Tuesday, April 23, 2013

बलात्कार के एक लाख अभियुक्त 'बाइज़्ज़त बरी'


 मंगलवार, 23 अप्रैल, 2013 को 12:20 IST तक के समाचार
बलात्कार
बलात्कार की बढ़ती घटनाओं के बाद सरकार पर कड़े कानून बनाने का दबाव रहा है.
पिछले साल दिसंबर में एक छात्रा के साथ चलती बस में हुई सामूहिक बलात्कार की घटना के बाद से भारत में महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराधों पर लंबी बहस जारी है.
बलात्कार विरोधी एक नए कानून से लेकरक्लिक करेंबलात्कारियों को मौत की सज़ा दी जाए या नहीं, इस पर अभी भी पूर्ण रूप से सहमति नहीं बन सकी है.
लेकिन इस सब के बीच हैं आंकड़ों का सच, जो बताते हैं कि भारत में महिलाओं के खिलाफ़ होने वाले अपराधों के अलावा अभियुक्तों के विरुद्ध पुख्ता सबूत न होने की वजह से भी उनकी रिहाई हो जाती है.
अपराधों का लेखा जोखा रखने वाली संस्था नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार 2001 से लेकर 2010 तक दर्ज किए गए बलात्कार के मामलों में मात्र 36,000 अभियुक्तों के खिलाफ ही अपराध साबित हो सके.

'निर्दोष'

बलात्कार
दिसंबर में सामूहिक बलात्कार घटना के बाद अप्रैल में बच्ची के बलात्कार मामले ने तूल पकड़ लिया.
भारत के गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने सोमवार को संसद में बयान दिया था कि दिल्ली में हुई बलात्कार की घटनाओं की तरह ये वाकये पूरे देश भर में होते हैं.
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार 2001 और 2010 के बीच एक लाख चालीस हज़ार से भी ज्यादा दर्ज किए इस तरह के मामलों में से कम से कम एक लाख ऐसे अभियुक्त थे, जिन्हें प्रमाण के अभाव में क्लिक करेंनिर्दोष करार दिया गया.
गौर करने वाली बात ये भी है कि इस एक लाख में 14,500 से भी ज्यादा मामले ऐसे थे, जिनमे अभियुक्तों के खिलाफ नाबालिग लड़कियों का बलात्कार करने का आरोप था.
साथ ही इस एक लाख से भी ज्यादा के आंकड़े में करीब 9,000 ऐसे भी मामले थे, जिन्हें पुलिस की प्रारंभिक जांच के बाद बंद करना पड़ा.

अपराध

बलात्कार
बलात्कार विरोधी प्रदर्शनों में महिलाओं ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया है.
सभी अपराधों के बारे में आंकडे जुटाने और जारी करने वाली संस्था नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार बलात्कार के मामलों में आंकड़े साल 1971 के बाद से ही उपलब्ध हैं.
जहाँ 1971 में इस तरह के 2,487 मामले दर्ज किए गए थे वहीं 2011 में दर्ज किए गए मामलों की संख्या 24,206 थी यानी 873% से भी ज्यादा की बढ़ोत्तरी!
शायद यही वजह है कि ट्रस्ट लॉ नामक थॉमसन रायटर्स की संस्था ने जी-20 देशों के समूह में भारत को महिलाओं के रहने के लिए सबसे बदतर जगह बताया है.
ख़ास बात ये भी है कि अपराधों का मामला सिर्फ बलात्कार तक सीमित नहीं है.
महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराधों के जो आंकड़े 2011 में जारी किए गए हैं, उनमे अपहरण की घटनाएँ 19.4% बढ़ी हैं जबकि 2010 की तुलना में 2011 में महिलाओं की तस्करी के मामलों में पूरे 122% का इज़ाफा दर्ज किया गया था.

Saturday, April 20, 2013

राजा की मंडी राजा के सांड़

उन दिनों छोटे इलाकेदार भी अपने इलाके के राजा हुआ करते थे। राजा यानी कि जो मर्जी हो सो करे, जो दिल में आए वो कहे। बस अपने ऊपर वाले महाराजा को नजराना देना पड़ता था। नजराना का तब भी वही मतलब था आज भी वही है। यानी कि आप कैसी भी उच्छिन्न करें ऊपर वाले को नजर नहीं आना है। एक दिन राजा के दिल में आया कि कुछ तूफानी किया जाए। तो उसने इलाके से एक जबरदस्त अन्डू सांड़ छंटवाया। सांड के पुट्ठे पर इलाके का राजचिन्ह दाग दिया। राजचिन्ह राजा का चलता-फिरता हुक्मनामा था। जहां जाए लोग रास्ता दे दें, डर के मारे। किसी को फुफकारे किसी को हुरपेटे किसी की क्या मजाल, सांड़ को डंडा मार सके। लोग यह मानने लगे कि सांड़ की आत्मा में राजा ही बसता है और सांड़ के रूप में राजा ही विचरता है। जब सांड़ का मन पड़े सब्जी मंडी में घुस जाए। पहली बार घुसा तो पूरी सब्जी मंडी को ही तहस-नहस कर दिया। जितना बन पड़ा उतना खाया जो बचा उस पर गोबर कर दिया। लोग किससे फरियाद करते, राजा का सांड था उस वक्त तो सांड़ ही राजा था। सांड़ इलाके में घूमने निकलता- लोग प्रेमपूर्वक उसे भोजन देते, वह घूरकर देखता, आगे बढ़ जाता। एक ठेलेवाले से एक बार चूक हो गई। उसने केले नहीं खिलाए तो सांड़ ने ठेला पलट दिया। सभी ठेले वालों को नसीहत मिल गई। अब जब वह कभी सब्जी मंडी घुसता तो दूकानदार पहले से ही हरी भाजी, ककड़ी-खीरा टोकनी में रख देते। सांड़ का जहां मन पड़ता वहां मुंह मारता। जहां इच्छा हुई गोबर कर दिया। 
राजा को लगा कि यह सांड़ कितने काम का है। मेरा फोकट का विज्ञापन हो जाता है। बिना पुलिस-फौज के मेरी दहशत बनाए रखता है। सो राजा ने सोचा कि अब एक सांड़ से काम नहीं चलने वाला, और न जाने कब वह बागी हो जाए इसलिए उसके कुछ एक विकल्प होने चाहिए। राजा ने रानी से सलाह ली। असल में इलाकेदारी की कमान परदे के पीछे रानी के हाथों में थी। सो रानी ने कहा ऐसा करिए- सभी महकमों के एक-एक सांड़ छोड़ दीजिए। वे अपने-अपने विभाग में मुंह मारे- गोबर करें और हमारी दहशत बनाए रखें, नाम रोशन करें। अब इलाके में कई तरह के सांड़ घूमने लगे। इस बार सबके पुट्ठे में राजचिन्ह दगा था साथ में उसकी सींगे रंग दी गईं थीं। रंगी हुई सींगों से पता चलता था कि यह सांड फला महकमे का है।
अखबारों ने सांड़ों पर टिप्पणियां करनी शुरू कर दीं। कौन सांड़ कितना बलिष्ठ है और अपने मोहकमें की खेती को कैसे चर रहा है। कुछ ने सांड़ों का वर्गीकरण भी कर दिया। ये राजनीतिक सांड़ है- ये प्रशासनिक सांड़ है, और ये आवारा लेकिन राजा के लिए काम के हैं। आवारा सांड़ों को छूट दी गई, कि वे माइनिंग-प्रापर्टी- कांस्ट्रक्शन महकमों में जाकर मनमाफिक चरें और हमारा नाम रोशन करें। सभी सांड़ अपने-अपने क्षेत्र में ईमानदारी से काम करने लगे। इलाके के राजा-रानी उनसे खुश थे। पर एक दिन गजब हो गया। जो सबसे सीनियर सांड़ था यानी कि राजचिन्ह के साथ इलाके में छोड़ा गया पहला सांड़, ने सोचा कि राजा की औकात ही क्या? उसके लिए इलाके में मैं दहशत फैलाता हूं और वह मेरी फैलाई हुई दहशत के आधार पर राज करता है। ये अब ज्यादा दिन नहीं चलने वाला। सांड़ ने सोचा कि यदि जंगल का राजा शेर हो सकता है, तो मैं इस इलाके का राजा क्यों नहीं? सांड़ ने इलाके में निकलना बन्द कर दिया, और राजा की कोठी के शानदार लान में जा बैठा। राजा-रानी के साथ शाम को टहलने निकला। सांड़ सींगें तानकर फुफकारता हुआ राजा-रानी की ओर घूरे जा रहा था। रानी सांड़ की नियति को ताड़ गई। वह पुचकारते हुए बोली धीरज रखो तुम्हें सभी सांड़ों का सरताज बना दिया जाएगा। फिर एक प्लान बना... और रातों-रात उस प्लान पर अमल हुआ। सुबह ड्योढीदारों ने देखा- सांड़ पस्त पड़ा था। बच्चे उसे पत्थर मारकर छेड़ रहे थे, वह चाहकर भी नहीं घूर पा रहा था। उसकी धारदार सींगे सिर का बोझ जैसी लगने लगीं थी। नथुनों से फुफकार नहीं निकल पा रही थी। एक उम्रदराज ड्योढ़ीदार ने कहा .. राजा-राजा होता है.. वो बड़े-बड़े अन्डुओं को यू हीं सड़ कर देता है .. आया समझ में।

Friday, April 19, 2013

इन्हें वोकल डायरिया है


लो ग पूछ रहे हैं अजीत पवार को कौन सी बीमारी हो गई है? मुंह से दुर्गन्धित शब्द निकल रहे हैं। कोई न कोई बीमारी तो है। बीमारियों का क्या? वे किसी को संक्रमित कर सकती हैं और कैसे भी हो सकती हैं। वैज्ञानिक हर साल कोई न कोई नई बीमारी खोज लाते हैं। एक दशक पहले एड्स का नाम सुना था। वैज्ञानिकों ने बताया कि यह रोग व्यभिचार की कोख से पैदा होता है। पहले-पहल येे बीमारी हॉलीवुड अभिनेता में खोजी गई थी। जैसे हॉलीवुड की फिल्में चोरी से बॉलीवुड आ जाती हैं वैसे ही चोरी-छुपे एड्स भी आ गया। यानी रोग की भी पाइरेसी। अजीत पवार मुंबई में रहते हैं। किसी भी रोग की ग्रहण क्षमता इस शहर में अद्भुत है। दंगा रोग भी यहीं सबसे पहले फैलता है।
एड्स के बाद और कोई नई बीमारी आई या नहीं डॉक्टरों को भले ही पता न हो, पर मुझे है। इस बीमारी का नाम है 'वोकल डायरियाÓ या 'माउथ डायरिया..Ó। इसे देसी जबान में 'मुंह पोकनाÓ रोग भी कह सकते हैं। इस रोग का लक्षण यह कि जिस तरह पेचिश से पहले आंत में मरोड़ होती है, पेट दर्द होता है.. फिर प्रेशर बनता है.. और आदमी बार-बार बाथरूम आता-जाता रहता है। उसी तरह इस रोग में भी जीभ में मरोड़ और ऐठन होने लगती है। पेचिश तब होती है जब आदमी संक्रमित भोज्य पदार्थ का भक्षण करता है और आंते उसे पचाने से मना कर देती हैं। ठीक उसी तरह जब हमारे नेता-अभिनेता कोई संक्रमित शब्द दिमाग में बैठा लेते हैं, व दिमाग उसे खपा नहीं पाता तो वह शब्द मुंह से पेचिश की भांति निकलता है। यही लक्षण शरद पवार के भतीजे मंत्री अजीत पवार में उभरा.. मुंह से दुर्गन्धित शब्द झर पड़े.. ''पानी नहीं है बांध में तो क्या पेशाब करके उसे भर दूं। अपने यहां इन दिनों वोकल डायरिया के मरीजों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है। जैसे कालरा और प्लेग के वायरस दूसरों को संक्रमित कर बीमार बना देते हैं वैसे ही इस रोग का वायरस! महाराष्ट्र बहुत पहले से ही वोकल डायरिया से संक्रमित प्रदेश रहा है। 'मातोश्रीÓ के दरबारहाल से इसकी परपराहट भरी ध्वनि सत्तर के दशक से ही आनी शुरू हो गई थी। बाल ठाकरे के मुंह से फुल प्रेशर के साथ दख्खिनियों के लिए ऐसे ही अल्फाज निकला करते थे। भतीजे ने भूगोल बदलते हुए उत्तरियों पर जब तब 'वोकल फारिगÓ करना जारी रखा है। नितिन गड़करी भी इसी संक्रमण में यदा-कदा फंस जाते हैं। 
'वोकल डायरियाÓ हाई प्रोफाइल रोग है। हार्ट अटैक, ब्लड प्रेशर की भांति ऊंची सोसायटी में पाया जाता है। इसलिए इसके सबसे ज्यादा लक्षण अपने दिग्विजय सिंह पर प्रकट होते हैं। क्योंकि वे सूबे के दस साल चीफ मिनिस्टर रहे और अब आला कमान के आला महासचिव हैं। कभी-कभी तो 'वोकल डायरियाÓ के इतने क्रॉनिक पेशेन्ट हो जाते हैं कि मुंह से आदरणीय हाफिज सईद साहब और माननीय ओसामा जी जैसे शब्द झरने लगते हैं। दिग्विजय सिंह को इस रोग का ब्रान्ड एम्बसडर भी माना जा सकता है। दिग्विजय सिंह ने यूपी को इस रोग से संक्रमित कर दिया। इसके पहले शिकार बेनी प्रसाद वर्मा उर्फ बेनीबाबू बन गए। इनके मुंह में भी जब चाहे तब प्रेशर बन जाता है और कुछ बोल-बाल के फारिग हो जाते हैं। बेनी बाबू ठहरे मुलायम सिंह के पुराने समाजवादी सखा - सो 'वोकल डायरियाÓ के वायरस से उनके कुनबे को संक्रमित कर आए। शिवपाल-रामगोपाल इन सबमें इस हाईप्रोफाइल रोग के कीटाणु पहुंच चुके हैं और जब चाहे तब प्रेशर बनाकर मुंह को गंदा करते रहते हैं। रही बात बहन मायावती की तो वे मनुवादियों के लिए शुरू से ही इस रोग की क्रानिक पेशेन्ट रही हैं और उन्हें इसका अफसोस भी नहीं। 
हार्टअटैक-ब्लडप्रेशर की भांति वोकल डायरिया कोई नेताओं की बपौती नहीं है। राजेन्द्र यादव जैसे साहित्यकार और महेश भट्ट-शाहरुख खान जैसे फिल्मी दुनिया के कलाकार भी इसी बीमारी से पीडि़त हैं। जब चाहे तब और जहां चाहे वहां ये 'वोकल फारिगÓ होते रहते हैं। 'वोकल डायरियाÓ के फायदे बड़े हैं। एक बार फारिग करो पूरा मीडिया लपक लेगा और आपकी एक फारिग को दिन-भर कई-कई बार दिखाएगा। हर्रा-फिटकरी के बिना आपके प्रचार का रंग चोखा बन जाएगा।
पागलों के लिए मेंटल हॉस्पिटल है, विकलांगों के लिए अलग चिकित्सालय, जितने मर्ज उतने क्लिनिक। समझ में नहीं आता कि 'वोकल डायरियाÓ के मरीजों के लिए मुफीद चिकित्सालय कहां हो सकता है। 
'आधुनिक भविष्य पुराणÓ के रचयिता आचार्य रामलोटन शास्त्री ने 'भविष्य के लोकतंत्रÓ नामक अध्याय में लिखा है कि - इसका कारगर इलाज जनता के ही पास है। पूछिए कैसे ... जैसे बजबजाती नालियों की दुर्गन्ध रोकने के लिए हम फिनाइल डालकर कीटाणुओं को मारते हैं उसी तरह यदि आप तक किसी नेता-अभिनेता के मुंह से निकली शाब्दिक दुर्गन्ध पहुंचे, तो आप भी जवाब में विवेक के फिनायल का प्रयोग करें। 
ये अजीत पवार- दिग्विजय सिंह- गडकरी- बेनीबाबू- महेश भट्ट आदि-आदि, जितने मरीज हैं इनका इलाज अस्पतालों में नहीं जनता के तिरस्कार में है। एक बार आजमाइए- ऐसे रोगियों की समूची प्रजाति अपने-अपने घरों में बैठ जाएगी- ढोर-डंगर की तरह। ऐसा हम नहीं आचार्य रामलोटन शास्त्री कहते हैं।

