Monday, January 9, 2012

चलो, किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए


नए साल के संकल्प के बारे में जब भी सोचता हूं तो निÞदा फाजली की ये पंक्तियां किसी वेद वाक्य की  तरह गूज उठती  हैं- घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं करलें, किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए। तीरथ-बरथ, पूजा-पाठ,सिजदा-नमाज,घड़ी-घंट सबकुछ व्यर्थ है जब तक दरिद्रनारायण की आंखों में आंसू है। हमारी पौराणिक कथाओं में भी भगवान अपने भक्तों की दयालुता, दानशीलता, परमार्थ की परीक्षा लेने आया करते थे। रंतिदेव, उशीनर, हरिश्चंद्र, और दधीचि जैसे महापुरुषों की कथाएं यही संदेश देती हैं। स्वामी विवेकानंद जैसे महापुरुषों का भी यही उपदेश रहा है कि ईश्वरत्व की खोज मंदिर और पूजा घरों में नहीं अपितु मनुष्य की आत्मा में खोजिए। प्रत्येक व्यक्ति में ईश्वरत्व के दर्शन के निमित्त ही यही कहा गया है कि न जाने किस रूप में नारायण मिल जांय। महात्मा कबीर ने जीवन भर पाखंड का खंडन किया और स्वयं में व मानव मात्र में ईश्वर के खोज की सीख दी।
आज हम देखते हैं कि महापुरूषों के उपदेश और सीख सब पाख्ड और कर्मकांड के आडम्बर के आवरण में ढंक गई हैं। नैतिक मूल्यों का पतन हर क्षेत्र में बराबर का है। हम राजनीति और सत्ताव्यवस्था को दोष देकर बरी नहीं हो सकते। हमें पहले खुद को भी मर्यादा की कसौटी में कसना होगा। भ्रष्टाचार पर इन दिनों जमकर हल्ला मचा हुआ है। भ्रष्टाचारी भी उसके खिलाफ बड़े बोल बोलता है। यह तय कर पाना बेहद मुश्किल है कि कौन सही है कौन गलत। एक बुनियादी बात हमें समझनी होगी कि निजी जीवन में, परिवार में, समाज में भ्रष्टाचार की प्राणप्रतिष्ठा करने वाले कौन लोग हैं। भ्रष्टाचार करने वाले किसी दूसरे ग्रह के जीव तो हैं नहीं। वे हमारे पिता, पुत्र, भाई बिरादर ही हैं। हमारे परिजन हैं, मित्र हैं, कोई दूर के नहीं। यदि भ्रष्टाचार करने के बाद भी उनसे हमारे यही रिश्ते हैं, परिवार व समाज में उनका सम्मान और प्रभाव है तो यह हमें स्वीकार करना होगा कि भ्रष्टाचार के उतने ही बड़े मुजरिम हम भी हैं। मान-मर्यादा, परिवार और समाज का भय खत्म हो गया। आंखों में शर्म का पानी मर गया। हमारे पौराणिक ग्रंथों में मिथ्याचार के लिए परलोक के भय का विषद वर्णन है। स्वर्ग और नर्क की परिकल्पना प्राय: सभी धर्मों में की गई है। यह  इसलिए कि मनुष्य अपनी मान-मर्यादा में रहे पर कर्मकांडियों ने इस भय को भी खत्म कर दिया। थानों में बजरंगबली के मंदिर की स्थापना और हर मंगलवार को सुंदरकांड और हनुमान चालीसा के पाठ के बाद सुबह से शाम तक कालेकर्मों में लिप्त रहने वाले दरोगा जी मान बैठते हैं कि उनके सभी पाप धुल गए। देश में धर्म का धंधा पाप की कमाई व कालेधन के बूते पर टिका है। आधुनिक साधू-संतों की शानो-शौकत ऐसी कि उनकी तुलना आप अरब के सुल्तानों से कर सकते हैं। अरबों के आलीशान आश्रम, सोने-चांदी के सिंहासन, चंवर-छत्र डुलाती हुई साध्वियां, और इनके चरणों पर लोटने को आतुर हमारे राजनेता, उद्योगपति मंदिंर में सोने का कलश चढ़ाने के बाद निश्चिंत