Wednesday, January 25, 2012

उनकी कैद में हमारा गणतंत्र

        चिन्तामणि मिश्र
अपना बासठवां जन्म दिन मनाने गणतंत्र दिल्ली के जनपथ पर दर्शन देने की तैयारी कर रहा है। हमारे जनतंत्र को जनपथ इतना पसंद आया है कि पिछले इकसठ साल से वह इसी इलाके में कदम-ताल कर रहा है। वह अभी तक देश के करोड़ों गण से मिलने उनके आगंन, खेतों, छप्परों, फुटपाथों में नही पहुंचा है। हालांकि वह हमेशा हर जगह अपनी उपस्थिति का वायदा करता है, किन्तु अपने जन्म से ही वह जिन लागों की गाद में जा बैठा है वे ही लोग उसे झूठे वायदे करने की आदत डालने में कामयाब हो गए हैं। गणतत्रं से वंचित लोग तिरंगा हाथ में थामेअपने गणतंत्र का स्वागत करने  उससे अपना सुख-दुख बतिआने की प्रतिक्षा करते-करते  बूढ़े हो गए और नई पीढ़ी इन बूढ़ों से बार-बार पूछती हैं कि कहां है हमारा गणतंत्र ?
       हमें गणतंत्र के  आने की झूठी तसल्ली दे कर हमारी हलाकान जिन्दगी को और हलाकान क्यों कर रहे हो ? अब इन दोनों पीढ़ियों को कोसे और कौन समझाए कि हमारे गणतंत्र का जो लोग पालन-पोषण कर रहें हैं वे कभी नहीं चाहते कि गणतंत्र आम आदमी की सोहबत में रहने लगे, क्योंकि ऐसा होने पर गणतंत्र कुलीनों का नहीं बल्कि आम आदमी का गणतंत्र बन जायेगा और फिर उनके वैभव, अहंकार, बेहिसाब अमीरी, मसलपावर, घमंड, परिवारवाद, स्वार्थ, लालच निरंकुशता के द्वारा सत्ता पर पकड़ के लोप होने की सम्भावना प्रबल हो जायेगी। इसीलिए यह लोग हर साल छब्बीस जनवरी को सुबह एक दिन के लिए गणतंत्र को जनपथ पर सार्वजनिक दर्शन के लिए अपनी कैद से बाहर निकालते हैं और दूर से गणतंत्र के आम आदमी को दर्शन करा कर रात होते ही अगले साल तक के लिए लुटियन की पहाड़ी में बने सौ साल पुराने अंधेरे तहखाने में फिर सुरक्षित कैद कर देते हैं।
हमारा जनतंत्र सब के पास जाना चाहता है किन्तु उसे जाने नहीं दिया जाता। जब-जब गणतंत्र ऐसा करने का प्रयास करता है तो उसके संरक्षक बने सियासत के सुलतान उसके रास्ते में अजीब-अजीब दलीलों के स्पीड बे्रकर खडेÞ करके आम आदमी तक जाने में बाधा पहुचाने में सफल हो जाते हैं। एक बाधा और भी है कि हमारे गण्तंत्र को जिसे संविधान से रोशनी मिलती है, वह संविधान पूर्ण नहीं है, क्योंकि संविधान सभा का चरित्र लोकतांत्रिक नहीं था। संविधान बनाने का दायित्व निर्वाचित संसद को सौंपा जाता तो बेहतर संवैधानिक हथियार देश को मिलता। इस संविधान के अर्न्तगत चुनी हुई सरकारों ने अपनी जरूरतों के अनुरूप संवैधानिक मूल्यों को नकारते हुए कई परिवर्तन कर लिये। कालाधन, चुनाव में धनबल, बाहुबल का तांडव, नौकरशाही का असमाजिक चरित्र और दबदबा,  भ्रष्टाचार, संविधान की व्यवस्थाओं के विपरीत होते हुए भी पनप रहें हैं। सरकारी जुआं-घर के रूप में शेयर बाजार, वायदा बाजार में सरकार करोड़ों रुपए की कमाई जुआड़ियों को करवा रही है। जबकि करोड़ों लोग बीस रूपए रोज भी नहीं कमा पा रहे हैं। हमारे संविधान को तैयार करने और अंगीकार करने में तीन साल पांच माह और ग्यारह दिन लग गए। इस संविधान में हमें दुनिया भर के संविधानों की झलक तो मिलती है, किन्तु अपनी विधि की झलक नहीं मिलती। संविधान में हमारा परिचय केवल एक वाक्य में है- भारत अर्थात् इंडिया राज्यों का संघ होगा। हमने भारत को भी इंडिया से व्याख्या करने की जरूरत समझी। जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में जो पीढ़ी राज कर रही थी, वह अपनी अंग्रेजी शिक्षादीक्षा के कारण यूरोपीय विचारों से इतनी चौंधिआई हुई थी कि उसके बाहर कुछ देख पाना उसके लिए सम्भव नहीं था।
 जो लोग हमारा संविधान बनाने बैठे थे वे स्वतंत्रता आन्दोलन की इस मूल दृष्टि से ही पीठ फेर कर बैठे थे कि भारत में जीवन के मूलभूत सिद्धांत स्वदेशी, सत्य, अंहिसा, अपरिग्रह, और भारतीयता है। हमारे संविधान में गण तो कहीं है ही नहीं। गण मूलत: एक समूहवादी पद है। भारत में हमेशा समाज को विभिन्न समूहों के रूप में देखा गया है। यहां समाज की अंतिम इकाई परिवार है व्यक्ति नहीं। हमारा संविधान राज्य और एकल नागरिकों के बीच अधिकारों और कर्तव्यों का दस्तावेज है। हमारे यहां संम्प्रभुता जैसी कोई धारणा नहीं थी। यूरोप में जिस तरह राज्य को संप्रभु माना गया है, हमारे यहा नहीं माना गया। हमारे यहां राज्य को विधि के नहीं दंड का अधिकार रहा है।
 असल में हमारा संविधान पूंजीवादी गणतंत्र का पैरोकार है। इसी के चलते सन 1991 में हमारी अर्थनीति में जो गहरे परिर्वतन हुए उन्होंने राज्य को आम आदमी के प्रति अधिक संवेदना-शून्य और क्रूर बना दिया । हमारे इसी संविधान को हाथ में लेकर जनता के खजाने से सरकारें दिवालिया होने जा रहे उद्योगों को अरबों रुपए के पैकेज उदारता से दान कर देती है। टैक्स माफ कर दिये जाते हैं, किन्तु किसान से उसके खेत नाममात्र के मुआवजे में छीन कर उद्योगों को देकर अन्नदाता किसान को भूमिहीन मजदूर बनाकर बीपीएल कार्ड थमा दिया जाता है। आजादी के बाद देश में सर्वाधिक किसानों की आत्महत्या का रिकार्ड हमीं ने बनाया है। हमारा गणतत्र मुठ्ठी भर लोगों को घनकुबेर बनाने का अवसर सुलभ कराता है और शेष लोगों को नमक-रोटी तक सीमित रखता है। गणतंत्र का बुनियादी ध्येय समानता है और हमारे यहां इसी का अभाव है। समानता और स्वतंत्रता   जुड़वा संताने हैं। लेकिन, बासठ साल हो जाने पर भी उदारीकरण की आत्मघाती नीतियों ने गणतंत्र को विकसित ही नहीं होने दिया। हमारे लोकतंत्र में लोक बेबस होता जा रहा है। उसके प्रतिनिधि बिकते जा रहे हैं, भ्रष्ट होते जा रहे है। यह कैसा गणतंत्र है, जिसमें देश की सरकारें गण की इच्छाओं के खिलाफ जा कर फैसले  कर रही हंै। जनता को मूर्ख समझने और उसे धमकाने में लगी हैं। जन इच्छा को रौंदने में विपक्ष भी पीछे नहीं है। अभी मजबूत लोकपाल के प्रसंग में सत्ता और विपक्ष दोनों ने जन इच्छा को कुतुबमीनार पर टांग कर बता दिया कि जनता नहीं हमारा गिरोह ही देश का भाग्यविधाता है।
  असल में पेशेवर राजनीतिज्ञ गणतंत्र की सबसे बड़ी समस्या हैं। यह वर्ग पराजीवी है। जब तक देश में पेशेवर राजनीतिज्ञ रहेंगे तब तक देश में गणतंत्र दिल्ली के तहखाना में कैद ही रहेगा। राजकाज से जिनकी जीविका ही नहीं चलती बल्कि अवैध कमाई का रास्ता खुलता है, उन्हें भ्रष्ट और स्वार्थी होने में हिचकिचाहट नहीं होती। सत्ता में ही बने रहना इनका एकमात्र लक्ष्य हो जाता है। संवैधानिक तानाशाही और अंखड भ्रष्टाचार की जहरीली छाया में गणतंत्र का कोमल विरवा कुम्हला रहा है। यह अच्छी बात है कि अपनी नर्क से भी बदतर जिदंगी के बावजूद आम आदमी निराश नहीं है और उसे विश्वास है कि वह अपने गणतंत्र को कैद से आजाद करा लेगा।                            

...जिसकी जिन्दगी दूध की धोई है?


   चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
उन्नीस सौ पचास ईस्वी सन् की छब्बीस जनवरी को भारत (दैट इज इंडिया) में लोकतंत्रात्मक गणराज्य की स्थापना संवैधनिक रूप से की गई। पहला आम चुनाव जिसमें जनता ने पहली बार मतदान, सरकार बनाने के लिए किया जो दो वर्ष बाद सम्भव हो सका ओर पहली पंचवर्षीय योजना और सरकार उन्नीस सौ बावन में विधिवत कार्यक्रम में गठित हुई। 26 जनवरी 50 को इतिहास रावी तट के किनारे हुए एतिहासिक कांग्रेस अधिवेशन 26 जनवरी 30 के पारित प्रस्ताव ‘पूर्ण स्वतंत्रता’ के पुनरावृत्ति की तारीख है। आज गणतंत्र शब्द 26 जनवरी के अंक में तब्दील हो चुका है। 62 वर्ष पूर्व पहले देश की आबादी तैंतीस करोड़ थी, आज एक अरब इक्कीस करोड़ से अधिक है। जनतंत्र के जन्म पर राष्ट्रकवि दिनकर ने एक कविता ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है,’ कालांतर में जेपी आंदोलन का नारा भी बनी, लिखी थी ‘सबसे विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा। तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तैयार करो। अभिषेक आज राजा का नहीं प्रजा का है। तैंतींस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।’  1950 का जनतंत्र सपनों का जनतंत्र था। आज के जनतंत्र का यथार्थ यह है कि 543 सांसदों में 408 सांसद करोड़पति हैं और वे भारत के प्रतिनिधि हैं जिन्हें जनता ने चुना है और जो स्वयं 20 रुपये रोज पर गुजारा करती है। ये सांसद साधारण पानी नहीं मिनरल वाटर पीते हैं और 77 प्रतिशत आबादी के अधिकांश हिस्से में पीने के पानी के लिए पोखरों, तालाबों और नदियों के गंदले पानी पर निर्भर रहना पड़ता है। बाइस रुपये वाला अपने मत की कीमत कितनी लगा सकता है। मुकुट जनता के सिर से छीन लिया गया।
   संसद, हमारी चुनी हुइ सबसे बड़ी पंचायत है। पंडित नेहरु को उत्तरार्द्ध शासन में संसद की ताकत का अहसास डॉ. लोहिया ने कराया था। 67-68 में मुधलिमये ने सुरक्षा कोष और सुखड़िया को सोने की र्इंट प्रकरण में घेरा था। क्रम से घिरते हुए कितने ही मंत्री बहुमत के बल पर बचते रहे, जनता देखती रही, जानती रही कि हमारा प्रतिनिधि चोर है, लेकिन पांच वर्ष तो सब्र करना ही था। संसद की सर्वोपरिता का दावा करने वाले भी जानते हैं कि सच क्या है? लेकिन न्यायिक प्रक्रिया की जय हो, आज तक किसी बड़े नेता (सिवाय सुखराम) के दोषी, पूर्णता नहीं करार दिया जा सका। संसद पर ‘धूमिल’ ने तीखी टिप्पणी की थी- ‘मेरे देश की संसद/तेली की वह धानी है/ जिसमें आधा तेल और आधा पानी है।’ या फिर यही सच है- ‘यहां, सिर्फ वह आदमी, देश के करीब है/ जो या तो मूर्ख है/ या फिर गरीब है।’
देश का करोड़ों अरबों का काला धन स्विस बैंको में जमा है, जिसे सरकार और जनता दोनो जानती हैं, परंतु कुछ कर क्यों नहीं पाती, यह बताने वाला कोई नहीं है। कुछ दिन पहले धैर्य का उन्माद था, अब जातीय उन्माद है। जातिगत आधार और संख्या बल पर सभी दल टिकट बांट रहे हैं। जातियां लड़ रहीं हैं, नफरत और घृणा चरम पर है। आरक्षण की पूंछ हनुमानजी की पूंछ की तरह बढ़ रही है। डॉ. अम्बेडकर ने पिछड़े, अनुसूचितों, जनजातियों के लिए इतने दिनों तक आरक्षण की स्वीकृति नहीं दी थी। अल्पसंख्यकों को आरक्षण देकर एक और पाकिस्तान बनाने की भूमिका की तैयारी है। कोई भी लोकतंत्र ऐसा नहीं हो सकता जो अल्पसंख्यकों को ऐसे विशेषाधिकार दे जिनसे बहुसंख्यक समाज को वचिंत रखा जाए। आरक्षण में पढ़ाई की, ढेर सारी सुविधाएं देना तो ठीक है, लेकिन चयन या नियुक्ति पर गुणवत्ता का ध्यान रखा जाय, जिससे देश की बौद्धिक क्षमता का ग्राफ न गिरे। हमारे प्रधानमंत्री बड़े बेबाक और बेलाग कहते हैं कि देश की गणतीय और भौतिकीय प्रतिभाएं कम हो रही हैं। जो प्रतिभाएं हैं उनका लाभ अमेरिका और ब्रिटेन ले रहा है। उनकी दृष्टि में न देश है न समाज, वे सिर्फ अपने लिए जी रहे हैं। प्रतिभा पलायन क्यों हो रहा है।  कमोवेश यही स्थिति राजनेताओं की है। देश सेवा मात्र शब्द रह गया है। कभी एक धृतराष्टÑ था, अंधा था, स्वाभाविक था अपने बेटों का मोह! आज आंख वाले धृतराष्टÑ हैं, उन्हें सिर्फ अपने बेटे दिख रहे हैं, यह गणतंत्र सिर्फ भारत का हो सकता है। प्रत्येक दल अपने दुर्याेधनों को सुयोधन समझ रहा है। क्या यह वही देश है जहां गांधी, तिलक, गोखले, सुभाष, भगत सिंह, आजाद, लोहिया, जेपी, गणेशशंकर विद्यार्थी हुए थे, जिन्होंने अपनी पुत्र-परम्परा की तरफदारी नहीं की। क्या त्याग बलिदान का भी कुछ अर्थ होता है? आज क्या हम ईमानदारी से किसी एक ईमानदार नेता की कल्पना कर सकते हैं? अन्ना को जिस तरह घेरकर निरर्थक साबित किया जा रहा है वह चिंतनीय है। 42 वर्ष पूर्व तक धूल खा रहे लोकपाल को थोड़ा झाड़-फंूककर संसद में लाना सरकार की प्रतिबद्धता नहीं मजबूरी थी। जनलोकपाल वह रस्सी थी जो सबके गले में फिट बैठ रही थी। अपना गला भला कौन फंसाना चाहेगा? ईमानदार और सही व्यक्ति के लिए मुहावरा गढ़ लिया गया है कि ‘वह इसलिए ईमानदार है कि उसे मौका नहीं मिला।’ राजनीति कभी सेवा के रूप में जन्मी थी, आज वह मेवा बन चुकी है। गणतंत्र का गाल सूखा है, माथे पर झुर्रियां हैं, गले की नसें तनी हैं, लोक का तंत्र नहीं रहा, कुछ लोगों का तंत्र हो गया है। लोक ठगा सा अपने बनाए तंत्र के आगे बेबस है, जिसे भी चुनता है, वही उस पर धौंस जमाता है। शासक, शासित हो गया है। शायद इन्हीं   हुक्मरानों को देखकर अदम गोंडवी ने कहा है- ‘जो डलहौजी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे/ कमीशन दो हिन्दुस्तान को नीलाम कर देंगे।’ यह सच है कि लोकतंत्र से बेहतर कोई शासन व्यवस्था नहीं हो सकती परंतु 20-25 प्रतिशत मत पाने वाला 75-80 प्रतिशत का भाग्य विधाता कैसे हो सकता है? यह प्रश्न उठाकर चुनाव प्रक्रिया में परिवर्तन की मांग भी उठना आज के समय की मांग है। सार्वजनिक जीवन में शुचिता की नितांत आवश्यकता है। कोई रोल मॉडल नहीं दिखता। बहुत पहले भवानी भाई ने प्रश्न किया था-  कोई है, कोई है, कोई है, जिसकी जिन्दगी दूध की धोई है। आज भी करोड़ों ऐसे दूध के धोए लोग हैं, जो हाशिये पर हैं, क्योंकि वे राजनीति का छल-प्रपंच नहीं जानते। विश्वास का ऐसा यह संकट जन-गण में क्यों है?            

