Wednesday, December 28, 2016

भाजपा की पैनीधार थे पटवा जी

पटवाजी नहीं रहे। भगवान ने उनके महाप्रयाण का वही दिन नियत किया जो कुशाहाऊ ठाकरे का था। 28 दिसम्बर को हम ठाकरे जी की पुण्यतिथि मनाते हैं। मध्यप्रदेश में भाजपा का जो रसूख है वह ठाकरे जी की बदौलत लेकिन उसकी धार तेज की सुंदरलाल पटवा ने। पटवाजी ने अविभाजित मध्यप्रदेश में ऐसी तेजस्वी पीढ़ी गढ़ी जो पिछले एक दशक से निर्विघ्न सत्ता की बागडोर संभाले हुए हैं। चाहे शिवराज सिंह हों या रमन सिंह, ब्रजमोहन अग्रवाल हों या कैलाश विजयवर्गीय सबमें पटवा की छाप दिखती है। नब्बे के चुनाव में भारतीय जनता युवा मोर्चा से निकलकर चुनाव के जरिए जो पीढ़ी विधानसभा पहुंची उसकी मेधा की सच्ची परख यदि किसी ने की वो पटवा जी ही थे। आइएएस की तर्ज पर आप इसे नब्बे का बैच भी कह सकते हैं।
1941 में राज्य प्रजामण्डल से राजनीति की शुरुआत करने वाले पटवा जी 1942 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े। इसके बाद उनका ध्येय ही संगठन हो गया। मालवा में संघ और संगठन की जमीन तैयार करने में भले ही कितने दिग्गज रहे हों पर पटवाजी ही वहां के पोस्टर ब्याय रहे। मुझे पटवा जी को देखने सुनने का अवसर 82-83 के आस-पास मिला। तब मैं प्रशिक्षु पत्रकार था। पुरानी विधानसभा की पत्रकार दीर्घा से सदन की कार्रवाई देखना और उसे अखबार में रिपोर्ट करना एक अद्भुद् अनुभूति थी। विपक्ष के नेता के रूप में पटवा जी जब सरकार पर हमला बोलते थे, तब ट्रेजरी बेंच स्तब्ध रह जाता था। अभी भी लोग मानते हैं कि 80-85 का समय प्रतिपक्ष की राजनीति का स्वर्णिम दौर था जिसकी अगुआई पटवाजी के हाथों में थी। पटवाजी ने प्रतिपक्ष की राजनीति की एक मर्यादा और नीति निर्देशक सिद्धांत गढे़। मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह पर इतने तीखे हमले (जिसमें चुरहट लाटरी भी शामिल था) करते थे, इसके बावजूद भी उनके और अर्जुन सिंह की मित्रता के रिश्तों की कहानी सत्ता के गलियारों से गली-कूंचों तक सुनी जाती थी। प्रतिपक्ष की राजनीति का वह दौर ‘बिलो द बेल्ट’ हिट करने का नहीं था। मैं पटवाजी का मुरीद था लेकिन तब तक कोई संवाद या पहचान जैसी बात नहीं थी। अवसर मिला और उसके कारण बने ठाकरे जी। 90 के विधानसभा चुनाव के पहले रीवा में भाजपा की प्रदेश कार्यसमिति होनी थी। रीवा के जिला भाजपाध्यक्ष थे कौशल प्रसाद मिश्र। ठाकरे जी को दिल्ली से आना था इलाहाबाद के रास्ते। कुछ ऐसा संयोग बना कि ठाकरे जी को लेने मुझे इलाहाबाद जाना पड़ा। वहां से ठाकरे जी को लेकर रीवा चले। रास्ते में ही परिचय हुआ कि मैं कार्यकर्ता नहीं पत्रकार हूं। मैं गया भी इसीलिए था ताकि ठाकरे जी से लंबा इन्टरव्यू कर सकूं। यहां राजनिवास में पटवाजी, कैलाश जोशी, विक्रम वर्मा, नंद कुमार साय जैसे दिग्गज उनकी अगवानी में खड़े थे। ठाकरे जी के साथ जीप से उतरने पर सबकी नजरे मेरी ओर भी गई। ठाकरे जी के हांथ में मेरा सौंपा हुआ अखबार था, जिसमें चुनाव के मद्दे नजर मेरा एक विश्लेषण था। बैठक के बाद मुझे पता चलाकि ठाकरे जी उस अखबार को लहराते हुए नेताओं से कहा था कि ये अखबार ठीक लिखता है कि हम आगे बढे नहीं है अपितु कांग्रेस पीछे हटी है इसलिए भाजपा का माहौल दिख रहा है अभी काफी कुछ करने की जरूरत है। शाम को राजनिवास में पटवाजी से मिलने पहुंचा। वे बड़े स्नेह से मिले और बोल-शुकल जी बहुत करारा लिखते हो।
पटवाजी की भाषण शैली के मुरीदों की संख्या लाखों में है। किस्सागोई के साथ धारदार व्यंग आम जनता पर सीधे उतर जाता था। पटवाजी के भाषणों को जस का तस उतार दिया जाए तो उसके तथ्य-कथ्य कई व्यंगकारों की रचना पर भारी पड़ेगे। विन्ध्य में जब वे आते थे तो उनके स्वाभाविक निशाने पर अर्जुन सिंह वे श्रीनिवास तिवारी होते थे। और जिस शानदार व्यंगशैली से इन पर प्रहार करते थे कि सुनने वाले सालों-साल तक गुदगदाते रहते थे। ‘चुरहट के कुंवर कन्हैय्या’ और ‘तिवारी जी का डबल बेड’’ वाले दो जुमले आज ही किसी ने सुनाए, पटवाजी को याद करते हुए। बहरहाल 90 में भाजपा की सरकार बनी और पटवाजी ने दूसरी बार मुख्यमंत्री की शपथ ली। इससे पहले वे प्रदेश की जनता पार्टी की सरकार में एक महीने (20 जनवरी 80 से 17 फरवरी 80 तक) के मुख्यमंत्री रह चुके थे। यह चुनाव किसानों की कर्जामाफी और हर खेत को पानी हर हाथ को काम के नाम पर लड़ा गया था। मुख्यमंत्री बनने के अगले महीने ही वे रीवा आए और मनगवां में किसान ऋणमुक्ति सम्मेलन में एक वृद्ध महिला को ऋणमुक्ति प्रमाण पत्र सौंपते हुए उसके पांव छू लिए। यह तस्वीर उनके पूरे कार्यकाल तक सरकारी प्रचार प्रसार में आयकानिक बनी रही।
‘नब्बे की प्रदेश भाजपा सरकार नए खून व नए जोश से लबरेज थी। प्रतिपक्षा में थे पं.श्यामाचरण शुक्ल, अर्जुन सिंह, मोतीलाल बोरा, कृष्णपाल सिंह और भी कई दिग्गज जो विधानसभा में चुनकर पहुंचे थे। श्री शुक्ल नेता प्रतिपक्ष थे। विपक्ष ने एक वर्ष के भीतर ही पटवा सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव रखा। मैंने ऐसी ऐतिहासिक बहस विधानसभा में पहली बार देखी-सुनी। पटवाजी ने जवाब के लिए कमान युवा विधायको को सौंपी जिसके अगुआ थे शिवराज सिंह चौहान। प्रतिपक्षी कांग्रेस के दिग्गजों के जवाब में शिवराज सिंह चौहान ने एक घंटे का भाषण दिया मुझे याद है कि श्यामाचरण और अर्जुन सिंह की ओर इंगित करते हुए श्री चौहान ने यह कहते हुए अपने भाषण पर विराम दिया था-सूपा बोले तो बोले, चलनी क्या बोले जिसमें छेदय छेद हैं। प्रस्ताव गिर गया। सत्रावसान के रात्रि भोज में पटवा जी को प्रणाम करने का मौका मिला तो बरबस ही पूछ बैठा शिवराज जी जैसे मेधावी युवा नेता को मंत्रिमण्डल से बाहर क्यों रखा है दादा? पटवा जी बोले-शुकल जी अपना शिवराज लंबी रेस का घोड़ा है देखते जाइए।
पटवाजी की पारखी नजर के सभी कायल थे। यह सर्वज्ञात है कि शिवराज जी को मुख्यमंत्री बनाने की पृष्ठिभूमि पटवाजी ने ही तैय्यार की। पटवाजी से आखिरी संवाद पिछले वर्ष तब हुआ जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के दस वर्ष पूरा होने पर मुझे विशेष सामग्री तैय्यार करने का काम मिला उसमें पटवाजी का इन्टरव्यू भी शामिल था। पटवाजी ने राजनीति के बारे में बड़े ही दार्शनिक अंदाज में कहा था ‘यहां कोई किसी का गुरू या चेला नहीं होता, सब अपने प्रारब्ध और कर्म के हिसाब से आगे बढ़ते हैं। राजनीति में कभी कोई किसी की जगह नहीं ले सकता सबको अपनी अपनी जगह बनाना पड़ती है। पटवाजी मध्यप्रदेश की राजनीति की आत्मा में सदा-सदा के लिए चस्पा रहेंगे सरकार किसी की आए-जाए उनकी स्थापनाएं, आदर्श और सिद्धान्त सबके लिए अपरिहार्य रहेंगे। 

