Friday, April 12, 2013

संभवामि युगे-युगे

 चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
 धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य, पाप-पुण्य की जितनी चर्चा महाभारत पुराण में है, उतनी किसी अन्य भारतीय काव्य या पुराण में नहीं। वेदव्यास परोपकाराय, पुण्याय, पापाय, परपीड़नम्, की अवधारणा कर रहे हैं, स्वयं महाभारत में उपस्थित हैं, परंतु धर्म की परिभाषा परिस्थितिवश बदलते हुए पाप को भी पुण्य कहने में गुरेज नहीं करते। युधिष्ठिर और धर्मराज आज समाज का सबसे बड़ा व्यंग्य है। यह उस व्यक्ति के लिए कहा जाता है जो धर्म-अधर्म को अपने वाकजाल में उलझकर अपना कार्य हल कर लेता है। कृष्ण, युधिष्ठिर को झूठ बोलने के लिए प्रेरित करते समय सूत्र देते हैं- ‘यदि झूठ बोलने से किसी की प्राण रक्षा होती है तो वह सत्य से भी बढ़कर धर्म है, उसे झूठ का पाप नहीं लगता।’अपने को धर्म और धर्म के साथ रहने वाला कृष्ण, भीम द्वारा अश्वत्थामा नाम के हाथी के मरने पर अफवाह फैलाते हैं, कि अश्वत्थामा (द्रोण-पुत्र) मर गया। अजेय द्रोण इस बात के प्रमाण के लिए युधिष्ठिर की सत्यता पर विश्वास करते हुए प्राण त्याग देते हैं। सारे अजेय कौरवों के प्राण अधर्म आधारित हैं और सभी भूमिकाओं में कृष्ण पूरी सन्नद्धता से महाभारत के अठारह दिनी युद्ध में सक्रिय हैं। इसी कारण बर्बरीक की निर्णायक टिप्पणी ही एकमात्र सत्य है कि मैंने महाभारत में सिर्फ एक व्यक्ति को लड़ते देखा है, समस्त कौरवों के विरुद्ध वे कृष्ण हैं। स्वयं वह भी कृष्ण का शिकार, युद्ध के पहले हो चुका था और रणक्षेत्र के ऊपर आकाश में ‘सेटेलाइट’ की तरह स्थित था। महाभारत के युद्ध खेल का ‘नान प्लेइंग’ कैप्टन कृष्ण बिना चक्र सुदर्शन उठाए खेल रहा था। प्रत्येक ‘टर्निग प्वाइंट’ पर खड़ा कृष्ण अपनों को दिशा निर्देश देता रहा।
सम्पूर्ण विश्व साहित्य में कृष्ण जैसा चरित्र कहीं भी देखने को नहीं मिलता। महाभारत के कृष्ण इतने समर्थ होते हुए भी सहनीय नहीं हो सके। लोक, कृष्ण-नीति का प्रशंसक नहीं है, परंतु वही कृष्ण भागवत पुराण में लीला पुरुषोत्तम योगेश्वर होकर उत्तर चरित्र में ब्रrा हो जाते हैं। युधिष्ठिर की लोक में अस्वीकार्यता का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि शायद कोई व्यक्ति अपने पुत्र का नाम युधिष्ठिर रखता हो।
निरंतर महाभारत का जीवन जीने वाले समाज में ‘गरुड़ पुराण’ जैसे डरावने दृश्यों वाली रचना का भी पाठ मृत्योपरांत होता है परंतु महाभारत पुराण का पाठ अशुभ मानते हुए वजिर्त है, जबकि महाभारत मानवीय प्रवृत्तियों का इतना बड़ा भंडार है, जिसके बारे में कहा जाता है कि जो कहीं नहीं है वह भी इसी में है और जो यहां नहीं है वह फिर कहीं नहीं। न्याय, दर्शन, भौतिकी, आध्यात्म सब कुछ महाभारत के पात्रों की जीवन पद्धति में है। इसका अपाठय़ होना सामाजिक विसंगति है।
रणक्षेत्र में घायल दुर्योधन कृष्ण पर आरोपों की झड़ी लगा देता है-‘मेरे साथ कपट युद्ध करने के लिए पांडवों को आपने उकसाया, आपकी आज्ञा से अजरुन ने शिखंडी की ओट से भीष्म को मारा, द्रोण से अस्त्र रखवाने के लिए अश्वत्थामा के मरने की अफवाह पांडवों ने आपकी प्रेरणा से फैलाई, आपकी आज्ञा से अजरुन ने रथ का पहिया निकालते हुए नि:शस्त्र कर्ण को मारा, आपके संकेत से भीम ने नाभि के नीचे गदा प्रहार कर मेरी जंघाएं तोड़ीं। पांडवों ने मुङो युद्ध से नहीं अधर्म से पराजित किया।’ माना कि दुर्योधन के अधर्म कम नहीं थे। वह घोषित खलनायक है परंतु कृष्ण महानायक हैं।
