलर के प्रवेश के वास्ते खोल दिए। इन्डिया आओ, डॉलर दो, लूटो खाओ, डॉलर दो। इसी को आर्थिक उदारीकरण यानी कि ग्लोबलाइजेेशन कहते हैं। यूरोपी कम्पनियां इन्डिया आईं डॉलर दिया, प्राकृतिक संसाधनों को लूटा। अपने प्रधानमंत्री का डॉलर प्रेम या डॉलर भय पुराना है। सो जब डॉलर अपने फॉर्म पर आता है तो अपनी अर्थव्यवस्था के रंग उड़ जाते है और रुपया डॉलर के चरणों पर बिछ जाता है। और यह तब तक बिछा रहता है जब तक अमेरिका, यूरोप के मल्टीनेशनल्स डॉलर की नई खेप लेकर इन्डिया नहीं पहुंचते। यानी कि जब रुपया गिरे तो समझिए कोई नया विनिवेश-आर्थिक समझौता और व्यापारिक सौदा होने वाला है। मास्साब का अर्थशास्त्र आपके पल्ले पड़ा या नहीं ये आप जाने... अपुन के तो सिर के ऊपर से निकल गया।

Wednesday, June 12, 2013

मोदी के 'कांग्रेस मुक्त भारत' का मतलब क्या है?

 मंगलवार, 11 जून, 2013 को 07:25 IST तक के समाचार
क्लिक करेंभाजपा के चुनाव अभियान का जिम्मा सँभालने के बाद क्लिक करेंनरेंद्र मोदी ने अपने पार्टी कार्यकर्ताओं से 'कांग्रेस मुक्त भारत निर्माण' के लिए जुट जाने का आह्वान किया.
उन्होंने ट्विटर पर भी लिखा, "हम कांग्रेस मुक्त भारत निर्माण बनाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ेंगे."
नरेन्द्र मोदी की बातों में आवेश होता है, और ठहराव की कमी. चूंकि उन्होंने इस बात को कई बार कहा है. इसलिए यह समझने की ज़रूरत है कि वे कहना क्या चाहते है.
उन्होंने ‘कांग्रेस मुक्ति’ की अपनी अवधारणा स्पष्ट नहीं की. वे यदिक्लिक करेंकांग्रेस की चौधराहट को खत्म करना चाहते हैं तो यह उनका मौलिक विचार नहीं है.
साठ के दशक के शुरुआती दिनों में राम मनोहर लोहिया 'गैर-कांग्रेसवाद' का नारा दे चुके हैं.
इस गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति में तत्कालीन जनसंघ भी शामिल था और 1967 में पहली बार बनी कई संविद सरकारों में उसकी हिस्सेदारी थी.
'गैर-कांग्रेसवाद' राजनीतिक अवधारणा थी. इसमें कांग्रेस का विकल्प देने की बात थी, उसके सफाए की परिकल्पना नहीं थी.
बेशक कांग्रेस की राजनीति ने तमाम दोषों को जन्म दिया, पर उससे उसकी विरासत नहीं छीनी जा सकती.
क्लिक करेंकांग्रेस से मुक्ति माने कांग्रेस की विरासत से मुक्ति. आइए यह जानने की कोशिश करें कि कांग्रेस को समाप्त करने के मायने क्या हैं. कांग्रेस से मुक्ति के मायने इन बातों से मुक्तिः-

राष्ट्रीय आंदोलन

चन्द्रगुप्त मौर्य, अशोक महान, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य और अकबर से लेकर अंग्रेजी राज तक भारत का राजनीतिक नक्शा बनता-बिगड़ता रहा.
लेकिन उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध से शुरू हुए राष्ट्रीय आंदोलन में कांग्रेस की केन्द्रीय भूमिका थी.
कांग्रेस के पास क्लिक करेंमहात्मा गांधी की विरासत है. मोदी जी जिन सरदार वल्लभ भाई पटेल के प्रशंसक हैं उनकी विरासत भी कांग्रेस के पास है.
अटल बिहारी वाजपेयी जिस गांधीवादी समाजवाद की कल्पना करते थे, वह कांग्रेस की विरासत है.
राष्ट्रीय आंदोलन के कारण कांग्रेस का कोई न कोई तत्व देश के हर गाँव, मुहल्ले, गली और घर में मिलेगा.
और इसी वजह से एक अरसे तक भारत की राजव्यवस्था को राजनीति शास्त्री एकदलीय व्यवस्था के रूप में पढ़ते-पढ़ाते रहे.
इसके विपरीत क्लिक करेंराष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अंग्रेजी राज के खिलाफ आंदोलन से नहीं निकला.
शुरुआती वर्षों में संघ के अनेक कार्यकर्ता कांग्रेस से भी जुड़े थे, पर सैद्धांतिक रूप से संघ ने अंग्रेजों से सीधा टकराव मोल नहीं लिया.