Saturday, April 13, 2013

एनसीएल के विस्थापित------घर-बार छीनकर भेज दिया बदहाली में

जि¶े के प्रमुख औद्योगिक नगर जयन्त से लगे एवं कोयला खदानों के ओवर वर्डन पहाड़ की तलहटी में बसी मुड़वानी बैगा बस्ती में निवासरत वनवासी समाज आज भी सिंगापुर बनने की ओर कदम बढ़ा चुकी इस चमक-दमक भरी सिंगरौली में आदम युग जैसा बदहा¶ जीवन जीने को मजबूर हैं।.......Details

Friday, April 12, 2013

संभवामि युगे-युगे

 चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
 धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य, पाप-पुण्य की जितनी चर्चा महाभारत पुराण में है, उतनी किसी अन्य भारतीय काव्य या पुराण में नहीं। वेदव्यास परोपकाराय, पुण्याय, पापाय, परपीड़नम्, की अवधारणा कर रहे हैं, स्वयं महाभारत में उपस्थित हैं, परंतु धर्म की परिभाषा परिस्थितिवश बदलते हुए पाप को भी पुण्य कहने में गुरेज नहीं करते। युधिष्ठिर और धर्मराज आज समाज का सबसे बड़ा व्यंग्य है। यह उस व्यक्ति के लिए कहा जाता है जो धर्म-अधर्म को अपने वाकजाल में उलझकर अपना कार्य हल कर लेता है। कृष्ण, युधिष्ठिर को झूठ बोलने के लिए प्रेरित करते समय सूत्र देते हैं- ‘यदि झूठ बोलने से किसी की प्राण रक्षा होती है तो वह सत्य से भी बढ़कर धर्म है, उसे झूठ का पाप नहीं लगता।’अपने को धर्म और धर्म के साथ रहने वाला कृष्ण, भीम द्वारा अश्वत्थामा नाम के हाथी के मरने पर अफवाह फैलाते हैं, कि अश्वत्थामा (द्रोण-पुत्र) मर गया। अजेय द्रोण इस बात के प्रमाण के लिए युधिष्ठिर की सत्यता पर विश्वास करते हुए प्राण त्याग देते हैं। सारे अजेय कौरवों के प्राण अधर्म आधारित हैं और सभी भूमिकाओं में कृष्ण पूरी सन्नद्धता से महाभारत के अठारह दिनी युद्ध में सक्रिय हैं। इसी कारण बर्बरीक की निर्णायक टिप्पणी ही एकमात्र सत्य है कि मैंने महाभारत में सिर्फ एक व्यक्ति को लड़ते देखा है, समस्त कौरवों के विरुद्ध वे कृष्ण हैं। स्वयं वह भी कृष्ण का शिकार, युद्ध के पहले हो चुका था और रणक्षेत्र के ऊपर आकाश में ‘सेटेलाइट’ की तरह स्थित था। महाभारत के युद्ध खेल का ‘नान प्लेइंग’ कैप्टन कृष्ण बिना चक्र सुदर्शन उठाए खेल रहा था। प्रत्येक ‘टर्निग प्वाइंट’ पर खड़ा कृष्ण अपनों को दिशा निर्देश देता रहा।
सम्पूर्ण विश्व साहित्य में कृष्ण जैसा चरित्र कहीं भी देखने को नहीं मिलता। महाभारत के कृष्ण इतने समर्थ होते हुए भी सहनीय नहीं हो सके। लोक, कृष्ण-नीति का प्रशंसक नहीं है, परंतु वही कृष्ण भागवत पुराण में लीला पुरुषोत्तम योगेश्वर होकर उत्तर चरित्र में ब्रrा हो जाते हैं। युधिष्ठिर की लोक में अस्वीकार्यता का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि शायद कोई व्यक्ति अपने पुत्र का नाम युधिष्ठिर रखता हो।
निरंतर महाभारत का जीवन जीने वाले समाज में ‘गरुड़ पुराण’ जैसे डरावने दृश्यों वाली रचना का भी पाठ मृत्योपरांत होता है परंतु महाभारत पुराण का पाठ अशुभ मानते हुए वजिर्त है, जबकि महाभारत मानवीय प्रवृत्तियों का इतना बड़ा भंडार है, जिसके बारे में कहा जाता है कि जो कहीं नहीं है वह भी इसी में है और जो यहां नहीं है वह फिर कहीं नहीं। न्याय, दर्शन, भौतिकी, आध्यात्म सब कुछ महाभारत के पात्रों की जीवन पद्धति में है। इसका अपाठय़ होना सामाजिक विसंगति है।
रणक्षेत्र में घायल दुर्योधन कृष्ण पर आरोपों की झड़ी लगा देता है-‘मेरे साथ कपट युद्ध करने के लिए पांडवों को आपने उकसाया, आपकी आज्ञा से अजरुन ने शिखंडी की ओट से भीष्म को मारा, द्रोण से अस्त्र रखवाने के लिए अश्वत्थामा के मरने की अफवाह पांडवों ने आपकी प्रेरणा से फैलाई, आपकी आज्ञा से अजरुन ने रथ का पहिया निकालते हुए नि:शस्त्र कर्ण को मारा, आपके संकेत से भीम ने नाभि के नीचे गदा प्रहार कर मेरी जंघाएं तोड़ीं। पांडवों ने मुङो युद्ध से नहीं अधर्म से पराजित किया।’ माना कि दुर्योधन के अधर्म कम नहीं थे। वह घोषित खलनायक है परंतु कृष्ण महानायक हैं।
महाभारत, अभिशापों और वरदानों का मिथ है। जिसके वरदान ही अभिशाप बन जाते हैं। हर योद्धा शापित है, हर वरदानी। इतने ढेर सारे आरोपों को ङोलने वाले कृष्ण भी अपने संचित कर्मो की दुहाई देते हुए अश्वत्थामा के ब्रrास्त्र से मृत जन्मे शिशु परीक्षित के लिए प्रार्थना करते हैं- ‘यदि मैंने पूर्ण सात्विक जीवन जिया हो तो अभिमन्यु पुत्र जीवित हो जाय।’ कृष्ण के जीवन की सात्विकता की कसौटी की शान क्या है? कौन कहे? व्यास, कृष्ण के सभी धतकरमों के नयिक पैरोकार हैं। महाभारत के दिग्गज योद्धा भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, दुर्योधन से अनेक जगहों पर असहमत होते हुए भी उसके साथ हैं, उसके लिए युद्ध करते हैं, परंतु आत्मा से पांडवों के साथ हैं, क्या इसे भी धर्म कहेंगे? अपनी मृत्यु का रहस्य बताते हैं, निष्ठा का ऐसा उदाहरण अन्य किसी ग्रंथ में नहीं मिलता। ‘रामायण’ के असहमत पात्र रावण का साथ छोड़ देते हैं। विभीषण किसी तरह रावण को धोखा नहीं देता, रावण भी उसकी तरफ से निश्चिंत है। शत्रु के साथ है,शत्रु है, परंतु भीष्म-द्रोण आदि कौरवों के साथ होते हुए भी पांडवों के हित चिंतन में लगे हैं। दुर्योधन पर दबाव भी बनाते हैं परंतु वह उन्हें राजाज्ञा सुनाता है- ‘राजन! युद्ध या शांति दोनों आपके हाथ में है।’ गदा युद्ध का अप्रतिम योद्धा सुयोधन अपने कर्मो से दुर्योधन की संज्ञा पाता है। भीष्म प्रतिज्ञा अटल रहने का प्रतीक बनी तो शकुनि धूर्तता का पर्याय। एकलव्य का अंगूठा लेकर समाज में निंदित होने वाले आचार्य द्रोण शिष्य और पुत्र मोह की पहचान बनकर गुरु के अवमूल्यन का कारण बन गए। धृतराष्ट्र का अंधत्व पुत्र मोह के लिए शाश्वत प्रतीक बन गया। पता नहीं ‘अंधा बांटे रेवड़ी चीन्ह-चीन्ह कर देइ’का निहितार्थ क्या है? अंधों के पहचानने में शरीर की कौन सी इंद्रिय काम करती है।
पतिव्रता कुंती और द्रोपदी लोक के अस्वीकृत नाम हैं।
महाभारत, हर युग का शाश्वत यथार्थ है। पैतिृक उत्तराधिकार महाभारत के पहले पारिवारिक परम्परा थी। धृतराष्ट्र मोहग्रस्त अवश्य थे परंतु पांडवों के प्रति सहृदय हमेशा रहे।
दुर्योधन के उद्धत स्वभाव से दुखी रहते थे, उसके मतों से सर्वथा सहमत कभी नहीं थे। आज जब देश में लोकतंत्र है। इस लोकतंत्र के अपने राजतंत्र हैं। अपनी ही वंश परम्परा का राज्यारोहण कराने में देश के समूचे दलों के अधिपति लगे हैं। लोकशाही के प्रतिनिधियों का रहन-सहन उनकी तरह नहीं है। जिन लोगों ने उन्हें चुना है। महाभारत के धृतराष्ट्र जन्मांध थे, परंतु आज के धृतराष्ट्र आंख होते हुए भी पुत्रों की आंख से देखते हैं, उन्हीं के लिए सब कुछ करते हैं। देवराज इंद्र अपने पुत्र अजरुन के लिए क्या नहीं करते। उसे अजेय बनाने के लिए दिव्यास्त्रों की व्यवस्था करते हैं। कर्ण का कवच कुण्डल मांग लेते हैं। अजरुन का पुत्र मोह अभिमन्यु की मृत्यु के बाद कृष्ण के समझने पर भी समाप्त नहीं होता। अपनी बहन के पुत्र के पुत्र के लिए (परीक्षित) कभी किसी के सामने हार न मानने वाले कृष्ण प्रार्थना लीन हो जाते हैं। स्वार्थो में लिप्त होने के बाद भी धर्म की स्थापना करने के लिए संभवामि युगे-युगे का उद्घोष करते हैं।
क्या आने वाला युग महाभारत काल से भी गर्हित होगा? - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09407041430. 

बाजार की गोद में बैठा है मीडिया..काटजू क्या कर लोगे!


चिन्तामणि मिश्र
आजकल देश के पत्रकारों को लेकर फिर से एक बहस चल रही है कि पत्रकारों की न्यूनतम योग्यता का निर्धारण होना चाहिए। इस फुलझड़ी में इस बार आग लगाने का काम प्रेस कौसिंल के अध्यक्ष काटजू साहब ने किया है। वे सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज रहे हैं और जब से सरकार ने उनका विस्थापन प्रेस कौन्सिल में अध्यक्ष के पद पर किया है तभी से नाना प्रकार के बयान देने और बतकही के लिए उनको प्रसिद्धि मिल रही हैं। यह अलग बात है कि अब लोग उनके प्रवचनों को गम्भीरता से नहीं लेते । अस्सी प्रतिशत भारतीयों को मूर्ख कह कर वे खबर बन गए थे और मोदी पर टिप्पणी करके विवाद के झूले में झूलते हुए अब उन्होंने पत्रकारों के लिए न्यूनतम योग्यता तय करने की वकालत कर डाली है। कानून और फैसलों के अपने लम्बे कैरियर में काटजू साहब हमेशा चर्चा में तो रहे लेकिन उनकी अब जो बयानबाजियां हो रही है उससे ऐसा लगता है कि वे मीडिया के शीर्ष पर रहने की अपनी आन्तरिक ललक को पूरा करने में जुटे हैं। उनको इससे कोई मतलब नहीं है कि उनके कथन कितने व्यवहारिक या कितने अव्यवहारिक हैं। अभी उन्होंने फिल्म अभिनेता संजय दत्त की सजा को माफ करने के लिए बयान दिया और इसके लिए बकायदा महाराष्ट्र के राजपाल को आवेदन भी भेज दिया। पत्रकारिता में आई गिरावट के लिए उन्होंने पत्रकारों को ही अपराधी घोषित कर दिया है।

असलियत जानने का अगर प्रयास किया होता शायद वे देख पाते कि आज गिरावट इस देश में किस क्षेत्र में नहीं है? सरकार, बाजार, धर्म, पूरा सरकारी तंत्र और खुद न्याय पालिका गिरावट से लोट-पोट हो रही है। इन सभी संस्थानों में तो उच्च शिक्षित तथा व्यवसायिक दक्षता से लबालब लोग काम कर रहे हैं। शायद उन्हें भूल गया है कि अखबार समाज का आइना होते हैं। जैसा समाज होगा वैसे ही अखबार और उसमें काम करने वाले पत्रकार भी होंगे। पत्रकार भी हमारे ही समाज से आते हैं और हमारे ही समाज में रहते हैं।