नवजागरण का संवाहक बने मीडिया

     मार्कंडेय काटजू
भारत में मीडिया जो भूमिकाएं निभा रहा है,उसे समझने से पहले हमें ऐतिहासिक संदर्भों को समझना होगा। वर्तमान भारत अपने इतिहास में संक्रमण के दौर से गुजर रहा है: एक सामंती खेतिहर समाज से औद्योगिक समाज की ओर संक्रमण। यह बहुत पीड़ादायक और व्यथित कर देने वाला दौर है। पुराने सामंती समाज की चूलें हिल रही हैं और कुछ तब्दीलियां हो रही हैं लेकिन नया, आधुनिक, औद्योगिक समाज अभी तक संपूर्ण ढंग से स्थापित नहीं हुआ है। पुराने मूल्यों की किरचें बिखर रही हैं, सारी चीजें उबाल पर हैं। शेक्सपियर के मैकबेथ को याद करें... रौशन चीजें धूल धूसरित हैं और धूल धूसरित रौशन...। सभी देशप्रेमियों का, मीडिया सहित, यह फर्ज है कि वे इस संक्रमण से कम से कम पीड़ा और तत्काल उबारने में हमारे समाज की मदद करें। इस संक्रमण काल में मीडिया को एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करनी होती है क्योंकि इसका ताल्लुक विचारों से होता है, सिर्फ वस्तुओं से नहीं। अत: अपने मूल स्वभाव में मीडिया किसी अन्य साधारण व्यवसाय की तरह नहीं हो सकता।
ऐतिहासिक तौर पर, प्रिंट मीडिया का उद्भव यूरोप में सामंती शोषण के खिलाफ जनता के एक सक्रिय हस्तक्षेप के बतौर हुआ। उस वक्त सत्ता के सभी उपकरण दमनकारी सामंती अधिकारियों के हाथों में थे। अत: नए लोगों को एक माध्यम की जरूरत थी, जो उनका प्रतिनिधित्व कर सके। इसलिए प्रिंट मीडिया को चौथे स्तंभ की तरह जाना जाने लगा। यूरोप और अमेरिका में यह भविष्य की आवाज का प्रतिनिधित्व करता था, जो सामंती अंगों-अवशेषों, जो कि यथास्थिति को बनाए रखना चाहते थे, के विपरीत था। मीडिया ने इसलिए सामंती यूरोप को आधुनिक यूरोप में परिवर्तित करने में एक अहम भूमिका अदा की।
मेरे ख्याल से भारत के मीडिया को एक वैसी प्रगतिशील भूमिका का निर्वहन करना चाहिए, जैसी कि यूरोप की मीडिया ने उसके संक्रमण काल में निभाया था। ऐसा वह पुरातन, सामंती विचारों और व्यवहारों- जातिवाद,साम्प्रदायिकता और अंध-मान्यताओं पर आक्रमण करते हुए, आधुनिक, वैज्ञानिक और तार्किक विचारों को प्रोत्साहित करते हुए कर सकता है। लेकिन क्या हमारा मीडिया ऐसा कर रहा है?  मेरी राय में, भारतीय मीडिया का एक बड़ा हिस्सा(खासतौर से इलेक्ट्रानिक मीडिया) जनता के हितों को पूरा नहीं करता, वास्तव में इनमें से कुछ यकीनन(सकारात्मक तौर पर)जनविरोधी है। भारतीय मीडिया में तीन प्रमुख दोष हैं जिन्हें मैं रेखांकित करना चाहता हूं। पहला, मीडिया अक्सर लोगों का ध्यान वास्तविक मुद्दों से अवास्त्विक मुद्दों की ओर भटकाता है। वास्तविक मुद्दे भारत में आर्थिक-सामाजिक हैं भयंकरतम गरीबी, जिसमें हमारे 80 फीसदी लोग जीते हैं। कमरतोड़ मंहगाई,स्वास्थ्य, शिक्षा जरूरतों की कमी और पुरातनपंथी सामाजिक प्रथाएं। अपने कवरेज का अधिकांश हिस्सा इन मुद्दों को देने के बजाय, मीडिया अ-वास्तविक मुद्दों को केंद्रित करता है जैसे फिल्मी हस्तियां और उनकी जीवन शैली, फेशन परेड, नाच-गाना, ज्योतिष, क्रिकेट, रियल्टी शो, और अन्य कई मुद्दे।
इसमें कोई आपत्ति नहीं हो सकती कि मीडिया लोगों को मनोरंजन मुहैया कराता है, लेकिन इसे अतिरेक में नहीं परोसा जाना चाहिए। स्वास्थ्य, शिक्षा, श्रम, कृषि और पर्यावरण इन सबको मिलाकर मनोरंजन को नौ गुना ज्यादा कवरेज मिलता है। क्या एक भूखे या बेरोजगार व्यक्ति का दिल ऐसे मनोरंजन से बहलेगा। कई चैनल दिनभर और दिन के बाद भी क्रिकेट दिखाते रहते हैं। रोमन शासक कहा करते थे कि अगर आप लोगों को रोटियां नहीं दे सकते, तो उन्हें सर्कस दिखाइए। लगभग यही नजरिया भारत के सत्ता-स्थापनाओं का भी है, जिसे हमारा मीडिया भी सहयोग करता है। हाल ही में ‘द हिन्दू’ ने प्रकाशित किया कि पिछले 15 सालों में ढाई लाख किसानों ने आत्महत्या की है। लक्मे फैशन सप्ताह 512 आधिकारिक पत्रकारों द्वारा कवर किया गया। उस फैशन सप्ताह में, मॉडल्स सूती कपड़ों पर रैंप में शो कर रहीं थी, जबकि विदर्भ में कपास उगाने वाले किसान आत्महत्या कर रहे थे। कस्बाई पत्रकारों को छोड़ इन बदनसीबों पर किसी की नजर नहीं पड़ी। यूरोप में, विस्थापित किसानों को औद्योगिक क्रांति द्वारा स्थपित कारखानों तें रोजगार मिल मिल गए थे। भारत में विस्थापन किसानों के लिए अभिशाप से कम नहीं। कई कारखानों को साजिशन बंदकर रियल स्टेट में बदल दिया गया। विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार की तीव्र गिरावट देखी गई है। ये सभी चीजें मीडिया द्वारा नजरअंदाज की जाती हैं, जो हमारे अस्सी फीसदी लोगों की कठोर आर्थिक वास्तविकताओं के प्रति नेल्सन की आंख जैसे नजर फेरे हुए हैं, और बदले में कुछ चमकते दमकते पोतेमकिन गांवों की और सारा ध्यान लगाए हुए हैं।
दूसरा, मीडिया अक्सर ही लोगों को विभाजित करता है। जब कभी भी कोई बम विस्फोट होता है, कुछेक घंटों के भीतर ही टीवी चैनल कहना शुरू कर देते हैं कि इंडियन मुजाहिदीन या जैस-ए-मोहम्मद से जिम्मेदारी कबूल करते हुए उन्हें एक ई-मेल या एसएमएस मिला हे। यह नाम हमेशा ही एक मुस्लिम का होता है। अब ये ई-मेल या एसएमएस कोई भी ऐसे बुरे इरादों वाला आदमी भेज सकता है जिसका मकसद साम्प्रदायिक नफरत फै लाना हो। उन्हें टीवी स्क्रीन पर और अगले ही दिन टीवी स्क्रीन पर क्यों दिखाया जाना चाहिए।   इसके दिखाने का सीधा संदेश यह देना होता है कि सभी मुसलमान आतंकी हैं या बमबाज हैं।
 आज भारत में रहने वाले तकरीबन 90 से 93 फीसदी लोग विभिन्न तरह के विस्थापित जड़ों से ताल्लुक रखते हैं। अत: भारत में एक जबरदस्त विविधता है: कई सारे धर्म, जातियां,भाषाएं, नृजातीय समूह। यह बेहद जरूरी है कि अगर हम लोगों को एकजुट और समृद्ध रखना चाहते हैं तो सारे समुदायों के प्रति सहिष्णुता और समानता हो। जो भी हमारे लोगों के बीच विभाजन के बीज बोता है, चाहे यह धर्म य जाति या भाषा या क्षेत्रीयता किसी के भी आधार पर हो, वह वास्तव में हमारा दुश्मन है। जैसा कि मैने पहले ही कहा है कि इस संक्रमण काल में हमारी जनता को आधुनिक, वैज्ञानिक युग की ओर अग्रसर करने में मीडिया को सहायक की भूमिका अदा करनी चाहिए। इस उद्देश्य के लिए मीडिया को तार्किक और वैज्ञानिक विचारों का प्रचार-प्रसार करना चाहिए, लेकिन ऐसा करने के बजाय हमारे मीडिया का एक बड़ा हिस्सा विभिन्न तरह के अंधविश्वासों को परोसता रहता है। यह सच्चाई है कि बहुतेरे भारतीयों का बौद्धिक स्तर बहुत कम है वे जातिवाद, साम्प्रदायिकता और अंधविश्वासों में जकड़े हुए हैं। हालांकि सवाल यह है:  तार्किक और वैज्ञानिक विचारों के प्रचार-प्रसार के  जरिए मीडिया को हमारे लोगों के बौद्धिक स्तर को उन्नत करना चाहिए। यूरोप के पुनर्जागरण के युग में, मीडिया ने लोगों के मानसिक स्तरों में इजाफा किया,उसने स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व तथा तार्किक चिंतन का प्रचार-प्रसार करते हुए लोगों की मानसिकता में बदलाव लाया। वॉल्तेयर ने अंधविश्वासों पर आक्रमण किए और डिंकेस ने जेल,स्कूलों, अनाथालयों, अदालतों आदि की भयानक दशाओं की आलोचना की। हमारे मीडिया को भी क्या यही सब नहीं करना चाहिए? एक समय में राजा राम मोहन रॉय जैसे साहसी लोगों ने अपने अखबारों मिरातुल और संवाद कौमुदी में सती-प्रथा, बाल-विवाह और पर्दाप्रथा के खिलाफ आलेख लिखे। निखिल चक्रवर्ती ने 1943 बंगाल के अकाल की भयावहता के बारे में लिखा। प्रेमचंद और शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने सामंती रिवाजों और महिलाओं के उत्पीड़न के बारे में लिखा। सआदत हसन मंटो ने विभाजन के खौफ के बारे में लिखा। लेकिन आज के मीडिया में हमें क्या दिखता है? कई चैनल नक्षत्र-शास्त्र पर आधारित कार्यक्रम दिखाते हैं। नक्षत्र-शास्त्र को खगोल-विज्ञान के साथ गड्डमगड नहीं किया जाना चाहिए। खगोल-विज्ञान एक विज्ञान है जबकि नक्षत्र-शास्त्र पूरी तरह अंध-विश्वास और गोरख धंधा है। यहां तक कि एक सामान्य विवेक भी हमें बता सकता है कि तारों और ग्रहों की परिक्रमा या किसी आदमी के पचास या अस्सी साल में मरने, या किसी के इंजीनियर, डॉक्टर, वकील बनने के बीच कोई संबंध नहीं है। मैं यह नही ंकहता कि पूरे मीडिया में कोई अच्छा पत्रकार नहीं है। कई अच्छे पत्रकार हैं। इन्हीं लोगों ने ही किसानों की चिंता की। उनकी आत्महत्याओं के मामलों उजागर किया। पर ऐसे अच्छे पत्रकार अपवाद हैं। बहुसंख्या ऐसे लोगों की है, जो जनहित में खरा उतरने की चाहत नहीं रखते।
मीडिया के इन दोषों को दूर करने के लिए मुझे दो चीजें करनी है। पहला, मेरा प्रस्ताव है कि प्रत्येक दो माह या अन्य किसी अंतराल में मीडिया (इलेक्ट्रानिक मीडिया सहित) नियमित बैठकें हों। ये बैठकें समूची प्रेस कौंसिल की होने वाली नियमित बैठकें नहीं होंगी, लेकिन अनौपचारिक मेलजोल होगा, जहां हम मीडिया से संबंधित मुद्दों पर विचार विमर्श करेंगे और उनका लोकतांत्रिक तरीके से, अर्थात बातचीत के जरिए सुलझााने की कोशिश करेंगे। मेरा यकीन है नब्बे फीसदी समस्याएं इन तरीकों से सुलझाई जा सकती हैं। दूसरा एक हद के बाद जहां मीडिया का एक हिस्सा उपरोक्त सुझाए गए लोकतांत्रिक प्रयासों के बावजूद इन्हें अनुत्पादक साबित करने की हठ पर अड़ा हो, कठोर उपायों की जरूरत पड़ेगी।  इस संबंध में मैंने प्रधानमंत्री को प्रेस आयोग अधिनियम में संशोधन  करने का आग्रह किया है। इलेक्ट्रानिक मीडिया को भी प्रेस कौंसिल के दायरे में लाया जाए और इसे शक्ति-सम्पन्न बनाया जाए। मिसाल के तौर पर सरकारी विज्ञापन बंद करना, या अतिरेक स्थिति में मीडिया हाउस के लाइसेंस को स्थगित करना। जैसा कि गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है- भय बिन होय न प्रीति। यद्यपि इसका इस्तेमाल सिर्फ  बेहद अतिरेक स्थितियों और लोकतांत्रिक उपायों के असफल होने के बाद ही किया जाएगा। यहां एक आपत्ति हो सकती है कि यह तो मीडिया की स्वतंत्रता को बाधित करना है। ऐसी कोई स्वतंत्रता नहीं हो सकती, जो अमूर्त और परम हो। सभी स्वतंत्रताएं तर्कसंगत सीमा का विषय होती हैं, और इसमें जिम्मेदारी भी निहित होती है। एक लोकतंत्र मे हर कोई जनता के प्रति उत्तरदायी है, और इसलिए हमारा मीडिया भी।
निष्कर्षत: भारतीय मीडिया को अब आत्म-चिंतन, एक उत्तरदायित्व की समझ और परिपक्वता विकसित करना चाहिए।  इसका अर्थ नहीं है कि इसे  सुधारा नहीं जा सकता। मेरी मान्यता है कि गड़बड़ी करने वालों में 80 फीसदी एक धैर्यपूर्ण बातचीत के जरिए, उनकी गलतियों को इंगित करके अच्छे लोग बनाए जा सकते हैं और धीरे-धीरे उन्हें सम्मानजनक स्थिति की ओर अग्रसर किया जा सकता है, जिस पर यूरोप का मीडिया नवजागरण काल में चल रहा था।

जयपुर का साहित्य उत्सव

By Tejinder Gagan
जयपुर का साहित्य उत्सव इन दिनों चर्चा में है। सच बात तो यह है कि किसी भी उत्सव में उसके साथ एक तरह की प्रसन्नता का जुड़े होना जरूरी होता है। वह भी अगर लेखन जैसी विधा हो तो और ज्यादा क्योंकि लेखन को अन्य कलाओं से कुछ अलग करके देखा जाता है। दरअसल लेखन को सिर्फ कला के लिए नहीं जाना जा सकता। जो लोग लेखन को सिर्फ कला का माध्यम मानते हैं उनकी समझदारी पर तो सिर्फ संदेह ही किया जा सकता है। लेखन का सीधा संबंध सामान्य जनमानस के दुख और सुख के साथ साझेदारी तो है ही, उसके भीतर मनुष्य को मनुष्य समझने और सामाजिक समरसता की समझ पैदा करने की ताकत भी होनी चाहिए। तभी उस लेखन को सार्थक कहा जा सकता है और अर्थपूर्ण भी। ऐसा नहीं है कि जयपुर के साहित्य उत्सव में जो लेखक भाग ले रहे हैं उनके भीतर यह समझ नहीं है बल्कि उनमें विश्व की अनेक बोलियों और भाषाओं के वे लेखक शामिल हैं जिन पर किसी भी समाज को गर्व हो सकता है। बड़ी संख्या में जयपुर में उपस्थित लेखक गंभीर विचार विमर्श में व्यस्त हैं, पर फिर भी इस अंतर्राष्ट्रीय उत्सव की पृष्ठभूमि पर संदेह क्यों होता है? उत्सव की सबसे बड़ी कमजोरी उसमें हिंदी के उन लेखकों की अनुपस्थिति है जो कि हमारे देश के यथार्थ और समकालीन समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं। लेखकों के इस उत्सव में एक तरह के अभिजात्य का रंग दिखाई देता है और जहां वे बैठते हैं उसके पीछे बैंक ऑफ अमेरिका का बड़ा सा पर्दा दिखाई देता है। यही सब से बड़ा दर्प है। पता नहीं अंग्रेजी का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इस बात को कब समझेगा कि भारत में आयोजित किया जाने वाला हर उत्सव तब तक कोई मायने नहीं रखता जब तक कि उसकी जड़ें, भारतीय जनमानस के साथ गहरा रिश्ता न रखती हों। हिन्दी के जिन लेखकों को अभी तक इस उत्सव में भाग लेते हुए सुना है उनमें सिर्फ डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल हैं जिन्होंने भक्ति और मध्यकाल पर अपनी महत्वपूर्ण बातें कही हैं। उन्होंने कहा कि भक्ति की कविता मनुष्य को मनुष्य बनाती है, भक्ति में समर्पण का अर्थ भागीदारी और संवेदना से है, यह सामंत और चाकर का संबंध नहीं है। डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल के शब्दों में मध्यकाल हिन्दुस्तान का आधुनिक काल है। मानव-अधिकार एक सभ्य समाज का अधिकार है और उनमें अभिव्यक्ति का अधिकार सबसे बड़ा है।
डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल को अपवाद स्वरूप छोड़ दिया जाए तो हिन्दी के नाम पर जयपुर साहित्य उत्सव में अशोक चक्रधर हैं जो कि ''खिली बत्तीसी'' का पाठ कर रहे हैं या फिर उनके बरक्स फिल्मी लेखक गुलंजार हैं जो पता नहीं हिन्दी के हैं या नहीं क्योंकि वे स्वयं ही किसी मंच से अपने आप को उर्दू से जोड़ते हैं तो किसी मंच से पंजाबी के साथ, भाषा को छोड़ भी दें तो संवेदना के स्तर पर भी वे मध्य वर्ग के एक सीमित तबके के करीब उसकी तनहाईयों में ही मौजूद रहते हैं।
इस उत्सव में एक की उपस्थिति चर्चा में है तो दूसरे की अनुपस्थिति। अनुपस्थिति से मेरा संकेत 'मिडनाईट चिल्ड्रेन' के प्रख्यात लेखक सलमान रूश्दी से है। मुझे लगता है कि उनकी अनुपस्थिति से इस उत्सव को ज्यादा महत्व और चर्चा मिली है। वैसे यह अपने आप में एक दुखद तथ्य है कि एक जनतांत्रिक देश में जिसमें कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सबसे ज्यादा तरजीह मिलनी चाहिए, हमें एक ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ रहा है जो हमारे जीवन-मूल्यों और परम्परा के अनुकूल नहीं है। लेखक की अपनी उपस्थिति का सवाल अगर छोड़ भी दें तो उसकी अनुपस्थिति में उसके लिखे को पढ़ा जाना भी अपराध है, इस बात का आभास होता है जो कि निश्चित ही दुखद है और जिस पर क्षोभ ही व्यक्त किया जा सकता है। फारसी के प्रख्यात लेखक मोहसिन रवानी ने सत्रहवीं सदी में कहा था कि ''हिन्दू वे लोग हैं जो आपस में लगातार विरोध करते रहते हैं और कभी-कभी सहमत भी हो जाते हैं।'' इस बात से यह समझा जा सकता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारी बहुत पुरानी और प्रिय परम्परा है।
इस उत्सव में अपनी उपस्थिति से चर्चा में है- ओप्राह विनफ्रे। ओप्राह का जन्म 29 जनवरी 1954 को कोसेक्सू मिसीसिप्पी में हुआ। उनकी मां अभी अपनी किशोरावस्था में ही थीं और उनका ब्याह भी नहीं हुआ था। वे एक घर में नौकरानी का काम करती थीं जहां उन्हें दैहिक शोषण के अलावा और भी मानसिक प्रताड़नाएं झेलनी पड़ती थीं। ओप्राह भी जब तेरह साल की थीं तो उन्हें एक बाल सुधार गृह में भेज दिया गया। उन्होंने भी अपनी किशोरावस्था में एक बच्चे को जन्म दिया जिसकी बाद में मृत्यु हो गई। एक तकलीफदेह जीवन संघर्ष को पार करते हुए सत्रह वर्ष की उम्र में उन्होंने सौंदर्य प्रतियोगिता में एक महत्वपूर्ण पुरस्कार प्राप्त किया और रेडियो तथा टेलीविान मेें कार्यक्रम प्रस्तुत करने लगीं जो कि बेहद लोकप्रिय हुए। उनका सर्वाधिक चर्चित और लोकप्रिय कार्यक्रम ''द ओप्राहा विनफ्रे शो'' सितम्बर 1985 में आरंभ हुआ जिसने उन्हें अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्रदान की। इसे भी एक तरह की विसंगति ही कहा जाएगा कि इतने संघर्षशील व्यक्तित्व वाली ओप्राहा विनफ्रे को भी जब हमारा अंग्रोी का मीडिया लोगों के सामने प्रस्तुत करता है तो उसमें अभिजात्य और ग्लैमर का पुट इतना ज्यादा होता है कि किसी व्यक्ति का सारा संघर्ष गौण हो जाता है और जो सामने आता है उसमें सिर्फ एक तरह का धुंधलका होता है। ओप्राहा ने अपने जीवन में जो संघर्ष किया है और आज जिस मुकाम पर वे हैं, निश्चित ही उसकी तारीफ करनी होगी लेकिन सवाल यह है कि हमारे अंग्रेंजी मीडिया को अपने आसपास सब कुछ धुंधला ही क्यों दिखाई देता है। अभी पिछले साल ही सन् 2011 में हिन्दी के वरिष्ठ कवियों बाबा नागार्जुन, सच्चिदानंद, हीरानंद वात्सायन 'अज्ञेय' और केदारनाथ अग्रवाल की जन्म शताब्दियां थीं। मुझे नहीं लगता कि हमारे अंग्रेजी के इन प्रस्तुतकर्ताओं ने इन कवियों के नाम भी सुने होंगे। क्या अंग्रेजी के मीडियाकर्मी होने के नाते इनसे इतनी भी अपेक्षा नहीं की जा सकती कि हिन्दी के प्रतिष्ठित कवियों के न केवल नाम उन्हें मालूम हों बल्कि उनकी 'स्टार-वैल्यू' का भी पता हो। और सिर्फ हिन्दी ही क्यों अन्य भाषाओं जिनका समृध्द लेखन उपलब्ध है और जिन्हें पढ़ने वालों की एक बड़ी संख्या है, उन्हें भी अंग्रेजी के समाचारों में शामिल करने में कोई गुरेंज नहीं होना चाहिए। सिर्फ समाचार ही क्यों उन पर अंग्रोी में लघु-फिल्में और वृत्तचित्र भी तैयार करके दिखाए जाने चाहिए।
मेरी स्पष्ट मान्यता के अनुसार, जब तक जयपुर साहित्योत्सव जैसे कार्यक्रम में वामपंथी लेखक संगठनों के लोग शामिल नहीं होंगे तब तक, इस तरह के आयोजन अर्थहीन हैं। साहित्य का अभिजात्य उसके लोकरंग में होता है, विशिष्टता में नहीं, कबीर, तुलसी, मीरा और नानक अगर आज भी सामान्य जनमानस की जुबान पर है तो अपने अर्थ और जीवंतता के नाम पर है, कला और अभिजात्य के कारण नहीं। साहित्य से सरोकार रखने वाले आयोजकों को यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए।
tejinder.gagan@gmail.com