Thursday, December 22, 2016

टनाटनदास और तैमूर

वेशक नाम में कुछ भी नहीं धरा है। गधे को घोड़ा कह देने से वह घोड़ा नहीं
हो जाता और न आम, इमली। गधा गधा ही रहेगा और आम आम ही। चरित्र नहीं
बदलता। कपूत का नाम कुलदीपक रखो तो क्या उजियारा करने लगेगा कुलवंश का,
नहीं। उसे जो करना है, वही करेगा। हमारे गांव में एक टनाटनदास थे। लोग
उनके नाम का बड़ा मजाक उड़ाते थे। तंग आकर उसने एक दिन तय किया कि क्यों
न अपना नाम बदल लें। सो नाम की खोज में वह गांव से निकल पड़े। जैसे ही वह
गांव के सीवान से बाहर आये एक अर्थी जाती दिखी। राम नाम सत्य बोलने वाली
भीड़ में से किसी से पूछा कि ये जो मर गया है इसका नाम क्या है...? बताया
गया अमरचंद। नाम अमरचंद फिर भी मर गये? आगे बढ़े। भरी दोपहरी एक युवक खेत
की मेड़ पर घास छीलता मिल गया। नए नाम की तलाश में निकले टनाटनदास ने
उससे पूछा भई तुम्हारा नाम क्या है? चेहरे से पसीना पोछते हुए युवक ने
जवाब दिया क्यों..? क्या करोगे...धनपत नाम है मेरा! वाह नाम धनपत छील रहे
घांस। टनाटन आगे बढ़े, प्यास लगी तो एक झोपड़ी के पास रुक गए। एक महिला
कंडे थाप रही थी। टनाटन अपनी प्यास को दबाते हुए पूछ ही लिया माई
तुम्हारा नाम क्या है....गोबर सने हांथों से आंचल समेटते हुए महिला
बोली-लक्षमी, लक्षमी देवी। टनाटन उल्टे पांव अपने गांव लौट पड़े और
ब्योहार की चौपाल में जमा गांव के लोगों को जवाब दिया।
अमरचंद तो मर गए धनपत छोलै घांस,
लक्षमी देवी कंडा थापै सबसे भले टनाटनदास।
सो नाम को लेकर माथा पच्ची क्यों? अब सैफ और करीना को वो उजबेकिस्तानी
लंगड़ा लुटेरा तैमूरलंग का नाम अच्छा लगा तो लगा। आपको क्या दिक्कत।
तैमूर के बाप ने जब तैमूर नाम दिया होगा तो उसे थोड़ी न मालुम कि इस
लंगड़े के नाम से एक दिन दुनिया रोएगी। पुलस्त्य तो सीधे ब्रम्हा के
पुत्र थे। काफी कुछ सोच विचार के, ग्रह, नक्षत्र, मुहूर्त देखकर नाम रखा
होग, रावण, कुंभकरण, विभीषण। पर रावण-रावण निकला तो इसमें नाम का क्या
दोष? और विभीषण तो प्रभु भक्त था। अन्याय के खिलाफ भाई के खिलाफ खड़ा
होने वाला। पर मैने आज तक किसी का नाम विभीषण नहीं सुना। क्यों? इसलिए कि
घर का भेदी था। घाती...। लोक ने माना कि विभीषण ने भाई से गद्दारी की।
गद्दारी के लिए विभीषण पर्यायवाची हो गया।
देखें तो नाम में कुछ भी नहीं है और नाम में ही सब कुछ। नाम जब तक अक्षर
शब्द रहता है तब तक यांत्रिक लेकिन जब कोई चरित्र उसे ओढ़ लेता है या
उसका विलयन किसी चरित्र के साथ हो जाता है तो मांत्रिक। हमारी समूची पूजा
पद्धति ही नाम पर टिकी है चाहे हिन्दू हो या मुस्लिम। मानस में तुलसी ने
जाते-जाते लिखा-कलयुग केवल नाम अधारा। नाम जपने से ही मोक्ष। वाकय--चाहे
ईश्वर का जपो, नेता का या अपने बॉस का। जपो फल सुनिश्चित मिलेगा। छोटके
नेता जब भाषण देते हैं तो उसकी पार्टी के विघ्नसंतोषी गिनते रहते हैं कि
उसने बड़के नेता (जो कि हर पार्टी का पहला और आखिरी अधिनायक हुआ करता है)
का कितने बार नाम लिया। बायदवे नाम लेने से भूल गया तो तत्काल उसके भाषण
की क्लिपिंग ऊपर, आलाकमान के पास। और यदि नाम ही रटता रहा तो मीडिया को
ब्रीफिंग...देखा साले के पास नाम के अलावा कोई एजेन्डा नहीं। अइसे भी
गदहे नेता बनने चले।
कोई गारंटी नहीं कि ज्ञानेन्द्र ज्ञानी हों या शेर बहादुर शेर दिल। पर
नाम रखने वाले मां-बाप रखते तो इसी कामना के साथ है। अपने देश में
मनुष्यों के सबसे ज्यादा नाम देवी-देवताओं और ईश्वर के हैं। पर किसी को
कोई उलाहना दे सकता है मसलन -रामलखन मुंह कूकुर कस। यदि नाम के विपरीत
आचरण किया तो भी नहीं छोड़ते भाई लोग- पढ़ै-लिखै न एकौ रती नाम धराइन
विद्यारथी। फिर भी महत्ता नहीं होती तो नाम नहीं होता। अजामिल कसाई का
पशुओं का वध करके उनका मांस बेचना पेशा था। एक महात्मा ने उसे जुगत बताई
कि बेटे का नाम नारायण रख दो। इसी बहाने प्रभु का नाम भी जपते रहोगे हो
सकता है तर जाओ। अजामिल ने वही किया। जब मरने लगा तो नारायण-नारायण कह कर
बेटे को बुलाने लगा। बेटा आया कि नहीं यह तो नहीं मालुम पर भागवत् में
कथा है कि भगवान नारायण-नारायण सुनकर दौड़े आए और अजामिल को अपने धाम ले
गए। नाम की महत्ता हमारी संस्कृति मे है, इस्लामी संस्कृति में भी। आम
तौर पर ऐसे नाम नहीं रखे जाते जो इतिहास को दागदार बनाते हैं। अपने कृत्य
और आचरण से। पुराने जमाने के चरित्र, कंस, रावण, कालिनेमि की बात कौन करे
मध्ययुगीन जयचंद और मीरजाफर तक के नाम पर किसी भी बच्चे का नाम नहीं
सुना। इन्हें लोक ने खारिज कर दिया। एक और मिसाल लें फिल्मों में खल
चरित्र निभाने वाले शानदार अभिनेता प्राण के नाम पर दशकों किसी बच्चे का
नाम नहीं रखा गया।
अब सैफ-करीना ने अपने बेटे का नाम तैमूर रखा है तो सोच समझ कर ही रखा
होगा। यह नकारात्मक छवियों की प्राणप्रतिष्ठा का दौर है। आए दिन कहीं से
सुनने को मिलता है कि हम गोडसे की जयंती मनाएंगे, मंदिर बनवाएंगे। यदि
गांधी को राष्ट्रपिता माना है व उनके आदर्श हमारे आचरण के नीति निर्देशक
सिद्धान्त हैं तो उनकी हत्या करने वाला भी तो वैसा ही है जैसा कि रक्तपात
करनें शहर फंूकने वाला दुर्दान्त तैमूर।
बेटे को राक्षस का नाम दें या देवता का यह मां-बाप का सर्वाधिकार है।
कानूनन कोई बंदिश नहीं। बंदिश तो लोक लाज की लगती है। लोकलाज की मर्यादा
उसे मानने वाले पर निर्भर है। यदि समाज में ऐसा तबका बढ़ रहा है जो नकारा
चरित्रों पर ही अपनी छवि देखता है तो इसके लिए जिम्मेदार कौन? यह यक्ष
प्रश्न है। पत्थर की मूर्ति कपड़े से नहीं ढंकी होती फिर भी हमारी नजर
श्रद्धा से उसमें दैवीय भाव देखती है। जब वही मूर्ति किसी तस्कर के जरिये
देश या विदेश के किसी एय्याश धनुपशु के ड्राइंग रूम में सजती है तो
कामुकी हो जाती है। यह नजरों का फेर है। यानी कि अपना-अपना माइन्ड सेट।
फिर किसी का नाम चाहे तैमूर रखो या टनाटनदास क्या फर्क पड़ता है।