यह दावा कोई भी नहीं कर रहा है कि पत्रकार बिरादरी में सभी साफ-सुथरे और पाक-साफ लोग ही हैं। पत्रकारिता स्तर भी गिर रहा है, इससे काटजू साहब ही नहीं देश के बुद्धिजीवी नागरिक भी चिंतित हैं। हर जगह कुछ गन्दी मछलियां होती हैं किन्तु इसके कारण पूरे तालाब की मछलियों को दोषी घोषित कर देना न्याय नहीं होगा। अखबार बहुत से ऐसे लोग भी निकाल रहे हैं जिनका लक्ष्य ईमानदारी नहीं होता है। लेकिन ऐसे लोगों की मजबूरी को कभी काटजू साहब ने देखने की कृपा नहीं की है।

शासन,प्रशासन औार समाज के अन्याय से लगातार प्रताड़ित हुए आदमी के पास अदालत जाने या पुलिस के पास अपनी फरियाद करने का ही चारा होता है। इन दोनों संस्थानों में आम नागरिक के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है, कितना समय और धन खर्च होता है इसे सभी जानते हैं काटजू साहब यह न जानते हो यह किसी के गले नहीं उतरने वाला है। हमारे देश में जब अंग्रेजों ने हमें गुलाम बनाया था, तब उन्होंने अपने चाटुकारों को कई प्रकार की उपाधियों से नवाजा था। इनमें एक उपाधि रायबहादुर की भी थी। अब अंग्रेज तो नहीं है और सरकारी स्तर पर रायबहादुर की उपाधि भी किसी को नहीं मिलती, किन्तु कुछ लोग अपनी धमक बनाए रखने के लिए कोई मांगे या न मांगे किन्तु अपनी राय जरूर देते रहतें हैं। हमको इस बात से भी कभी परहेज नहीं होता कि उनकी राय किस हद तक बेतुकी हैं। काटजू साहब भी गाहे-बगाहे राय बहादुर की भूमिका में अवतरित हो जाते है। पीड़ित नागरिक के पास तब तीन विकल्प बचते हैं- पहला तो यह कि अपना भाग्य खराब कह कर रोज लातें खाता रहे, दूसरा विकल्प है कि वह बन्दूक उठा ले और अपने साथ हुए अन्याय का बदला लेने खुद पुलिस,जज और जल्लाद की भूमिका करने लगें। अब जो तीसरा रास्ता बचता है वह है कि अपना खुद का अखबार ही निकालने लगे। बड़े पैमाने पर न सही छोटे स्तर पर बुलेटिन की तरह अखबार निकाल कर जो उसे घाव मिले हैं उनमें मलहम लगा ले और बदला भी चुकाता रहे।

कोई भी समझदार ऐसे लोगों के द्वारा अखबार निकालने के काम को सही नहीं कहेगा, लेकिन जब हमारी व्यवस्था में ही दीमक लगी है तो फिर चारा ही क्या बचता है। अकबर इलाहाबादी ने अस्सी साल पहले ही शेर के माध्यम से कह दिया था कि‘ जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।’ कुछ ऐसे पेशे हैं जिनमें किसी योग्यता की ज्यादा अपरिहार्यता नहीं होती है। कबीर और रैदास, मीराबाई तथा सूरदास जैसे बहुत सारे नाम हैं जिन्होने किसी स्कूल की देहरी कभी पार नहीं की थी किन्तु वे जो कुछ तथा जितना कुछ रच गए हैं कि उसे आज भी सारी दुनिया में कालजयी माना जाता है। असल बात पर काटजू साहब ने ध्यान ही नहीं दिया है। समस्या पत्रकारों के कारण नहीं है और न पत्रकारों के कारण मीडिया में भटकाव ही आया है। समस्या की शुरुआत हुई है मीडिया को बाजार की गोद में बैठा देने से। आज मीडिया को पत्रकार संचालित नहीं कर रहे हैं। उस पर बाजार का नियंत्रण है। बाजार बेचने और मुनाफा बटोरने के सिद्वांत पर चलता है। उसकी गुणवत्ता की जगह यूज एंड थ्रो की नीति होती है।

मुक्त बाजार व्यवस्था की जब हमने अपने यहां घुसपैठ करा ही ली है तो उसका प्रसाद भी तो हमें लेना ही पड़ेगा। ज्यादा गड़बड़ी खबरिया चैनलों में है। चौबिस घंटे के इन चैनलों में आधा-धापी और जो मारामारी तथा प्रतिस्पर्धा हो रही है वह अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए करना इनकी मजबूरी है और इसके चलते पेशे के प्रति जो दायित्व होना चाहिए वह नहीं होता । टीआरपी सारे देश के दर्शकों का प्रतिनिधित्वि नहीं करती, लेकिन चालाक लोगों ने इसे ही लोकप्रियता का पैमाना बना लिया है। प्रिंट मीडिया के साथ ऐसा नहीं है। काटजू साहब को इलेक्ट्रॉनिक और प्रिन्ट मीडिया को एक साथ अभियुक्त के कठघरे में खड़ा करके अभियोग नहीं लगाना चाहिए। हमारे ही देश में नहीं बल्कि सारी दुनिया में अखबारों और पत्रकारों पर हमेशा आरोप लगते रहे हैं। पत्रकारिता में गिरावट को रोकने के लिए काटजू साहब के ऐसे सतही निदान देने से बीमारी से निजात नहीं पाया जा सकता है। मीडिया पर वैसे ही अप्रत्यक्ष रूप से सरकारों और बड़े व्यापारिक घरानों का दबाब है अब काटजू साहब सरकारों को निमंत्रण दे रहे हैं कि वे मीडिया पर नकेल कसे ताकि पिछवाड़े से लोकतंत्र में तानाशाही प्रवेश कर ले। वैसे भी सरकारें तो मीडिया के पंख कतरने के लिए सब कुछ करने के लिए हाथ-पांव मारती ही रहती हैं।

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।

Monday, April 8, 2013

इक आग धधकती है सिंगरौली के सीने में

 सिंगरौली की समस्याओं का ओर-छोर ढूंढ़ना, कोयले के ओवरवर्डन के नंगे पहाड़ों में सुई तलाशने जैसा है। जो सिंगरौली नहीं गया उसके लिए यह भारत का चमकदार चेहरा हो सकता है जिसे दुनिया में पॉवर-हब के रूप में पेश किया जा रहा है। सिंगरौली कल्पनाओं का सिंगापुर भी हो सकता है, पर जो एक बार वहां हो आया है और उसके दिल में जरा भी संवेदना बची है तो वह या तो गुस्से में जबड़े भींचे, मुट्ठी ताने लौटेगा, या आंखों में टप-टप आंसू लिए। सिंगरौली चमकदार है, एस्सार रिलायंस, बिड़ला, जेपी के लिए और मालदार है दिल्ली व भोपाल के सियासतदारों के लिए, लेकिन उन लोगों के लिए, सिंगरौली अमेरिका के गुआन्तोनामों जैसे नरक में बदला जा रहा है, जिसकी नाभि नाल यहां की जमीन में गड़ी है। कोयले के ओवर वर्डन के तने पहाड़ों के नीचे उनकी संस्कृति परम्परा कुल के देवी देवता, न भाग पाए जीव-जन्तुओं के अस्थिपंजर दबे हैं।
दुनिया में विस्थापन का ऐसा भयावह स्वरूप शायद ही और कहीं हो जो सिंगरौली में। कारपोरेट की नजर अब शेष बचे जंगल और जमीन पर है। महान ब्लाक के सघन वन जल्द ही नष्ट कर दिये जाएंगे और खूबसूरत और सद्यनीरा गोपद नदी जल्दी ही किसी विधवा की सूनी मांग में बदल जाने वाली है। सिंगरौली का मूल निवासी कहां गया उसका लेखा-जोखा किसी के पास नहीं।
प्रशासन- सरकार-कारपोरेट, वर्ल्ड बैंक, सभी सिंगरौली के कोयले से पैदा होने वाली बिजली की यूनिट के आंकड़े गिनने में व्यस्त हैं। सिंगरौली दुनिया में विषमता मूलक विकास के रोल मॉडल के रुप में उभर रहा है। गरीबी की घुटन और पूंजी का अट्टहास यहां की वादियों में गूंजता है।
कभी-कभी प्राणियों की खूबी ही उसकी मौत का सबब बन जाया करती है। कस्तूरी मृग के लिए मौत का बन्दोबस्त है तो मणि-सांप के लिए। आज वनों में न कस्तूरी मृग मिलते हैं न ही मणियारे सांप। कस्तूरी और मणि के लिए शिकारियों ने इनका वंशनाश कर दिया। सिंगरौली की व्यथा कुछ ऐसी ही है। यह अपनी कोख में कोयले का अतुल्य भंडार छिपाए है। विकीपडिया में दर्ज जानकारी के अनुसार सिंगरौली का कोयलान्चल 2200 वर्ग किमी विस्तृत भूभाग में फैला है। जियालाजिकल सव्रे आफ इडिया ने फिलहाल 220 वर्ग किलोमीटर में कोयले के खनन की संतुस्ति दे रखी है। इस क्षेत्र में फिलहाल 2,724 मिलियन टन कोयले के भंडार का अनुमान है। जीएसआई ने 1 मीटर से 162 मीटर तक कोयले की मोटी पट्टी बताई है। आजादी के बाद पूंजीपतियों व औद्योगिक घरानों की निजी खदानों से कोयले की लूट को रोकने के लिए, इंदिरा गांधी ने कोयले की खदानों का राष्ट्रीयकरण करके कोल इंडिया लिमिटेड नाम की इकाई स्थापित की थी, एनसीएल-सीआईएल की शाखा है जो मध्यप्रदेश व उत्तरप्रदेश में 14 कोल परियोजनाओं को संचालित करती है। सरकारी उपक्रम होने के नाते एनसीएल की जवाबदेही बनती थी, विस्थापितों के लिए जो भी अच्छा या बुरा किया सरकार के उपक्रम ने किया और सिंगरौली से दिल्ली तक सुनवाई के रास्ते खुले थे। लेकिन अब तो गजब हो गया कारपोरेट के दबाव में सरकार ने राष्ट्रीयकरण की अपनी नीतियों की ही धज्जियां उड़ा कर कोल ब्लाक्स को निजी कम्पनियों को औने-पौने में दे दी। यही कोल ब्लाक आवंटन घोटाला है जिसका सिलसिला एनडीए से लेकर यूपीए तक जारी है।
सिंगरौली क्षेत्र में जेपी, रिलायंस, एस्सार और हिन्डालको समेत कई कारपोरेट घरानों को कोल ब्लाक आवंटित कर दिए गए हैं या प्रक्रिया में हैं। इन्हें कोयला खोदकर मुनाफा कमाने की इतनी जल्दी है कि ये पलभर में जंगल साफ कर निवासियों को मवेशियों के माफिक हांकने के लिए तैयार हैं और पुलिस तथा प्रशासन इनके लिए लठैतों की भूमिका में है।
एक अंग्रेजी उक्ति है कि आपकी कमाई का हर एक रुपया दूसरे की जेब में ही आता है। यदि आप कहीं बसते हैं तो किसी का उजड़ना तय है। सिंगरौली साठ के दशक के आरंभ से ही विस्थापन के यातनामय दौर से गुजर रहा है। पहला विस्थापन जीबीपंत सागर जिसे रिहंद जलाशय कहते हैं से शुरु हुआ। इसके बाद एनसीएल और एक के बाद एक चौदह परियोजनाओं में सैकड़ों गांव उजड़े।
परियोजनाओं के शुरू होने के साथ ही तापविद्युत घरों की श्रृंखला शुरु हुई। यूपी में शक्तिनगर- रिहंद - अनपरा और ओबरा प्लांट आए तो मध्यप्रदेश में विंध्यांचल ताप विद्युत घर। त्रासदी देखिए जिन परिवारों को रिहन्द जलाशय के लिए विस्थापित कर अन्यत्र बसाया उन्हें कोयला परियोजनाओं ने विस्थापित कर दिया। वे कहीं भली भांति बस पाते कि तापविद्युतघरों के आने के बाद भगा दिय् गया। अब तक एक दजर्न से अधिक निजी क्षेत्र के तापविद्युत घर व कोयला परियोजनाएं आ गई है, विस्थापन फिर इनकी नियति है समूचे सिंगरौली क्षेत्र के सौ से ज्यादा गांव व 50 हजार से ज्यादा परिवार हैं जिन्हें तीन से पांच बार विस्थापित किया गया। प्रशासन् के फरमान और पुलिस की लाठियों के दम पर बसे बसाए परिवार को उजाड़ना तो गुन्डों जैसे खेल है, पर शर्म की बात यह है कि सिंगरौली की त्रासदी को न तो भोपाल ने महसूस किया और न ही दिल्ली ने। जरूरत थी कि यहां के रहवासियों के लिए पुनर्वास की कोई विशेष नीति बनायी जाती व उजड़े गांवों को सुनियोजित तरीके से बसाया जाता लेकिन बसाने की बात तो दूर आज सिंगरौल् प्रशासन के पास इस बात के भी पुख्ता आंकड़ें नहीं है कि अब तक कितने गांव व परिवार उजाड़े गए, वे कहां बसे, उनके रोजगार व् उद्योग धंधों का क्या हुआ, उनकी संस्कृति-परंपरा और विरासत् कहां दफन है? एक उदाहरण खैरवारों का! जनजातीय श्रेणी में आनेवाल् खैरवार कभी सिंगरौली के राजा हुआ करते थे। वृस्तित भू-भाग् में उनका इलाका फैला था। जैसा कि नाम से ही जाहिर है कि खैरवारों का पारंपरिक धंधा कत्था बनाने का था। सिंगरौल् चिंतरंगी कुसमी-मझोली में खैर के शानदार वन थे। खैर के पेड़ की छाल से सत्व निकालकर कत्था बनाया जाता था। सिंगरौल् चितरंगी के जंगलों में बना उम्दा किस्म का कत्था पूरे देश में बड़े चाव से पान सुपारी के साथ खाया जाता था। यह पुश्तैनी धंध् सत्तर के दशक के मध्य तक चला। इसके बाद कोयल् परियोजनाओं और ताप विद्युतघरों के आने के बाद हुआ बड़े विस्थापन से जंगलों की परिस्थितिकी भी बदली। कत्थे का पुश्तैनी धंधा बन्द हो गया। खैरवार जो कभी सिंगरौली के राज् थे, आज वहीं अपनी जमीन पर भिखारी हैं। कारपोरेट जगत के नए राजाओं ने उनकी जमीन-हुनर, कला, संस्कृति परंपरा सब् कुछ छीन लिया। आपको मालुम है सिंगरौली क्षेत्र में खैरवारों की जनसंख्या हर जनगणना के बाद घट जाती है। कहां. गए सिंगरौली के राजा के वंशज! है कोई जवाब देने वाला?  - लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं। सम्पर्क-09425813208. 

