Thursday, July 12, 2012

धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा


      चिन्तामणि मिश्र
 राष्टÑपति चुनाव के प्रसंग में जदयू और भाजपा के मध्य शीतयुद्ध चल रहा है। इस मुंह-चिथाई में राष्टÑपति उम्मीदवार के चयन का मामला पीछे खिसक कर गुजरात के मुख्य मंत्री मोदी पर धर्मनिरपेक्षता की चादंमारी की जा रही है। इस झड़प के पीछे सन 2014 में होने जा रहे लोकसभा चुनाव में राजद गठबंधन की ओर से प्रधानमंत्री की कुर्सी है। भाजपा इस गठबंधन में बड़ी पार्टी है अस्तु उसका प्रधानमंत्री की कुर्सी पर दावा स्वाभाविक है। जदयू अपनी हैसियत को ध्यान में रखते हुए भाजपा के दावे का सीधी तौर पर विरोध नहीं कर सकती, किन्तु कूटनीतिक रास्ते से भाजपा के भीतर सुनामी लाने में जुटी है।  हालात ऐसे बनते जा रहे हैं कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद की दौड़ में भाजपा उतारने के लिए विवश है। संघ भी मोदी के लिए राजी है। मोदी का विरोध बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने करना शुरू कर दिया है और श्रद यादव भी भड़के हैं। मोदी पर इनका खुला आरोप है कि वे हिन्दुत्व के पक्षधर हैं, धर्मनिरपेक्षता के लिए मोदी का समर्थन नहीं किया जा सकता है। हमारे देश में धर्मनिपेक्षता ऐसा शब्द है, जिसको हर राजनैतिक दल एटीएम कार्ड की तरह हर जगह इस्तेमाल करता रहता है। असलियत तो यही है कि धर्मर्निपेक्षता एक मिथक है। सन् 1976 में संविधान के 42 वें संशोधन में भारत को प्रभुत्वसम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाया गया था। इस पंथनिरपेक्ष को स्वार्थवश धर्मनिरपेक्ष बना लिया गया, जाकि पंथ और धर्म में बहुत फर्क है। पंथनिरपेक्ष के लिए संविधान में ‘सेक्यूलर’ शब्द का प्रयोग किया गया है। शब्दकोष में ‘सेक्यूलर’ शब्द का अर्थ- अनन्त, उदासीन, प्रपंची, अधार्मिक, लौकिक आदि लिखा है। इस तरह भारत सेक्यूलर राष्टÑ है और देश तथा सरकार का कोई घोषित धर्म नहीं है। सरकार को सभी धर्मों के प्रति तटस्थ और उदासीन रहना चाहिए।
     लेकिन सरकार तो स्वंय हर धार्मिक आयोजनों में अपनी टांग अड़ाती रहती है। कौन धार्मिक जुलूस किस रास्ते से जाएगा, त्यौहारों पर कौन देवी-देवता या ताजिया किस स्थान पर स्थापित किया जाएगा। इसका फैसला सरकार करती है। हमारे राष्टÑपति, प्रधानमंत्री और अन्य मंत्रीगण कभी किसी मंदिर में पूजा अर्चना करते दिखाई देते हैं तो कभी किसी मजार, दरगाह में चादर चढ़ाने जा पहुंचते हैं, कभी गुरुद्वारों में मत्था टेकने और सरोपा ग्रहण करने हाजिरी लगाते हैं। बौद्धों, जैनियों, ईसाइयों, पारसियों के धार्मिक आयोजनों में उन्हीं की तरह वे पोशाक, पगड़ियां धारण करने पहुंच जाते हैं।
   बिहार सहित हर प्रदेश में किसी  भी सरकारी पैसों से बनने वाले बांध, पुल, सड़क,भवन आदि का भूमि-पूजन हिन्दू विधि-विधान से पंडित द्वारा कराया जाता है, इसमें यजमान मुख्यमंत्री होते हैं। कांग्रेस अध्यक्ष ने अभी कुछ सप्ताह पहले अजमेर की दरगाह में केन्द्र सरकार के ही एक मंत्री के माध्यम से चादर चढ़ाई है। कशमीर के राज्यपाल अमरनाथ के शिवलिंग के दर्शन करने पहले दिन पहुंच गए और विधि विधान से गुफा में पूजा अर्चना की। हर साल केन्द्र सरकार के मंत्री और कई अधिकारी सरकार के पैसे से हज करने जाते हैं। इसके बचाव के लिए यह सफाई कोई मायने नहीं रखती कि हाजिओं की देखभाल के लिए जाते हैं। अगर सरकार में बैठकर धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देनी है तो सरकारी पैसों से सरकार चलाने वालों को सार्वजनिक रूप से किसी भी धार्मिक कर्मकांड से दूर रहना होगा।