जस्टिस काटजू से कौन असहमत

जहां देश के शहीदों के पराक्रम को भुलाकर, स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के योगदान की अनदेखी करके, फिल्मी परदे पर गत्ते की तलवार भांजने वाले अभिनेता को शताब्दी का महानायक घोषित कर दिया जाता हो। ग्यारह साल से अनशनरत गाँधीवादी योद्धा शर्मिला एरोम को हाशिए में डालकर, पोर्न स्टार सनी लियोन और फूहड़ राखी सावंत की अदाओं को सुर्खियां दी जाती हों, वहां हर विवेकशील व्यकित की प्रतिक्रिया जस्टिस मार्कडेय काटजू की तरह ही होगी कि अपने यहां टीवी का मतलब..क्रिकेट, केटरीना और कोलावेरी डी के ज्यादा कुछ भी नहीं। सुप्रीम कोर्ट के जज रहे जस्टिस काटजू वर्तमान में प्रेस कौंसिल आॅफ इन्डिया के अध्यक्ष हैं। नब्बे के दशक के शुरुआती दिनों में जब देश में एक के बाद एक आकाशीय चैनलों को अनुमति दी जा रही थी, तब एक मीडिया विशेषज्ञ की टिप्पणी काटजू की तरह ही तल्ख थी। उथले दिमाग वाले अप्रशिक्षित हाथों में जनसंचार का इतना सशक्त औजार देने का मतलब बंदर के हाथ में उस्तरा देने जैसा है। इसके जवाब में कहा गया था कि समय के साथ सब ज्ञानवान और कुशल हो जाएंगे। उदारीकरण की प्रक्रिया के बाइस साल हो गए क्या हम टीवी चैनलों के संदर्भ में आशा के अनुरूप दक्ष हो पाए? समाजिक सरोकार और राष्टÑीय हित को ध्यान में रखते हुए, क्या हम अपनी प्राथमिकताओं को तय कर पाए? हम जिस अमेरिका की उन्मुक्तता की दुहाई देते हुए आगे बढ़ रहे हैं, उसी अमेरिका से सबक लेने की जरूरत है। भारतयात्रा पर आर्इंओपरा विन्फ्रे जिन्हें इन दिनों अपने शताब्दी के महानायक ड्राइवर बनकर घुमा रहे हैं, वे अमेरिकी टीवी की नामचीन हस्ती हैं। विन्फ्रे के टॉक शो में आने के लिए दुनिया की बाड़ी से बड़ी हस्ती तरसती हैं। वे ऐश्वर्या राय जैसी सुंदर नहीं अपितु औसत नीग्रो महिला हैं। वस्तुत: विन्फ्रे के टॉक शो की विश्वसनीयता इतनी जबरदस्त है कि वे जिस लेखक की पुस्तक को सराह देती हैं तो वह लेखक रातों-रात सेलीबे्रटी और उसकी पुस्तक बेस्ट सेलर बन जाती है। विन्फ्रे के टॉक शो में बुलाए जाने मात्र से उस व्यक्ति का सोशल स्टेटस बढ़ जाता है। जाहिर है कि विन्फ्रे की प्रज्ञाचक्षु यथार्थ देखती है न कि किसी की हैसियत के मुताबिक उसकी विरुदावली पढ़ती हैं। अपने टीवी जगत में क्या कोई है ऐसा  विश्वसनीय चेहरा? कभी इंडियन एक्सप्रेस में गंभीर व अच्छा लिखने वाले रजत शर्मा का चैनल इंडिया टीवी भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र और अंधविश्वास परोसता है। रजत शर्मा के टॉक शो में राखी सावंत और बाबा रामदेव के स्वयंवर की चर्चाएं होती हैं। हम अमेरिका की जिस उन्मुक्तता की बात करते हैं उसी अमेरिका के चैनलों की राष्टÑ के प्रति जवाबदेही देखना है तो स्मृतियों को ताजा करिए, ट्विन-टॉवर और ट्रेडसेंटर पर अलकायदा के हवाई हमले पर जाइए। हमले के दृष्य के बाद न तो इमारतों का ध्वस्त मलबा दिखाया गया और न कटे हाथ और झुलसी लाशें। अपने यहां के उत्साही चैनलों ने आतंकवादियों के मुंबई हमले का लाइव प्रसारण किया। यह भी हो सकता है कि लाइव प्रसारण के आधार पर ही इस्लामाााद से गाइडेड आतंकवादियों को सुनियोजित हमले करने के दिशा निर्देश मिले, हेमंत करकरे, अशोक कामटे जैसे कर्मठ पुलिस अफसर मारे गए। अमेरिका के टीवी चैनल दुनिया में अपने देश की गरिमा को लेकर इतने सचेत हैं कि पूॅजीवाद के खिलाफ भड़के युवाओं के आंदोलन को भी बेहद समझदार तरीके से पेश करते हैं। जाकि हम हुड़दंगियों की छोटी सी खुराफातों तक को राष्टÑीय खबर बना देते हैं। कई साल पहले तीसरी दुनिया के मीडिया सम्मेलन(नामीडिया) में एक देश के प्रतिनिधि ने तो यहां तक कह दिया था कि जितने खतरनाक अमेरिका-ब्रिटेन के बमबर्षक और मिसाइलें नहीं हैं उससे कहीं ज्यादा खतरनाक एपी(अमेरिकी न्यूज एजेंसी) और रॉयटर(ब्रिटिश न्यूज एजेंसी) हंै। चाहे इराक हो या अफगानिस्तान दोनों देशों के खिलाफ युद्ध का वातावरण तैयार करने में इनके प्रोपेगंडा की ही प्रमुख भूमिका रही है। देश की अच्छी या बुरी छवि वहां का मीडिया गढ़ता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मायने यह नहीं कि हम कुछ भी दिखा दें और देश को दुनिया के सामने शर्मसार होने के लिए छोड़ दें। मीडिया के राष्टÑीय सरोकारों के संदर्भ में मुझे एक वाकया और याद आता है। याद करिए वह सीरीज, जिसमें इंग्लैंड के खिलाफ विनोद काम्बली ने दोहरा शतक जड़ा था और भारत ने सीरीज जीती थी। जानते हैं इंग्लैंड के गार्जियन जैसे प्रतिष्ठित अखाार ने क्या लिखा था? ...मुम्बई की गंदी चाल में रहने वाले एक लड़के, जिसकी जाति को भारत में अछूत माना जाता है, की किस्मत क्रिकेट ने रातों-रात बदल दी। अपने देश की हार के कारणों के बारे में गार्जियन ने कैफियत दी थी कि मुम्बई की उमस, कानपुर की गर्मी, हैदराबाद के प्रदूषण और कोलकाता की बेस्वाद झींगा मछलियों ने हमारे खिलाड़ियों का मनोबल तोड़ दिया और वे ऐसा खेल दिखाने से वंचित रह गए जिसके कि वे हकदार थे। ..विदेशी अखाारों में भारत.. पर एक अध्ययन में ये बातें सामने आर्इं थी, टाइम्स आॅफ इंडिया ने इस रिपोर्ट को छापा था। क्या हम अमेरिका और ब्रिटेन के राष्टÑवादी मीडिया से यह सीख लेंगे?  मैं उन लोगों से सहमत नहीं हूं कि टीवी चैनल दर्शकों को वही परोसते हैं जो व देखना चाहते हैं। ऐसा तर्क देने वाले अज्ञानी हैं या दर्शकों को मूर्ख बनाने वाले।   दूरदर्शन के जमाने में यदि रामायण,महाभारत के धार्मिक आख्यानों के सीरियलों को छोड़ दें तो भी उस दौर में ाुनियाद, हम"ोग, तमस, भारत एक खोज, चाणक्य जैसे सीरियल ज्ञानवर्धन के साथ-साथ भरपूर मनोरंजन देते थे। आज टीवी स्क्रीन से फूहड़पन और अपसंस्कृति मवाद की तरह रिसती है। घर में जितने कमरे उतने टीवी, क्योंकि परिवार के साथ देखते हुए कब बिग-बॉस में रियल रेप का लाइव प्रसारण हो जाए, कहा नहीं जा सकता। हाल ही में ब्राजील में ऐसा ही हुआ। दरअसल आक्रमण सामने से हो तो कैसे भी बचा जा सकता है पर दुश्मन सेंध लगाकर हमारे परिवार में शामिल हो जाए तो उससे निपटना मुश्किल होता है। हमारे ड्राइंगरूम में यह अपसंस्कृति सेंध लगाकर पहुंचे को है, इस खतरे को समय रहते ही भांपना होगा। रही बात देश के खबरिया चैनलों की, तोे वे इतने संजीदा हैं कि राजधानी दिल्ली में परिवहन संचार की क्रांति ला देने वाले मैट्रोमैन के नाम से मशहूर ई.श्रीधरन कब रिटायर्ड हो जाते हैं मालूम ही नहीं पड़ता। पर एक बार मैट्रो के निर्माणाधीन पुल का एक पटिया गिर गया तो उसे तीन दिन दिखाते रहे। देश की सबसे दुर्गम कोंकण रेल परियोजना को मूर्त रूप देने वाले अभियंता शिरोमणि श्रीधरन की योग्यता और क्षमता पर बहस के लिए विशेषज्ञों के पैनल बैठाते रहे। मालूम होना चाहिये कि आजादी के बाद राष्टÑ निर्माण में श्रीधरन का योगदान भारतरत्न सर विश्वेसरैया से किसी भी मायने में कम नहीं। क्या हम अपने टीवी चैनलों से(प्रिंटमीडिया से भी) यह उम्मीद कर सकते हैं कि सनी लियोन, राखी सावंत या फिर शतादी के महानायक की२ फोािया से उारकर श्रीधरन को भारतरत्न देने की आवाज बुलंद करेंगे?   