Sunday, April 7, 2013

लोकतंत्र के भविष्य पर आखिरी किताब

आचार्य रामलोटन शास्त्री की विद्वता का कोई जवाब नहीं। वे पुराण कथाओं के साथ नित नये नवाचार करते रहते हैं। हाल ही में वे अपनी नई कृति आधुनिक भविष्य पुराण (रंगीन चित्रों सहित सजिल्द) के साथ मिले। आचार्य जी ने बताया कि इस ग्रंथ में लोकतंत्र के भविष्य का विषद् वर्णन किया गया है। मेरी उत्सुकता बढ़ी तो उन्होंने लोकतंत्र के भविष्य वाला अध्याय खोलकर बांचना शुरू कर दिया। ...वह दिन अब दूर नहीं जब शहर और जंगल की सामाजिक व्यवस्था और परिस्थितिकी (इकोसिस्टम) में अदलाबदली हो जाएगी। यानि कि जो जंगल में हो रहा है वह शहर में होने लगेगा और शहरी सभ्यता जंगल में फैल जाएगी। आदमी जानवर की तरह व्यवहार करने लगेगा और जानवरों में आदमियत के अंश झलकने लगेंगे। शहरों में पुरुष जानवरों की तरह महिलाओं का भोग करेगा। जिसको जहां पाया चलती बस में, चौराहे में, खेत, दुकान-मकान, मंदिर, जिसको जहां मौका मिलेगा जानवरों की तरह हवस बुझाएगा। इधर जंगल में गिरगिट रंग बदलना बंद कर देंगे। सांप डसना छोड़कर साधु बन जाएगा। दूध पिएगा तो उसका कर्ज उतारना भी जानेगा। इधर गिरगिट और सांप के गुण सभ्य आदमियों में ट्रांसफर हो जाएंगे। जो राजनीति में जाना चाहेगा उसके बायोडाटा में ये दोनों गुण पाए गए तो उन्हें बोनस अंक मिलेगा। कुत्ते सत्याग्रही हो जाएंगे और भेडिय़े शाकाहारी। उन्हें आदमखोर कहने पर मानहानि का मुकदमा चलाने का प्रावधान होगा। उधर आदमी बिना दुम का कुत्ता हो जाएगा। दुष्यंत कुमार की गजल की वह पंक्ति- अब नई तहजीब के पेश-ए-नजर हम आदमी को भूनकर खाने लगे हैं, अक्षरश: चरितार्थ होने लगेगी। लोमड़ी चालाकी करना बंद कर देगी और खरगोशोंं के साथ मजे से क्रिकेट या कबड्डी खेलेगी। बाज कबूतरों के अंडों की रखवाली किया करेगा। इधर पुलिस में जंगलियत के लक्षण और तेज हो जाएंगे। जिसकी रक्षा का जिम्मा मिलेगा उसे ही लूट लिया करेंगे। इस पर सरकार उन्हें नगद इनाम दिया करेगी। 
व्यवस्थाओं की अदला बदली के अनुसार रंगरूप में भी बदलाव होगा। जैसे जंगल में जितने जीव होंगे उनके मुंह तो आदमियों के होंगे शेष भाग पहले जैसा ही रहेगा। मैंने गिरगिट का चित्र देखा, तो मुंह टोपी लगाए एक पुराने नेता का था। पीठ और पूंछ गिरगिट ही जैसे। इसी तरह सांप, कुत्ते, भेडिय़े, लोमड़ी और खरगोश के चित्र थे। सबके सिर आदमी जैसे और धड़ जानवरों की तरह। शहरी लोगों में ठीक इसका उल्टा था। सिर जानवरों के थे और धड़ आदमी के। आचार्य ने तर्क दिया एेसा इसलिए कि आचार विचार और दिमाग सिर पर ही रहता है। चूंकि जानवर और आदमी का परस्पर व्यवहार बदल जाएगा, इसलिए ये रूप रंग अपने आप बदल जाएंगे। पुराण कथाओं में इसका जिक्र है। आचार्य जी ने कैफियत दी कि यदि एेसा इतिहास में वर्णित है तो भविष्य में इतिहास खुद को दोहराएगा। लोकसभा, विधानसभा जैसी संस्थाएं रहेंगी, पर उनकी कार्यप्रणाली बदल जाएगी। जंगल में भी एेसी संस्थाएं खुलने लगेंगी। वोटिंग होगी और राजा चुना जाएगा। जंगल में यह काम बिना किसी दखल के होगा। जैसे जंगल में सब जानवर सुअर को राजा बनाना चाहें तो सुअर ही बनेगा- शेर को विपक्ष में बैठना पड़ेगा। इधर शहर में गिरगिट-सांप-कुत्ते और भेडिय़ों के चरित्रवाले लोग शेर के इशारे पर चुनाव लड़ेंगे और कैसे भी जीतकर शेर को राजा बनाएंगे। कभी कभी चुनाव की घोषणा की जाएगी, और अगले ही दिन चुनाव सम्पन्न हुआ बता दिया जाएगा। सब कागज में ही निपटा लिया जाएगा ताकि यह भ्रम बना रहे कि लोकतंत्र जिन्दाबाद है। आचार्य जी ने अपने ग्रंथ में एक अदभुत दृश्य का वर्णन किया है, राजा के दरबार की एक कार्यवाही का। राजा जिसका मुंह बाघ का है, शेष शरीर आदमी का, एक सिंहासन पर बैठा है। आधी बंडी पहने गले में कई कंठी मालाएं हैं। संविधान की पुस्तक से राजा की गद्दी बनाई गई है। चारों पांवों  के बीच में संदूक है। उस संदूक में चारों पांवों (स्तंभों) के संचालन की चाभी बंद है। संदूक के ताले की चाभी राजा के गले में लटकी। दरबार सजा है। दरबारियों में किसी का मुंह भेडि़ए जैसा, किसी का सांप तो कोई कुत्ता या गिरगिट पर सब कुर्सी पर बैठे हैं हाथ बांधे। राजा एक ऊंटनुमा आदमी को बुलाता है और यूं ही पूछ बैठता है- सही-सही बता, मेरे मुंह से कैसी गंध आ रही है। ऊंट ने जवाब दिया -हजूर, बदबू आ रही है, लगता है शिकार के बाद दातून नहीं किया...। राजा क्रोध से तमतमाया -साले तेरी ये मजाल... मेरे मुंह में बदबू। ऊंट पर इतनी गोलियां दागी गईं कि उसका शव पोस्टमार्टम लायक नहीं बचा। कुछ देर बाद एक सुअरनुमा प्रतिनिधि को बुलाया- और कहा- अब ले तू संूघ, मेरे मुंह से कैसी गंध आती है। डरे हुए सुअर ने कहा जहांपनाह आपके मुंह से इलायची व केशर की खुशबू आती है। राजा फिर भड़क गया-अबे सुअर, क्या सोचता है मेरी खुशामद करके बचा रहेगा। हलाल करो इसे, सुअर को लोथड़े में बदल दिया गया। गिरगिट-भेडिय़े-कुत्ते सभी हर बार ताली बजाते और जिन्दाबाद का नारा लगाते। इस बार राजा ने इशारे से आम जनता के बीच से खरगोशनुमा आदमी को बुलाया और पूरे प्रेम के साथ बोला... आप तो जरा मेरा मुंह सूंघकर सबको बताइए कैसी गंध आ रही है। खरगोश जैसे पहले से ही जवाब तय करके आया हो... मुंह सूंघकर बोला- मालिक मुझे न तो बदबू समझ में आ रही है न ही खुशबू- दरअसल मुझे पैदायशी जुखाम है। जवाब सुनते ही राजा खुश हो गया। गिरगिट-सांप-भेडि़ए व कुत्तेनुमा सभासदों ने नारा लगाया- जनता-जनार्दन की जय।

Saturday, April 6, 2013

सिंगरौली के संघर्ष का सफर

MONDAY, MAY 28, 2012 PUNY PRASOON VAJPEYI

यह रास्ता जंगल की तरफ जाता जरुर है लेकिन जंगल का मतलब सिर्फ जानवर नहीं होता। जानवर तो आपके आधुनिक शहर में हैं, जहां ताकत का एहसास होता है। जो ताकतवर है उसके सामने समूची व्यवस्था नतमस्तक है। लेकिन जंगल में तो ऐसा नहीं है। यहां जीने का एहसास है। सामूहिक संघर्ष है। एक-दूसरे के मुश्किल हालात को समझने का संयम है। फिर न्याय से लेकर मुश्किल हालात से निपटने की एक पूरी व्यवस्था है। जिसका विरोध भी होता है और विरोध के बाद सुधार की गुंजाइश भी बनती है। लेकिन आपके शहर में तो जो तय हो गया चलना उसी लीक पर है। और तय करने वाला कभी खुद को न्याय के कठघरे में खड़ा नहीं करता। चलते चलिये। यह अपना ही देश है। अपनी ही जमीन है। और यही जमीन पीढ़ियों से पूरे देश को अन्न देती आई है। और अब आने वाली पीढ़ियों की फिक्र छोड़ हम इसी जमीन के दोहन पर आ टिके है। इस जमीन से कितना मुनाफा बटोरा जाता सकता है, इसे तय करने लगे है। उसके बाद जमीन बचे या ना बचे। लेकिन आप खुद ही सोचिये जो व्यवस्था पहले आपको आपके पेट से अलग कर दें। फिर आपके भूखे पेट के सामने आपकी ही जिन्दगी रख दें। और विकल्प यही रखे की पेट भरोगे तो जिन्दा बचोगे। तो जिन्दगी खत्म कर पेट कैसे भरा जाता है ,यह आपकी शहरी व्यवस्था ने जंगलो को सिखाया है। यहां के ग्रामीण-आदिवासियों को बताया है। आप इस व्यवस्था को जंगली नहीं मानते। लेकिन हम इसे शहरी जंगलीपन मानते है। लेकिन जंगल के भीतर भी जंगली व्यवस्था से लड़ना पडेगा यह हमने कभी सोचा नहीं था। लेकिन अब हम चाहते हैं जंगल तो किसी तरह महफूज रहे। इसलिये संघर्ष के ऐसे रास्ते बनाने में लगे है जहां जिन्दगी और पेट एक हो। लेकिन पहली बार समझ में यह भी आ रहा है कि जो व्यवस्था बनाने वाले चेहरे हैं, उनकी भी इस व्यवस्था के सामने नहीं चलती । 
यहां सरकारी बाबुओं या नेताओं की नहीं कंपनियो के पेंट-शर्ट वाले बाबूओं की चलती है। जो गोरे भी है और काले भी। लेकिन हर किसी ने सिर्फ एक ही पाठ पढ़ा है कि यहां की जमीन से खनिज निकालकर। पहाड़ों को खोखला बनाकर। हरी भरी जमीन को बंजर बनाकर आगे बढ़ जाना है। और इन सब को करने के लिये, इन जमीन तक पहुंचने के लिये जो हवाई पट्टी चाहिये। चिकनी -चौड़ी शानदार सड़केंचाहियें। जो पुल चाहिये। जमीन के नीचे से पानी खींचने के लिये जो बड़े बड़े मोटर पंप चाहिये।  खनिज को ट्रक में भर कर ले जाने के लिये जो कटर और कन्वेयर बेल्ट चाहिये। अगर उसमें रुकावट आती है तो यह विकास को रोकने
की साजिश है। जिन 42 से ज्यादा गांव के साढे नौ हजार से ज्यादा ग्रामीण आदिवासी परिवार को जमीन से उखाड़कर अभी मजदूर बना दिया गया है और खनन लूट के बाद वह मजदूर भी नहीं रहेंगे, अगर वही ग्रामीण अपने परिवार के भविष्य का सवाल उठाता है तो वह विकास विरोधी कैसे हो सकता है। इस पूरे इलाके में जब भारत के टाप-मोस्ट उघोगपति और कारपोरेट, खनन और बिजली संयत्र लगाने में लगे है और अपनी परियोजनाओ को देखने के लिये जब यह हेलीकाप्टर और अपने निजी जेट से यहां पहुंचते है।  दुनिया की सबसे बेहतरीन गाड़ियों से यहां पहुंचते है , तो हमारे सामने तो यही सवाल होता है कि इससे देश को क्या फायदा होने वाला है। यहां मजदूरों को दिनभर के काम की एवज में 22 से 56 रुपये तक मिलता है। जो हुनरमंद होता है उसे 85 से 125 रुपये तक मिलते हैं। और कोयला खादान हो या फिर बाक्साइट या जिंक या फिर बिजली संयत्र लगाने में लगे यही के गांव वाले हैं। उन्हे हर दिन सुबह छह से नौ किलोमीटर पैदल चलकर यहां पहुंचना पड़ता है। जबकि इनके गांव में धूल झोंकती कारपोरेट घरानो की एसी गाड़ियां दिनभर में औसतन पांच हजार रुपये का तेल फूंक देती हैं। हेलिकाप्टर या निजी जेट के खर्चे तो पूछिये नहीं। और इन्हें कोई असुविधा ना हो इसके लिये पुलिस और प्रशासन के सबसे बड़े अधिकारी इनके पीछे हाथ जोड़कर खडे रहते है। तो आप ही बताईये इस विकास से देश का क्या लेना-देना है। देश का मतलब अगर देश के नागरिको को ही खत्म कर उघोगपति या कारपोरेट विकास की परिभाषा को अपने मुनाफे से जोड़ दें तो फिर सरकार का मतलब क्या है जिसे जनता चुनती है। क्योंकि इस पूरे इलाके में ग्रामीण आदिवासियों के लिये एक स्कूल नहीं है।  पानी के लिये हेंड पंप नहीं है। बाजार के नाम पर अभी भी हर गुरुवार और रविवार हाट लगता है। जिसमें ज्यादा से ज्यादा गांव के लोग अन्न और पशु लेकर आते हैं। एक दूसरे की जरुरत के मद्देनजर सामानो की अदला-बदली होती है। लेकिन अब हाट वाली जगह को भी हडपने के लिये विकास का पाठ सरकारी बाबू पढ़ाने लगे हैं। धीरे धीरे खादानो में काम शुरु होने लगा है। बिजली संयत्रो का माल-असबाब उतरने लगा है तो कंपनियो के कर्मचारी अफसर भी यही रहने लगे हैं। उनको रहने के दौरान कोई असुविधा ना हो इसके लिये बंगले और बच्चों के स्कूल से लेकर खेलने का मैदान तक बनाने के लिये मशक्कत शुरु हो रही है। गांव के गांव को यह कहकर जमीन से उजाड़ा जा रहा है कि यह जमीन तो सरकार की है। और सरकार ने इस पूरे इलाके की गरीबी दूर करने के लिये पूरे इलाके की तस्वीर बदलने की ही ठान ली है। चिलका दाद, डिबूलगंज, बिलवडा, खुलडुमरी सरीखे दर्जनो गांव हैं, जहां के लोगो ने अपनी जमीन पावर प्लांट के लिये दे दी। लेकिन अब अपनी दी हुई जमीन पर ही गांव वाले नहीं जा सकते। खुलडुमरी के 2205 लोगो की जमीन लेकर रोजगार देने का वादा किया गया।

