Saturday, April 6, 2013

त्योहारों में अब वो बात कहां!


चिन्तामणि मिश्र
बाजार ने हम सभी को उपभोक्ता बनाने के साथ हमारा बहुत कुछ हमसे छीन लिया है। इस बहुत कुछ में हंसना और मुस्कराना भी शामिल है। हम मुस्कराते भी है तो औपचारिकता के साथ आधा इंची मुस्कान होती है। हमारे चेहरे पर। ऐसी मुस्कान ओढ़ी हुई और कृत्रिम होती है। हमारे होली-दीवाली आदि त्यौहार बाजार से पैदा नहीं हुए हैं। होली में तो सभी बराबर हो जाते हैं, इसे मनाने के लिए अमीर होना अनिवार्य नहीं है। अखबारों के विज्ञापनों की भी जरूरत नहीं है, क्योंकि ये बाजार के नहीं भारतीय जीवन और ऋतुओं से निकले त्यौहार हैं। इनका भारत के लोगों से जैविक सम्बन्ध है। हर त्यौहार मात्र आनन्द, उल्लास और मिठाई-पकवान का ही नाम नहीं है। इनके माध्यम से हम पारिवारिक और सामाजिकता के नाते-गोते मजबूत करते हैं। अगर इनमें कभी-कहीं गांठ लग जाती है तो इन त्यौहारों में उसे प्रेम-स्नेह से सुलझ लेते हैं। अब तो हम आपसदारी का ही श्राद्ध कर रहे हैं। हमारे स्वार्थ तथा हमारे अहम् ने रिश्तों को ही बांझ करना शुरू कर दिया है। त्यौहारों में मित्रों, परिचितों के साथ परिवार के लोगों से मिलने और उन्हें यथा उचित प्रणाम, नमस्कार, चरण स्पर्श करने, आशीष देने-लेने की परम्परा न जाने कितनी सदियों से हमारे यहां थी किन्तु अब हम एक ही छत के नीचे रह कर भी ऐसे मौकों में अबोलेपन और अपरिचय के साथ जी रहे हैं। अंहकार का प्रेत अपने सिर पर आज हर कोई रख कर अकेला जी रहा है। प्रसन्न हो रहा है।

पिछले दिनों अपनी बस्ती की होली देख कर घर लौटा और लगभग भोर होने तक जागता तथा सोचता रहा कि हमें क्या होता जा रहा है। हम ऐसा कैसा जीवन जीने लगे हैं कि हमारी जिन्दगी से अतीत के सरोकार, हमारे रीति-रिवाज, हमारी संस्कृति धीरे-धीरे गायब होते जा रहे हैं। अभी ज्यादा समय नहीं बीता है जब होलिका दहन की तैयारी हर परिवार में दस दिन पहिले से शुरू हो जाती थी। घर की साफ-सफाई और लिपाई-पुताई होती थी। होली पर पकवान बनाए जाते थे। इस अवसर पर गुझिया और मठरी जरूर बनती थी। घर में गोबर के रोज बल्ले बनाए जाते थे, इनमें आर-पार छेद होता था और इनको धूप में सुखाया जाता था। होली के दिन इन बल्लों की सुतली में पिरो कर माला बना ली जाती थी जिस जगह होली जलाई जाती थी वहां लोग अपने साथ एक बड़ा बांस ले जाते थे जिसके सिरे पर गेहूं और चने की बाल और बल्ले की माला बधीं होती थी। लोग बांस के साथ जलती होली की परिक्रमा करते और बांस को होली की लपटों का स्पर्श कराते। बल्ले की माला होली में डाल देते थे। घर लौटते तो होली की कुछ आग साथ लेकर आते। घर के आंगन में या छत पर गोबर के बल्लों की माला रखी जाती, इसके मध्य में बांस का टुकड़ा खड़ा करके इसकी पूजा होती फिर बाहर की होली से लाई गई आग से घर की होली जलाई जाती। घर के सभी लोग, महिलाओं सहित इस होली की परिक्रमा करते थे। अब घरों में होली जलाने का रिवाज शहरो में नहीं बचा है। होली के दिन लाल मिर्च राई तथा नमक मिला कर हर सदस्य की नजर उतारी जाती थी और इसे होली में डाल दिया जाता। अब हम सभ्य हो गए हैं, इन पर हमारी आस्था नहीं है। ऐसे परिवारों की संख्या तेजी से बढ़ रही है जो अब होली के दर्शन तक करने नहीं जाते हैं। घरों में होली पर पकवान बनाना बन्द हो गया है। अब तो बाजार से ही खरीद कर लाने का रिवाज है।