हो जाते हैं कि स्वर्ग में उनकी जगह पक्की। हम खुद को मूर्ख बनाते ही हैं और यह मान बैठते हैं कि ईश्वर भी हमारे पाखंड के झांसे में आ जाएगा। वस्तुुत: हमारे चरित्र का अधोपतन ही भ्रष्ट आचरण है। इसीलिए हमें बारम्बार यह कहना पड़ता है कि भ्रष्टाचार विधि-विधान और कानून नहीं अपितु आचरण और नैतिकता का मामला है। इसके लिए जरूरत है कि हम अपने जीवनमूल्यों की स्थापना की दिशा में कुछ करें। समाज की मान-मर्यादा और अनुशासन की दिशा में काम हो। मध्ययुगीन साधु-संतों और महापुरुषों के सामाजिक आंदोलन का ही यह परिणाम रहा है कि सदियों तक सभ्यताओं के संघर्ष और सत्ताओं के आक्रमण के बावजूद हमारी लोकपरंपरा और संस्कृति सुरक्षित रही।  सूचना क्रांति ने दुनिया को समेटकर हमारी मुठ्ठी में दे दिया है। इसमें अमृत भी है और जहर भी। हमारी पीढी को इन दोनों में अंतर पहचानने की प्रज्ञाचक्षु की जरूरत है। हमारे पूर्व राष्टÑपति और व वैज्ञानिक एपीजे अब्दुल कलाम सही कहते हैं कि जरूरत लोकपाल की नहीं, जरूरत है बच्चों को जीवनमूल्यों पर आधारित नैतिक शिक्षा की। लोकपाल से पहले हमें लोकपाल जैसी संस्थाओं को संचालित करने के लिए ईमानदार लोगों की जरूरत होगी। ऐसे लोग किसी कानून से नहीं अपितु हमारी शिक्षा पद्धति से ही निकलकर आएंगे। जीवन के नैतिकमूल्य ही नई पीढ़ी की प्रज्ञाचक्षु को ओज और तेज देंगे।
वक्तव्यों में हम सुराज और रामराज्य की परिकल्पना करते हैं। रामराज्य में- जाति-पांति पूछै नहि कोई। राम प्रताप विषमता खोई। विषमता मुक्त और जाति-पांति विहीन समाज की अब सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। सत्ताव्यवस्था और राजनीति में जाति-पांति की ही पूछ-परख है। आमआदमी का हित की चिंता किसे है। सोवियत संघ के बिखराव के बाद के बाद उत्तरआधुनिकवादियों ने घोषणाकर दी कि इतिहास का अंत होगया। अमेरिका में आज वही विद्वान मुंह छिपाते फिर रहे हैं। पूंजीवाद का प्रेत आज उसी के सिर पर चढ़कर उसका नाक कुतर रहा है। देश की तीन चौथाई पूंजी एक प्रतिशत लोगों के पास संचित हो चुकी है। वॉलस्ट्रीट पर जमे युवा ओबामा से पूछ रहे हैं कि हमारा भविष्य क्या है? अपना देश भी उसी रास्ते पर आगे बढ़ रह है। करोड़ों लोगों के सिर पर छत नहीं है,दूसरी ओर   अंबानी, माल्या और सिंघानिया पांच अरब के आशियाने बना रहे हैं। अमीरी और गरीबी के बीच का फासला एक और ग्यारह का नहीं अपितु एक और एक लाख का हो गया है। आम आदमी की अवहेलना हर जगह हो रही है। सत्ता कारपोरेट के हितों का खिलौना और वंशवादी राजनीति की रखैल बन गई है। लोकतंत्र से लोक गायब है। चुनाव बाहुबलियों और धनपशुओं की चौसर बन गए हैं। आम आदमी की आवाज उठाने वालों में इतनी औकात नहीं बची कि वे चुनाव के जरिए लोकतंत्र का जीवंत हिस्सा बन सकें। नए साल में यही उम्मीद कर सकते हैं कि नई तरुणाई देश के बारे में और यथार्थवादी बने। अपने जीवनमूल्यों की ओर लौटें। और हर उन ताकतों को परास्त करें जो हमारी संस्कृति को, हमारे समाज को, हमारे देश की अस्मिता को शूली पर लटकाना चाहते हैं।



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