Wednesday, December 9, 2015

असहिष्णुता का मिथ्याचार

- जयराम शुक्ल
मुख्यधारा की राष्ट्रीय राजनीति के मोर्चे पर चारों खाने चित्त पड़े कतिपय राजनीतिक संगठनों के 'स्लीपर
सेलÓ अचानक सक्रिय हो गए हैं। असहिष्णुता... अहिष्णुता का जाप करते हुए किसी भी मंच से और कैसे भी केन्द्र की सरकार और प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी पर दोष मढऩे और गाली देने का मौका नहीं छोड़ रहे हैं। यह प्रायोजित अभियान बिहार विधानसभा चुनाव की घोषणा के साथ शुरू हुआ और चुनाव के परिणाम तक चला। चुनाव के प्रचार में भाजपा के विरोधी दलों और बौद्धिक मिथ्याचारियों के सुर आपस में ऐसे मिले कि कोरस में बदल गए। बिहार में इसका प्रतिफल भी उन्हें मिला। वे वातावरण बनाने में काफी कुछ हद तक सफल भी रहे, क्योंकि सोलह महीनों में हुए विकास, उसकी चर्चा और अनुभूति के ऊपर इनका मिथ्याचार और असहिष्णुता का प्रपोगंड़ा बवंडर की तरह छा गया। बिहार चुनाव परिणाम के बाद इन मिथ्याचारियों के सुर मंद पड़ गए थे। इस बीच फिल्म कलाकार आमिर खान ने इसे फिर छेड़ दिया। आमिर का परिवार डरा हुआ है। पत्नी किसी दूसरे देश में बसने की सोच रही है, ऐसा आमिर कह रहे हैं। आज आमिर खान जिस बालीवुड में स्टारडम भोगते हुए यश-कीर्ति व धन कमा रहे हैं कभी उसी बालीवुड में यूसुफ को दिलीप कुमार बनना पड़ा व नरगिस, मधुबाला और मीना कुमारी को अपने मूल नाम को विलोपित करना पड़ा। आमिर, शाहरूख को समझना चाहिए कि आज वें ज्यादा उदात्त और सामाजिक धार्मिक समभाव के दौर न सिर्फ जी रहे हैं बल्कि ऐसे मिश्रित परिवार में रह रहे हैं जिस तरह के परिवार की कल्पना अरब या इस्लामी मुल्कों में की ही नहीं जा सकती। वे ऐसा इसलिए कर पाए कि हमारा भारतीय समाज जरूरत से ज्यादा उदत्त है और धार्मिक  साम्प्रदायिक समरसता उसकी आत्मा है। आमिर खान को संजीदा कलाकार माना जाता है, लेकिन वे अपनी फिल्मों में हिन्दू प्रतीकों की लानत, मलानत करते हैं। कट्टरता और रूढ़वादिता तो इस्लाम की आत्मा के साथ भी नत्थी है, वे उसका पर्दाफाश करने के लिए दूसरी 'पीकेÓ बनाने की पहल क्यों नहीं करते। शाहबानों की व्यथा को क्या कभी सेल्यूलाइड में लाने की चेष्ठा करेंगे? नहीं? और न करेंगे? आमिर, शाहरूख और रहमान ने क्या तस्लीमा का हैदराबाद काण्ड नहीं देखा जहां कुछ कठमुल्ले एक महिला को लात घूंसों से पीटते हैं, कपड़े फाड़ते हैं। तस्लीमा ने इस्लाम और उसके कठमुल्लों को अपनी रचनाओं के जरिए आइना दिखाने और उसकी सड़ांध से परिचित कराने का स्तुत्य दुस्साहस किया था। तस्लीमा प्रकरण पर तो नारी, मुक्ति पर विमर्श चलाने वाले वामपंथी भी कुछ नहीं बोलते। मुंह पर दही जमा है। तो इसलिए तस्लीमा जब कहती हैं, कि पुरस्कार, सम्ममान लौटाने वाले ढोंगी, पाखंड़ी है और उन्हें असहिष्णुता पर बात करने का कोई हक सचमुच ये ढ़ोंगी और पाखंडियों की जमात है जो सत्ता के साकेत से बेदखल होकर असहिष्णुता का विलाप कर रही है। इस जमात में अपने मध्यप्रदेश के दो रचनाकार भी अगुआ बने। पहला चर्चित नाम अशोक वाजपेयी का है। अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में कथित संस्कृति पुरूष रहे ये वहीं अशोक वाजपेयी हैं जिन्होंने गैस त्रासदी के बाद लाशों से पटे और रोते बिलखते भोपाल में घटना के चन्द महीने के भीतर ही भारत भवन में विश्व कविता समारोह रचा था। आपत्तियों, विरोधों को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि कुछ लोगों के मर जाने से न तो समाज मर जाता है और न उसका चलन। श्री वाजपेयी भोपाल के हत्यारे एन्डरसन को भगाने वाले तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के पटु अनुयायी बने रहे। कालान्तर में भी केन्द्र की कांग्रेस सरकारों की कृपा से कहीं कुलपति तो कहीं अकादमियों के मुखिया बनकर सत्ता के पकवान को जीमते रहे। लेखक विष्णु खरे ने अशोक वाजपेयी के वर्धाकाल (अंतरराष्ट्रीय हिंदी वि.वि. वर्धा के कुलपति काल) की परतों को अपने लेखों के जरिए अच्छे से उधेड़ा है। वाजपेयी के साहित्यिक और सांस्कृतिक कदाचारों से नव नचनाकारों व कलाकारों की एक समूची पीढ़ी प्रताडि़त रही है। सरकारी अफसर के तौर पर वे कांग्रेस सरकारों के वैसे सांस्कृतिक ठेकेदार रहे हैं जैसे श्रीकान्त वर्मा पार्टी के भीतर रहकर। श्रीकान्त वर्मा भी रचनाकार थे व कांग्रेस के लिए नारे व जुमले रचने की एवज में उन्हें राज्यसभा की सदस्यता का पारितोषिक मिला था। यह बात अलग है कि उनके बेटे ने आगे चलकर उनकी प्रतिष्ठा की लुटिया डुबो दी। उम्र के चौथेपन में सत्ता के सानिध्य से वंचित श्री वाजपेयी को कांगे्रस के 'स्लीपर सेलÓ का अगुआ भी कहा जा सकता है। मध्यप्रदेश के ऐसे दूसरे महापुरूष हैं उदयप्रकाश, पत्रकारिता से साहित्यकारिता में आए उदय प्रकाश की नब्बे फीसद रचनाएं परपीडक़ है! उनकी रचनाओं में सहकर्मियों, साहित्यिक प्रतिद्वंदियों की खिल्ली उड़ाने और मानसिक प्रताडऩा देने के अलावा कोई तथ्य-कथ्य नहीं रहता। यदि वे अकादमी सम्मान न लौटाते तो शायद ही कोई जान पाता कि उदय प्रकाश नाम का भी कोई रचनाकार है, संगोष्ठियों में जुटने वाले चंद बुद्धिविलासियों, और समालोचकों को छोडक़र। असहिष्णुता के नाम पर सम्मान लौटाने की शुरूआत इन्हीं ने की, यद्यपि इससे पहले योगी आदित्यनाथ के हाथों सम्मानित होकर गदगदा चुके थे सेकुलरियों के तमाम विरोध के बावजूद। उदयप्रकाश जिस शहड़ोल, अनूपपुर के कोयलाचंल से वास्ता रखते है वहां के वनवासी और सामान्यजन आजादी के पहले सामन्ती शोषण और बाद में कोयला ठेकेदारों, अफसर, बाबुओं के मकडज़ाल में फंसे रहे। हाल-फिलहाल विस्थापन के दंश को झेल रहे हैं, उदयप्रकाश ने शायद ही अपनी रचनाओं में यहां के तथ्यों-कथ्यों को समाविष्ट किया होगा वे इस शोषण के खिलाफ आवाज बुलंद करते तो रचना जगत उनका स्वागत करता पर उन्हें तो टाइमिंग और इशारे का इन्तजार था, जैसा कि 'स्लीपर सेलÓ के सदस्यों को रहता है। असहिष्णुता का राग छेडऩे वाले एक और साहित्यकार है बनारस के काशीनाथ सिंह। साहित्यकारों के माक्र्सवादी पुरखे डॉ. नामवर सिंह के छोटे भाई। एक ओर जहां नामवर सिंह जैसे दिग्गज समालोचक ने सम्मान लौटाने के उपक्रम को गैरवाजिब और गलत बताया वहीं 'काशी के अस्सी में देवी-देवताओं का मजाक बनाने व गाली-गलौज को साहित्य की खुराक बनाने वाले काशीनाथ 'सेकुलरियों स्लीपरोंÓ के गिरोह में मुखरता से शामिल रहे। काशीनाथ जी को यह मालुम होना चाहिए कि यदि वे सहिष्णु और सद्भावी समाज में नहीं रह रहे होते तो उनकी उपन्यास 'उपसंहारÓ बिना प्रतिक्रिया के जज्ब नहीं कर ली जाती। उपसंहार में 'उत्तर महाभारतÓ के वृतांतों को कथा रूप में दिया गया है। काशीनाथ जी ने इस उपन्यास में कृष्ण व बलराम को मदिरा का व्यसनी बताया है तथा (कृष्ण द्वारा) नरकासुर को मारकर छुड़ाई गई सोलह हजार कन्याओं को वैश्या। आस्थाओं व विश्वासों पर खुली चोट का दर्द सहने वाला विशाल वक्षस्थल भारतीय समाज के पास ही है, इसीलिए जब ब्रह्मर्षि भृगु ने भगवान विष्णु की छाती पर लात मारी तो प्रत्युत्तर में भगवान ने कहा कि विप्रवर आप आहत तो नहीं हुए। यह भारतीय समाज अभी भी इतने विशाल हृदय वाला है कि आमिर, शाहरूख के बयानों से लेकर काशीनाथ सिंह के उपाख्यानों की चोंट को भी सह लेता है। वह यह भी नहीं जानना चाहता कि यू.आर. अनन्तमूर्ति इन दिनों कहां है, जिन्होंने घोषणा की थी कि यदि नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बनते हैं तो वे देश छोड़ देंगे। २००२ से लेकर आज तक मोदी पर जिस तरह शाब्दिक प्रहार किए गए, टीवी की बहसों, अखबारों के स्तंभों में सिलसिला चलाया गया, मैं नहीं समझता कि दुनिया के किसी भी राजपुरूष के साथ ऐसा बर्ताव किया गया होगा। क्या नेहरू, इंदिरा, राजीव युग में ये लोग ऐसी हिम्मत कर पाते, जिस दौर को ये सब सहिष्णुता का स्वर्णकाल बताते नहीं थक रहे हैं। इसलिए मुझे पूरा यकीन है कि असहिष्णुता का मिथ्याचार एक प्रायोजित, सुनियोजित उपक्रम है। उनके लिए ये अच्छी बात हो सकती है कि कम से कम उस व्यवस्था के नमक का कर्ज उतार रहे हैं जिस व्यवस्था ने कई सुपात्रों का अधिकार छीनकर इन्हें सत्ता  के साकेत में आबाद कर रखा था, पर देश के लिए नहीं।

