Sunday, April 7, 2013

लोकतंत्र के भविष्य पर आखिरी किताब

आचार्य रामलोटन शास्त्री की विद्वता का कोई जवाब नहीं। वे पुराण कथाओं के साथ नित नये नवाचार करते रहते हैं। हाल ही में वे अपनी नई कृति आधुनिक भविष्य पुराण (रंगीन चित्रों सहित सजिल्द) के साथ मिले। आचार्य जी ने बताया कि इस ग्रंथ में लोकतंत्र के भविष्य का विषद् वर्णन किया गया है। मेरी उत्सुकता बढ़ी तो उन्होंने लोकतंत्र के भविष्य वाला अध्याय खोलकर बांचना शुरू कर दिया। ...वह दिन अब दूर नहीं जब शहर और जंगल की सामाजिक व्यवस्था और परिस्थितिकी (इकोसिस्टम) में अदलाबदली हो जाएगी। यानि कि जो जंगल में हो रहा है वह शहर में होने लगेगा और शहरी सभ्यता जंगल में फैल जाएगी। आदमी जानवर की तरह व्यवहार करने लगेगा और जानवरों में आदमियत के अंश झलकने लगेंगे। शहरों में पुरुष जानवरों की तरह महिलाओं का भोग करेगा। जिसको जहां पाया चलती बस में, चौराहे में, खेत, दुकान-मकान, मंदिर, जिसको जहां मौका मिलेगा जानवरों की तरह हवस बुझाएगा। इधर जंगल में गिरगिट रंग बदलना बंद कर देंगे। सांप डसना छोड़कर साधु बन जाएगा। दूध पिएगा तो उसका कर्ज उतारना भी जानेगा। इधर गिरगिट और सांप के गुण सभ्य आदमियों में ट्रांसफर हो जाएंगे। जो राजनीति में जाना चाहेगा उसके बायोडाटा में ये दोनों गुण पाए गए तो उन्हें बोनस अंक मिलेगा। कुत्ते सत्याग्रही हो जाएंगे और भेडिय़े शाकाहारी। उन्हें आदमखोर कहने पर मानहानि का मुकदमा चलाने का प्रावधान होगा। उधर आदमी बिना दुम का कुत्ता हो जाएगा। दुष्यंत कुमार की गजल की वह पंक्ति- अब नई तहजीब के पेश-ए-नजर हम आदमी को भूनकर खाने लगे हैं, अक्षरश: चरितार्थ होने लगेगी। लोमड़ी चालाकी करना बंद कर देगी और खरगोशोंं के साथ मजे से क्रिकेट या कबड्डी खेलेगी। बाज कबूतरों के अंडों की रखवाली किया करेगा। इधर पुलिस में जंगलियत के लक्षण और तेज हो जाएंगे। जिसकी रक्षा का जिम्मा मिलेगा उसे ही लूट लिया करेंगे। इस पर सरकार उन्हें नगद इनाम दिया करेगी। 
व्यवस्थाओं की अदला बदली के अनुसार रंगरूप में भी बदलाव होगा। जैसे जंगल में जितने जीव होंगे उनके मुंह तो आदमियों के होंगे शेष भाग पहले जैसा ही रहेगा। मैंने गिरगिट का चित्र देखा, तो मुंह टोपी लगाए एक पुराने नेता का था। पीठ और पूंछ गिरगिट ही जैसे। इसी तरह सांप, कुत्ते, भेडिय़े, लोमड़ी और खरगोश के चित्र थे। सबके सिर आदमी जैसे और धड़ जानवरों की तरह। शहरी लोगों में ठीक इसका उल्टा था। सिर जानवरों के थे और धड़ आदमी के। आचार्य ने तर्क दिया एेसा इसलिए कि आचार विचार और दिमाग सिर पर ही रहता है। चूंकि जानवर और आदमी का परस्पर व्यवहार बदल जाएगा, इसलिए ये रूप रंग अपने आप बदल जाएंगे। पुराण कथाओं में इसका जिक्र है। आचार्य जी ने