लेकिन रोजगार मिला सिर्फ 234 लोगो को। आदिवासियों के जंगल को तबाह कर दिया गया है। जिन फारेस्ट ब्लाक को लेकर पर्यवरण मंत्रालय ने अंगुली उठायी और वन ना काटने की बात कही। उन्हीं जंगलों को अब खत्म किया जा रहा है क्योंकि अब निर्णय पर्यावरण मंत्रालय नहीं बल्कि ग्रूप आफ मनिसटर यानी जीओएम लेते हैं । ऐसे में माहान,छत्रसाल,अमेलिया और डोगरी टल-11 जंगल ब्लाक पूरी तरह खत्म किये जा रहे हैं। करीब 5872.18 हेक्टेयर जंगल पिछले साल खत्म किया गया। और इस बरस 3229 हेक्टेयर जंगल खत्म होगा। अब आप बताइये यहां के ग्रामीण-आदिवासी क्या करें। कुछ दिन रुक जाइए, जैसे ही यह ग्रामीण आदिवासी अपने हक का सवाल खड़ा करेंगे वैसे ही दिल्ली से यह आवाज आयेगी कि यहां माओवादी विकास नहीं चाहते हैं। और इसकी जमीन अभी से कैसे तैयार कर ली गई है यह आप सिंगरैली के बारे में सरकारी रिपोर्ट से लेकर अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक मंचों से सिंगरैली के लिये मिलती कारपोरेट की मदद के दौरान खिंची जा रही रिपोर्ट से समझ सकते हैं। जिसमें लिखा गया है कि खनिज संसाधन से भरपूर इस इलाके की पहचान पावर के क्षेत्र में भारतीय क्रांति की तरह है। जहां खादान और पावर सेक्टर में काम पूरी तरह शुरु हो जाये तो  मेरिका और यूरोप को मंदी से निपटने का हथियार मिल सकता है। इसलिये यहां की जमीन का दोहन किस स्तर पर हो रहा है और किस तरीके से यहा के कारपोरेट के लिये अमेरिकी सरकार तक भारत की नीतियों को प्रभावित कर रही है इसके लिये पर्यावरण मंत्रालय और कोयला मंत्रालयो की नीतियो में आये परिवर्तन से भी समझा जा सकता है । जयराम रमेश ने पर्यावरण मंत्री रहते हुये चालीस किलोमिटर के क्षेत्र के जंगल का सवाल उठाया।

पर्यावरण के अंतर्राष्ट्रीय एनजीओ ग्रीन पीस ने यहा के ग्रामीण आदिवासियों पर पडने वाले असर का समूचा
खाका रखा। लेकिन आधे दर्जन कारपोरेट की योजना के लिये जिस तरह अमेरिका, आस्ट्रेलिया से लेकर चीन तक का मुनाफा जुड़ा हुआ है। उसमें हर वह रिपोर्ट ठंडे बस्ते में डाल दी गई जिनके सामने आने से योजनाओ में रुकावट आती। इस पूरे इलाके में चीन के कामगार और आस्ट्रेलियाई अफसरो की फौज देखी जा सकती है। अमेरिकी बैंक के नुमाइन्दे और अमेरिकी कंपनी बुसायरस के कर्मचारियों की पहल देखी जा सकती है। आधे दर्जन पावर प्लांट के लिये 70 फीसदी तकनीक अमेरिका से आ रही है। ज्यादातर योजनाओ के लिये अमेरिकी बैंक ने पूंजी कर्ज पर दी है। करीब 9 हजार करोड से ज्यादा सिर्फ अमेरिका के सरकारी बैंक यानी  बैक आफ अमेरिका का लगा है। कोयले का संकट ना हो इसके लिये कोयला खादान के ऱाष्ट्रीयकरण की नीतियों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। खुले बाजार में कोयला पहुंच भी रहा है और ठेकेदारी से कोयला खादान से कोयले की उगाही भी हो रही है। कोयला मंत्रालय ने ही कोल इंडिया की जगह हिंडालको और एस्सार को कोयला खादान का लाइसेंस दे दिया है। जो अगले 14 बरस में 144 मिलियन टन कोयला खादान से निकालकर अपने पावर प्लांट में लगायेंगे। तमाम कही बातों के दस्तावेजों को बताते दिखाते हुये हमने ख दान और गांव के चक्कर पूरे किये तो लगा पेट में सिर्फ कोयले का चूरा है। सांसों में भी भी कोयले के बुरादे की घमक थी। और संयोग से ढलती शाम या डूबते हुये सूरज के बीच सिंगरौली में ही आसमान में चक्कर लगाता एक विमान भी जमीन पर उतरा । पूछने पर पता चला कि सिगरौली में अमेरिकी तर्ज पर हिंडालको की निजी हवाई पट्टी है जहा रिलायस,टाटा,जिदंल,एस्सार , जेयपी समेत एक दर्जन से ज्यादा कारपोरेट के निजी हेलीकाप्टर और चार्टेड विमान हर दिन उतरते रहते हैं। और आने वाले दिनो में सिंगरौली की पहचान 35 हजार मेगावाट बिजली पैदा करने वाले क्षेत्र के तौर पर होगी। जिस पर भारत रश्क करेगा।

आत्मा की आवाज सुनें

अंधकार का साम्राज्य बहुत बड़ा है, इसीलिए ऋषि को कहना पड़ा कि मुङो अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। विचित्र बात तो यह है कि यह अंधकार हमें दिखता नहीं, यह हमारे अंतस में है, हमें नियंत्रित करता है। हर अच्छा काम करने से रोकता और गलत करने के लिए प्रेरित करता है। मनुष्य और पशु में यही एक मूलत: अंतर है कि मनुष्य के पास विवेक नामक सोचने-विचारने की शक्ति है। एक विवेकशील व्यक्ति सत और असत के बीच का अंतर जानता है। मन या आत्मा के अंदर उठते दुविधा का समाधान विवेक द्वारा ही संभव है। असत के प्रभाव में जब आत्मा दब जाती है तब वह अमानुष हो जाता है।
सत् की आत्मा तब भी जीवित रहती है, मरती नहीं। वह डाकू था, लूटना- मारना ही उसका काम था। अपने परिवार को पालने का उसने यही जरिया अपनाया था। एक दिन उसी रास्ते से वीणा बजाते देवर्षि निकले। डाकू ने उनको लूटना चाहा। नारद के पास कुछ था नहीं, खाना-तलाशी ली। निराश हुआ। उसने वीणा छीनकर मारा-पीटा भी कि कैसा भिखारी है इतनी मंहगी वीणा लिए है, पास में एक पैसा भी नहीं। नारद परेशान। बिना वीणा के नारद का अस्तित्व ही क्या? उन्होंने विनती की, भाई वीणा दे दो, मैं इसके बिना जी नहीं सकता। डाकू ने वीणा का एक तार झनझनाया। आपाद मस्तक उसकी ध्वनि से डाकू हिल गया।
उसने वीणा लौटाते आदेश दिया- बजाओ! नारद ने वीणा के तार छोड़े। संगीत ने उसे मोह लिया, रोने लगा फिर बोला, यह अदभुत है, मैं इसे लूंगा। नारद ने उसकी बात मान ली और बोले- बताओ! तुम यह पाप कर्म क्यों करते हो। उसने कहा- इसी से परिवार का पोषण करता हूं। नारद ने कहा- कि अपने मां-बाप- पत्‍नी से जाकर पूछो कि क्या इस पाप कर्म के फलाकन में वे भी भागीदार हैं। उसने कहा, क्यों नहीं होंगे? नारद ने कहा- जाओ!
पूछकर आओ, यदि वे कहेंगे कि ‘हां’ तो मैं वीणा तुम्हें दे दूंगा।
मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगा। डाकू रस्सी से उनको पेड़ में बांधकर दौड़ता घर गया। मां-बाप से पूछा- उन्होंने कहा कि हम लोगों को पालना तुम्हारा धर्म है। कैसे पालते हो, क्या करते हो, तुम्हारे कर्मो का फल तो तुम्हें ही मिलेगा। पत्‍नी ने भी यही कहा- तुम्हारे पाप-कर्म का फल तो तुम्हें ही भोगना पड़ेगा।
लौटकर रस्सी खोलते वह लगातार रोता रहा। नारद ने उसे समझया। सांत्वना दी- अभी कुछ नहीं बिगड़ा, तुम्हारी सोई हुई आत्मा जाग गई है, तुम राम नाम के जाप की साधना करो। डाकू से राम कहते नहीं बनता था। ‘मरा-मरा’ कहते ‘राम राम’ होता रहा। डाकू की ऐसी समाधि लगी कि दीमकों ने उसके शरीर को ढक लिया। एक घनघोर आध्यात्मिक बरसात ने उसे धो- पोंछकर ऋषि बना दिया। वह तत्व ज्ञानी हो गया। एक दिन कुटी के सामने बैठा था, सामने पक्षी का जोड़ा केलि में निमग्न था।
बहेलिए ने उसे बाण मारा। फड़फड़ाता एक पक्षी मर गया, दूसरे को रोता देख ऋषि द्रवित हो उठे। उनके मुंह से लोकभाषा का अनुष्टुय (छन्द) अनायास निकल पड़ा। वे चकित हुए कि यह शाप शोक से श्लोक कैसे हो गया? ऐसे मौके पर नारद पुन: प्रकटे और बोले- हे ऋषि वाल्मीकि! आपके मुंह से आदि श्लोक निकला, आप कवि हैं। जिस नाम का जाप आपने अपनी साधनावस्था में किया है, उसी की कथा आप लिखें। नारद ने कथा कही और डाकू, ऋषि- महर्षि होते हुए ‘रामायण’ का कवि हो गया।
बुझते दिये में तेल डालकर प्रकाश का आनंद लेने के जितने आख्यान हमारे शास्त्र पुराण और इतिहास में भरे पड़े हैं शायद ही अन्य किसी संस्कृति में हो। परिवार, रिश्ते-संबंध से मोहग्रस्त अजरुन को कृष्ण जैसे मित्र ने दृष्टि दी और उस अदभुत वाणी ने विश्व को नया दर्शन दिया। नेपोलियन पराजित होने पर हताश कमरे में लेटा था। उसकी दृष्टि निर्मिमेष छत पर लगी थी। उसने देखा कि एक मकड़ी अपना घर (जाला) बुन रही है। बार-बार जाला टूट जाता। जाला के केन्द्र में अपने रहने के लिए धागे जोड़ती, वे टूट जाते। नेपोलियन देख रहा था, सोच रहा था कि यह मूर्ख नाहक परेशान है, इसका ठिकाना नहीं बनेगा। तभी उसने देखा कि जाले के बीच में बने अपने घर में वह निश्ंिचत बैठी है। नेपोलियन की हताश आत्मा जाग उठी। उसने अपने समस्त निराश सैनिकों को एकत्र किया। उतिष्ठ! जागृत का उद्घोष किया और जीवन का सबसे निर्णायक युद्ध लड़ा, जो विश्व इतिहास में अमर हो गया। अंगुलीमाल और आम्रपाली को बुद्ध मिल गए। उनकी सुप्त आत्मा उदबुद्ध हो गई। ईसा ने उनके लिए भी प्रार्थना की जो उन्हें सूली पर चढ़ा रहे थे, परंतु उनके अंदर ईसा का नकार भरा था, उनकी आत्मा सोई थी, वे नहीं जाग सके।
जिसने अपनी आत्मा को चिरनिद्रा में सुला दिया इतिहास उन्हें भी याद करता है, चंगेज खां, तैमूरलंग और नादिरशाह के रूप में।
सकिंदर ने बालू पर लेटे संत से कहा था- जो कुछ भी मांगना हो, विश्वविजयी सकिंदर से मांग लो। संत ने कहा- सकिंदर! तू मुङो क्या दे सकता है? मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि हे ईश्वर! तू मुङो अगले जन्मों में पशु-पक्षी, कीड़े-मकौड़े कुछ भी बना देना, मैं दुखी नहीं होउंगा, मेरी प्रार्थना है कि तू मुङो सकिंदर न बनाना।
कहते हैं कि सकिंदर को अपनी हीनता का आभास हुआ और वह यूनान लौट गया। उसके अंदर का सुकरात जाग गया। राम ने राज्य ठुकराया। कृष्ण सर्वजयी होते हुए भी एक दिन के लिए भी राजसिंहासन पर नहीं बैठे। बुद्ध ने राज्य त्याग दिया। जिसके राज्य में सूर्य नहीं डूबता था उस एडवर्ड अष्टम ने प्रेम के लिए राज्य को तिलांजलि दे दी। महात्मा गांधी ने, जयप्रकाश नारायण ने सत्ता का त्याग किया। उन्हीं के देश में सत्ता के लिए राम, बुद्ध, गांधी का जाप करते हुए उनके अनुयायी कितने तरह का धतकरम करते हैं, देश जानता है। इनके भी आत्मा है, संदेह होता है? लोक, हरनि-गुननि (संदेह) के भ्रम में कभी नहीं रहा।
प्रत्येक समस्या के समाधान के लिए उसने गुनने-धुनने (गुनान) का समय दिया है। उसका मुहावरा है रात गाभिन (गर्भिणी) होती है। रात भर चिंतन मनन यानी गुनान करने पर पक्ष-प्रतिपक्ष स्वयं बनकर आत्मा की सुप्त आवाज सच्चा और सही रास्ता बना देती है। तटस्थ मूल्यांकन हमेशा सही परिणाम लाता है। हमारे राजनेता, प्रशासक यदि अपनी कई पीढ़ी की व्यवस्था न कर केवल वर्तमान के लिए अतीत के उदाहरणों से अपनी सुप्त आत्माओं को जगा सकें, तो यह अपना देश आज भी गवरेन्नत हो सकता है। जागृत व्यक्ति जानबूझकर सोने का बहाना करे, उसे कौन जगा सकता है। देश का लोक जाग और देख रहा है।
उसकी आत्मा कभी सोती नहीं। ‘दिनकर’ कहते हैं- ‘तब होता है भूडोल, बवंडर उठते हैं। जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढ़ाती है।’समय, आत्मा की आवाज सुनने का आ गया है।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं। सम्पर्क- 09407041430.