Wednesday, January 18, 2012

समय की खटिया पर पसरा साहित्य

 काल अमूर्त है। हम अपनी कल्पना से उसे मूर्तरूप में विभाजित कर अपने-उत्थान-पतन, यश-अपयश, जय-पराजय का सिलसिला बनाने की कोशिश करते हैं। मानव निर्धारित इस कालगणना में साहित्य के लिए कोई अनुकूल समय तय करना इसलिए सम्भव नहीं है, क्योंकि काल का अपना सापेक्ष दायरा है। ज्ञात इतिहास मे अगर झांके तो, पायेंगे कि समाज के लगभग हर तबके की अपने समय के बारे मे एक राय है किन्तु साहित्यकार जिस राय से इत्तफाक रखते हैं, उस राय के बारे में समाज ने सुना ही न हो। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भारतेन्दु हरिश्चन्द पर लिखे निबंध मे कहा था कि वे आधुनिक हिन्दी साहित्य परम्परा के प्रवर्तक थे। शुक्ल जी की टिप्पणी  समय और साहित्य के सवाल पर बेहद महत्वपूर्ण है। भारतेन्दु का स्थान हिन्दी साहित्य मे उन्होंने इतना महत्वपूर्ण माना कि उन्होने साहित्य के लिए अनुकूल समय की प्रतिक्षा नहीं की बल्कि समय की चुनौतियों के प्रसंग में साहित्य मे गुणात्मक परिर्वतन के वाहक बने। उस समय देश पराधीन चेतनाशून्य संस्कारहीन और भाषा शिथिल था। भारतेन्दु ने इस प्रतिकूल समय में भी साहित्य की प्रासंगिता और उपयोगिता सिद्ध करके दिखा दी। समय के प्रतिकूल होने पर सिर धुनने के बजाय इसे चुनौती समझ कर रचा गया श्रेष्ठ साहित्य उस समय का प्रमाणिक दस्तावेज बन जाता है।
     हमारे साहित्य मे प्रेमचन्द का स्थान इसलिए इतना ऊंचा है कि तत्कालीन समाज का वैसा प्रमाणिक और सूक्ष्म चित्रण कहीं उपलब्ध नहीं है। साहित्य की कसौटी ही है समय की चुनौतियों के बीच अपनी उपयोगिता साबित करना। हमारा आज का समय उदारीकरण के चलते साहित्य को हाशिए मे धकेलने का है। किताबें कचरा माल की तरह हैं। साहित्य सूचना होकर रह गया है। इस भयानक समय मे कालजयी साहित्य का अता-पता नहीं है। आज का समय वैश्वीकरण, आतंकवाद, जातिवाद, भ्रष्टाचार, नारी विमर्श, दलित विमर्श, भोगवाद का है। हमारे समय का एक बडाÞ अंर्तविरोध यह है कि एक तरफ विश्वग्राम का नारा गूंजता है, तो दूसरी तरफ जीवन-जगत की अभिव्यक्ति करने के लिए प्रसिद्ध हो रहे साहित्य को वर्ग, धर्म, वर्ण, लिंग, राजनीति के आधार पर टुकडों मे बांटा जा रहा है। इनमें से हर किसी ने विमर्श की दुकान खोल रखी है। हर कोई साहित्य का वह टुकड़ा हथिया लेना चाहता है, जो उसके मतलब का है। जब ऐसे लोगों के हाथ कोई टुकडा नहीं लगता, तो वह खुद एक नया टोला बना कर उसी को सच्चा साहित्य सिद्ध करने मे लग जाते हैं। इस नजरिये ने साहित्य की अब तक की परम्परों को हाशिये पर डाल दिया है। साहित्य की एक प्रमुख भूमिका यह है कि वह अनुभव और कल्पना के साथ अपने समय का सृजनात्मक इस्तेमाल करते हुए संवेदना तथा मूल्यों का एक सांस्कृतिक क्षेत्र बनाता है। हमारे आज के समय में साहित्य  वर्ण और लिंग के दायरे में सीमित हो रहा है। रचना का विषय किसी से भी सम्बद्ध हो, लेकिन उसमे निजता का विर्सजन करते हुए सबके आस्वाद के लिए जब जगह होती है तभी वह साहित्य कालजयी होता है। साहित्य जब इस रचना प्रकिया की उपेक्षा करता है तो उस साहित्य का दायरा एकांगी और व्यक्ति या समूह विशेष पर केन्द्रित हो जाता है।
    आज दलित और स्त्रीवादी लेखन के नाम पर लिखी जा रही आत्मकथाएं थाना में दर्ज कराने वाली एफआईआर जैसी हैं। इनसे गैर उपभोक्ता पाठक का कोई रिश्ता नहीं बन पाता। आज दलित साहित्य का बड़ा हल्ला है। कोई आत्मकथा लिख रहा है, तो कोई कहानी-उपन्यास लिख रहा है। कविता लिखी जा रही है। कई ऐसे भी हैं जिन्हें पता ही नहीं कि लिखना क्या चाहिये और अम्बेडकर का दर्शन क्या है, फिर भी जो मन में आ रहा है लिखे जा रहे हैं। हिन्दी क्षेत्र में तो मान ही लिया गया है कि अपनी पीड़ा को लिख भर देना दलित साहित्य है। पिछले बीस साल के दौरान हिन्दी में हुआ स्त्री लेखन का विस्फोट अनूठी घटना है। स्त्री लेखन ने कविता कहानी और उपन्यास की विधा में तो उल्लेखनीय हस्तक्षेप किया ही है आत्मकथा लिखने वह गैर दलित पुरुष लेखकों को पीछे छोड़ चुका है। आज कहानी हिन्दी साहित्य की केन्द्रीय विधा है। आज जो कहानियां लिखी जा रही हैं उसमे इतनी विविधता देखने को मिल रही है, जो पहले शायद दुर्लभ थी। समकालीन समय मे उपन्यासकारों ने इस विधा में उथल-पुथल मचाई है। बाजारवादी ताकते , सत्ता और बाजार मिल कर भयानक षड़यंत्र रच रही हैं। ऐसे हालात में इनके प्रतिरोध का बहुमुखी होना आवश्यक है। आज की कविता में इस प्रयास की अनुगंूज है। हमारा यह समय व्यंग रचना के नाम पर चुटकुलों और फूहड़ हास्य से आगे नहीं बढ़ पाया। पुराने व्यंग लेखक जरूर क्रीज पर अभी डटे हैं। हमारा समय कुछ महिला लेखकों की रचना पर अश्लीलता परोशने के आरोप का साक्षी बना है। इस दौर में मुंशी प्रेमचन्द की रचनाओं की होली जली और उनके विरुद्ध कई किताबों और लेखों का प्रकाशन हुआ। हमारा समय पाठक और साहित्य के बीच दूरी में वृद्धि का है। साहित्य तो खूब लिखा जा रहा है, लेकिन जिनके लिए लिखा जा रहा  है उनकी रूचि घटी है।
       हमारा समय चुप्पी गहन अंधकार और गहरी उदासीनता का समय है। अन्नदाताओं की आत्महत्या का समय है। असीमित भ्रष्टाचार का समय है। बाजार की कैद में गंूगे लक्ष्यहीन साहित्य का समय है। साहित्य का समय गहमागहमी में नहीं है। घरेलू   मामूली चीजों में है। प्रेमचंद का महत्व इसी मामूलीपन में है। खेत खलिहान चरवाहे बैल गाय। हमारे समय का रचनाकार इतिहास में शायद सबसे हताश आदमी है। वह शोषण पर व्यंग करता है, अन्याय की परतें उधेड़ता है, सामाजिक विकृतियों पर उंगली रखता है और आदमी की टूट-फूट के छाया चित्र प्रस्तुत करता है, वह मान लेता है कि उसका काम खतम हो गया। हमारे समय का लेखक उसी उपभोक्तावाद का शिकार हो गया है जिसकी विकृतियों का वह चित्रण करता है। मनुष्य की टूटन का चित्रण कर देना ही उसके लिए पर्याप्त साहित्य कर्म है। हमारा यह समय पाठकों के अकाल का समय है। पूंजीवाद और उदारवाद ने आम आदमी की रोजी-रोटी पर संकट डाला है। इस हालत में वह क्या पढेÞगा और क्यों पढेÞगा? पाठकों को प्रोत्साहित करने का काम पुस्तकालय करते थे। आज का समय पुस्तकालय विहीन समय है। पुराने पुस्तकालय धीरे-धीरे मार दिये गए हैं। नए खुल नहीं रहे हैं। पुस्तकालय ने पाठकों का समाज बढ़ाया है। आज का समय टीवी का समय है। इसने पाठक को दर्शक में बदल डाला है। स्कूलों कालेजों में पुस्तकालय के कमरे हैं, जिनमे स्थायी रूप से ताले जड़े हैं। आज का समय वेश्यालय, मदिरालय, भोजनालय, देवालय, शौचालय, रूग्णालय प्रतिक्षालय की  स्थापना का है। आज साहित्य समय की खटिया में पसरा पड़ा है।
                       *** चिन्तामणि मिश्र - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
                              सम्पर्क - 09425174450.