Wednesday, March 18, 2015

भूमि अधिग्रहण विधेयक: 6 सवालों में

  • 17 मार्च 2015
भारत में विवादास्पद भूमि अधिग्रहण विधेयक पर हंगामा बढ़ता ही जा रहा है.
विपक्ष इस विधेयक को भारतीय किसानों के हितों के ख़िलाफ़ बता रहा है.
नए भूमि अधिग्रहण विधेयक में ऐसे प्रावधान शामिल हैं जो ख़ास परियोजनाओं के लिए क़ानून को आसान बनाते हैं.
मोदी सरकार का कहना है कि इससे देश भर में जो अरबों डॉलर की परियोजनाएं रुकी पड़ी हैं, उन्हें शुरू किया जा सकेगा.
आख़िर क्या है भूमि अधिग्रहण विधेयक, ये क्यों बनाया गया और इसका क्यों इतना अधिक विरोध हो रहा है?
भारत में भूमि विवाद पर किताब लिखने वाले संजॉय चक्रवर्ती ने इस मुद्दे को समझाने की एक कोशिश की.

भारत में ज़मीन इतनी अहम क्यों है?

भूमि अधिग्रहण कानून
भारत में भूमि आधी से ज़्यादा आबादी के लिए रोज़ी रोटी का प्रमुख साधन है.
एक दशक पहले तक एक किसान के पास औसतन सिर्फ़ तीन एकड़ ज़मीन होती थी, जो अब और भी घट गई है.
केरल, बिहार, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु जैसे राज्यों में औसत जोत का आकार आधे से दो एकड़ के बीच है.
इस संदर्भ में देखें तो फ्रांस में भूमि जोत का आकार औसतन 110 एकड़, अमरीका में 450 एकड़ और ब्राजील और अर्जेंटीना में तो इससे भी अधिक है.
भारतीय अर्थव्यवस्था में खेती सबसे कम उत्पादक क्षेत्र है. देश के जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में कृषि क्षेत्र का योगदान 15 फीसदी है जबकि खेतों में काम करने वालों की संख्या देश के कुल कार्यबल के आधे से अधिक है.
इस तरह ज़मीन भारत का दुलर्भतम संसाधन तो है ही, साथ ही, इसकी उत्पादकता भी बेहद कम है.
ये एक गंभीर समस्या है और ये भारत की ग़रीबी का मूल कारण भी है.

भारत में भूमि अधिग्रहण की जरूरत क्यों है?

भूमि अधिग्रहण कानून
उत्पादकता में तेजी लाने के दो बुनायादी तरीके हैं. पहला, कृषि को अधिक उत्पादक बनाया जाए और दूसरा, ज़मीन को खेती के अलावा किसी अन्य काम के लिए इस्तेमाल किया जाए.
आज़ादी के बाद भारत में विकास की प्रक्रिया बिल्कुल इसी नुस्ख़े पर चली.
बड़े पैमाने पर सिंचाई और कृषि को आधुनिक बनाने का सरकारी प्रयास किया गया, इसके साथ ही सरकार के नेतृत्व में औद्योगिकीकरण और शहरीकरण का अभियान भी चलाया गया.
कृषि को बड़े पैमाने पर आधुनिक बनाने के लिए प्रयास किए गए, जिसमें राज्य की अगुआई में औद्योगिकीकरण और शहरीकरण अभियान भी शामिल है.
इन दोनों प्रक्रियाओं के कारण व्यापक स्तर पर भूमि अधिग्रहण हुआ.
आज़ाद भारत ने भूमि अधिग्रहण के लिए जिस क़ानून का सहारा लिया वो 1894 में बना था. इसने एक झटके में बड़ी ज़मीदारियों और विवादास्पद मामलों को एक साथ हल कर दिया.

कितनी भूमि का अधिग्रहण हुआ?

ज़मीन अधिग्रहण
एक अनुमान के मुताबिक़, 1947 में आजादी मिलने के बाद से अब तक कुल भूमि का 6 फीसदी हिस्सा यानी 5 करोड़ एकड़ भूमि का अधिग्रहण या उसके इस्तेमाल में बदलाव किया जा चुका है.
इस अधिग्रहण से 5 करोड़ लोग से ज़्यादा लोग प्रभावित हुए हैं.
भूमि अधिग्रहण से सबसे अधिक प्रभावित होने वाले भू-मालिकों को ज़मीन की काफी कम क़ीमत मिली. कई को तो अब तक कुछ नहीं मिला.
ज़मीन के सहारे रोज़ी रोटी कमाने वाले भूमिहीन लोगों को तो कोई भुगतान भी नहीं किया गया.
ज़मीन अधिग्रहण के बदले किया गया पुनर्वास बहुत कम हुआ या जो हुआ वो बहुत निम्न स्तर का था.
इस मामले में सबसे ज़्यादा नुकसान दलितों और आदिवासियों को हुआ.
ज़मीन हासिल करने की ये व्यवस्था पूरी तरह अन्यायपूर्ण थी, जिसके कारण लाखों परिवार बर्बाद हुए.
इस प्रक्रिया ने बुनियादी संरचनाएं, सिंचाई और ऊर्जा व्यवस्था, औद्योगिकीकरण और शहरीकरण से लैस आधुनिक भारत को जन्म दिया.

भूमि अधिग्रहण का विरोध क्यों?

