Thursday, December 22, 2016

टनाटनदास और तैमूर

वेशक नाम में कुछ भी नहीं धरा है। गधे को घोड़ा कह देने से वह घोड़ा नहीं
हो जाता और न आम, इमली। गधा गधा ही रहेगा और आम आम ही। चरित्र नहीं
बदलता। कपूत का नाम कुलदीपक रखो तो क्या उजियारा करने लगेगा कुलवंश का,
नहीं। उसे जो करना है, वही करेगा। हमारे गांव में एक टनाटनदास थे। लोग
उनके नाम का बड़ा मजाक उड़ाते थे। तंग आकर उसने एक दिन तय किया कि क्यों
न अपना नाम बदल लें। सो नाम की खोज में वह गांव से निकल पड़े। जैसे ही वह
गांव के सीवान से बाहर आये एक अर्थी जाती दिखी। राम नाम सत्य बोलने वाली
भीड़ में से किसी से पूछा कि ये जो मर गया है इसका नाम क्या है...? बताया
गया अमरचंद। नाम अमरचंद फिर भी मर गये? आगे बढ़े। भरी दोपहरी एक युवक खेत
की मेड़ पर घास छीलता मिल गया। नए नाम की तलाश में निकले टनाटनदास ने
उससे पूछा भई तुम्हारा नाम क्या है? चेहरे से पसीना पोछते हुए युवक ने
जवाब दिया क्यों..? क्या करोगे...धनपत नाम है मेरा! वाह नाम धनपत छील रहे
घांस। टनाटन आगे बढ़े, प्यास लगी तो एक झोपड़ी के पास रुक गए। एक महिला
कंडे थाप रही थी। टनाटन अपनी प्यास को दबाते हुए पूछ ही लिया माई
तुम्हारा नाम क्या है....गोबर सने हांथों से आंचल समेटते हुए महिला
बोली-लक्षमी, लक्षमी देवी। टनाटन उल्टे पांव अपने गांव लौट पड़े और
ब्योहार की चौपाल में जमा गांव के लोगों को जवाब दिया।
अमरचंद तो मर गए धनपत छोलै घांस,
लक्षमी देवी कंडा थापै सबसे भले टनाटनदास।
सो नाम को लेकर माथा पच्ची क्यों? अब सैफ और करीना को वो उजबेकिस्तानी
लंगड़ा लुटेरा तैमूरलंग का नाम अच्छा लगा तो लगा। आपको क्या दिक्कत।
तैमूर के बाप ने जब तैमूर नाम दिया होगा तो उसे थोड़ी न मालुम कि इस
लंगड़े के नाम से एक दिन दुनिया रोएगी। पुलस्त्य तो सीधे ब्रम्हा के
पुत्र थे। काफी कुछ सोच विचार के, ग्रह, नक्षत्र, मुहूर्त देखकर नाम रखा
होग, रावण, कुंभकरण, विभीषण। पर रावण-रावण निकला तो इसमें नाम का क्या
दोष? और विभीषण तो प्रभु भक्त था। अन्याय के खिलाफ भाई के खिलाफ खड़ा
होने वाला। पर मैने आज तक किसी का नाम विभीषण नहीं सुना। क्यों? इसलिए कि
घर का भेदी था। घाती...। लोक ने माना कि विभीषण ने भाई से गद्दारी की।
गद्दारी के लिए विभीषण पर्यायवाची हो गया।
देखें तो नाम में कुछ भी नहीं है और नाम में ही सब कुछ। नाम जब तक अक्षर
शब्द रहता है तब तक यांत्रिक लेकिन जब कोई चरित्र उसे ओढ़ लेता है या
उसका विलयन किसी चरित्र के साथ हो जाता है तो मांत्रिक। हमारी समूची पूजा
पद्धति ही नाम पर टिकी है चाहे हिन्दू हो या मुस्लिम। मानस में तुलसी ने
जाते-जाते लिखा-कलयुग केवल नाम अधारा। नाम जपने से ही मोक्ष। वाकय--चाहे
ईश्वर का जपो, नेता का या अपने बॉस का। जपो फल सुनिश्चित मिलेगा। छोटके
नेता जब भाषण देते हैं तो उसकी पार्टी के विघ्नसंतोषी गिनते रहते हैं कि
उसने बड़के नेता (जो कि हर पार्टी का पहला और आखिरी अधिनायक हुआ करता है)