यादों की गठरी में होली के रंग


 चिन्तामणि मिश्र 
फागुन का महीना मौज-मस्ती, रंग-उमंग और पकवानों के नाम सदियों से हमारी संस्कृति की पासबुक में दर्ज हैं. लोक जीवन में फागुन और होली की जोड़ी का बखान कालीदास से लेकर लोक कवि ईसुरी ने स्वाभविकता और सहजता से इस तरह किया है कि वे राजदरबारों, मंदिरों से लेकर चैपालों, खेत- खलिहानों में समान रूप से लोक कंठ की थाती हो गए। होली फागुन शुक्ल अष्टमी से समाज में अपने आगमन की सूचना दे कर आठ दिन प्रकृति तथा मनुष्य दोनों को बाहर व भीतर रस- रंग में डुबा कर, बहा कर विदा हो जाती है। ऐसी लोक मान्यता है कि इसी अवधि में भगवान शिव ने कामदेव को भस्म किया था। होली सारे उत्तर भारत में मनाई जाती है। हर क्षेत्र और हर बस्ती होली और फाग के आयोजन में एक-बद्धता नहीं है। सब का अपना अलग-अलग शास्त्र और पुराण है। सतना की होली भी कभी इतनी प्रसिद्ध थी कि आसपास के रजवाड़ों के लोग भारी संख्या में आते और होली का आनन्द लेते थे। लगभग डेढ़ सौ साल की उम्र समेटे सतना की बस्ती आज की तरह उबाउ और आत्म केन्द्रित पहले कभी नही था। साठ साल पहले तक यह शहर नाचते-गाते जीवन्त लोगों की बस्ती था। लोक पर्वो में सामूहिक उल्लास में रचा-बसा और कबीला जैसा लगता था।
उस दौर में बस्ती में आधा दर्जन से ज्यादा अमीर नही थे और शेष आबादी कठिनाई से दो जून की सूखी रोटी का जुगाड़ कर पाती थी लेकिन त्यौहारों में अमीरी-गरीबी के बीच की दीवार ढह जाती थी आज हमारे शहर में नोटों का अम्बार लगा है। यह अब कुबेर की बस्ती हो गई है। अब लोगों में तीज-त्यौहारों सामुदायिक भावना नहीं रह गई है। लोग पहले से ज्यादा होली पर पैसा खर्च करते हैं, लेकिन सभी का उल्लास निजी होता है। अब इस बस्ती में न तो पहले जैसी उमंग दिखती है और न पहले की तरह चुहल होती है। हर होली में एक अनजाना सा बेगानापन और औपचारिकता पसरी रहती है।
सतना में सन 1950 तक होली का जो रूप रहा वह तीखा तो था, किन्तु शालीन, मस्ताना और दोस्ताना रहा। होली और फाग को इस बस्ती के महाजनों ने हमेशा जीवन्त बनाए रखा।
होली की आग और रंगों की बौछार के साथ कुछ घन्टे ही सही, गरीबी और अमीरी की दीवार लुप्त हो जाती थी। हर होली में मैकू मेहतर सबेरे सेठ दिगनलाल के दरवाजे पर गले में नगड़िया डाले, रंगों से सराबोर हाजिर हो जाता और सेठ का नाम लेकर कबीरा गाता। सड़क पर मजमा लग जाता। लोग उसके आने के पहिले से ही एकत्र हो जाते। सेठ थोड़ी देर बाद बाहर निकलते मैकू के पास आते और दोनों हाथों में भरी गुलाल उस पर छोड़ कर खुद कबीरा गाते। मैकू भी उनको गुलाल-अबीर से नहला देता। फिर सेठ जी उसे नए कपड़े तथा नकद देकर विदा करते।
इसके बाद होरिहारों की भीड़ का मैकू नेतृत्व करता हुआ बस्ती के हर महाजन के यहा जाता और रंग- गुलाल के साथ कबीरा के बोल गूंजते ।
बस्ती में सारा दिन कई जगह भंग-भंडारा आयोजित होता।
इसके लिए कभी चन्दा नहीं उगाहा गया। बस्ती में होली जलने के दूसरे दिन नौ बजे के आसपास रंग खेलने की शुरूआत होती थी। धनी लोग पीतल की पिचकारी से और शेष लोग टीन या बांस की पिचकारी से रंग डालते। सेठ-महाजनों के घरों के सामने तथा मंदिरों के बाहर रंगों से भरे बड़े-बड़े कुंड रखे होते थे। खाली हो जाने पर इन्हें फिर से भर दिया जाता था यह सिलसिला दो बजे मध्यान्ह तक चलता था। फिर लोग जगतदेव तालाब, नया तालाब, नारायण तालाब, रावना टोला तालाब, व्यंक्टेश मंदिर का तालाब, पुकनी तलैया अपनी सुविधा के अनुसार नहाने के लिए जाते थे। शाम को प्रसिद्ध मंदिरों में देव दर्शन का सिलसिला शुरू हो जाता, वहां एक दूसरे को तिलक लगा कर होली की बधाईंया देते । इसी दिन शाम को डालीबाबा के मंदिर में मेला लगता था वहां भजन, राई, विरहा की प्रतियोगिता होती। कुछ महाजन अपने बगीचों में होली की रात मुजरा, फाग गायन प्रतियोगिता का आयोजन करते थे इसमें निमंत्रित लोगों को ही प्रवेश मिलता था। बस्ती में कई दशक तक इस अवसर पर महा- मूर्ख सम्मेलन, कवि सम्मेलन और नगड़िया प्रतियोगिताए होती रही। इसमें जन साधारण की भागीदारी थी। सन 1948 की होली सतना में यादगार होली अनायास हो गई। सतना बस्ती रीवा रियासत के अर्न्तगत थी, किन्तु रीवा के शासक कभी इस बस्ती की होली में शामिल नही हुए। 8 मार्च 1948 को पन्नीलाल चौक में होली का जुलुस पहुंच ही रहा था कि स्टेशन की तरफ से आते हुए तांगे को लोगों ने घेर लिया। लोग अन्नदाता की जय, बांधव गद्दी की जय, महाराजा गुलाब सिंह की जय के नारे लगाने लगे।
वास्तव में तांगे पर बैठी सवारी महाराजा गुलाब सिंह थे। उन्हे लोगों ने पहचान लिया था। उनको केन्द्र सरकार ने रियासत से बाहर निकाल दिया था और सरकारी देख-रेख में इलाहाबाद में नजरबन्द करके रखा था। वे सुरक्षा गार्डो को चकमा देकर आ गए थे। महाजनों ने उन्हें तांगें से उतार कर अबीर-गुलाल से रंग दिया, सड़क पर ही उनकी नजर-न्यौछावर की गई। बाद में उनको आज के मनोहर होटल की इमारत में ठहराया ।
सतना की होली गाथा एक अजीब परम्परा की कथा छोड़ देने से अधूरी रह जाएगी। उन दिनों होली के दिन बस्ती के लोग जब रंग खेलने के लिए जुटते थे तभी प्रमुख सड़क से एक अर्थी निकाली जाती थी। अर्थी में एक व्यक्ति सफेद कफन लपेटे लेटा रहता था। लोग बारी-बारी से अर्थी में कन्धा देते और राम नाम सत्य है बोलते चलते। अर्थी के आगे एक आदमी मिट्टी की हड़िया लिए चलता, इसमें जलता हुआ कंडा होता था। यह नकली अर्थी उस सरकारी अफसर या कर्मचारी की निकाली जाती थी जिससे बस्ती का महाजन वर्ग परेशान रहता था। यह अर्थी मरघट नहीं जाती थी बल्कि इसे उस अफसर के निवास के सामने रख देते थे और लोग अधिकारी का नाम ले लेकर जबरदस्त सामूहिक विलाप करते थे। फिर अर्थी में लेटे आदमी को अर्थी से बाहर निकाल कर अर्थी जला दी जाती थी। विरोध प्रगट करने और बदला लेने का यह खालिस सतनवी तरीका था।
इसका नतीजा हमेशा बस्ती के पक्ष में होता और अर्थी वाला अधिकारी अपना ट्रांसफर करा लेता था। आज हम होली मनाते हैं किन्तु यह औपचारिक होती है। होली हमारी संस्कृति का इकलौता उत्सव है जिसमें किसी आकांक्षा की पूर्ति का द्वंद्व नहीं है। अब हम अपने पुरखों की तरह खुले मन से कोई उत्सव नहीं मनाते। केवल उत्सव की प्रेत साधना करते हैं, क्योंकि हमने मन की पुकार को सुनना ही बन्द कर दिया है।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09425174450. खटराग चिन्तामणि मिश्र 

अब बेटियां पीहर नहीं आतीं


  चिन्तामणि मिश्र
अब बेटियां पीहर नहीं आतीं स भ्य और शहरातू बनने की ललक ने लोगों को अपनी गर्भनाल से ऐसा काटा है कि आदमी निपट अकेला जिन्दगी को जी रहा है। हकीकत तो यह है कि जी नहीं रहा बल्कि जिन्दगी को ढो रहा है। कैसी विडम्बना है कि आज उसके पास वह सब कुछ है जिसका जिक्र स्वर्ग और जन्नत में उपलब्ध होने का उल्लेख हजारों सदियों से होता आ रहा है। लेकिन आदमी ने इसे धरती में पाने के लिए और अपने पास टिकाने के लिए उमंग,उल्लास,आपसदारी,नातेदारी,आत्मीयता को विदाई देकर तनाव, दुख, लालच, अधीरता, पर-पीड़न से लिपट कर जीना सीख लिया है। इस तरह जीना भी नहीं जिया जा रहा है जीने की नौटंकी की जा रही है। जीवन के संगीत और उसकी सहज लय से काटती उसे अलग करती यह आधा-धापी है। लाभ-लोभ, खुदगर्जी, संवेदनहीनता और अंधे सुखवाद, नपुंसक भोगवाद की मरीचकाओं ने आदमी को अंधेरी सुरंग में ढकेल दिया है।
विडम्बना तो यह है कि हम इसे विकास का नाम देकर आधुनिक होने की खुद ही मुनादी भी कर रहे हैं। असल में बाजार के मोहक जाल की गिरफ्त में सुध-बुध खोकर अपनी सांस्कृतिक धरोहर तथा सामाजिक सरोकारों और अपनी अस्मिता को ही कफनाते जा रहे हैं। जीवन में रचे-बसे पारिवारिक नाते-गोते, पर्व,उत्सव कुटुम्ब के मंगलकाज और लोक जीवन के जो रंग हमें जिलाए थे, उन्हें पश्चिम से आया भौतिकवादी अजगर धीरे-धीरे निगल रहा है। व्यक्ति, परिवार, समाज और देश अब बाजार के नियंत्रण में है। दासता का ऐसा विकराल उदाहरण मानव इतिहास में पहले कभी दर्ज नहीं हुआ। अब हम मनुष्य नहीं उपभोक्ता में ढाल दिए गए हैं, जैसे टकसाल में सिक्के ढाले जाते हैं। यह ऐसा बाजार है जिसमें सोचना-विचारना मना है। पूरा समाज आत्म-छलना में जी रहा है। आधुनिकता का बाजारवादी मायावी मायाजाल किसी को भी मन के भीतर जाने की इजाजत देना तो दूर भीतर झंकने की इजाजत तक नहीं देता है।
खून तक के रिश्ते असहज हो रहे हैं। आत्मीयता को औपचारिकता की मखमली रजाई ओढ़ा कर सम्बन्धों की रस्में अदा की जा रही हैं। बेटियां और बहुएं अपनी मां से कभी अब यह मनुहार नहीं करती, पत्र नहीं लिखती, संदेशे नहीं भेजती कि सावन आ रहा है पिता को भेज कर मुङो पीहर बुला लो। संदेशे और पत्र लिखने की अब जरूरत नहीं रह गई है। यह सब करना अब आउट ऑफ डेट हो गया है। उनके पास मोबाइल फोन आ गया है। वे मोबाइल फोन से रोज अपनी मां से बात कर लेती हैं।
क्या खाया, क्या पकाया, कौन आया और कौन गया से लेकर सारी बातें जो महीनों बाद पीहर पहुंच कर कभी बिटिया अपनी मां से करती थी, अब हर दिन बल्कि हर पहर हो रही है। कोसों का फासला कम हो गया है। जब मन किया मोबाइल का बटन दबाया और बातों का सिलसिला शुरू। न आने-जाने की परेशानी और न साज-सामान सहेजने का झंझट। कभी पीहर जाने के लिए उतावली रहने वाली बेटियां-बहुएं अब नहीं जाने का बहाना खेाजती हैं। अमीर खुसरो ने कभी लिखा था- अम्मा मेरे बाबुल को भेजो री, कि सावन आया। बेहद मार्मिक यह ठुमरी अब सूफियों, निर्गुनियों और बाउलों के कंठ की कैद में रह गई है।
हिन्दी ही नहीं अन्य भारतीय भाषाओं में बेटिया ससुराल में छत- छप्पर की मुड़ेर और आंगन में लगे पेड़ पर बैठे कौवे से अपने पीहर जा कर अपनी मां के पास संदेशा ले जाने की मनुहार करने का व्यापक और मार्मिक चित्रण किया गया है।
हाईटेक हुए गृहस्थ परिवारों ने अमीर खुसरो की ठुमरी के सम्मोहन और इसकी वेदना में उतरना ही छोड़ दिया है। मोबाइल ने सुविधा तो दी है लेकिन कई चीजे खत्म भी कर दी है। सूचना तंत्र के विस्फोटक विकास ने हमारी संवेदनाओं को मार दिया है।
किसी ब्याहता का पीहर जाना केवल पीहर जाना नहीं होता था।
बल्कि इसके पीछे सामाजिक तानाबाना होता था। पीहर जा कर बेटी अपनी बचपन की यादों के बही-खातों को टटोलती, संगीसहे िलयों की खेाज खबर लेती और बचपन में जिन आंगन, गलियों, बगीचों में, पनघट तथा अमराईयों में खेली, झूलाझू ली, गुड़ियों के ब्याह रचाए, सपने देखे उन्हें सहेजने उनको छूने का आनन्द लेती थी। पीहर जाने के पीछे एक यह भी उत्सुकता होती थी कि उसकी गैर-हाजरी में घर में क्या खरीदा गया। बेटियां यह भी बूझने की कोशिश करती थीं कि अम्मा ने बहू के लिए बेटी से ज्यादा तो कुछ नहीं खरीद लिया अगर बेटी को ऐसा लगता था तो वह तुनक कर कहती थी अब तो मैं पराई हो गई हूं।
अपनी बहु के लिए ही सब कुछ करोगी। बिटिया की इस शिकायत पर अम्मा मनाती और समझती थी कि ऐसा नहीं है।
लेकिन आधुनिक होने की चाह ने रिश्तों की ताजगी और गर्माहट ही खतम कर दी है। पीहर से लौटती बिटिया की आंखों में थरथराते आंसू अम्मा को भी रुला जाते थे। पति को पत्‍नी के लौट आने का बेसब्री से तब इन्तजार रहता था। जिस पत्‍नी से वह तंग आ चुका होता, उसके नहीं रहने पर उसे तन्हाई डसने लगती।
पति-पत्‍नी के बीच की एकरसता को खत्म करने का मौका भी पीहर यात्रा के कारण सहज ही सुलभ हो जाता था। रिश्तों की गर्माहट को महसूस करने का मौका मिलता था। मोबाइल ने जिन्दगी की ताजगी को ही लील लिया। रूठने मनाने और शिकायत अब बीते जमाने की बात हो गई है, क्योंकि अब बेटियां पीहर नहीं जाती है। ब्याह के शुरुआती दिनों में पीहर छूट जाने का दुख होता है लेकिन समय गुजर जाने के बाद ससुराल ही प्यारा लगने लगता है। जो थेाड़ी कसर मोबाइल से रह गई थी वह इन्टरनेट ने पूरी कर दी। कैमरा लगाया और पूरा पीहर देख लिया, घूम लिया। मां की भी सूरत देख ली और पीहर की दीवारों का रंग भी जान लिया। हमने जाने-अनजाने अपने लिए कैसा बंद समाज और आधुनिकता के नाम पर कैसी बेड़िया बनाई हैं कि नाते-गोते तकनॉलाजी के चूल्हे पर फ्राई हो रहे हैं। हम इसे ही छाती पीट- पीट कर सभ्य, शिष्ट और सामाजिकता के खोखले शब्दों की माला का जाप करके मगन हो रहे हैं।
तकनॉलाजी एक सीमा तक ही साध्य है। वह हमें जिस तरह नचाती है हम उसी तरह नाचते हैं। आधुनिक सभ्यता की उपलब्धियों के बारे में किसी को भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए।
दरअसल यह अर्थ-व्यवस्था का विकासवाद समाज और मनुष्य विरोधी है। हम हजारों साल से अपनी माटी अपने संस्कार सहेज कर रखने वाले लोग थे, किन्तु भूमंडलीकरण का पिशाच हमें हमारे गौरवशाली परम्परा और शक्तिदाता संस्कारों की खिल्ली उड़ा कर विश्वास तथा आस्था के कपाट बन्द करने के लिए उकसाता- ललचाता है। - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09425174450.