होली के दूसरे दिन फाग में घर और बाहर रंग, गुलाल, अबीर से हर कोई जमकर एक दूसरे को सराबोर कर देता था। कोई बुरा नही मानता था। आनन्द तथा उल्लास की जीवन्त अनुभूति होती थी। अब सब कुछ खतम होता जा रहा है। पिछले एक दशक से होली औपचारिकता बन कर रह गई है। यह ऐसा त्यौहार है जो किसी वर्जना किसी कुंठा तथा किसी भी प्रकार के भेदभाव को नहीं मानता। होली तो वर्जनाओं का त्यौहार है। हमारा समाज वर्जनाओं का समाज है। वर्ग, वर्ण, जाति, स्त्री-पुरुष और आचार-विचार के आधार पर इतनी सीमा रेखाएं खिंची हुई हैं जिन्हें लांघने की मनाही है सिर्फ होली के दिन ये वर्जनाएं टूटती हैं। रंगों के साथ मनुष्य का तनाव-कुंठाएं भी बह जाती हैं। छोटे लोग बड़ो पर हंसते हैं, उन्हें रंग देते हैं तथा अपनी सामाजिक जकड़न से बाहर आ जाते हैं। अगले दिन भले ही दुनिया फिर से वैसी हो जाती हो, लेकिन समानता का जो क्षण बनता है वह एक त्यौहार हो जाता है। हंसी-ठिठोली, हास्य-परिहास, कही- अनकहनी की सौगात लेकर होली आती है, किन्तु अब हमने अपने आपको तथा इसी के चलते अपने समाज को इतना प्रगतिशील और इतना आधुनिक-सभ्य बना लिया है कि होली और उससे जुड़े क्रिया-कलाप गंवारू लगते हैं। होली ही क्यों हमने अपनी संस्कृति से निकले हर त्यौहारों के साथ इसी तरह की तटस्थता अपना ली है।

किन्तु असलियत यह है कि उसकी प्रसन्नता नकली तथा दिखावटी है। रिश्ते सिमटने लगे हैं। अब लोगों के मध्य जीवन्त संवाद का समय खतम हो गया है। हमारे त्यौहारों पर बाजारवाद ने कब्जा कर लिया है। जीवन और मौत भी बाजार की वस्तु बना दिए गए हैं। अब तो बाजार ही त्यौहार तय करता है उसकी रूपरेखा निर्धारित करता है। पश्चिम से आयात किए गए त्यौहारों ने हमारे पारम्परिक त्यौहारों को समाज निकाला दे दिया है। सुख अब आनन्दमय नहीं रह गया और दुख भी कातर नहीं रहा। केवल अपना ही लाभ और अपना ही जीवन समृद्धिशाली बना कर जो दावे किए जा रहे हैं वे कोरे पाखंड हैं। अपनी माटी और अपनी संस्कृति की गर्भनाल से कट कर हर कोई पेड़ पर लटके बैताल की तरह बेजान और मरी हुई जिन्दगी जी रहा है। यह जीना नहीं है, जीने के नाम पर जिन्दगी ढोने का धतकरम किया जा रहा है। यह बड़ा विचित्र समय है।

जीवन स्नेह और प्रेम के लिए तरस रहा है। पैसा हर मर्ज की दवा बन गया है। तेज जीवन शैली और आधुनिक सभ्यता ने उल्लास के क्षण कम कर दिए हैं। गांव अभी अपने त्यौहारों को बचाए हुए हैं। जिनको विदेश-पलट हमारे अर्थशास्त्री निम्न वर्ग का टैग लगाते रहते हैं वे भी पुरखों की जातीय धरोहर को सहेजने का काम कर रहे हैं। किन्तु कब तक यह होता रहेगा क्योंकि बाजार की ताकते सब कुछ का व्यापारीकरण करने में पूरी ताकत से जुटी हैं।

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एव चिंतक हैं।

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