वो पगडंडी ‘अदम’ के गांव जाती है

शहरों में रहते हुए क्या आपने अपने ऊपर फैले विस्तृत-मुक्त नीले आकाश को कभी देखा है। तारों भरी आकाश गंगा जिसे हम ‘हथडगर’(हाथियों का रास्ता) के रूप में जानते हैं, सामानान्तर दूरी बनाए पूर्व की तरफ से चढ़ते हुए सितारों को जिन्हें देखकर गांव के लोग समय का अनुमान लगाते हैं और जिन्हें हिन्नी मिर्गी (हिरणी मृगी) के रूप में पहचानते हैं, शुकवा (शुक्र) विहफइया(वृहस्पति) सात तारे (सप्तर्षि) मंगल, जो आकाश में रहकर हम पर नियंत्रण रखते हैं और हमारे शुभ कार्यों में साक्षी होते हैं, पंचक के दिशाशूल और उसमें मृत्यु पर बाधा मुक्त होने की प्रक्रियाओं इत्यादि से यदि आप परिचित नहीं हैं तो भले ही वैश्वक ज्ञान और अंतरिक्ष विज्ञान के बारे में पूर्ण जानकार हों, भारत के ग्रामीण आकाशीय ज्ञान से अल्पज्ञ हैं।
     शहर की ऊंची और भव्य इमारतें आकाश देखने में बाधा उत्पन्न करती हैं। नदी नाले, शहर के पास बहने का अभिशाप भोग रहे हैं। गो कि संसार भर की सभ्यताओं का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है, लेकिन जितनी प्रदूषित हमारी सप्त और इतर नदियां हुई हें उतनी ह्वांगहो, नील ओर डेन्यूब नहीं हुई। इतना धुंध युक्त आकाश हमारे ऊपर चिमनियों ने तान दिया है कि ताजमहल के शारदीय पूनम (मूनलाइट) के सौंदर्य का आनंद रघुवीर सिंह के ‘ताज’ को पढ़कर ही लिया जा सकता है, मकबरे के सामने बैठ या लेटकर नहीं। कवियों ने एकांत को कभी दुख नहीं माना, चिंतन और दर्शन उन्हीं क्षणों की देन है- ‘कोई जब साथ न दे, खुद से प्रीति जोड़ ले। बिछौना धरती को करके अरे आकाश ओढ़ ले।’ नदियां किसी से मोह बढ़ाने के लिए रुकती नहीं निरंतर चलती हुई कल-कल का अविराम दर्शन देती हैं, जिसे हमारे मनीषियों ने समझकर उन्हें मां कहकर पूजा, आदि शंकराचार्य जैसे अद्वैतवादी ने भी ‘गंगा’ और ‘नर्मदाष्टक’ लिखे।
 प्रकृति के खुलेपन का अहसास शहरों के किसी कोने में पार्क में किया जा सकता है, लेकिन शाम को बिजली के नियान बल्बों से छनकर चांद देखने का आनंद नहीं लिया जा सकता। शहरों में रहने-पढ़ने वालों के सामान्य ज्ञान में तिथियां नहीं होतीं, अमावस और पूनम नहीं होते, यहां तक कि ऋतुएं भी गर्मी, वर्षा और सर्दी में तब्दील हो गई हैं। शरद, शिशिर, हेमंत और वसंत कविताआें में बसे हैं। शहरों से गांव की समस्याओं का परिचय प्राप्त किया जा सकता है। ‘भारत भाग्य विधाता’ दो दिन गांव में रुककर कहने लगे हैं कि गांव में रुको, देखो और गांव को बदल दो।’ गांव से यदि ग्राम्यत्व छिन गया तो फिर क्या बचेगा? गांव के बदलने का आशय कुछ समझ में नहीं आता। गांव में अभी भी शहरों की अपेक्षा करुणा, प्रेम, अहिंसा और संवेदना है। उसे बदलकर शहर न बनाएं, बना सकें तो ‘रालेगण सिद्धि’ जैसा गांव बनाएं। गांव से लगे जंगल बचाएं, नदी, तालाब, पोखर बचाएं। पक्षी के घोंसले बचाएं, पशु बचाएं ,गांव से खत्म होते कुटीर उद्योग बचाएं। चुनावों की चाशनी में जाति, वर्ग और वर्ण का जहर न परोसे। गुणवत्ता और योग्यता का कुछ प्रतिशत तय करें। बुनियादी जरूरतें पूरी करते हुए गांव को गांव रहने दें। खेतों को शल्य-श्यामला रहने दें, कंक्रीट की फैक्टरी खड़ी करके धन्ना सेठों से ग्रामीणों का पुश्तैनी जमीनी मोह न छीनें।
   पिछले दिनों गांव गया था। एक रात एकाएक बादल जाने कहां से आए, शायद सुदूर पड्डुचेरी के तूफान का प्रभाव था। दूर-दूर तक बारिश हुई। किसानों के चेहरे खिल उठे। गांवों में लोकोक्ति है, ‘पानी बरसैं आधा पूस/आधा गेहूं आधा भूस’/ अरहर-सरसों के फूलों ने बसंत आगमन की सूचना दे दी। सबेरे नहर के किनारे-किनारे दूर तक घूम आया। जाड़े की गुनगुनी धूप का आनंद लेने बाहर बैठ गया। आम के पेड़ से उतरकर गिलहरियों का जोड़ा धूप का आनंद लेता हुआ खलिहान में विखरे कोने-अंतरे धान के छिलके उतारकर पास से गुजरता हुआ दो पैरों पर खड़ा होकर हमें निहारता अपनी सफलता पर गुनगुना रहा था। राम के सेतुबंध के इस सहयोगी पर रश्क किए बिना नहीं रहा जाता। गौरैया, गलरी, पोड़की, परेवा अपने जोड़ों के साथ धूप का आनंद लेते दाने भी तलाश रहे थे। जाड़े की धूप का नशा जीवन के अनेक जीवन्त नशों से कमतर नहीं होता। धूप सेंकते हुए पक्षियों की हरकत, पशुओं की जुगाली देखने का सुख शहर में कहां। शहर में भौतिक सुख हो सकते हैं, लेकिन उन्मुक्त प्रकृति, आकाश, एक गांव से लगे दूसरे गांव तक की चहल-पहल और स्निग्ध मुक्त हवा का आनंद भाव तो सिर्फ गांव में है, उन्हें बचाना होगा। गांव का दूध-दातून शहर चला गया, वह अब गांवों में कम मिलता है। लेकिन हवा-पानी बचा है, करुणा, अहिंसा कुछ शेष है- ‘साधु रेंगा भुइया-भुइंया, चिहुंटी बचाइकै।’ किसी के दुख-सुख में शामिल होने का भाव रस्मी तौर पर नहीं, दायित्व के रूप में अभी भी बचा है। बड़े-छोटे का लिहाज है, रिश्तों की गरमी है, काका-काकी, बाबा-दाई, दिद्दा-बूटू, फूफा-फु फू , मामा-मामी, मौसा-मौसिया के रिश्ते पूरी शिद्दत से अपनी धज बनाए हुए हैं। आंख में शरम और हया अभी शेष है।
  संवेदनाशीलता मनुष का सहज गुण है, आज उस सहजात गुण से ही हम दूर होते जा रहे हैं। प्रेम और करुणा का भाव मूर्खता माना जा रहा है। समाज की एक नैतिक चेतना थी, किसी के साथ अन्याय करते-होते देख, लोग बोल उठते थे। किसी   का गिरा हुआ बटुआ उस तक पहुंच जाता था। अपरिचित के यहां भी रात भर रुका जा सकता था। अब परिचितों के यहां भी रुकने में डर लगता है। विश्वास का इतना संकट कहां से पैदा हो गया। पैसे के आगे सब रिश्ते कैसे छोटे पड़ गए? संतोष की गठरी कहां खो गई जिसके आगे सभी धन धूल के समान थे। सार्त्र नोबेल ठुकरा देते हैं, कृष्ण बलदेव वैद ज्ञानपीठ को पीठ दिखा देते हैं और राम विलास शर्मा पुरस्कार की राशि को देखे बिना साक्षरता के नाम पर दान कर देते हैं।
    विश्व में जितने भी महान व्यक्ति हुए, उनका हृदयाकाश वृहद, उन्मुक्त एवं सीमाहीन था उनकी चाहत में शहर नहीं थे, नदी के किनारे, पहाड़ की कंदराएं ही उनके आश्रय स्थल थे। उनसे शिक्षा लेने सिकन्दर भी जाता था, अकबर भी। आजादी के इतने दिनों बाद तमाम दुरभिसंधियों के बीच भी देश के गांवों का आकाश मुक्त है, सिर पर उसकी छत है, पवन मुक्त है, क्या आपने उन्हें देखा है? कुछ ऐसा ही अदम गोंडवी भी कहते हैं-
           फटे कपड़ों में तन ढांके, गुजरता हो जिधर कोई
                    समझ लेना वो पगडंडी, ‘अदम’ के गांव जाती है।
¨ चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।
                                                           सम्पर्क - 09407041430.

Thursday, January 12, 2012

कबिरा कुत्ता राम का मोतिया मेरा नाउं


 मनुष्य के आसपास रहने वाले प्राणियों में कुत्ता ही एक ऐसा जीव है, जो आदिकाल से उसके साथ रहा है। पुराकथाओं में भी उसकी भूमिका सबसे विश्वसनीय साथी की रही है। पाषाण युग में मनुष्य के शिकारी जीवन में शिकार की तलाश का वह अगिम दस्ता था। महाभारत काल में वह धर्मराज का साथ, किंबहुना धर्म का स्वरूप था। एकलव्य की एकान्त साधना का अन्वेषी कुत्ता था, जिसका भोंकना एकलव्य ने मुंह में बाण भरकर बंद कर दिया था और बाण के प्रहार के बावजूद कुत्ते के मुख से एक बूंद खून तक नहीं टपका था, हस्तलाघव का इतना संयत और अभ्यस्त प्रहार अर्जुन को भी नहीं आया। कुत्ता कसौटी बन गया। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होते हुए भी एकलव्य को राजकुमार से पीछे ही रहना पड़ा। धर्मराज युधिष्ठिर के साथ उसने स्वर्गारोहण किया। एक तरह से कहें तो जन्म से लेकर मृत्यु तक का एकमात्र साथी। पता नहीं उस समय कुत्तों की उम्र कितनी होती थी। कुत्ता पालने की परम्परा मनुष्य की प्रारंभिक अवस्था से ही रही जो अद्यावधि कायम है। पहले कुत्ते मालिक के आगे टोह लेते हुए चलते थे, या अनुसरण करते थे। उनको अदभुत घ्राण शक्ति प्राप्त है। अब तो वे पुलिस और सेना के प्रमुख अंग हैं, उनके ओहदे भी पुलिसिया हैं। उनका रखरखाव देखभाल प्रशिक्षण चौंकाता है। पहले वे आदमी के अधीन होते थे, अब कई व्यक्ति और पद उनके अधीन होते हैं। स्वामिभक्ति की वे मिसाल हैं। आदमी जिन अपराधियों तक नहीं पहुंंच पाता, उसका पता कुत्ते आसानी से लगा लेते हैं। ‘कुत्ता’ गाली भी है। कभी कबीर को अवमूल्यित करने के लिए पंडितों ने कबीर (एक विशिष्ट गाली जो होली के दौरान भाभियों को दी जाती है) कह कर अपमानित किया था, उसी तरह बेबाकी में बाबा नागार्जुन का भी नाम लेकर अपनी भड़ास निकालने का प्रचलन है- ‘अब तो कुत्तों ने भी कुत्ते पाले हैं’ से लेकर ‘कुत्तों ने ही कुत्ते पाले हैं’ की व्यंजना बाबा के नाम है।
लोक कवियों ने भी भक्ति के प्रवाह में ‘जो हम होइत राम जी क कूकुर’ लिखा है, और उनका खाना खाते हुए, टुकुर-टुकुर देखने की अभिलाषा की है, लगभग रसखान की तरह, बिना उस ऊंचाई तक पहुंचे। कबीर ने भी ‘कबिरा कूता राम का मोतिया मेरा नाउं/गले राम के जे बड़ी जित खींचो तित जाउं/’कहां है। भक्ति के प्रकार भले ही नौ हों, लेकिन स्वामिभक्ति से बड़ी कोई भक्ति नहीं। आज के कुत्ते बड़भागी हैं, जिन सुन्दरियों के देह स्पर्श के लिए देवराज इन्द्र को अनेक रूप बदलना पड़ा था वे ही इन्द्र कुत्ते का रूप धारण कर कामिनियों के देह का स्पर्श सहज रूप से ही प्राप्त कर लेते हैं। जितना दुलार आज के कुत्तों को मिलता है, उसे देख सुनकर स्वर्ग में बैठा धर्मराज का कुत्ता भी ईर्ष्या करता होगा। अपने-अपने परवरदिगारों की स्तुति में भोंकना कुत्तों का परम धर्म है। अपनी-अपनी खोरि में सभी कुत्ते ताकतवर होते हैं। दूसरों की खोरि में घुसते ही अपनी दुम दबा और थूथन नीचे कर लेते हैं।
रामायण काल में भी एक कुत्ते के न्याय का प्रसंग है जो आज भी प्रासंगिक है। राम के राज्य में सभी को न्याय प्राप्त था। कहते हैं कि एक कुत्ता सड़क के किनारे लेटा आराम कर रहा था। जटाजूटधारी कमण्डल लिए एक साधु उधर से निकले। उन्होंने किनारे बैठे उस कुत्ते को एक डंडा मार दिया। कुत्ता चीखते-चिल्लाते राम की अदालत में पहुंचा और फरियाद की कि ‘प्रभो! बिना किसी अपराध के मुझे साधु ने मारा, मुझे न्याय चाहिए।’साधु को बुलाकर पूछा गया, साधु ने मारने का अपराध स्वीकारते हुए कुत्तों पर तीन आरोप लगाए। पहला- ये रास्ते के किनारे ही बैठते हैं, स्वाभाविक रूप से पास से गुजरने पर डर लगता है कि कहीं काट न लें। दूसरा- ये किसी पेड़ पौधे झाड़ी पर एक टांग उठाकर अक्सर पेशाब कर देते हैं। तीसरा- ये संतों, साधुओं को देखकर भूंकते हैं और पीछा करते हैं, इसलिए मैंने इसे मारा, इसमें मेरा क्या दोष? राम ने कुत्ते से साधु के आरोप की सफाई मांगी। कुत्ते ने कहा - ‘प्रभो! यह संसार है, सारे जीव-जन्तु संत-असंत सभी इस रास्तों से संचरण करते हैं। मैं किनारे लेटा एक नजर उठाकर सभी को देखता हूं, जो सज्जन लोग हैं, चुपचाप चले जाते हैं, लेकिन जो दुष्ट हैं, मुझे मारते हैं। न मैं डराता हूं, न भोंकता हूं, परंतु मुझे मार खानी पड़ती है। राम ने साधु से पूछा- ‘क्या’ यह सच है। साधु ने कहा - ‘हां! यह सच कह रहा है।’ कुत्ते ने दूसरे आरोप की सफाई दी - ‘प्रभो! मैं कुत्ता हूं, धरती मेरी मां है, मैं उसी कोख-आंचल को सीधे गंदा नहीं करता, किसी वस्तु का सहारा लेकर धीरे से टट्टी-पेशाब करता हूं। इन साधुओं की तरह जहां-तहां सीधे खड़े या बैठकर मैं मां को गंदा नहीं करता। साधु उत्तर से संतुष्ट हुए और राम भी। तीसरे आरोप पर कुत्ते ने कहा- ‘यह सच है कि मैं जटाजूट धारी, नग्न, विभिन्न बानाधारी सन्यासियों को देखकर भूंकता हूं, गांव के बाहर तक उन्हें खदेड़ता हूं। जब इन्होंने घर-परिवार छोड़ दिया, वैराग्य ले लिया फिर क्यों गृहस्थों के पास आते हैं, इसलिए गांव की सीमा तक खदेड़ता हूं कि आप तप करें, यहां लौटकर न आयें। प्रभो! अब आप ही फै सला करें, अपराधी कौन है, मैं या ये स्वनामधन्य संत महात्मा! राम और साधु ने भी कुत्ते की बात में न्याय देखा। साधु ने गलती स्वीकारी, बोले-‘प्रभो! मुझे दण्ड दें।’ राम ने कहा मुझे दण्ड देने का अधिकार   नहीं है, जिसे आपने दुख पहुंचाया है, वही कुत्ता आपको दण्ड देगा। कुत्ते ने कहा- ‘प्रभो! इन्हें किसी मठ-मंदिर का महंत बना दिया जाए।’ राम चौंके- ‘यह दण्ड है या पुरस्कार! महन्तों को तो हर तरह का सुख प्राप्त रहता है। कुत्ते ने कहा- ‘मंै भी पिछले जन्म में महंत था, इस जन्म में कुत्ता हुआ। ये सन्त भी महंत होकर जीवन का सुख भोगें और मरने के बाद मेरी ही योनि में जन्म लेकर रास्ते के किनारे बैठकर डंडे खाएं। इन्हें यही दण्ड दें।’ राम राज्य की यह न्याय व्यवस्था समस्त जीव-जन्तुओं को दण्ड देने और पाने का अदभुत दृष्टान्त है। मनुष्य के अनुषंगी साथियों में जितना कुत्तों पर लिखा गया, किसी अन्य पर नहीं। सतयुग, त्रेता, द्वापर हुए या नहीं जानता, पढ़ा अवश्य पुराणों के युगनिर्धारण में। कलयुग के इस चरण को ‘कुत्ता युग’ कहा जाए यह अधिक समीचीन होगा, क्योंकि लगभग सभी श्रेष्ठतम स्वामिभक्ति के दिखावे में लगे हैं। धरती की अन्य प्रजातियां भले ही दिन प्रतिदिन समाप्त होने की ओर अग्रसर हैं, कितनी तो लुप्त हो गई जिनका सफाया हम अक्सर करते रहते हैं। कुत्ते निरंतर संख्या और शक्ति बल में आगे बढ़ रहे हैं।
***चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र   - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।
                                                            सम्पर्क- 094070 41430.