मर्यादा की कसौटी पर धर्म


 चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र 
 हम नहीं जानते कि धर्म नामक ढाई मात्रिक शब्द का पहला प्रयोग किसने किया लेकिन इतना जानते हैं इसका प्रयोग सम्प्रदायों के लिए किसी भी काव्य, पुराण-इतिहास में नहीं किया गया। सच तो यह है कि हम, मनुष्य के उस धर्म की बात करते हैं, जो उसने किया वह हिन्दू, इस्लाम, ईसाई धर्म जैसे रोग गस्त बीमारी से मुक्त प्रत्येक मनुष्य का सहज धर्म है। मनुष्य द्वारा किया गया कर्म ही धर्म की संज्ञा पाता गया। किसी के लिए धर्म, स्वधर्म बना तो अन्यों के लिए अधर्म भी। धर्म की सर्वमान्य परिभाषा कभी नहीं बनी, किसी भी युग में। इसी कारण आपद्धर्म और परमधर्म भी चर्चा और संवाद के विषय बने। धर्म, संवाद का विषय था विवाद का नहीं परंतु इस शब्द की दुर्गति इसके जन्मते ही शुरु हो गई। धर्म की स्थापना का गुणानुवाद करते गाते राम-कृष्ण भी आए और जो कुछ भी लोक में करणीय-अकरणीय किया उसे धर्म कहा। राम के जन्म की धार्मिकता को अनेक चुनौतियों में, वानरराज बालि का कथन अधिक प्रासंगिक है- व्याघ की तरह मारना, छिपकर, दो युद्धरत भाईयों में, बिना दूसरे को सुने परखे एक का हो जाना कौन सा धर्म था? धर्म की कसौटी यदि न्याय है तो हमारे आदर्श चरित्रों ने अपने अधर्मो को भी धर्म कहकर उसे न्यायोचित ठहराया। कृष्ण कहते हैं - जहां मैं हूं, वहीं धर्म है और जहां धर्म है वहीं विजय है।
पिता-पुत्र, भाई-चाचा इत्यादि नाते रिश्तों को धर्म से मत जोड़ो सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज।किस धर्म की स्थापना में कृष्ण लगे हैं, शायद न्यायोचित अधिकार मांगने से न मिले तो लड़कर ही, युद्ध-धर्म से प्राप्त किया जा सकता है। और युद्ध और प्रेम में सब सही है का मुहावरा भी धर्माधारित है। धर्म की बातें सबसे अधिक महाभारत में हैं। व्यास, भीष्म, विदुर, धृतराष्ट्र यदि धर्म का पालन करते दिखते हैं तो भीम, कर्ण, कुन्ती, द्रौपदी भी समान भाव से धर्म का पालन करते हुए प्रश्न भी खड़े करते हैं।
व्यास, पांडवों के पक्षधर कवि हैं, उन्होंने कौरवों को दरकिनार किया, जबकि दोनों उनकी संतान हैं। व्यास, युधिष्ठिर को धर्मराज सत्यवादी कहते हैं परंतु धर्म राज के झूठ और व्यसन ने, पूर्वज भरत के भारत में महाभारत करा दिया। बिना स्वार्थ के निष्काम कर्म करने वाले भीष्म और कर्ण स्वधर्म का पालन करते हैं, इन्हें राज्य नहीं चाहिए था। इनका धर्म, राज्य संरक्षण और मित्र धर्म का निर्वाह था।
महाभारत की कथा में जहां भी मोड़ आया है, वहां युधिष्ठिर खड़े हैं। महाभारत के वे नायक हैं, क्योंकि फल की प्राप्ति उन्हें होती है, पांडवों में ज्येष्ठ हैं। युद्ध में अस्थिर, धीर, मृदु, लज्जाशील वदान्य हैं। कर्ण उन्हें ‘वेदपाठरत ब्राrाण’ कहकर निरादृत करता है परंतु चालाक भी कम नहीं हैं। अजरुन के लक्ष्यवेध और विवाह के बाद युधिष्ठिर का यह कहना कि आज अद्वितीय भिक्षा लाए हैं, किस सत्य को उद्घाटित करता है। विश्व के किसी भी काव्य- पुराण-इतिहास की सबसे अभागी स्त्री, द्रौपदी है जिसको अनिच्छा से पांच पुरुषों में बंटने के लिए दिन या महीने निश्चित किये गए।
युधिष्ठिर द्यूतासक्त हैं, सभापर्व और विराट पर में हम जुएं का प्रभाव देखते हैं। धन-सम्पत्ति सब जुएं में हार जाने पर युधिष्ठिर ने चारो भाईयों सहित द्रौपदी को दांव पर लगा दिया। अपने को हार जाने पर युधिष्ठिर दूसरे को दांव पर कैसे लगा सकते हैं? यह द्रौपदी का सम्पूर्ण सभा से प्रश्न था। आश्चर्य तो यह है कि भीष्म भी द्रौपदी का साथ नहीं देते। कहते हैं- सब सत्व खोकर भी दास का अपनी पत्‍नी पर स्वामित्व बना रहता है। भरी सभा में द्रौपदी के पक्ष में धृतराष्ट्र पुत्र विकीर्ण कहता है- द्यूत एक राजोचित व्यसन है, व्यसनग्रस्त राजा जो कुछ करता है वह नगण्य है। दास होने के बाद युधिष्ठिर का द्रौपदी को दांव पर लगाना अवैध है। युधिष्ठिर से किंचित सहमत होते हुए कहता है कि यह जुआं अपनी प्रेरणा से नहीं शकुनि की उत्तेजना से खेला था। द्रौपदी पांच भाईयों की पत्‍नी थी किंतु युधिष्ठिर ने अनुजों की अनुमति लिए बिना ही उसे दांव पर रख दिया था अतएव यह द्यूत अग्राह्य है। विकर्ण द्वारा कही गई धर्मसम्मत बात पर धर्मराज की सफाई कोई मायने नहीं रखती। क्या इस बात की पुनव्र्याख्या आज आवश्यक नहीं है कि इतने झूठ, छल, प्रपंच रचने-करने वाले को धर्मराज कहकर कब तक लकीर पीटते रहेंगे।
व्यास, महाभारत युद्ध को धर्मक्षेत्र कहते हैं। मामा शल्य को कौरव पक्ष में गए जानकर धर्मराज कहते हैं- मामा! आप मुङो वचन दीजिए कि कर्ण-अजरुन के युद्ध के समय आप कर्ण के सारथी होते हुए भी उसके मनोबल को हतोत्साहित करेंगे। मेरे लिए यह कुकर्म आपको करना ही होगा। युधिष्ठिर के इस निंदनीय प्रस्ताव को वंदनीय और धर्माचारित तो नहीं ही कहा जाएगा। दूसरी तरफ कृष्ण ऐसे सारथी हैं। जो हर समय अजरुन को उत्साहित भर नहीं करते, सभी को मरा हुआ दिखाकर अजरुन को आश्वस्त भी करते हैं। द्रोण ऐसे महायोद्धा हैं जिनका रथ धरती से कुछ ऊपर उठकर चलता है, उनको मारने के लिए कृष्ण, युधिष्ठिर से द्रोण के मर्म पर सांघातिक चोट करने वाला इतिहास का सबसे बड़ा मिथ्या (झूठ) नरो व कुंजरो उच्चरित करा के रथ को जमीन पर गिराने का धर्म निर्वाह कराते हैं। हाथी और घोड़े कितने ही युद्ध में मरे होंगे। हाथी का नाम ˜अश्वत्थामा पहले कभी चर्चा में नहीं था।
हाथी के मरने का सत्य द्रोण की मृत्यु का कारण बना। जानते हुए भी धर्मराज का अर्धसत्य कृष्ण के शंखध्वनि में खो गया और पुत्र की मृत्यु मान द्रोण ने देह त्याग दिया।
महाभारत का युद्ध चरम पर है। कर्ण-अजरुन आमने सामने हैं।
पाण्डवों को पकड़ कर छोड़ देना कर्ण का कौतुक है। दोनों अदभुत धनुर्धर, दोनों की काट दोनों के पास है। कर्ण के तरकस में एक ऐसा सर्पबाण है, जो बार-बार कर्ण को प्रत्यंचा पर चढ़ाने के लिए प्रेरित करता है। अजरुन का परम शत्रु अश्वसेन फुफकार रहा है। जन्म से ही पार्थ का शत्रु है। क्षण में अजरुन को खत्म कर सकता है, परंतु कर्ण, मनुष्यों की इस लड़ाई में सर्प की सहायता नहीं लेता- कहता है- तेरी सहायता से जय तो मैं अनायास पा जाऊंगा। आने वाली मानवता को, लेकिन क्या मुख दिखलाऊंगा।कर्ण का धर्म, उसकी सम्पूर्ण जीवनशैली सभी पाण्डवों पर भारी पड़ती है। रथ के पहिए को निकालने के लिए युद्ध-धर्म की बात करता है, कृष्ण, अजरुन को कर्ण का सिर (निहत्थे) धड़ से अलग करने की धर्मसम्मत सलाह देते हैं, क्योंकि जहां वे हैं वहीं धर्म है। जरासंध और दुर्योधन की मृत्यु के पीछे कौन सा धर्म है। कृष्ण के कथन पर पूरा पांडव समाज संचालित है। युधिष्ठिर जब स्वधर्म की बात करते हैं कि स्वधर्म में निष्ठा ही तपस्या है, स्वधर्म में स्थिरता ही स्थैर्य है तब प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि उनका स्वधर्म उन्हें क्या धर्मराज की संज्ञा देता है और उनका परिपालन क्या वे करते हैं? स्वर्गारोहण में हिमालय के पाद देश की स्वर्णरेणु छूते ही द्रौपदी के पांव फिसल गए, वह गिर पड़ी। पांचों पतियों ने मुड़कर भी नहीं देखा वरन धर्मराज युधिष्ठिर ने भीम से कहा-˜मुड़कर न देखो! आगे आ जाओ!-
 लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09407041430. 

भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या!


 सचिन कुमार जैन
भूख क्यों पैदा होती है? इस सवाल का जवाब दीजिए! जवाब- क्योंकि शरीर और अपना काम करने के लिए उर्जा की जरूरत पूरी करने के लिए भोजन की जरूरत होती है और उसी जरूरत की अभिव्यक्ति है भूख। अगला सवाल यह की पेट की भूख किससे दूर होती है! स्वाभाविक है कि खाने से, रोटी से! यह सामग्री कहां से मिलती है? कारखाने से या प्रकृति से, बाजार से जंगल से, जमीन से, पानी से! जब भरपेट खाना नहीं मिलता है तब भूख वंचितों की जीवन की सहयात्री हो जाती है।

अब भूख का जन्म सरकार की नीतियों की कोख से होता है। उस सरकार की कोख से, जो यह मानती है कि खाद्यान्न और खाना उद्योगों और चिमनी वाले कारखानों में उपजता है। वह सरकारें जो यह मानती हैं कि जमीन बांझ हो जाए तो कोई समस्या नहीं है, नदी सूख जाए तो कोई संकट नहीं है, जंगल उजड़ जाए तो भी अस्तित्व संभव है। वह प्राकृतिक सम्पदा को निजी संपत्ति का दर्जा देने को तत्पर है क्योंकि उसे रोटी की पूंजी से ज्यादा मुद्रा की पूंजी से मुहब्बत है। वह अपने इस पागलपन में यह भूल जा रही है कि भोजन के बिना जीवन संभव नहीं है और भोजन खदानों से नहीं निकलता है, वह तो खेत में लहलहाता है और जंगल में बिखेरा जाता है। बस सोच का यही विरोधभास हमारे सामने भुखमरी से संकट के रूप में सामने है। हम बड़ी बात छोड़ दें और केवल आदिवासियों की बात करें तो बात थोड़ी और स्पष्ट होती है। शिक्षित लोग बता रहे हैं कि आदिवासियों के बच्चे ज्यादा कुपोषित हो रहे हैं। सरकार की तमाम योजनाओं में आदिवासियों को वंचित, पिछड़ा या आदिम समूह कहा जाता है। उन्हें छोड़कर बाकी समाज "विकसित" हो गया है। पर लोग वास्तव में सच जानना नहीं चाहते हैं।

