Wednesday, March 2, 2011

कारपोरेट के लिए कारपेट, किसानों को गोली

देश में शायद ही कोई एेसा दिन हो जो किसानों की त्रासदी लेकर न आए। कहीं ओले-पाले-सूखे से बर्बाद फसल व सूदखोरी से त्रस्त होकर फांसी में लटकने की, तो कहीं विस्थापन और भूमि अधिग्रहण के खिलाफ प्रदर्शन-धरने में पुलिस की लाठी गोली खाने की खबरें। इलाहाबाद में यूपी के किसान एक निजी कारखाने के लिए ़1400 एकड़ जमीन अधिग्रहीत किए जाने के खिलाफ आंदोलनरत हैं। यानी कि हर तरफ सलीब पर अन्नदाता किसान ही टंगा है। भ्रष्टाचार, कालाधन, कश्मीर-समस्या, आतंकवाद और नक्सलवाद पर बहस और राजनीतिक बुद्धिविलास के चलते किसानों के मर्म और दर्द को सोचने समझने की फुर्सत ही नहीं। हताशा में वह या तो अपनी जान दे रहा है या फिर गुस्से में आंदोलन-प्रदर्शन करते हुए पुलिस की लाठी-गोली खाकर मर रहा है। दरअसल नब्बे के दशक से शुरू हुआ नव-उदारवाद अब अपने असली रंग पर आ रहा है। औद्योगिक घराने ऑक्टोपस की तरह पूरे देश में पसर रहे हैं। किसान कहीं सेज (स्पेशल इकॉनामिक जोन) के नाम पर अपनी जमीन से बेदखल हो रहा है,तो कहीं सीमेंट और थर्मल प्लांट के लिए। विस्थापन उसकी नियति बन चुकी है।
कारपोरेट के लिए कारपेट
औद्योगिकीकरण में अव्वल दर्जा पाने के लिए इन दिनों राज्य सरकारों में होड़ सी मची है। वायब्रेंट गुजरात की तर्ज पर हर राज्य ज्यादा से ज्यादा पूंजी निवेश आकर्षित करना चाहते हंै। स्थितियां कुछ इस तरह बदल चुकी हैं कि पहले जहां औद्योगिक घराने अपना धंधा फै लाने के लिए आरजू मिन्नत किया करते थे, आज राज्य सरकारें उनके लिए पलक पॅावड़े बिछाए बैठी हैं। जाहिर है कि उनकी हर जायज और नाजायज मांगों के लिए सरकारेें अपनी नीतियां तक बदलने को तैयार हैं। अपने मध्यप्रदेश का ही उदाहरण लें। सिंगरौली क्षेत्र में थर्मल प्लांट लगाने जा रहे एक औद्योगिक घराने के लिए राज्य सरकार की कैबिनेट ने यह मंजूरी दे दी कि वह अधिग्रहीत जमीन को गिरवी रख करके बैंकों से कर्ज ले सकती है। यानी कि किसानों की जमीन का अधिग्रहण करके बैंकों में उसे बंधक बनाइए और कर्जा लेकर अपनी फैक्ट्री चलाइए। कैबिनेट के इस महत्वपूर्ण फैसले पर किसी ने भी अंगुली नहीं उठाई। वजह विपक्ष में भी कारपोरेट के हितरक्षक टट्टू बैठे हैं। कहने का आशय यह कि औद्योगिक घरानों के लिए क्या पक्ष क्या प्रतिपक्ष सभी एक जैसे हैं। किसानों के हितों की चिंता किसी को नहीं। जून 2010 में मध्यप्रदेश सरकार ने नई औद्योगिक नीति की घोषणा की है। पूरी नीति पढ़ जाइए कहीं भी एक लाइन एेसी नहीं मिलेगी जो किसानों का हित साधने वाली हो। लोगों को पीने के लिए पानी मिले या न मिले, खेतों की सिंचाई हो न हो पर सरकार को इस बात की चिंता ज्यादा है कि कारखानों को पानी का पूरा इंतजाम होना चाहिए। इसीलिए अभी से ही नहरों के पानी के औद्योगिक इस्तेमाल के फैसले लिए जाने लगे हैं। यकीन मानिए बाणसागर और बरगी के पानी का बड़ा हिस्सा फैक्ट्रियों के पेट में ही जाने वाला है।
सिंगुर से सिंगरौली तक
औद्योगिकीकरण के नाम पर विस्थापित किए जा रहे किसानों की त्रासदी कमावेश पूरे देश में एक जैसी ही है। औने-पौने मुआवजे में इन्हें जमीन से बेदखल किया जा रहा है। जहां किसानों के हितों की बात करने वाला नेतृत्व मिला, वहां संगठित तरीके से विरोध के स्वर भी सुनाई दिए। यह बात अलहदा है कि उनकी आवाजें लाठी गोली के दम पर दबा दी गई या सरकारों को मुआवजे-पुनर्वास पर फिर से विचार करने के लिए विवश होना पड़ा। मसलन पश्चिम बंगाल के सिंगुर-नंदीग्राम में विस्थापन और मुआवजे को लेकर किसानों का आक्रोश इतना भडक़ा कि टाटा और इन्डोनेशिया