Wednesday, January 11, 2012

रहिमन पानी राखिए


 ''रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून। पानी गए न उबरे, मोती मानूष चून।'' सैकड़ों साल पहले लिखा गया यह दोहा कभी नीति वाक्य लगता था, लेकिन अब डराता है। सचमुच वह दिन आने वाला है, जब पानी के कारण सब सूना होने वाला है। अगर मनुष्य जाति समय रहते नहीं चेती, तो 2030 तक जीवन कहा जाने वाला जल दुर्लभ हो जाएगा। यह पहले भी कई बार कहा जा चुका है।
सेटेलाइट से ली गई ताजा तस्वीरें भी इसकी तस्दीक कर रही हैं। भारत, चीन और अमेरिका सहित मध्य पूर्व के देशों में जिन स्थानों पर शहर, उद्योग और खाद्यान्न उत्पादन के केंद्र स्थित हैं, वहां जमीन के अंदर पानी का स्तर लगातार नीचे जा रहा है। यह सब जरूरत से ज्यादा पानी निकाले जाने की वजह से हो रहा है। ऑस्ट्रेलिया के नेशनल सेंटर फॉर ग्राउंडवाटर रिसर्च एंड ट्रेनिंग [एनसीजीआरटी] के निदेशक क्रेग सिमंस ने चेतावनी दी कि शहरों और कृषि क्षेत्र के विस्तार के कारण भूजल स्तर बहुत तेजी से गिर रहा है। बकौल सिमंस, 'इस धरती पर ताजा पानी का 97 फीसदी स्त्रोत भूजल है और इसका 40 फीसदी इस समय इस्तेमाल हो रहा है।'
यूनेस्को के ग्लोबल ग्राउंडवाटर गवर्नेंस प्रोग्राम के सदस्य सिमंस के अनुसार ज्यादातर लोगों को इसका अहसास नहीं है कि अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था भूजल के दम पर चल रही है, लेकिन यह हकीकत है। अगर यह स्त्रोत सूख गया तो, पूरे उद्योग जगत का पहिया थम सकता है। पानी का गंभीर संकट खड़ा हो सकता है। जरूरत से ज्यादा भूजल दोहन के कारण पर्यावरणीय समस्याएं भी पैदा हो रही हैं। ग्लोबल वार्मिग ने इसे और गंभीर बना दिया है। गिरता जलस्तर झीलों और नदियों को भी खाली कर सकता है।
सिमंस का कहना है कि मध्य पूर्व के देशों में भूजल स्त्रोत सूखने के कारण ही वहां से खेती का काम अफ्रीका में स्थानांतरित किया जा रहा है। इसे धनी देशों द्वारा अफ्रीका जैसे देशों में 'जमीन कब्जाने' की प्रक्रिया के रूप में देखा जा रहा है। पानी का संकट सिर्फ भारत, चीन और मध्य पूर्व में ही नहीं है। अमेरिका जैसा समृद्ध देश भी इससे प्रभावित है। अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ एरिजोना के प्रोफेसर रॉबर्ट ग्लेनॉन कहते हैं, 'एक चौथाई जल आपूर्ति भूजल से हो रही है। हमारे देश में हर साल आठ लाख नए कुएं खोदे जा रहे हैं। इससे जलस्त्रोतों पर दबाव बढ़ रहा है। स्थिति गंभीर हो सकती है।'

Tuesday, January 10, 2012

दवा की तिजारत में आदमी की कीमत


  इन्दौर के सरकारी और कुछ निजी अस्पतालों में चोरी छिपे की गई नई दवाओं के परीक्षण पर सरकार करीब छह माह तक इसे झूठा साबित करने में जुटी रही। काफी आनाकानी के बाद उसने एक जांच समिति बना दी और इस समिति ने अपनी जो रिपोर्ट दी वह लीपापोती भरी थी। प्रदेश सरकार ने कुछ डाक्टरों पर कुछ हजार रुपए का जुर्माना और कुछ डाक्टरों को काली सूची में डाल कर मुनादी कर दी कि प्रभावशाली लाग कभी अपराध नही करते। उनसे तो बस भूल हो जाती है और भूल तो भूल है उसे भूल जाना चाहिए। ऐलोपैथिक दवाओं का ज्यादातर अविष्कार यूरोप के विकसित देश करते हैं। इनका मनुष्यों पर वास्तविक प्रभाव जानने के लिए भारत जैसे गरीब देशो के नागरिकों को शिकार बनाते हैं। दवा पहली बार मरीजों पर आजमाई जाती हैं और इसके विपरीत प्रभाव की सम्भावना बनी रहती है। दवा कम्पनियां और परीक्षण करने वाले डाक्टर दोनों इस बात को जानते हैं कि दवा जानलेबा हो सकती है। गुपचुप तरीके से ऐसे परीक्षण नाजायज कमाई की खदानें बन गई हैं। प्रति मरीज ऐसे परीक्षण पर चार से पांच लाख रुपए मिलते हैं। इस धन्धे के जानकारों का कहना है कि हमारे देश में दवा परीक्षण का कारोबार सालाना सत्ताइस करोड़ रुपए का है। पूरी दुनिया का हर चौथा दवा परीक्षण भारत के गरीब और लाचार लोगों पर हो रहा है। इसके पीछे यही कारण है कि हमारे देश का इस प्रसंग में कानून ढीला-ढाला है। प्रशासन तंत्र भृष्ट है और कुछ डॉक्टर लालची पेशेवर हैं। इनको नाटों को निगलने में कमाल की महारत हासिल है। एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि हमारे यहां हर मर्ज का मरीज आसानी से मिल जाता है।
      नई दवा के परीक्षण का काम पूरी कुटिलता और गोपनीयता से किया जाता है। सरकारी अस्पताल मुफ्त इलाज का ढिंढ़ोरा पीटते हैं किन्तु ऐसा होता नहीं है। मरीज को दवाएं बाजार से ही खरीदनी पड़ती हैं। परीक्षण करने वाले डाक्टर इसी लाचारी का फायदा उठाते हैं। अंग्रेजी में छपे कागजातों पर मरीज को बिना बताये हस्ताक्षर या अंगूठा लगवा लिया जाता है। इसके बाद एक फाइल बनाई जाती है और इसमें मरीज पर दवा परीक्षण की कुंडली बनना शुरू होती है। नई दवा इस मरीज पर आजमाना शुरू कर दिया जाता है। लोभ से लपलपाती जीभ वाला डाक्टर मरीज को कड़ा निर्देश दे देता है कि दवा का खाली स्टिप लौटाता रहे। खाली स्टिप लौटाने पर ही उसे दवा की अगली खुराक मिलेगी। इन्दौर में लोभी डाक्टरों ने 1700 बच्चों और 1300 महिला-पुरुष मरीजों पर गैरकानूनी दवा परीक्षण किया और बदले में पांच करोड़ रुपए दवा बनाने वाली कम्पनियों से प्राप्त किये हैं। मनोरोगियों पर कामोत्तेक दवाओं का भी परीक्षण किया गया है। भारत सरकार ने अनजान दवाओं के परीक्षण के लिए सन 2005 में डग एक्ट में संशोधन करके नियम और मानदंड बनाए। इंडियन कौंसिल आफ मेडिकल रिसर्च ने भी दवा परीक्षण के लिए कुछ कठोर मानक तय किये किन्तु धन उपहार की लालच तथा निगरानी तंत्र के अभाव में कायदे- कानून सजावटी बन कर रह गए। नियम के अनुसार एक निगरानी समिति बनाई जानी चाहिए जिसमें नागरिकों का भी एक प्रतिनिधि होना चाहिए। मरीज का बीमा कराया जाना चाहिए। मरीज को दवा परीक्षण की जानकारी दी जानी चाहिए। जानकारी स्थानीय भाषा में मुद्रित सहमति पत्र में दर्ज होनी चाहिए। मरीज को कभी नहीं बताया जाता कि तुम पर दवा का परीक्षण किया जा रहा है, इससे परीक्षण के दौरान विकलागंता और नपुसंकता आ सकती है। मौत भी हो सकती है। सहमति पत्र की एक प्रति मरीज को भी दी जानी चाहिए। किन्तु ये सभी चाहिए केवल खोखले शब्द बन कर रह गए। दवा परीक्षण का खेल हमारे यहां कई दशक से चल रहा है। दवा परीक्षण करने वाले डाक्टर जानलेवा चतुराई में पोस्ट ग्रेजुएट हैं।
     प्रदेश सरकार ने इस कांड पर परदा डालने का पहिले तो पूरा प्रयास किया किन्तु जव ऐसा नहीं हो सका तो इस अपराधिक कांड के दोषियों को कठोर दंड देने की जगह बहुत हल्की सजा देकर न्याय का कर्मकांड सम्पन्न कर दिया । कुछ को दोष- मुक्त कर दिया और दो को ब्लैकलिस्ट छह माह के लिए कर दिया। यह ब्लैकलिस्ट का दंड भी मजाक है। यह भी कोई सजा हुई। करोड़ों कमा लिए । मजे से कुछ माह इस रकम से जुगाली की जायेगी। दवा परीक्षण करने की जल्दी क्या है? फिर जुट जाएगें अपने नोट उगलने वाले मिशन में। इस पूरे मामले में प्रदेश सरकार यह भी दलील दे रही है कि यह केन्द्र सरकार से सम्बन्धित है। इस पर केन्द्र ही कोई कार्यवाही करने में सक्षम है। हमारे तारणहार बेचारे क्या करें दूसरो के अधिकार का अतिक्रमण कैसे कर सकते हैं। संविधान कहता है कि कानून-व्यस्वथा प्रदेश सरकार का दायित्व है। इन गुनहगारों पर हत्या का प्रयास करने धोखा-धड़ी करने अनैतिक आचरण का मामला बनता है। इसकी एफआईआर दर्ज होनी चाहिए। दवा निर्माता कम्पनियों को भी जबाबदेह बनाया जाना चाहिए। अभी देश में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। भोपाल में हुए जहरीली गैस रिसाव के नरसंहार की यादें आज भी नासूर बन कर कलेजे चीर रही हैं। सरकार ने इससे कोई सबक नहीं लिया है। संसार के अमीर देश भारत के लोगों को कीड़ा-मकौड़ा समझते हैं। प्रदेश सरकार इस अपराधिक दवा परीक्षण को लेकर गम्भीर नहीं है ।
  यह चिन्ता का विषय है। सफेदपोश अपराधियों को संरक्षण दिया जा रहा है।   आधुनिक युग में कुबेर बनने की राक्षसी भूख पैदा हुई है इसमें नैतिकता-ईमानदारी-मानवीयता के लिए कोई जगह नहीं है। बाजारवाद ने लोगों को अर्थ गुलाम बना दिया है और ऐसी व्यवस्था विकसित कर ली है, जिसका लक्ष्य दूसरों का दाहन और अपना स्वार्थ साधन है। इसने चालबाज लोगों को लुटेरा बना दिया है जिनकी सोच है कि सब कुछ हमारा है। चोरी छिपे किये गए दवा परीक्षण का यह कांड ऐसी ही सोच रखनेवालों का कारनामा है। विडम्बना तो यह है कि सरकारें ऐसे गिरोहों की तरफदारी करती हैं। ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार की जननी बहुराष्टÑीय कम्पनियां भी है। अपना काम निकालने के लिए नाजायज रास्तों पर चलने में इन्हें कभी हिचकिचाहट नही होती। इनके लिए अपना काम निकालने के लिए हर तरीका जायज है। मुनाफा कमाना इनके लिए नैतिक अनैतिक नही होता। हमारे राजनीतिज्ञ पुरखों ने देश को विश्व बाजार की मंडी तो बना दिया है किन्तु नकेल अपने हाथ में नहीं रखी है ।
 ***चिन्तामणि मिश्र - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।