का कितने बार नाम लिया। बायदवे नाम लेने से भूल गया तो तत्काल उसके भाषण
की क्लिपिंग ऊपर, आलाकमान के पास। और यदि नाम ही रटता रहा तो मीडिया को
ब्रीफिंग...देखा साले के पास नाम के अलावा कोई एजेन्डा नहीं। अइसे भी
गदहे नेता बनने चले।
कोई गारंटी नहीं कि ज्ञानेन्द्र ज्ञानी हों या शेर बहादुर शेर दिल। पर
नाम रखने वाले मां-बाप रखते तो इसी कामना के साथ है। अपने देश में
मनुष्यों के सबसे ज्यादा नाम देवी-देवताओं और ईश्वर के हैं। पर किसी को
कोई उलाहना दे सकता है मसलन -रामलखन मुंह कूकुर कस। यदि नाम के विपरीत
आचरण किया तो भी नहीं छोड़ते भाई लोग- पढ़ै-लिखै न एकौ रती नाम धराइन
विद्यारथी। फिर भी महत्ता नहीं होती तो नाम नहीं होता। अजामिल कसाई का
पशुओं का वध करके उनका मांस बेचना पेशा था। एक महात्मा ने उसे जुगत बताई
कि बेटे का नाम नारायण रख दो। इसी बहाने प्रभु का नाम भी जपते रहोगे हो
सकता है तर जाओ। अजामिल ने वही किया। जब मरने लगा तो नारायण-नारायण कह कर
बेटे को बुलाने लगा। बेटा आया कि नहीं यह तो नहीं मालुम पर भागवत् में
कथा है कि भगवान नारायण-नारायण सुनकर दौड़े आए और अजामिल को अपने धाम ले
गए। नाम की महत्ता हमारी संस्कृति मे है, इस्लामी संस्कृति में भी। आम
तौर पर ऐसे नाम नहीं रखे जाते जो इतिहास को दागदार बनाते हैं। अपने कृत्य
और आचरण से। पुराने जमाने के चरित्र, कंस, रावण, कालिनेमि की बात कौन करे
मध्ययुगीन जयचंद और मीरजाफर तक के नाम पर किसी भी बच्चे का नाम नहीं
सुना। इन्हें लोक ने खारिज कर दिया। एक और मिसाल लें फिल्मों में खल
चरित्र निभाने वाले शानदार अभिनेता प्राण के नाम पर दशकों किसी बच्चे का
नाम नहीं रखा गया।
अब सैफ-करीना ने अपने बेटे का नाम तैमूर रखा है तो सोच समझ कर ही रखा
होगा। यह नकारात्मक छवियों की प्राणप्रतिष्ठा का दौर है। आए दिन कहीं से
सुनने को मिलता है कि हम गोडसे की जयंती मनाएंगे, मंदिर बनवाएंगे। यदि
गांधी को राष्ट्रपिता माना है व उनके आदर्श हमारे आचरण के नीति निर्देशक
सिद्धान्त हैं तो उनकी हत्या करने वाला भी तो वैसा ही है जैसा कि रक्तपात
करनें शहर फंूकने वाला दुर्दान्त तैमूर।
बेटे को राक्षस का नाम दें या देवता का यह मां-बाप का सर्वाधिकार है।
कानूनन कोई बंदिश नहीं। बंदिश तो लोक लाज की लगती है। लोकलाज की मर्यादा
उसे मानने वाले पर निर्भर है। यदि समाज में ऐसा तबका बढ़ रहा है जो नकारा
चरित्रों पर ही अपनी छवि देखता है तो इसके लिए जिम्मेदार कौन? यह यक्ष
प्रश्न है। पत्थर की मूर्ति कपड़े से नहीं ढंकी होती फिर भी हमारी नजर
श्रद्धा से उसमें दैवीय भाव देखती है। जब वही मूर्ति किसी तस्कर के जरिये
देश या विदेश के किसी एय्याश धनुपशु के ड्राइंग रूम में सजती है तो
कामुकी हो जाती है। यह नजरों का फेर है। यानी कि अपना-अपना माइन्ड सेट।
फिर किसी का नाम चाहे तैमूर रखो या टनाटनदास क्या फर्क पड़ता है।

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