की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी को वहां से बोरिया-बिस्तरा समेटकर भागना पड़ा। किसानों की आहत-आक्रोशित भावनाओं को चरमपंथी कैसा भुनाते हैं और फिर कानून-व्यवस्था के लिए किस तरह चुनौती बन जाते हैं सिंगुर-नंदीग्राम इसका उदाहरण है। कल यदि सतना-रीवा-सिंगरौली के विस्थापित किसान संगठित होकर एक धरातल पर आने पाए तो यहां क्या स्थिति बनेगी अंदाजा लगा सकते हैं। यह भी ध्यान रखें कि सिंगरौली पहले से ही नक्सलियों के निशाने पर है और विस्थापन की त्रासदी भी सबसे ज्यादा इसी इलाके के लोग भोग रहे। दरअसल विस्थापन का दंश इतना गहरा और कष्टदायी होता है कि इसे कई-कई पीढिय़ां भोगती हैं। जमीन से बेदखल कर दिया जाना जिंदगी से बेदखल कर दिए जाने जैसा मृत्युतुल्य कष्ट है। क्योंकि इस बेदखली से सिर्फ गांवों व खेतों भर का अस्तित्व नहीं मिटता अपितु वहां के लोगों की स्मृतियां, परंपराएं, संस्कृति, कुल के देवी-देवता सभी अस्तित्वहीन हो जाते हैं। देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी समय-समय पर अपनी व्यवस्थाएं देकर राज्य को इस त्रासदी के संबंध में चेतावनियां दी हैं। विस्थापन और पुनर्वास एेसा संवेदनशील मसला है यदि इसे सुलझाने में मानवीय दृष्टिकोण नहीं अपनाए गए तो इसके फलस्वरूप जो स्थितियां निर्मित होंगी उसका निदान सत्ता की लाठी-गोली, तुपक-तलवार भी नहीं कर सकती।
हरियाणा से सबक ले सरकार
प्रदेश की शिवराज सिंह सरकार ने औद्योगिकीकरण के लिए मोदी के वायब्रेंट गुजरात को अपना रोल-मॉडल बनाया है। यह अच्छी बात है। लेकिन विस्थापन-पुनर्वास और मुआवजे के लिए हरियाणा की भूपिंदर सिंह हुड्डा सरकार से सबक ले सकती है। हुड्डा सरकार को सेज के लिए विस्थापित किए जा रहे किसानों के आक्रोश ने एेसी भू-अधिग्रहण नीति बनाने के लिए विवश या यूं कहिए प्रेरित किया कि आज यह नीति वहां के किसानों की काफी कुछ हद तक हितरक्षा के लिए कारगर मानी जा रही है। 2007 में घोषित की गई इस नीति में अधिग्रहीत की जाने वाली भूमि की महत्ता के आधार पर मुआवजा तय किया गया है। यह मुआवजा न्यूनतम 8 लाख रुपए प्रति एकड़ से लेकर 20 लाख रुपए प्रति एकड़ है। शहर से लगी हुई भूमि न्यूनतम 20 लाख रुपए एकड़ तो दूरदराज गांवों की जमीन 8 लाख रुपए एकड़ से कम नहीं। यही नहीं इस नीति में प्रावधान किया गया है कि किसानों की जमीन पर स्थपित होने वाला उद्योग एक परिवार से एक व्यक्ति को नौकरी तो देगा ही, अधिग्रहीत भूमि की प्रति एकड़ 15000 रुपए सालाना रॉयल्टी भी देनी होगी। 33 वर्षों के लिए निर्धारित यह रॉयल्टी हर साल 500 रुपए के हिसाब से बढ़ती जाएगी। सेज,टेक्रोलॉजी, फूडपार्क जैसे उपक्रमों के लिए अधिग्रहीत की गई भूमि के लिए यह रॉयल्टी 30000 रुपए वर्षिक होगी, जिसमें 1000 रुपए सालाना इन्क्रीमेंट लगाया जाएगा। यही नहीं विस्थापितों को घर बनाने के लिए 350 स्क्वेयर यार्ड तथा जीविका के लिए 2.75 गुणा 2.75 मीटर के कॉमर्शियल बूथ दिए जाएंगे। पिछले तीन वर्षों से हरियाणा में विस्थापित किसानों के एक भी धरना,आन्दोलन-प्रदर्शन नहीं हुए। क्या किसानपुत्र शिवराज सिंह अपने सूबे के किसानों के लिए एेसा नहीं कर सकते? औद्योगिक पूंजीनिवेश के लिए जिस तरह उनकी सरकार ने नई औद्योगिक नीति की रचना की है क्या यह जरूरी नहीं कि किसानों के लिए नई पुनर्वास और अधिग्रहण नीति बनाई जाए? विकास का संतुलन तभी बनेगा जब थर्मल प्लांट का टरबाइन भी चले और ट्रैक्टरों से लदा किसानों का अन्न भी मंडियों में पहुंचे।
-लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी संपादक हैं।
24 जनवरी 2011 को प्रकाशित

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