          असल में  हमारे देश में राजनीतिक दल और नेता विचारधारा पर  नहीं टिके हैं। हर दल अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग नजरिया अपना लेते हैं। राजनीति बहुत अविश्वसनीय हो चुकी है। नरेन्द्र मोदी के पहले लालकृष्ण आडवाणी हिन्दुत्ववादी नेता के रूप में स्थापित थे, राष्टÑीय जनतांत्रिक गठबंधन के कई घटक दलों ने उनके नेतृत्व को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था। भाजपा के अटल विहारी वाजपेयी को उदार बताते हुए नीतीश कुमार और रामविलास पासवान जैसे स्व-घोषित धर्मनिरपेक्षता के झंडाबरदार लोग वाजपेयी मंत्री मंडल में शामिल हो गए थे। नीतीश कुमार पूरे समय राजग सरकार में मंत्री रहे और  बिहार में भाजपा के साथ मिल कर सरकार चला रहे हैं।  गुजरात में हुए नरसहांर के समय उन्होंने नरेन्द्र मोदी की सांम्प्रदयिकता को मुद्दा क्यों नहीं बनाया, मोदी की सरकार के खिलाफ कार्यवाही की मांग क्यों नहीं की?
     पिछले दो दशक की राजनीति में धर्मनिरपेक्षता  के मूल्य को जो लगातार ठोकरे खानी पड़ रही हैं, उसके लिए अकेले सांप्रदायिक ताकतों को दोषी नहीं कहा जा सकता है। धर्मनिरपेक्ष ताकतें ज्यादा दोषी हैं, क्योंकि वे धर्मनिरपेक्षता की दावेदार बन कर अवमूल्यन करती हैं। असल में राजनीति में जो दिखता है वह होता नहीं है। आरएसएस की कूटनीति को नीतीश कुमार समझ नहीं पाए हैं। संघ अपने हाथ में दो लड्डू रखे है। दांव चल गया तो मोदी को प्रधानमंत्री बना देगें और काम नहीं बना तो आडवाणी को प्रधानमंत्री बनने के लिए रास्ता साफ हो जाएगा। जैसे आडवाणी के सामने पहिले अटल विहारी वाजपेयी उदार हुआ करते थे, अब नरेन्द्र मोदी के मुकाबिले आडवाणी उदार बन जाएंगे। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि आम जनता में नरेन्द्र मोदी की छवि कुशल प्रशासक और   विकास-पुरुष की हैं। ऐसा सोचने वालों का बहुत बड़ा प्रतिशत है जो देश के बिगड़े हालातों में मोदी मेेंं अपना और देश का  तारणहार देख रहा है। हकीकत तो यह है कि देश के  पंूजीपतियों की मनमोहन स्ािंह के बाद पहली पसंद नरेन्द्र मोदी हैं। मोदी समय-समय पर हिन्दुत्ववादी हुंकार भर जरूर लेते हैं, किन्तु उन्हें सब से ज्यादा भरोसा पूंजीपतियों का है।
  असल में संसदीय राजनीति में उचित और अनुचित होने का कोई पैमाना बचा ही नहीं है। सत्ता के लिए सांठ-गांठ ही सा कुछ है। तमाम तरह के मतभेदों के बाद भी गठबंधन चलते ही हैं क्योंकि किसी में भी गठबंधन से बाहर जाने का साहस ही नहीं है। वैसे भी इन गठबंधनों का विचारात्मक आधार नहीं है। सत्ता के लिए समीकरण का नाम गठबंधन है। कौन धर्मनिरपेक्ष है और कौन साम्प्रदायिक है, इसका कोई महत्व नहीं है। धर्मनिरपेक्षता को सीढ़ी बना कर सत्ता के शिखर पर जाने का धतकरम है कि जो नहीं है उसकी गावं-गुहार करते रहो।    
                                        - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
                                             सम्पर्क सूत्र - 09425174450.

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