Tuesday, June 18, 2013

गठबंधन की अंधी सुरंगों में झांकते हुए

अब इसमें कोई शक नहीं कि गठबंधन सरकारें देश की स्थायी नियति बन चुकी हैं। नरसिंहराव के नेतृत्व वाली कांग्रेस  सरकार अंतिम एकल सरकार थी। आज देश की जैसी राजनीतिक स्थिति है उसके चलते मोदी नहीं महामोदी आ जाएं या राहुल गांधी क्यों न जवाहरलाल नेहरु के अवतार बन जाएं, भाजपा या कांग्रेस की एकल सरकार बनना असंभव है।  हां, जदयू के राजग से अलग होने के बाद तीसरे मोर्चे जिसे फेडरल फ्रंट का नाम दिया गया है, की संभावना की बातें की जा रही हैं और इस दिशा में क्षत्रपों ने पहल शुरू कर दी है। फेडरल फ्रंट की सरकार का बनना अभी भविष्य के गर्भ में है लेकिन उसके स्थायित्व और नेतृत्व को लेकर बुद्धिविलास भी शुरु हो गया है। लाख टके का सवाल यह है कि गैर भाजपा-गैर कांग्रेस का तीसरा मोर्चा क्या उसी तरह केन्द्र सरकार को स्थायित्व दे सकता है जैसा कि यूपीए और एनडीए ने दिया है? चलिए पहले हाल-चाल जानते हैं एनडीए के भविष्य के।
मोदी हैं... पर मुद्दे कहां- चेहरे को आगे करके चुनाव की राजनीति करना भाजपा का नया शगल नहीं है। मोदी से पहले अटलबिहारी वाजपेयी ऐसे नेता थे जिनके नाम पर वोट मांगा गया था। वह चर्चित नारा आज भी याद होगा- अटल बिहारी- कमल निशान  - मांग रहा हिन्दुस्तान। भाजपा के गठित होने के बाद से 1996 तक लगातार यह नारा लगा, फिर 13 दिन की सरकार और इसके बाद सफल डेढ़ पारी। अटलजी पण्डित नेहरू से लेकर इन्दिरा गांधी के दौर तक विपक्ष के सर्वप्रिय और ऐसे लाडले नेता थे जिन पर मौजूदा सरकारें भी भरोसा करतीं थी, उनके तीखे हमलों के बाद भी। अटलजी की दृष्टि समावेशी थी और बतौर विपक्षी वे हमेशा रचनात्मक राजनीति के ध्वजवाहक बने रहे। मोदी युवा आक्रोश की अभिव्यक्ति बनकर उभरे हैं। देश का युवा मोदी जैसा आक्रामक, कुछ हद तक तानाशाह और निर्णय लेने में दृढ़  नेतृत्व चाहता है। उसकी वरीयता में लोकतंत्र की उदात्तता नहीं अपितु जैसे को तैसा वाला नायक चाहिए। पर क्या मोदी में अटलजी जैसे सर्वस्वीकार्यता है, नहीं। जदयू का अलग हो जाना पहला संकेतक है। अन्य दलों की स्वीकारिता की बात कौन करें मोदी को अभी अपने ही दल में पग-पग संघर्ष करना पड़ेगा। दरअसल मोदी कारपोरेट की कृपा, मीडिया के मायाजाल और सोशल मीडिया के प्रपोगंडा से निकले हुए महारथी हैं, उनके अस्त्र-शस्त्र इन्द्रजाल रचने वाले जादूगर की तरह छद्म और नकली हैं, उनके प्रति सम्मोहन की स्थिति ठीक वैसी है है जैसी कि 1988 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की थी। वही  वीपी सिंह ढाई साल में देश की जनता की नजर से ऐसे गिरे कि लोगों में इतनी दिलचस्पी भी नहीं बची कि वे अंतिम दिनों में कैसे जिए कैसे मरे।
रही बात नीतिगत मुद्दों की। आर्थिक नीतियों के मामले में एनडीए-यूपीए एक दूसरे की पूरक हैं। नरसिंह राव के कार्यकाल में शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण, विनिवेश और एफडीआई पर दोनों गठबंधन सरकारों का एक सा नजरिया रहा। आंतरिक सुरक्षा और आतंकवाद के मोर्चे पर एनडीए के पास कहने को कुछ नहीं क्योंकि देश ने यूपीए के समय से ज्यादा संहातिक हमले  एनडीए के दौर में झेले। भ्रष्टाचार के मोर्चे पर भी यूपीए-एनडीए भाई-भाई हैं। दोनों की सूरत में कोई फरक नहीं। यूपीए के हर भ्रष्टाचार की नाल एनडीए के गर्भ से जुड़ी है। अलग बात सिर्फ हिन्दुत्व और राममंदिर की बात हो सकती है, लेकिन शिलापूजन से लेकर धर्म सम्मेलनों की जो नौटंकी देश के हिन्दू देखते आए  उसके चलते मंदिर और हिन्दुत्व के मामले में भाजपा की कोई विश्वसनीयता नहीं बची। बहुलतावादी संस्कृति के देश में ऐसे मुद्दे सुर्खियों पर आ सकते हैं पर देश के मानस का मुखपृष्ठ नहीं बना सकते।