अन्ना हज़ारे
1980 के दशक से ही कई नागरिक अधिकारी संगठनों ने भूमि अधिग्रहण के सरकार के तरीक़े पर सवाल खड़े करने शुरू कर दिए.
ग़ैर सरकारी संगठन 'नर्मदा बचाओ आंदोलन' विवादास्पद बांध परियोजना के विरोध का अगुआ बना और जबरन भूमि अधिग्रहण के ख़िलाफ़ कुशल प्रबंधकों के लिए प्रशिक्षण का आधार बन गया.
इस मामले में निर्णायक मोड़ तब आया जब साल 2006-2007 में विदेशी निवेशकों को आकर्षित करने के लिए टैक्स फ्री विशेष आर्थिक क्षेत्र बनने लगे.
नंदीग्राम
नंदीग्राम में किसानों की ओर से कड़ा विरोध हुआ था.
इसके फलस्वरूप, पश्चिम बंगाल केनंदीग्राम में सरकार की केमिकल हब बनाने की योजना का हिंसक प्रतिरोध हुआ.
इसके अलावा खानों, कारखानों, टाउनशिप और हाईवे के लिए किसानों की ज़मीन लिए जाने के ख़िलाफ़ उग्र प्रदर्शन और आंदोलन किए गए.
कई नागरिक अधिकार समूहों का तर्क है कि विशेष आर्थिक क्षेत्र एक सरकारी तरीक़ा था भारत के उद्योगपतियों द्वारा किसानों की ज़मीन पर कब्जा करने का.
और इस तरह भूमि अधिग्रहण के विरोध में प्रदर्शन एक राष्ट्रव्यापी घटना बन गई है.

सरकार ने क्या बदलाव किए?

ज़मीन अधिग्रहण
बीते दिसम्बर में मोदी सरकार ने एक अध्यादेश जारी कर 2013 में यूपीए सरकार द्वारा लाए गए भूमि अधिग्रहण बिल से 'किसानों की सहमति' और 'सामाजिक प्रभाव के आंकलन' की अनिवार्यता को हटा दिया.
यह रक्षा, राष्ट्रीय सुरक्षा, ग्रामीण बुनियादी संरचनाएं, सस्ते घर, औद्योगिक कॉरिडोर और अन्य आधारभूत संरचनाओं के लिए अधिग्रहण पर लागू कर दिया गया.
नए विधेयक में अधिग्रहण के लिए लगने वाले समय में कई साल की कमी कर दी.
इससे प्रॉपर्टी बाज़ार में दाम बहुत गिर जाएंगे, जो संभवतः दुनिया में सबसे क़ीमती है.

क्या विरोध उचित है?

विरोध
ऐतिहासिक नाइंसाफ़ियों के रिकॉर्ड को देखें तो इसका जवाब 'हां' है, ख़ासकर ग्रामीण भारत में हाशिए की आबादी के लिहाज से.
लेकिन ज़मीन की क़ीमत को देखते हुए इस विरोध को उचित नहीं ठहराया जा सकता है,. खासकर शहरी क्षेत्र के नज़दीक जो ज़मीनें हैं, वहां क़ीमतें आसमान छू रही हैं और इन इलाक़ों में ज़मीन मालिकों के लिए बहुत ज़्यादा मुनाफ़ा देने वाली हैं.
इसके अलावा, इस विधेयक में ऐसा कुछ नहीं है जो सबसे आसान शिकार आदिवासी आबादी की भूमि अधिग्रहण चक्र से सुरक्षा कर सके.
ये कई तरह की भ्रष्ट गतिविधियों के शिकार हैं, मसलन स्थानीय भू माफ़िया कम क़ीमत देकर या बिना सहमति के उनकी ज़मीनें छीन लेता है और इसमें राजनीतिक दखलंदाज़ी भी शामिल है.
भारत में एक समान किसान नहीं है और ना ही कोई एक अकेला भूमि बाज़ार है.
एक तरफ़ तो ज़मीन की क़ीमतें इतनी ज़्यादा हैं कि वे आजीवन खेती करने से हुई आय का 25 से 100 गुना हैं.
दूसरी तरफ़ ज़मीन की क़ीमतें दो से चार गुना ऊंची हैं.
अधिग्रहण विधेयक में जो सबसे अहम बात होनी चाहिए, वो ये कि भारत की भौगोलिक और आर्थिक विविधता से साथ साथ विशेष स्थानीय संस्कृति और इतिहास को पहचानना चाहिए.