महाभारत, अभिशापों और वरदानों का मिथ है। जिसके वरदान ही अभिशाप बन जाते हैं। हर योद्धा शापित है, हर वरदानी। इतने ढेर सारे आरोपों को ङोलने वाले कृष्ण भी अपने संचित कर्मो की दुहाई देते हुए अश्वत्थामा के ब्रrास्त्र से मृत जन्मे शिशु परीक्षित के लिए प्रार्थना करते हैं- ‘यदि मैंने पूर्ण सात्विक जीवन जिया हो तो अभिमन्यु पुत्र जीवित हो जाय।’ कृष्ण के जीवन की सात्विकता की कसौटी की शान क्या है? कौन कहे? व्यास, कृष्ण के सभी धतकरमों के नयिक पैरोकार हैं। महाभारत के दिग्गज योद्धा भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, दुर्योधन से अनेक जगहों पर असहमत होते हुए भी उसके साथ हैं, उसके लिए युद्ध करते हैं, परंतु आत्मा से पांडवों के साथ हैं, क्या इसे भी धर्म कहेंगे? अपनी मृत्यु का रहस्य बताते हैं, निष्ठा का ऐसा उदाहरण अन्य किसी ग्रंथ में नहीं मिलता। ‘रामायण’ के असहमत पात्र रावण का साथ छोड़ देते हैं। विभीषण किसी तरह रावण को धोखा नहीं देता, रावण भी उसकी तरफ से निश्चिंत है। शत्रु के साथ है,शत्रु है, परंतु भीष्म-द्रोण आदि कौरवों के साथ होते हुए भी पांडवों के हित चिंतन में लगे हैं। दुर्योधन पर दबाव भी बनाते हैं परंतु वह उन्हें राजाज्ञा सुनाता है- ‘राजन! युद्ध या शांति दोनों आपके हाथ में है।’ गदा युद्ध का अप्रतिम योद्धा सुयोधन अपने कर्मो से दुर्योधन की संज्ञा पाता है। भीष्म प्रतिज्ञा अटल रहने का प्रतीक बनी तो शकुनि धूर्तता का पर्याय। एकलव्य का अंगूठा लेकर समाज में निंदित होने वाले आचार्य द्रोण शिष्य और पुत्र मोह की पहचान बनकर गुरु के अवमूल्यन का कारण बन गए। धृतराष्ट्र का अंधत्व पुत्र मोह के लिए शाश्वत प्रतीक बन गया। पता नहीं ‘अंधा बांटे रेवड़ी चीन्ह-चीन्ह कर देइ’का निहितार्थ क्या है? अंधों के पहचानने में शरीर की कौन सी इंद्रिय काम करती है।
पतिव्रता कुंती और द्रोपदी लोक के अस्वीकृत नाम हैं।
महाभारत, हर युग का शाश्वत यथार्थ है। पैतिृक उत्तराधिकार महाभारत के पहले पारिवारिक परम्परा थी। धृतराष्ट्र मोहग्रस्त अवश्य थे परंतु पांडवों के प्रति सहृदय हमेशा रहे।
दुर्योधन के उद्धत स्वभाव से दुखी रहते थे, उसके मतों से सर्वथा सहमत कभी नहीं थे। आज जब देश में लोकतंत्र है। इस लोकतंत्र के अपने राजतंत्र हैं। अपनी ही वंश परम्परा का राज्यारोहण कराने में देश के समूचे दलों के अधिपति लगे हैं। लोकशाही के प्रतिनिधियों का रहन-सहन उनकी तरह नहीं है। जिन लोगों ने उन्हें चुना है। महाभारत के धृतराष्ट्र जन्मांध थे, परंतु आज के धृतराष्ट्र आंख होते हुए भी पुत्रों की आंख से देखते हैं, उन्हीं के लिए सब कुछ करते हैं। देवराज इंद्र अपने पुत्र अजरुन के लिए क्या नहीं करते। उसे अजेय बनाने के लिए दिव्यास्त्रों की व्यवस्था करते हैं। कर्ण का कवच कुण्डल मांग लेते हैं। अजरुन का पुत्र मोह अभिमन्यु की मृत्यु के बाद कृष्ण के समझने पर भी समाप्त नहीं होता। अपनी बहन के पुत्र के पुत्र के लिए (परीक्षित) कभी किसी के सामने हार न मानने वाले कृष्ण प्रार्थना लीन हो जाते हैं। स्वार्थो में लिप्त होने के बाद भी धर्म की स्थापना करने के लिए संभवामि युगे-युगे का उद्घोष करते हैं।
क्या आने वाला युग महाभारत काल से भी गर्हित होगा? - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09407041430. 

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