यूपीए-नेतृत्व का संकट- यूपीए-टू की लोकप्रियता का सूचकांक पिछले नौ  वर्षों में सबसे निचले स्तर पर है। डा. मनमोहन सिंह के जिस भद्र छवि को लेकर यूपीए दोबारा चुनाव में आई थी, अब वही चेहरा टीवी पर दिखता है तो दर्शक स्विच आफ कर देते हैं और अखबारों के पन्ने पलट देते हैं। जिन राहुल गांधी को आगे किया गया उनके चेहरे में वो ऊष्मा और ताजगी नहीं दिखती जिसकी युवा वर्ग को तलाश है। राजीव गांधी को दून मण्डली ने फंसाया था तो राहुल हारवर्डियों, आईआईटियन और बी स्कूल के बंदों से घिरे हैं। राजनीति में उतरे कोई दस-बारह साल होने को आए शायद ही उनका कोई वक्तव्य या नारा किसी को याद हो। सोनिया गांधी का तिलस्म अभी भी है पर वह आम जनता के बीच नहीं सिर्फ पार्टीजनों तक है। यूपीए-टू के घपले-घोटालों और मंत्री नेताओं की जेल यात्राओं ने जनता के समक्ष एक भ्रष्ट सरकार की आकृति को स्थायी बना दिया है। अनिर्णय-भ्रम और गैर जिम्मेदराना वक्तव्यों ने जनता को न सिर्फ निराश किया बल्कि   उनकी नजर में एक खुदगर्ज और मसखरी सरकार की अवधारणा को चरितार्थ किया। यद्यपि लोकपयोगी योजनाओं के मामले में दोनों कार्यकालों का ट्रैक रिकार्ड बेहतर रहा, लेकिन वह अपने पूर्व नेता राजीव गांधी की सौ रुपए बनाम दस रुपए के यक्ष प्रश्न का हल नहीं ढूंढ पायी। मनरेगा- सार्वजनिक वितरण प्रणाली, जैसी फ्लैगशिप योजनाओं में अरबों रुपए बहे और भ्रष्टाचार की गटरगंगा उफनाती ही रही। देश की जनता का मूड यूपीए के खिलाफ है पर एनडीए उसका विकल्प बनता नहीं दिखता। भाजपा ने मोदी को आगे करके कांग्रेस की बिन मांगी मुराद पूरी कर दी है। यूपीए और एनडीए दोनों देश में साम्प्रदायिक और धार्मिक ध्रुवीकरण को लेकर आशावान है। हिन्दुत्व भाजपा की रौ पर कितना बहता है इसका ंआंकलन तो ऐन चुनाव के समय संभव है , पर मोदी के उभार ने मुसलमानों को कांग्रेस की ओर वापस लौटाने का रास्ता साफ कर दिया है।
फेडरल फ्रंट यानी की बहुते जोगियों का मंदिर- एनडीए के कुनबे से जदयू के अलग होने के बाद तीसरे मोर्चे या कथति फेडरल फ्रंट  की ओर देश की नजरें टिक गई है। फेडरल फ्रंट की अवधारणा लगभग वैसे ही है जैसे कि 1995 में देवगौड़ा-गुजराल की सरकार की थी।  पहले वाममोर्चे के नेतृत्व में सरकार बनाने की सहमति बनी और ज्योति बसु को बतौर प्रधानमंत्री उम्मीदवार स्वीकार किया गया पर माकपा पॉलित ब्यूरो ने ऐन वक्त पर बसु का नाम आगे बढ़ने से रोक लिया। जल्दबाजी या मजबूरी में एचडी देवगौड़ा जैसे नियाहत क्षेत्रीय नेता प्रधानमंत्री बने। अल्पमत का गठबन्धन कांग्रेस के सपोर्ट पर टिका था। अल्पायु में मौत तय थी, सो हुयी। फेडरल फ्रंट को भी फिलहाल इसी नजर से देखा जा सकता है, पर इस बार विरोधाभाष और अन्तरद्वंद्व ज्यादा है। मसलन फ्रंट का नाम और उसकी जरूरत की पहली आवाज ममता बनर्जी की ओर से आई। जाहिर है वाममोर्चा इस फ्रंट को लेकर शायद ही दिलचस्पी दिखाए। जयललिता का रुझान मोदी की ओर है और करुणानिधि अनिश्चय में। चूंकि एक धुरी जदयू के नीतिश कुमार होंगे सो लालू के राजद का इस में शामिल होने का सवाल ही नहीं। मुलायम यूपी जीतने के बाद से तीसरे मोर्चे की बात कर रहे हैं तो स्वाभाविक  तौर पर बसपा कांग्रेस के करीब खिसकेगी। देवीलाल का चौटाला कुनबा फ्रंट के साथ होगा। कुलमिलाकर अभी तक जो मुकम्मल तस्वीर  उभर रही है, उसमें नवीन पटनायक, चन्द्रबाबू नायडू, मुलायम सिंह, नीतिश कुमार का ही अक्स उभरता है और ऐसे महत्वाकांक्षी नेताओं का एकसाथ रहना ‘बहुते जोगी मंदिर नासा’ जैसी स्थिति बनती है। देश की राजनीति अनिश्चय के मुकाम पर खड़ी है। फिलहाल  सभी संभावनाएं व विकल्प खुले हैं। फेडरल फ्रंट मजबूती से उभरे, या फिर चुनाव के पहले यूपीए व एनडीए की ओर ध्रुवीकरण तेज हो। राजनीति में कुछ भी हो सकता है बकौल एस राधाकृष्णन् यह तड़ित की तरह चंचल और भुजंग की भांति कुटिल होती है। देखिए व इन्तजार करिए।
लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं।  सम्पर्क सूत्र- 09425813208      
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