Tuesday, March 17, 2015

राष्ट्रीय चेतना की अद्वितीय गायिका : सुभद्रा कुमारी चौहान

                                                                  - चन्द्रिका प्रसाद 'चन्द्र
तेरह अप्रैल, सन् उन्नीस सौ उन्नीस के पहले भी आता रहा है परंतु यह तारीख भारतीय
राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास में अंग्रेजों के बर्बरता की कहानी याद दिलानेवाली तारीख बन गई।
बाग-बगीचे देशभर में है परंतु 'जलियावाला बागÓ अकेला ऐसा बाग है जहां अब घूमने और
सैर सपाटे के लिए लोग नहीं अतीत पर आंसू बहाने जाते हैं, जनरल डायर की नृशंसता पर
थूकने जाते हैं। मेले मिलने के लिए होते हैं लेकिन १३ अप्रैल १९१९ के बाद से यहां मेला जख्मों
को याद करने के लिए भरता है। श्रद्धांजलि सभा के रूप में परिवर्तित जलियांवाला बाग, हिंदी
कविता में सुभद्रा कुमारी चौहान की याद दिलाता है। बाग में हुए हत्याकांड पर कितनी ही
कविताएं लिखी गई परंतु सुभद्रा की 'जलियावाला बाग में बसन्तÓ सब पर भारी है। वसंत
आया- यहां कोकिला नहीं काक हैं शोर मचाते। काले-काले कीट भ्रमर का भ्रम उपजाते। कलियां
भी अधखिली मिली हैं कंठक फुल से। वे पौधे वे पुष्प शुष्क हैं अथवा झुल से। आना है ऋतुराज!
किंतु धीरे से आना। यह है शोक स्थान, यहां मत शोर मचाना। कितने ही निरीह बच्चे, स्त्रियां,
बूढ़े इस बाग में गोलियों से भून दिए गए और उसी जनरल डायर को ब्रिटिश संसद ने सम्मानित
किया था। स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में सुभद्रा कुमारी चौहान एकमात्र ऐसी सेनानी थीं
जिन्होंने अपनी लेखनी के साथ स्वयं आजादी के संघर्ष में भाग लिया। छोटे-छाटे बच्चों को घर में
छोडक़र या साथ लेकर पति लक्ष्मण सिंह के साथ अनेक बार जेल गईं। उनके संघर्ष का कार्य क्षेत्र
जबलपुर था। हिंदी क्षेत्र उन्हें 'झांसी की रानीÓ के बराय नाम याद करता है, ऐसा लगता है जैसे
झांसी की रानी का नाम लक्ष्मी बाई नहीं सुभद्रा कुमारी चौहान था। इस कविता, ने जितनी
लोकप्रियता प्राप्त की शायद ही कोई चरित-काव्य इसके बरक्स हो। 'खूब लड़ी मरदानी वह तो
झांसी वाली रानी थीÓ रचना-काल से लेकर आज तक लोगों को मुंह जबानी याद है। जब कवि
छद्म नाम से राष्ट्रीय भावों को अभिव्यक्त करने लगे थे, तब भी सुभद्रा ने छद्म नही ंकिया-
जाओ रानी! याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी और यह कहने से गुरेज नहीं किया- दिखा गई पथ
सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी। खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी। स्त्रियों
के हिस्से में वात्सल्य और करुण रस का ठप्पा लगा दिया गया है, सुभद्रा की कविताएं ओज
भरती हैं, 'मैं नहीं चाहती  रोनाÓ लिखती हैं। वीरों का कैसा हो वसन्त में कहती हैं- भूषण
अथवा कवि चन्द नहीं। बिजली भर दे, वह छन्द नहीं है। कलम बंधी, स्वच्छंद नहीं। फिर हमें
बताए कौन? हंत। वीरों का कैसा हो वसंत। जबलपुर नगर पालिका भवन के सामने सुभद्रा की
मूर्ति को देखते हुए प्रिय सहेली महीयसी महादेवी से कही हुई उनकी पंक्तियां याद आती है- 'मेरे
मन में तो मरने के बाद भी धरती छोडऩे की कल्पना नहीं है। मैं चाहती हूं, मेरी एक समाधि हो,
जिसके चारों ओर नित्य मेला लगता रहे, बच्चे खेलते  रहें, स्त्रियां गाती रहें और कोलाहल होता
रहें इसी मूर्ति अनावरण पर महादेवी ने कहा था- नदियों का कोई स्मारक नहीं होता, दीपक की
लौ को  सोने से मढ़ दीजिए पर इससे क्या होगा? हम सुभद्रा के संदेश को दूर-दूर तक फैलाने
और आचरण में उसके महत्व को माने, वही असल स्मारक है।
सुभद्रा की रचनाओं में वात्सल्य की सहजता और तरलता का प्रवाह है। आज जब बच्चों के
जीवन में बचपन विदा हो रहा है। माँ-बाप निरंतर निषेध और शिक्षा का पाठ पढ़ाते रहते हैं
ऐसे में सुभद्रा की एक कविता बरबस याद आती है। सूरदास के कृष्ण भी मिट्टी खाते थे, यशोदा
ने जब छड़ी लेकर धमकाना शुरु किया तो कृष्ण ने मुंह खोला परंतु वहां माँ को मिट्टी नहीं
संसार दिखा और वे विस्मृत हो गई थी। सुभद्रा के बेटी की सरलता मन मोह लेती है- 'मैं बचपन
को बुला रही थी, बोल उठी बिटिया मेरी। नंदन वन सी फूल उठी, वह छोटी सी कुटिया मेरी।
माँ ओ कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आई थी। कुछ मुंह में कुछ लिए हाथ में, मुझे खिलाने
लाई थी। मैंने पूछा- यह क्या लाई? बोल उठी वह माँ काओ। हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से, मैंने
कहा- तुम्ही काओÓ कौन सा व्यक्ति कौन इन बोलनि पर बलिहार नहीं होगा। बेटी के वात्सल्य
की यह पहली और सर्वश्रेष्ठ कविता है। जबकि सारा साहित्य पुत्र-प्रेम को ही वात्सल्य मानता है।
(स्वतंत्रता संग्राम) आंदोलनों में सुभद्रा की महत्ती भूमिका रही। वे ठकुरानी थी, राजा की पत्नी
थी लेकिन जिसने राष्ट्र प्रेम की चुनरी ओढ़ ली वह तो रंक हो जाएगा। वे हरिजनों के बीच बहुत
समादृत थी। बापू के अस्थि विसर्जन के अवसर पर ६ किलोमीटर पैदल सैकड़ों स्त्रियों के साथ
गईं जबकि अनेक स्त्रियां मोटर कार से गई थीं। कार वालों को सभा में जाने दिया गया और
पैदल वालों को रोक दिया गया। कलेक्टर से सुभद्रा भिड़ गई, कोई भी कांग्रेसी नहीं बोला,
शुक्ल जी, मिश्र जी, सुभद्रा ने कहा जब तक ये स्त्रियां भीतर नहीं जाएगी, अस्थि विसर्जन
कायक्रर्म नहीं होगा। अन्त में सभी को भीतर जाने की स्वीकृति के बाद ही वे मानी। अपनी ही
सरकार के विरूद्ध आजीवन लड़ती रही। पुत्री के कन्यादान की परम्परा पर उन्होंने कहा- मैं
कन्यादान नहीं करूंगी। क्या मनुष्य मनुष्य को दान करने का अधिकारी है? क्या विवाह के
उपरांत मेरी बेटी मेरी नहीं रहेगी। आज के नारी विमर्श के युग के पहले सुभद्रा के इस चिंतन
और क्रियान्वयन पर कितने सवाल उठे होंगे? जातिवाद की संकीर्ण तुला पर ही वर की योग्यता
को अस्वीकार करते हुए सुभद्रा चौहान ने पुत्री सुधा का प्रेम विवाह कथा- सम्राट प्रेमचंद के
सुपुत्र अमृत राय से करने की स्वीकृति दी। 'पथ के साथीÓ में महादेवी ने जिस शिद्दत से सुभद्रा
को याद किया है, वैसा संस्मरण हिंदी की निधि हैं। वे लिखती है - 'अपने इस आकार में छोटे
साम्राज्य को उन्होंने अपनी ममता के जादू से इतना विशाल बना रखा था कि उसके द्वार पर न
कोई अनाहूत रहा और न निराश लौटा। जिन संघर्षों के बीच से उन्हें मार्ग बनाना पड़ा वे किसी
भी व्यक्ति को अनुदार और कटु बनाने में समर्थ थे। पर सुभद्रा के भीतर बैठी सृजनशीलता नारी
जानती कि कांटों का स्थान जब चरणों के नीचे रहता है तभी वे टूटकर दूसरों को बेधन की शक्ति
खोते है। भारतीय गृहणी की सारी कलाएं सुभद्रा के जीवन में विराम पाती थीं। रानी झांसी की
समाधि पर उन्होंने लिखा था- 'यहीं कहीं पर बिखर गई वह, छिन्न विजय माला सी।Ó ऐसा
लगता है जैसे उन्होंने इसे अपने लिए ही लिखा था। माखनलाल चतुर्वेदी ने कहा था- सुभद्रा का
जाना ऐसा मालूम होता है मानो 'झांसी की रानीÓ की गायिका झांसी की रानी से कहने गई
हो, फिरंगी खदेड़ दिया गया और मातृभूमि आजाद हो