Monday, January 9, 2012

चलो, किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए


नए साल के संकल्प के बारे में जब भी सोचता हूं तो निÞदा फाजली की ये पंक्तियां किसी वेद वाक्य की  तरह गूज उठती  हैं- घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं करलें, किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए। तीरथ-बरथ, पूजा-पाठ,सिजदा-नमाज,घड़ी-घंट सबकुछ व्यर्थ है जब तक दरिद्रनारायण की आंखों में आंसू है। हमारी पौराणिक कथाओं में भी भगवान अपने भक्तों की दयालुता, दानशीलता, परमार्थ की परीक्षा लेने आया करते थे। रंतिदेव, उशीनर, हरिश्चंद्र, और दधीचि जैसे महापुरुषों की कथाएं यही संदेश देती हैं। स्वामी विवेकानंद जैसे महापुरुषों का भी यही उपदेश रहा है कि ईश्वरत्व की खोज मंदिर और पूजा घरों में नहीं अपितु मनुष्य की आत्मा में खोजिए। प्रत्येक व्यक्ति में ईश्वरत्व के दर्शन के निमित्त ही यही कहा गया है कि न जाने किस रूप में नारायण मिल जांय। महात्मा कबीर ने जीवन भर पाखंड का खंडन किया और स्वयं में व मानव मात्र में ईश्वर के खोज की सीख दी।
आज हम देखते हैं कि महापुरूषों के उपदेश और सीख सब पाख्ड और कर्मकांड के आडम्बर के आवरण में ढंक गई हैं। नैतिक मूल्यों का पतन हर क्षेत्र में बराबर का है। हम राजनीति और सत्ताव्यवस्था को दोष देकर बरी नहीं हो सकते। हमें पहले खुद को भी मर्यादा की कसौटी में कसना होगा। भ्रष्टाचार पर इन दिनों जमकर हल्ला मचा हुआ है। भ्रष्टाचारी भी उसके खिलाफ बड़े बोल बोलता है। यह तय कर पाना बेहद मुश्किल है कि कौन सही है कौन गलत। एक बुनियादी बात हमें समझनी होगी कि निजी जीवन में, परिवार में, समाज में भ्रष्टाचार की प्राणप्रतिष्ठा करने वाले कौन लोग हैं। भ्रष्टाचार करने वाले किसी दूसरे ग्रह के जीव तो हैं नहीं। वे हमारे पिता, पुत्र, भाई बिरादर ही हैं। हमारे परिजन हैं, मित्र हैं, कोई दूर के नहीं। यदि भ्रष्टाचार करने के बाद भी उनसे हमारे यही रिश्ते हैं, परिवार व समाज में उनका सम्मान और प्रभाव है तो यह हमें स्वीकार करना होगा कि भ्रष्टाचार के उतने ही बड़े मुजरिम हम भी हैं। मान-मर्यादा, परिवार और समाज का भय खत्म हो गया। आंखों में शर्म का पानी मर गया। हमारे पौराणिक ग्रंथों में मिथ्याचार के लिए परलोक के भय का विषद वर्णन है। स्वर्ग और नर्क की परिकल्पना प्राय: सभी धर्मों में की गई है। यह  इसलिए कि मनुष्य अपनी मान-मर्यादा में रहे पर कर्मकांडियों ने इस भय को भी खत्म कर दिया। थानों में बजरंगबली के मंदिर की स्थापना और हर मंगलवार को सुंदरकांड और हनुमान चालीसा के पाठ के बाद सुबह से शाम तक कालेकर्मों में लिप्त रहने वाले दरोगा जी मान बैठते हैं कि उनके सभी पाप धुल गए। देश में धर्म का धंधा पाप की कमाई व कालेधन के बूते पर टिका है। आधुनिक साधू-संतों की शानो-शौकत ऐसी कि उनकी तुलना आप अरब के सुल्तानों से कर सकते हैं। अरबों के आलीशान आश्रम, सोने-चांदी के सिंहासन, चंवर-छत्र डुलाती हुई साध्वियां, और इनके चरणों पर लोटने को आतुर हमारे राजनेता, उद्योगपति मंदिंर में सोने का कलश चढ़ाने के बाद निश्चिंत हो जाते हैं कि स्वर्ग में उनकी जगह पक्की। हम खुद को मूर्ख बनाते ही हैं और यह मान बैठते हैं कि ईश्वर भी हमारे पाखंड के झांसे में आ जाएगा। वस्तुुत: हमारे चरित्र का अधोपतन ही भ्रष्ट आचरण है। इसीलिए हमें बारम्बार यह कहना पड़ता है कि भ्रष्टाचार विधि-विधान और कानून नहीं अपितु आचरण और नैतिकता का मामला है। इसके लिए जरूरत है कि हम अपने जीवनमूल्यों की स्थापना की दिशा में कुछ करें। समाज की मान-मर्यादा और अनुशासन की दिशा में काम हो। मध्ययुगीन साधु-संतों और महापुरुषों के सामाजिक आंदोलन का ही यह परिणाम रहा है कि सदियों तक सभ्यताओं के संघर्ष और सत्ताओं के आक्रमण के बावजूद हमारी लोकपरंपरा और संस्कृति सुरक्षित रही।  सूचना क्रांति ने दुनिया को समेटकर हमारी मुठ्ठी में दे दिया है। इसमें अमृत भी है और जहर भी। हमारी पीढी को इन दोनों में अंतर पहचानने की प्रज्ञाचक्षु की जरूरत है। हमारे पूर्व राष्टÑपति और व वैज्ञानिक एपीजे अब्दुल कलाम सही कहते हैं कि जरूरत लोकपाल की नहीं, जरूरत है बच्चों को जीवनमूल्यों पर आधारित नैतिक शिक्षा की। लोकपाल से पहले हमें लोकपाल जैसी संस्थाओं को संचालित करने के लिए ईमानदार लोगों की जरूरत होगी। ऐसे लोग किसी कानून से नहीं अपितु हमारी शिक्षा पद्धति से ही निकलकर आएंगे। जीवन के नैतिकमूल्य ही नई पीढ़ी की प्रज्ञाचक्षु को ओज और तेज देंगे।
वक्तव्यों में हम सुराज और रामराज्य की परिकल्पना करते हैं। रामराज्य में- जाति-पांति पूछै नहि कोई। राम प्रताप विषमता खोई। विषमता मुक्त और जाति-पांति विहीन समाज की अब सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। सत्ताव्यवस्था और राजनीति में जाति-पांति की ही पूछ-परख है। आमआदमी का हित की चिंता किसे है। सोवियत संघ के बिखराव के बाद के बाद उत्तरआधुनिकवादियों ने घोषणाकर दी कि इतिहास का अंत होगया। अमेरिका में आज वही विद्वान मुंह छिपाते फिर रहे हैं। पूंजीवाद का प्रेत आज उसी के सिर पर चढ़कर उसका नाक कुतर रहा है। देश की तीन चौथाई पूंजी एक प्रतिशत लोगों के पास संचित हो चुकी है। वॉलस्ट्रीट पर जमे युवा ओबामा से पूछ रहे हैं कि हमारा भविष्य क्या है? अपना देश भी उसी रास्ते पर आगे बढ़ रह है। करोड़ों लोगों के सिर पर छत नहीं है,दूसरी ओर   अंबानी, माल्या और सिंघानिया पांच अरब के आशियाने बना रहे हैं। अमीरी और गरीबी के बीच का फासला एक और ग्यारह का नहीं अपितु एक और एक लाख का हो गया है। आम आदमी की अवहेलना हर जगह हो रही है। सत्ता कारपोरेट के हितों का खिलौना और वंशवादी राजनीति की रखैल बन गई है। लोकतंत्र से लोक गायब है। चुनाव बाहुबलियों और धनपशुओं की चौसर बन गए हैं। आम आदमी की आवाज उठाने वालों में इतनी औकात नहीं बची कि वे चुनाव के जरिए लोकतंत्र का जीवंत हिस्सा बन सकें। नए साल में यही उम्मीद कर सकते हैं कि नई तरुणाई देश के बारे में और यथार्थवादी बने। अपने जीवनमूल्यों की ओर लौटें। और हर उन ताकतों को परास्त करें जो हमारी संस्कृति को, हमारे समाज को, हमारे देश की अस्मिता को शूली पर लटकाना चाहते हैं।