राष्ट्रीय एकीकरण

1905 में भारत का नक्शा.
आज़ादी के बाद राष्ट्र निर्माण पहला सबसे बड़ा काम था. 15 अगस्त 1947 को समूचा भारत एक नहीं था.
हमें एक ओर विभाजन मिला था दूसरी ओर तकरीबन 600 देशी रियासतों को भारत में मिलाकर एक सूत्र में बांधने का काम बचा था.
यह काम कांग्रेसी राज में हुआ. उसके बाद 1956-57 में राज्य पुनर्गठन का जटिल काम हुआ.
पूर्वोत्तर के राज्यों, तमिलनाडु और पंजाब में अलगाववादी आंदोलन हुए. भारत को एक बनाए रखने के महत्वपूर्ण काम को क्या झुठलाया जा सकता है?
अस्सी और नब्बे के दशक में हमारे सामाजिक अंतर्विरोधों के कारण पूरे देश में आग जैसी लगने लगी थी.
ऐसे दौर में राष्ट्रीय एकीकरण का श्रेय कांग्रेस को भी जाता है.
कांग्रेस ने सभी सम्प्रदायों, जातियों और हर इलाके के लोगों को अपने साथ रखा.
इससे न केवल उसका अपना आधार मज़बूत हुआ, साथ ही यह देश एक सूत्र में बँधा रहा.

सामाजिक बहुलता

मोदी जी मानें या न मानें देश की सामाजिक बहुलता की जो अवधारणा कांग्रेस के पास है, वह भाजपा के पास नहीं है.
कांग्रेस आज भी अकेली 'पैन इंडिया पार्टी' है.
देश के पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत के कई इलाकों में भाजपा की उपस्थिति भी नहीं है. कांग्रेस कमोबेश हर जगह है.
भौगोलिक ही नहीं सामाजिक और धार्मिक प्रतिनिधित्व के मामले में कांग्रेस का आधार भाजपा के मुकाबले व्यापक है.
भाजपा का सहारा हिन्दुत्व है और कांग्रेस का सामाजिक बहुलता.

आधार ढाँचा

देश का बुनियादी आधार ढाँचा बनाने का श्रेय कांग्रेस को है.
प्रशांत चन्द्र महालनबीस, होमी जे भाभा और विक्रम साराभाई जैसे अर्थशास्त्रियों, वैज्ञानिकों, इंजीनियरों और शिक्षा शास्त्रियों को देश की मुख्यधारा से जोड़ने का बुनियादी काम जवाहर लाल नेहरू के कार्यकाल में हुआ.
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, इंडियन इंस्टीय्टूट ऑफ मैनेजमेंट, भिलाई स्टील प्लांट, भाखड़ा बांध जैसी तमाम संस्थाएं कांग्रेस के दौर की देन हैं.
उन्हें क्या खत्म किया जा सकता है?

लोकतांत्रिक संस्थाएं

भारत और क्लिक करेंपाकिस्तान दोनों देश एक साथ बने थे.
लेकिन भारत में न सिर्फ लोकतंत्र कामयाब हुआ बल्कि ज़मींदारी उन्मूलन और हिन्दू कोड बिल के मार्फत बुनियादी सामाजिक विकास का काम हुआ.
देश में चुनाव आयोग, सीएजी से लेकर उच्चतम न्यायालय तक की मान-मर्यादा क्रमशः बढ़ती गई जो हमारे लोकतंत्र की ताकत है. इसमें बड़ी भूमिका कांग्रेस की है.
भारत की चुनाव व्यवस्था कई मायनों में सारी दुनिया में अपने किस्म की अनोखी है. इसके श्रेय से भी कांग्रेस को वंचित नहीं किया जा सकता.
अनुसूचित जातियों-जन जातियों, पिछड़े वर्गों तथा अल्पसंख्यकों के संरक्षण के तमाम कार्यक्रम कांग्रेसी राज में शुरू हुए या इनकी अवधारणा बनी. यह लोकतंत्र का बुनियादी काम है.