Monday, February 23, 2015

aaropo ki siyasat...vishwas ka sankat


कॉरपोरेट मीडिया की दलाली पर पहली किताब


यह किताब राजकमल प्रकाशन से अभी अभी छप कर आयी है।♦ दिलीप मंडल
शुक्र है कि 2010 में नीरा राडिया कांड हुआ। इससे पहले 2009 में बड़े पैमाने पर पेड न्यूज घोटाला हो चुका था। इन दो घटनाओं से मीडिया में कोई नयी बात नहीं हुई। हुआ सिर्फ इतना कि जो छिपा था, वह दिखने लगा। अब भारत में मीडिया उपभोक्ताओं का एक हिस्सा अब पहले से ज्यादा समझदार है और अपनी राय बनाने और चैनलों और अखबारों को समझने के लिए बेहतर स्थिति में है। इसके लिए हमें खास तौर पर नीरा राडिया का शुक्रगुजार होना चाहिए। यह बताने के लिए कि देश कैसे चलता है और मीडिया कैसे काम करता है।
मीडिया के संदर्भ में नीरा राडिया कांड अपवाद नहीं है। पब्लिक रिलेशन और लॉबिंग के क्षेत्र में तेजी से उभरने वाली नीरा राडिया के टेलीफोन कॉल इनकम टैक्स विभाग ने रिकॉर्ड कराये थे। नीरा राडिया के महत्व का अनुमान लगाने के लिए शायद यह जानकारी काफी होगी कि वे देश के दो सबसे बड़े औद्योगिक घराने – टाटा समूह और रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड यानी रतन टाटा और मुकेश अंबानी के लिए एक साथ काम करती थीं। नीरा राडिया जिन कंपनियों का पब्लिक रिलेशन संभालती हैं, वह काफी लंबी है। यह बातचीत दूसरे कॉरपोरेट दलालों, उद्योगपतियों, नेताओं के साथ ही पत्रकारों से की गयी थी। इस बातचीत के सार्वजनिक होने के बाद मीडिया की छवि को लेकर कई गंभीर सवाल खड़े हुए हैं। खासकर इन टेपों में पत्रकार जिस तरह से आते हैं और लॉबिंग तथा दलाली में लिप्त होते हैं, उसके बारे में जानना सनसनीखेज से कहीं ज्यादा तकलीफदेह साबित हो सकता है। खासकर उन लोगों के लिए, जिनके मन में समाचार मीडिया को लेकर अब भी कुछ रुमानियत बाकी है, जो अब भी मानते हैं कि तमाम गड़बड़ियों के बावजूद समाचार मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। इन टेप से यह बात भी निर्णायक रूप से साबित होती है कि चैनलों और अखबारों में जो छपता-दिखता है, उसका फैसला हमेशा मीडिया संस्थानों में नहीं होता।
इस कांड की सबसे पॉपुलर व्याख्या यह है कि मीडिया में कुछ मछलियां पूरे तालाब को गंदा कर रही हैं। मीडिया वैसे तो शानदार काम कर रहा है लेकिन कुछ लोग यहां गड़बड़ हैं जिनकी साजिश भरी हरकतों की वजह से मीडिया बदनाम हो रहा है। इस कांड को लेकर मीडिया की प्रतिक्रिया चुप्पी बरतने से लेकर कॉस्मेटिक किस्म के उपाय करने के दायरे में रही। इस कांड में लिप्त पाये गये पत्रकार आम तौर पर अपने पदों पर बने रहे, लेकिन कुछ पत्रकारों को नौकरी गंवानी पड़ी तो किसी का कॉलम बंद हुआ तो किसी को कुछ हफ्तों के लिए ऑफ एयर यानी पर्दे से दूर रखा गया। इसे व्यक्तिगत कमजोरी या गड़बड़ी या भ्रष्टाचार के तौर पर देखा गया। लेकिन राडिया कांड मीडिया के कुछ लोगों के बेईमान या भ्रष्ट हो जाने का मामला नहीं है। भारतीय समाचार मीडिया स्वामित्व की संरचना और कारोबारी ढांचे की वजह से कॉरपोरेट इंडिया का हिस्सा है। कॉरोपोरेट इंडिया के हिस्से के तौर पर यह काम करता है और इसी भूमिका के तहत मीडिया और मीडियाकर्मी दलाली भी करते हैं। मीडिया के काम और दलाल के रूप में इसकी भूमिका में कोई अंतर्विरोध नहीं है। कॉरपोरेट पत्रकार का कॉरपोरेट दलाल बन जाना अस्वाभाविक नहीं है।
वैसे भी इस बहस को राष्ट्रीय एजेंडे पर लाने की कोशिश हुई है कि लॉबिंग को कानूनी तौर पर मान्यता दे दी जाए। इसे भ्रष्टाचार के समाधान के तौर पर पेश किया जा रहा है। टेलीविजन पर इसे लेकर कार्यक्रम और बहसें हो रही हैं, लेख लिखे जा रहे हैँ। सीएनएन आईबीएन चैनल में इस बारे में आयोजित राजदीप सरदेसाई के एक कार्यक्रम में तो फर्जीवाड़ा करके यह बताने की कोशिश की गयी कि देश के लोग लॉबिंग को कानूनी रूप दिये जाने के समर्थक हैं। इसके लिए फर्जी ट्विटर एकाउंस से 5 मैसेज भेजे गये और सभी मैसेज लॉबिंग के पक्ष में थे। जब एक ब्लॉगर ने यह चोरी पकड़ ली और इंटरनेट पर इसे लेकर शोर मचने लगा, तो राजदीप सरदेसाई ने सॉरी कहकर मामले को निबटाने की कोशिश की और कहा कि कोशिश की जाएगी कि आगे ऐसी गलती न हो। यह मामला भूल-चूक का नहीं था, क्योंकि सभी फर्जी ट्विटर मैसेज लॉबिंग के समर्थन में भेजे गये थे।
यह राजदीप सरदेसाई की नीयत या बेईमानी का सवाल नहीं है। यह कोई गलती या चूक भी नहीं है। कॉरपोरेट मीडिया यही करता है क्योंकि वह यही कर सकता है। कॉरपोरेट सेक्टर अगर चाहता है कि लॉबिंग को कानूनी रूप दे दिया जाए तो मीडिया का दायित्व बन जाता है कि वह इसके लिए माहौल बनाए। अगर मीडिया ऐसा न करे, तो उसे अपवाद कहेंगे। कॉरपोरेट मीडिया भारत के उद्योग जगत के साथ एकाकार है और दोनों के हित भी साझा हैं।
यह छवियों के विखंडन का दौर है। एक सिलसिला सा चल रहा है, इसलिए कोई मूर्ति गिरती है तो अब शोर कम होता है। इसके बावजूद, 2010 में भारतीय मीडिया की छवि जिस तरह खंडित हुई, उसने दुनिया और दुनिया के साथ सब कुछ खत्म होने की भविष्यवाणियां करने वालों को भी चौंकाया होगा। 2010 को भारतीय पत्रकारिता की छवि में आमूल बदलाव के वर्ष के रूप में याद किया जाएगा। देखते ही देखते ऐसा हुआ कि पत्रकारिता का काम और पत्रकार सम्मानित नहीं रहे। वह बहुत पुरानी बात तो नहीं है जब मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता था। लेकिन आज कोई यह बात नहीं कह रहा है। कोई यह बात कह भी रहा है तो उसे पोंगापंथी करार दिया जा सकता है। मीडिया की छवि जनमाध्यमों में भी बदली है। एक समय था, जब फिल्मों में पत्रकार एक आदर्शवादी, ईमानदार शख्स होता था, जो अक्सर सच की लड़ाई लड़ता हुआ विलेन के हाथों मारा जाता था। अब पत्रकार मसखरा (आमिर खान की पीपली लाइव) है, विघ्नसंतोषी (अमिताभ बच्चन की पा) है, दुष्ट (रण) है। वह अमानत में खयानत करने के लिए आता है।
मीडिया का स्वरूप पिछले दो दशक में काफी बदल गया है। मीडिया देखते ही देखते चौथे खंभे की जगह, एक और धंधा बन गया। मीडिया को एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री के साथ जोड़ दिया गया और पता चला कि भारत में यह उद्योग 58,700 करोड़ रुपये का है। अखबार और चैनल चलाने वाली कंपनियों का सालाना कारोबार देखते ही देखते हजारों करोड़ रुपये का हो गया। मुनाफा कमाना और मुनाफा बढ़ाना मीडिया उद्योग का मुख्य लक्ष्य बन गया। मीडिया को साल में विज्ञापनों के तौर पर साल में जितनी रकम मिलने लगी, वह कई राज्यों के सालाना बजट से ज्यादा है।
पर यह सब 2010 में नहीं हुआ। कुछ मीडिया विश्लेषक काफी समय से यह कहते रहे हैं कि भारतीय मीडिया का कॉरपोरेटीकरण हो गया है और अब उसमें यह क्षमता नहीं है कि वह लोककल्याणकारी भूमिका निभाये। भारत में उदारीकरण के साथ मीडिया के कॉरपोरेट बनने की प्रक्रिया तेज हो गयी और अब यह प्रक्रिया पूरी हो चुकी है। ट्रस्ट संचालित “द ट्रिब्यून” के अलावा देश का हर मीडिया समूह कॉरपोरेट नियंत्रण में है। पश्चिम के मीडिया के संदर्भ में चोमस्की, मैकचेस्नी, एडवर्ड एस हरमन, जेम्स करेन, मैक्वेल, पिल्गर और कई अन्य लोग यह बात कहते रहे हैं कि मीडिया अब कॉरपोरेट हो चुका है। अब भारत में भी मीडिया के साथ यह हो चुका है।