कैफियत दी कि यदि एेसा इतिहास में वर्णित है तो भविष्य में इतिहास खुद को दोहराएगा। लोकसभा, विधानसभा जैसी संस्थाएं रहेंगी, पर उनकी कार्यप्रणाली बदल जाएगी। जंगल में भी एेसी संस्थाएं खुलने लगेंगी। वोटिंग होगी और राजा चुना जाएगा। जंगल में यह काम बिना किसी दखल के होगा। जैसे जंगल में सब जानवर सुअर को राजा बनाना चाहें तो सुअर ही बनेगा- शेर को विपक्ष में बैठना पड़ेगा। इधर शहर में गिरगिट-सांप-कुत्ते और भेडिय़ों के चरित्रवाले लोग शेर के इशारे पर चुनाव लड़ेंगे और कैसे भी जीतकर शेर को राजा बनाएंगे। कभी कभी चुनाव की घोषणा की जाएगी, और अगले ही दिन चुनाव सम्पन्न हुआ बता दिया जाएगा। सब कागज में ही निपटा लिया जाएगा ताकि यह भ्रम बना रहे कि लोकतंत्र जिन्दाबाद है। आचार्य जी ने अपने ग्रंथ में एक अदभुत दृश्य का वर्णन किया है, राजा के दरबार की एक कार्यवाही का। राजा जिसका मुंह बाघ का है, शेष शरीर आदमी का, एक सिंहासन पर बैठा है। आधी बंडी पहने गले में कई कंठी मालाएं हैं। संविधान की पुस्तक से राजा की गद्दी बनाई गई है। चारों पांवों  के बीच में संदूक है। उस संदूक में चारों पांवों (स्तंभों) के संचालन की चाभी बंद है। संदूक के ताले की चाभी राजा के गले में लटकी। दरबार सजा है। दरबारियों में किसी का मुंह भेडि़ए जैसा, किसी का सांप तो कोई कुत्ता या गिरगिट पर सब कुर्सी पर बैठे हैं हाथ बांधे। राजा एक ऊंटनुमा आदमी को बुलाता है और यूं ही पूछ बैठता है- सही-सही बता, मेरे मुंह से कैसी गंध आ रही है। ऊंट ने जवाब दिया -हजूर, बदबू आ रही है, लगता है शिकार के बाद दातून नहीं किया...। राजा क्रोध से तमतमाया -साले तेरी ये मजाल... मेरे मुंह में बदबू। ऊंट पर इतनी गोलियां दागी गईं कि उसका शव पोस्टमार्टम लायक नहीं बचा। कुछ देर बाद एक सुअरनुमा प्रतिनिधि को बुलाया- और कहा- अब ले तू संूघ, मेरे मुंह से कैसी गंध आती है। डरे हुए सुअर ने कहा जहांपनाह आपके मुंह से इलायची व केशर की खुशबू आती है। राजा फिर भड़क गया-अबे सुअर, क्या सोचता है मेरी खुशामद करके बचा रहेगा। हलाल करो इसे, सुअर को लोथड़े में बदल दिया गया। गिरगिट-भेडिय़े-कुत्ते सभी हर बार ताली बजाते और जिन्दाबाद का नारा लगाते। इस बार राजा ने इशारे से आम जनता के बीच से खरगोशनुमा आदमी को बुलाया और पूरे प्रेम के साथ बोला... आप तो जरा मेरा मुंह सूंघकर सबको बताइए कैसी गंध आ रही है। खरगोश जैसे पहले से ही जवाब तय करके आया हो... मुंह सूंघकर बोला- मालिक मुझे न तो बदबू समझ में आ रही है न ही खुशबू- दरअसल मुझे पैदायशी जुखाम है। जवाब सुनते ही राजा खुश हो गया। गिरगिट-सांप-भेडि़ए व कुत्तेनुमा सभासदों ने नारा लगाया- जनता-जनार्दन की जय।

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