मध्यप्रदेश के डिंडोरी, मंडला, बालाघाट, सीधी और सिवनी जिले के बैगा और गोंड आदिवासी जंगल से 25 तरह के मशरूम, 5 तरह की शहद, 28 तरह के कंद, 45 तरह की भाजियां लाते थे। यह उनकी खाद्य सुरक्षा और स्वास्थ्य को सुरक्षित रखता था। इस संपदा को लौटाने के लिए सरकार को जंगल की कटाई रोकनी पड़ेगी, पर क्या सरकार इसके लिए तैयार है? आदिवासियों को जंगल से ही आंवला, औषधीय पौधे, इमली, चिरौंजी, हर्रा-बहेड़ा, तेंदू, महुआ मिल सकता है, जो उनकी आजीविका को एक ठोस आधार प्रदान करेगा।

महाकौशल के इलाकों में 30 साल पहले 56 तरह के अनाज मिलते थे। आज लोग केवल 24 के बारे में जानते हैं, 28 तरह के कंदमूल में से 13 के बारे में जानकारी है, 45 तरह के फल- फूल में से 21 की और 54 तरह की सब्जी-भाजी में से 27 की जानकारी उपलब्ध है। जिन्हें आज सरकार पिछड़ी बताती है, वे 262 तरह की सामग्री का अपने खाने में उपयोग करती थीं। तो पिछड़ा और गरीब कौन है? बालाघाट के सिंगौरी गांव में विस्थापित जीवन जी रही बरको बाई ने कहा "देख भईया, भोपाल से आया है। हमने सब सुन लिया। अब तुम हमार बात सुनीस। हमका जंगल से भगा देईस तो हमार तो रोटी चला गया। सरकार बस दाना देकर मुर्गी लड़ाई, अब नहीं। हमें कहता है तुमने जमीन पर कब्जा किया है। अब छोड़ो। सैंकडों साल से रह रहे थे। अब कहते हैं हम अवैध हो गए। कोई ये न बताई कि कहां जाई। अब जंगल न जा सके, जानवर न पाल सके, देवता न पूज सके, कंदा भाजी मिलता था पेट भरती का, अब वह उनके कब्जे में है।" विकास की मौजूदा अवधारणा ने आदिवासियों के गुजारे की मूल व्यवस्था को तोड़कर रख दिया है। इसी कारण आज यही समुदाय सबसे ज्यादा भूख और सामाजिक असुरक्षा का शिकार हुआ। मध्यप्रदेश में सिंचित खेती का रकबा कुल क्षेत्र का लगभग 37 प्रतिशत है, लेकिन 10 फीसदी से कम आदिवासी इलाकों में ही सिंचाई सुविधा उपलब्ध है। उनकी जमीनें ऊबड़खाबड़, पठारी और असमतल है। रागी, कोदो, कुटकी, सांवा, दलहन आदि पौष्टिक अनाजों को, जिन्हें आज मोटा अनाज कहा जाता है, असल में बारीक अनाज होता है। इनका उत्पादन कम होता गया, पर आज भी प्रदेश को पौष्टिक अनाज का 90 फीसदी हिस्सा इन्हीं आदिवासी इलाकों से मिलता है।

जब सिंचाई की बात होती है तो यह क्यों नहीं देखा जाता कि कम पानी वाले स्थानों पर पौष्टिक अनाज की परंपरा और व्यवहार वाली अर्थव्यवस्था रही है। सिर्फ गेहूं और चावल की ही बात क्यों? जबकि हम जानते हैं कि चावल में 6.8 ग्राम् प्रोटीन और 0.7 मिलीग्राम आयरन होता है, परन्तु बाजरा में 10.6 ग्राम प्रोटीन और 16.9 मिलीग्राम आयरन होता है गेहूं में 11 मिलीग्राम केल्शियम है, लेकिन रागी या नाचनी में 344 मिलीग्राम कैल्शियम होता है। अपने गांव की थाली में से रागी गायब है पर बड़ी कंपनी रागी से नूडल्स बना कर बाजार में यह कह कर बेंच रही है कि इससे बच्चों का विकास होगा और वे स्वस्थ नागरिक बन जायेंगे। ब्रिटानिया कंपनी ने रागी से बना बिस्किट बाजार में बेचना शुरू किया। वे प्रचार करते हैं कि मधुमेह के मामले में रागी बिस्किट बहुत उपयोगी उत्पाद है। जब् एक बड़ी कंपनी बाजार में आकर विज्ञापन दिखाकर ऊंची कीमत पर वस्तु बेचती है तो समाज को उस पर ज्यादा विश्वास होता है और जब समाज के ज्ञान और व्यवहार की बात होती है तो प्रकृति से रागी, कोदो, कुटकी, महुआ लेने वाले आदिवासी समाज को पिछड़े समुदाय का दर्जा दिया जाता है।

अखबारों में अक्सर सामने आता है कि आदिवासी घास की रोटी खा रहे हैं। असल में यह सावा नाम की घास है। उसमें गेहूं से ज्यादा प्रोटीन और आयरन होता है। ये जलवायु परिवर्तन से जमकर मुकाबला कर सकते हैं। यदि हम स्थानीय पौष्टिक अनाजों के उत्पादन और उपयोग को प्रोत्साहित करने के साथ यह सुनिश्चित करें कि ये आदिवासियों की थाली तक पहुंचे तो काहे का कुपोषण!! बैतूल में गुरुवा गांव के किसान भैयालाल कहते हैं कि सरकारी योजना की कोई बात मत करो। अधिकारी हमें गेहूं और धान के बीज देकर समझते हैं कि ये उगाओ, अच्छे भाव मिलेंगे। जब खेत में पानी नहीं है तो पानी पीने वाली इन फसलों को उगाकर हम जिंदा कैसे रहें? डिंडोरी के लमतु बैगा के मुताबिक, अधिकारी जानते ही नहीं हैं कि बैगा किस तरह की खेती करते हैं। वे आये और धान का बीज बांट गए। कोदो- कुटकी के बीज तो उनके पास होय नी, हमारी फसल के बारे में न वो पूछे, ना वो कुछ जाने। बिना कोदो कुटकी खाए और, मक्के का पेज पिए बिना हमार जात का पेट ही न भरे। अब आप ही सोचिये पिछड़ा अज्ञानी और नादान कौन है?

लेखक विकास सम्वाद केंद्र से जुड़े जाने-माने समाज विज्ञानी हैं।

प्रसारण के डिजिटलीकरण की जिद


सौमित्र रॉय
पहले एंटीना, फिर केबल और अब छतरी। कल का बुद्धू बक्सा आज बाजार की दौड़ में समझदार हो गया है। दिसंबर 2011 में संसद ने कानून पारित कर इसे तकनीकी रूप से ताकतवर भी बना दिया है। केबल टीवी नेटवर्क (नियमन) कानून 1995 की धारा 9 में संशोधन से डिजिटल टीवी प्रसारण अनिवार्य हिस्सा बन चुका है। इसको सरकार की बचकानी जिद कहें या बाजार का बढ़ता दबाव, यह मान लिया गया है कि जिसके पास सामर्थ्य होगी वह बिना गुण-दोषों को परखे इसे मान लेगा और बाकी आखिर में मानने पर मजबूर हो ही जाएंगे। यह पूछे बिना कि आखिर सरकार को अचानक टेलीविजन प्रसारण का डिजिटलीकरण करने की क्यों सूझी? केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय इसे एक ऐसी पारदर्शी व्यवस्थाओं की शुरुआत बता रही है, जो टीवी उपभोक्ताओं की वास्तिविक संख्या यानी 20 करोड़ परिवारों की जानकारी देगा। इससे फर्जी उपभोक्तावाद के रूप में केबल ऑपरेटरों की काली कमाई बंद होगी। सर्विस टैक्स और मनोरंजन कर की ज्यादा वसूली होगी।

लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि डिजिटलीकरण की अनिवार्यता से एक स्पष्ट विभाजन की स्थिति बनेगी। यानी जो डिजिटल टीवी देख पाने में समर्थ हैं और वे जो इसकी हैसियत नहीं रखते। केंद्र सरकार डिजिटलीकरण की प्रक्रिया के पीछे जिस पारदर्शिता का दावा कर रही है, उसकी हवा देश के चार महानगरों में पिछले साल ही निकल चुकी है। इसके बावजूद दूसरे चरण में भोपाल, इंदौर और जबलपुर समेत देश के 38 बड़े शहरों में इसे 31 मार्च तक अनिवार्य रूप से लागू किया जा रहा है। यह प्रक्रिया तकरीबन आधार कार्ड जैसी है, जिसका कोई वैज्ञानिक व प्रमाणिक आधार नहीं है। टीवी प्रसारणकर्ताओं और मास्टर ऑपरेटर्स के लिए तो यह फायदे का सौदा है, क्योंकि बैठे-बिठाए उन्हें 70 प्रतिशत तक ज्यादा कमाई होगी। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में उपभोक्ता बंधुआ हो जाएगा। इसका दर्द उसे अभी से महसूस हो रहा है। सौ फीसदी डिजिटलीकरण के दावे से सजे दिल्ली और मुंबई में स्थानीय केबल ऑपरेटरों ने उपभोक्ताओं की पूरी जानकारी भरे बगैर उन्हें घटिया सेट टॉप बॉक्स (एसटीबी) थमा दिए। इसके लिए दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) के द्वारा तय 800 रुपए से ज्यादा लिए गए।

इस दलील पर कि 800 रुपए में तो घटिया एसटीबी आएगा। लेकिन 1500 रुपए देने के बाद भी प्रसारण की गुणवत्ता पहले से भी घटिया है। ट्राई ने बीआईएस मानक के एसटीबी मुहैया कराने की हिदायत दी है, लेकिन पहले चरण और अब दूसरे चरण के शहरों में भी इस तरह के डिब्बों की संख्या 30 प्रतिशत से भी कम है। इसका खामियाजा उपभोक्ताओं को भुगतना होगा, क्योंकि उन्हें इस पूरी प्रक्रिया की कोई तकनीकी जानकारी नहीं है। इसे सेवाओं का तकनीकी विभाजन भी कहा जा सकता है, क्योंकि 20 करोड़ परिवारों में से उपभोक्ताओं का 80 फीसदी केबल प्रसारण पर निर्भर हैं। इन्हें पहली पीढ़ी की गुणवत्ता वाले प्रसारण से काम चलाना होगा, जबकि बाकी के 20 फीसदी घरों में छतरी से सीधे पहुंच रहा डायरेक्ट टू होम (डीटीएच) तीसरी और चौथी पीढ़ी का है।

डिजिटलीकरण की अनिवार्यता के कारणों को समझते समय हमें यह देखना होगा कि आखिर पूरी प्रक्रिया की कमान किसके हाथ होगी? आप अपने हाथ में टीवी का रिमोट होने पर चाहे जितना इतराएं, पर असल में इसका नियंत्रण केंद्र सरकार के हाथ में होगा। वह जब चाहे, केबल प्रसारण पर रोक लगा सकती है।

टीवी पर दिखाए जा रहे विज्ञापनों को भी केंद्र सरकार नियंत्रित करेगी। चूंकि डिजिटलीकृत प्रसारण एनक्रिप्टेड यानी नकल न किए जा सकने योग्य होंगे, तो इस स्थिति में स्थानीय चैनलों और शहर के विज्ञापनों पर भी रोक लग जाएगी। उपभोक्ता तब झक मारकर वही देखने पर मजबूर होगा, जो उसे प्रसारणकर्ता और मल्टी सिस्टम ऑपरेटर दिखा रहा है। डिजिटलीकरण के दूसरे चरण में पहले चरण के मुकाबले पांच गुना ज्यादा खर्च आ रहा है, क्योंकि लगभग आधा भारत इसके दायरे में आ जाएगा। केंद्र ने केबल टीवी प्रसारण में विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाकर 74 फीसदी कर दी है। यह पैसा न तो शहरी निम्न मध्य वर्गीय उपभोक्ताओं की सुविधा बढ़ाने के लिए लगाया जा रहा है और न ही गांव के आखिरी व्यक्ति के लिए। कंपनियों ने तैयारी कर ली है। उनके लिए 122 करोड़ उपभोक्ताओं का खुला बाजार है। वे खास उपभोक्ता वर्ग के लिए चैनल तैयार कर रहे हैं। इनमें से ज्यादातर हाई डेफिनिशन में होंगे। इन्हें देखने के लिए पूरा टीवी और सेट टॉप बॉक्स बदलना होगा। कुछ चैनलों के गुच्छे नए सिरे से तैयार हो रहे हैं, क्योंकि लोगों में उनकी मांग है। नतीजा यह होगा कि उपभोक्ताओं को जहां डिजिटल केबल प्रसारण के लिए प्रति माह 170 से 200 रुपए का वादा किया जा रहा है, उनसे आने वाले समय में 300 रुपए वसूले जाएंगे।

आजकल सरकार कानून और नीतियां अलग-अलग बनाती है और दोनों में भिन्न बात कही जाती है। कानून हकदारी की बात करता है तो नीतियां भेदभावपूर्ण होती हैं। इस मामले में भी केंद्र सरकार ने केबल उपभोक्ताओं से प्रतिमाह लिए जाने वाले शुल्क के निर्धारण का हक एमएसओ और स्थानीय केबल ऑपरेटरों पर छोड़ दिया। सरकार इस बात की भी कोई गारंटी नहीं दे रही कि शहरी निम्न वर्गीय परिवारों और आगे चलकर गांव के गरीब परिवारों से रियायती दरों पर शुल्क वसूला जाएगा। पेट्रोल- डीजल की तरह सब कुछ बाजार भरोसे है। बाजार अपनी मनमानी करेगी और सरकार चुपचाप देखती रहेगी। इस प्रक्रिया में लाखों परिवार सूचनाओं और मनोरंजन के पिटारे का लुत्फ उठाने से वंचित हो जाएंगे। आखिर में हार मानते हुए उन्हें अपने घरेलू बजट का एक हिस्सा सरकार और केबल ऑपरेटरों की जिद के आगे न्योछावर करना होगा।

निश्चित रूप से यह हकदारी देने के बजाय टेलीविजन जैसे सूचना-संचार के अहम साधन से वंचितों को दूर करने वाला कदम है। हालांकि व्यापक मध्यमवर्गीय समाज को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उसके सामने सवाल भेदभाव का नहीं, मनोरंजन की मजबूरी का है। तेजी से आधुनिक हो रहे सिनेमाहॉल और मल्टीप्लेक्स में मनोरंजन 300 रुपए से ज्यादा महंगा है। सही मायनों में यही वर्ग उपभोक्ता है। गरीब, वंचितों को कौन पूछता है।

लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं व विकास संवाद संस्था से जुड़े