मीडिया का कारोबार बन जाना दर्शकों और पाठकों के लिए चौंकाने वाली बात हो सकती है, लेकिन जो लोग भी इस कारोबार के अंदर हैं या इस पर जिनकी नजर है, वे जानते हैं कि मीडिया की आंतरिक संरचना और उसका वास्तविक चेहरा कैसा है। लोकतंत्र में सकारात्मक भूमिका निभाने की अब मीडिया से उम्मीद भी नहीं है। चुनावों में मीडिया जनमत को प्रभावशाली शक्तियों और सत्ता के पक्ष में मोड़ने का काम करता है और इसके लिए वह पैसे भी वसूलता है। हाल के चुनावों में देखा गया कि अखबार और चैनल प्रचार सुनिश्चित करने के बदले में रेट कार्ड लेकर उम्मीदवारों और पार्टियों के बीच पहुंच गये और उसने खुलकर सौदे किये। मीडिया कवरेज के बदले कंपनियों से भी पैसे लेता है और नेताओं से भी। जब वह पैसे नहीं लेता है तो विज्ञापन लेता है। टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे अखबार विज्ञापन के बदले पैसे नहीं लेते, बल्कि कंपनियों की हिस्सेदारी ले लेते हैं। इसे प्राइवेट ट्रिटी का नाम दिया गया है। मीडिया कई बार सस्ती जमीन और उपकरणों के आयात में ड्यूटी की छूट भी लेता है। सस्ती जमीन का मीडिया अक्सर कोई और ही इस्तेमाल करता है। प्रेस खोलने के लिए मिली जमीन पर बनी इमारतों में किराये पर दफ्तर चलते आप देश के ज्यादातर शहरों में देख सकते हैं।
मीडिया हर तरह की कारोबारी आजादी चाहता है और किसी तरह का सामाजिक उत्तरदायित्व नहीं निभाता, लेकिन 2008-09 की मंदी के समय वह खुद को लोकतंत्र की आवाज बताकर सरकार से राहत पैकेज लेता है। मंदी के नाम पर मीडिया को बढ़ी हुई दर पर सरकारी विज्ञापन मिले और अखबारी कागज के आयात में ड्यूटी में छूट भी मिली। लेकिन यह नयी बात नहीं है। यह सब 2010 से पहले से चल रहा था।
2010 में एक नयी बात हुई। एक पर्दा था, जो उठ गया। इस साल भारतीय मीडिया का एक नया रूप लोगों ने देखा। वैष्णवी कॉरपोरेट कम्युनिकेशंस की मालकिन नीरा राडिया दिल्ली की अकेली कॉरपोरेट दलाल या लॉबिइस्ट नहीं हैं। ऐसे कॉरपोरेट दलाल देश और देश की राजधानी में कई हैं। 2009 इनकम टैक्स विभाग ने नीरा राडिया के फोन टैप किये थे, जो लीक होकर बाहर आ गये। नीरा राडिया इन टेप में मंत्रियों, नेताओं, अफसरों और अपने कर्मचारियों के साथ ही मीडियाकर्मियों से भी बात करती सुनाई देती हैं। इन टेप को दरअसल देश में राजनीतिशास्त्र, जनसंचार, अर्थशास्त्र, मैनेजमेंट, कानून आदि के पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। इन विषयों को सैकड़ों किताबे पढ़कर जितना समझा सकता है, उससे ज्यादा ज्ञान राडिया के टेपों में है।
क्या उम्मीद की कोई किरण है?
ऐसे समय में जब मीडिया पर भरोसा करना आसान नहीं रहा (अमेरिकी मीडिया के बारे में एक ताजा सर्वे यह बताता है कि वहां 63 फीसदी पाठक और दर्शक यह मानते हैं कि मीडिया भरोसे के काबिल नहीं है…) तब लोग क्या करें? यह मुश्किल समय है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन इस दौर में नागरिक पत्रकारिता का एक नया चलन भी जोर पकड़ रहा है। एक महत्वपूर्ण बात यह है कि मीडिया-कॉरपोरेट और नेताओं के रिश्तों के बारे में अखबारों, पत्रिकाओं और चैनलों पर खबर आने से पहले ही राडिया कांड राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में आ चुका था। मास मीडिया को लेकर बहुचर्चित और प्रशंसित ‘एजेंडा सेटिंग थ्योरी’ यह कहती है कि मीडिया किसी मुद्दे पर सोचने के तरीके पर हो सकता है कि निर्णायक असर न डाल पाए लेकिन किन मुद्दों पर सोचना है, यह मीडिया काफी हद तक तय कर देता है। तो राडिया-मीडिया कांड में ऐसा कैसे हुआ कि मीडिया में कोई बात आये, उससे पहले ही वह बात लोकविमर्श में आ गयी। नीरा राडिया के बारे में मुख्यधारा के मीडिया में पहला लिखा हुआ शब्द ओपन मैगजीन ने छापा। टीवी पर इस बारे में पहला कार्यक्रम इसके बाद सीएनबीसी टीवी18 चैनल पर हुआ, जिसे करण थापर ने एंकर किया। इसके बाद द हिंदू ने इस बारे में पहले संपादकीय पन्ने पर और बाद में समाचारों के पन्ने पर सामग्री छापी। आउटलुक ने इस बारे में कई ऐसे तथ्य सामने लाये, जिनका ओपन ने भी खुलासा नहीं किया था। मेल टुडे और इंडियन एक्सप्रेस ने भी इस बारे में छापा। हिंदी मीडिया की बात करें, तो दैनिक भास्कर के दिल्ली संस्करण में दो पेज की सामग्री छापी गयी। एनडीटीवी ने बरखा दत्त को सफाई का मौका देने के लिए 47 मिनट का एक कार्यक्रम किया (एक घंटे का कार्यक्रम 13 मिनट पहले ही अचानक समेट दिया गया)। इससे पहले तक, जब मुख्यधारा के मीडिया में कोई भी राडिया-बरखा-वीर-चावला कांड को नहीं छाप/दिखा रहा था तो लोगों को इसकी खबर कैसे हो गयी और यह मुद्दा चर्चा में कैसे आ गया?
यह संभव हुआ इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की सक्रियता की वजह से। जब कॉरपोरेट मीडिया राडिया कांड के बारे में कुछ भी नहीं बता रहा था तो लोग इंटरनेट पर पत्रकारिता कर रहे थे और इस कांड से जुडी सूचनाएं एक दूसरे तक पहुंचा रहे थे। फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग, यूट्यूब आदि मंचों पर यह पत्रकारिता हुई। यह पत्रकारिता उन लोगों ने की जिन्होंने शायद कभी भी पत्रकारिता की पढ़ाई नहीं की थी, लेकिन जो किसी मसले को महत्वपूर्ण मान रहे थे और उससे जुड़ी सूचनाएं और लोगों तक पहुंचाना चाहते थे। यह नागरिक पत्रकारिता है। इसमें कोई गेटकीपर नहीं होता।
नागरिक पत्रकारिता ने दरअसल पत्रकारिता की विधा को लोकतांत्रिक बनाया है। इसमें पढ़ने या देखना वाला यानी संचार सामग्री का उपभोक्ता, सक्रिय भूमिका निभाने लगता है। पत्रकारिता के तिलिस्म को तोड़ने में इसकी बड़ी भूमिका है। ट्विटर और दूसरे सोशल नेटवर्किंग साइट के जरिए आज अपनी बात पहुंचाना पहले की तुलना में काफी आसान हो गया है। जो बात मुख्यधारा में नहीं कही जा सकती, वह इन माध्यमों के जरिए कही जा सकती है। परंपरागत पत्रकारिता के भारी तामझाम और खर्च से अलग यह नयी पत्रकारिता है।
पश्चिमी देशों में नयी मीडिया की ताकत टेक्नोलॉजी के विस्तार की वजह से बहुत अधिक है। अभी भारत में इंटरनेट शुरुआती दौर में है। इंटरनेट तक पहुंच के मामले में भारत दुनिया के सबसे दरिद्र देशों की लिस्ट में है। लेकिन भारत में भी इसकी ताकत बढ़ रही है। गूगल के अनुमान के मुताबिक, भारत में इस समय इंटरनेट के 10 करोड़ से ज्यादा उपभोक्ता है। चीन के 30 करोड़ और अमेरिका के 20.7 करोड़ की तुलना में यह संख्या छोटी जरूर है, लेकिन भारत इस समय इंटरनेट के सबसे तेजी से बढ़ते बाजारों में से एक है।
इसके आधार पर अंदाजा लगाया जा सकता है कि नागरिक पत्रकारिता का असर यहां भी बढ़ेगा। मुख्यधारा के मीडिया की सीमाएं हैं और वहां जगह न मिलने वाले समाचारों को इन वैकल्पिक माध्यमों में जगह मिलेगी। मुख्यधारा के मीडिया से अलग रह गये समुदायों के लिए भी यह वैकल्पिक मंच बनेगा। ऐसा होने लगा है। यह सही है कि ऐसा पहले शहरी क्षेत्रों में होगा और कम आय वर्ग वाले शुरुआती दौर में इस पूरी प्रक्रिया से बाहर रहेंगे। इसके बावजूद संचार माध्यमों में लोकतंत्र मजबूत होगा। प्रेस और चैनल की तुलना में यह कम खर्चीला माध्यम है।
इस तरह के वैकल्पिक माध्यमों को लेकर कुछ चिंताएं भी हैं। इस माध्यम की बढ़ती ताकत के साथ ही इंटरनेट पर कॉरपोरेट क्षेत्र का दखल भी बढ़ रहा है। ज्यादा संसाधनों के जरिए वे छोटे मंचों और नागरिक पत्रकारिता करने वालों की आवाज को दबाने की कोशिश करेंगे। प्रतिरोध को वे अपने दायरे में समेटने की कोशिश भी करेंगे। विकिलीक्स के मामले में दुनिया ने देखा कि लोकतांत्रिक कही जाने वाली सरकारों ने किस तरह सूचनाओं और सूचनाएं देने वालों का दमन करना चाहा। भारत में सरकार का चरित्र पश्चिम की सरकारों से ज्यादा अनुदार है और इंटरनेट पर पहरा बिठाने की कोशिश यहां भी होगी। सूचना और जनसंचार माध्यमों का लोकतांत्रिक होना समाज और देश के लोकतांत्रिक होने से जुड़ी प्रक्रिया है। इन उम्मीदों, चिंताओं और आशंकाओं को बीच ही मीडिया के संदर्भ में राडिया कांड को देखा और पढ़ा जाना चाहिए।
dilip mandal(दिलीप मंडल। सीनियर टीवी जर्नलिस्‍ट। सक्रिय फेसबुक एक्टिविस्‍ट। कई टीवी चैनलों में जिम्‍मेदार पदों पर रहे। इन दिनों अध्‍यापन कार्य से जुड़े हैं। उनसे dilipcmandal@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)