पंचायती राज और ग्रामीण रोजगार

73वें संविधान संशोधन के माध्यम से देश में लोकतांत्रिक संस्थाओं को ज़मीनी स्तर तक लाने की प्रक्रिया कांग्रेस शासन की देन है.
ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम भी. शिक्षा का अधिकार भी कांग्रेसी व्यवस्था की देन है.
भारत का सफल पल्स पोलियो कार्यक्रम दुनिया भर में अपनी मिसाल है.

आर्थिक उदारीकरण

आर्थिक उदारीकरण केवल पूँजी निवेश और आर्थिक विकास के आँकड़ों तक सीमित नहीं है.
इसका काफी काम देश की कानूनी व्यवस्थाओं में बदलाव और आर्थिक संस्थाओं के सुधार से जुड़ा है.
संयोग से यह काम 1991 में कांग्रेसी सरकार के शासनकाल में शुरू हुआ.
उसी दौरान देश में दूरसंचार क्रांति हुई. देश में टेलीविज़न, इंटरनेट और क्लिक करेंकम्प्यूटर क्रांतियों का श्रेय भी कांग्रेस शासनकाल को जाता है.

सफाया नहीं, विकल्प

यह सूची काफी लम्बी है. इसे कांग्रेस-भक्ति या कांग्रेस-द्रोह के चश्मे से न देखा जाए तो यह आधुनिक भारत की उपलब्धियाँ हैं. इसमें भाजपा का योगदान भी होगा.
इस व्यवस्था में दोष हैं तो उसमें भी सभी दलों का कोई न कोई योगदान है.
जब कोई नेता किसी पार्टी से मुक्ति की बात करे तो यह बात आत्यंतिक लगती है. बेहतर लोकतांत्रिक शब्दावली है विकल्प बनना.
सन 2004 के चुनाव के पहले क्लिक करेंअरुण जेटली ने कहीं कहा था कि कांग्रेस अब खत्म हो चुकी है, वामपंथी सिर्फ बंगाल और केरल तक सीमित हैं.
सिर्फ भाजपा है जो कांग्रेस की जगह ले रही है.
भाजपा की सबसे बड़ी अभिलाषा कांग्रेस का स्थानापन्न बनने की है.
इसके लिए उसे उन कारणों को समझना होगा, जो कांग्रेस को महत्वपूर्ण, देश-व्यापी और स्वीकार्य बनाते हैं.
नरेन्द्र मोदी को आवेश या तैश में आने के बजाय अपनी शब्दावली पर ध्यान देना चाहिए.
विकल्प बनने के लिए उन्हें कांग्रेस से बेहतर बनना होगा.

बड़े वेगमय पंख हैं रोशनी के

धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!
बहुत बार आई-गई यह दिवाली
मगर तम जहां था वहीं पर खड़ा है,
बहुत बार लौ जल-बुझी पर अभी तक
कफन रात का हर चमन पर पड़ा है,
न फिर सूर्य रूठे, न फिर स्वप्न टूटे
उषा को जगाओ, निशा को सुलाओ!
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!
सृजन शान्ति के वास्ते है जरूरी
कि हर द्वार पर रोशनी गीत गाये
तभी मुक्ति का यज्ञ यह पूर्ण होगा,
कि जब प्यार तलावार से जीत जाये,
घृणा बढ रही है, अमा चढ़ रही है
मनुज को जिलाओ, दनुज को मिटाओ!
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!
बड़े वेगमय पंख हैं रोशनी के
न वह बंद रहती किसी के भवन में,
किया क़ैद जिसने उसे शक्ति छल से
स्वयं उड़ गया वह धुंआ बन पवन में,
न मेरा-तुम्हारा सभी का प्रहर यह
इसे भी बुलाओ, उसे भी बुलाओ!
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!
मगर चाहते तुम कि सारा उजाला
रहे दास बनकर सदा को तुम्हारा,
नहीं जानते फूस के गेह में पर
बुलाता सुबह किस तरह से अंगारा,
न फिर अग्नि कोई रचे रास इससे
सभी रो रहे आँसुओं को हंसाओ!
दिये से मिटेगा न मन का अंधेरा
धरा को उठाओ, गगन को झुकाओ!
                              "नीरज"