Friday, May 10, 2013

शिक्षा का तीर्थ विश्वभारती


हमारे देश में एक ऐसा भी समय था कि विदेश यात्रा करने वाले को विधर्मी होने की आशंका से देखा जाता था, इसी कारण देश की तमाम प्रतिभाएं स्थानीयता में सिमटकर रह गईं।
मोहनदास करमचंद गांधी की मां ने लंदन पढ़ते जाते समय अनके शर्ते रखीं और गांधी ने उनका पालन करने का वचन दिया। बावजूद इसके, देश के जो भी लोग विदेश गए उन्होंने न सिर्फ देश में अपितु विश्व में विशिष्ट पहचान बनाई। शांति निकेतन (विश्वभारती) के रवीन्द्र संग्रहालय में नोबल पुरस्कार की प्रतिकृति (मूल पदक चोरी चले जाने के बाद) देखते हुए मैं सोच रहा हूं कि गांधी, अफ्रीका वकील बनकर गए थे, ..महात्मा.. बनकर लौटे। कहते हैं कि ..महात्मा.. का विरुद रवीन्द्र ने बापू को दिया तो बापू ने भी रवीन्द्र को ..गुरुदेव..कहा। विवेकानन्द शिकागो धर्म सभा में गए और ..स्वामी.. होकर जगत विख्यात हुए। यूं भारत की अपनी वर्तमान सीमा में ही अनेक जगत और गुरु हैं। सुभाषचन्द्र बोस ने आईसीएस की उपाधि ठुकराई, ..नेताजी.. के नाम से प्रसिद्ध हुए और सिंगापुर में आजाद हिन्द फौज की स्थापना की, विश्व की सबसे बड़ी शक्ति से लोहा लिया। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने जितनी विदेश यात्राएं की, आज तक शायद ही किसी भारतीय कवि ने इतनी यात्राएं की हों। रवीन्द्र ने दुनिया देखी अपनी दृष्टि से, दुनिया ने भारत को व्यावसायिक दृष्टि से भी देखा और अब भी देख रहा है। रवीन्द्र ने विश्व-यात्रा में आधुनिकता और भारतीय परम्परा पर गंभीर चिंतन किया।
आधुनिकता के शोर और भौतिकता के बीच वे भारतीयता के एकमात्र ऋषि हैं जिन्हें विश्व ने ..विश्वकवि.. माना। विश्व के अनेक देशों ने उन्हें सुना और भारत को जाना। ..नोबल.. की राशि उन्होंने ..भारती..को सौंप दी। रवीन्द्र ने देश के विद्यापीठों, मुस्लिम और हिन्दू विद्यालय देखे थे। भारती (सरस्वती) को वैश्विक बनाकर ..विश्वभारती.. की स्थापना की। बाद में वे विश्वगुरु हो गए, किसी विरुद से नहीं, विश्व की अठारह विदेशी भाषाएं विश्वभारती के आंगन में आज मुखरित हैं, अविरोधी और अकुंठ भाव से, परिवर्धित और पल्लवित होती हुई।
..अथातो जिज्ञासा.. जिन उपनिषदों का आर्षवाक्य हो, उसके अध्येता भूल गलती के डर से ज्ञान के कपाट बंद कर देंगे तो सत्य, द्वार से दस्तक देकर चला जाएगा।
महात्मा गांधी से प्रभावित होकर सीएफ एन्ड्रूज अपना देश छोड़कर बापू के पास रहकर ..दीनबन्धु.. हो गए। परंतु जीवन के उत्तरार्ध में एन्ड्रूज ने सारा जीवन रवीन्द्र के सम्पर्क में शांति निकेतन में बिताया। गांधी, रवीन्द्र के वैयक्तिक जादू से चकित थे। एन्ड्रज की मृत्यु गांधी शांति निकेतन गए और 1945 में..एन्ड्रज मेमोरियल अस्पताल.. की स्थापना पर रवीन्द्र के निधन के बाद भी गए और ..श्यामली.. में रुककर साबरमती की कलाहीनता को महसूसते रहे। जोरासांको का राजप्रसाद भले ही भव्य रहा हो उस जैसे प्रासाद देश में अनेक हैं, लेकिन शांतिनिकेतन श्री निकेतन, उत्तरायण, श्यामली और पुनश्च, विश्व भर में अकेले और अद्वितीय हैं। रवीन्द्र के अभिजात्य की भव्यता आकर्षित करती थी। जवाहर लाल नेहरु अनेक बार शांति निकेतन गए। इंदिरा 1931 में कला विभाग के प्रथम वर्ष में भर्ती हुई। गुरुदेव ने उनका नाम ..प्रियदर्शिनी.. रखा। रवीन्द्र को नामकरण का शौक था पत्‍नी भवतारिणी का नाम बदलकर ..मृणालिनी.. रखा। जवाहरलाल अपनी बेटी को संसार के किसी भी संस्थान में पढ़ा सकते थे परंतु रवीन्द्र का सानिध्य संस्कार के लिए अधिक उचित मान कर एकमात्र संतान को बाल्यावस्था में शांतिनिकेतन के हवाले कर दिया। पुरा भारतीय न तो विदेश गए न अपनी कला को जाने दिया। भारत के अनेक उत्पाद आज विश्व में सवरेपरि हैं। पतंजलि का योग सर्वमान्य हुआ जबकि यह देश में भी छिपाकर चोरी में किया जाता था। गांधी एक नाम नहीं विश्व का कोई भी ऐसा देश नहीं है जहां गांधी की प्रतिमा न हो और जिसे अहिंसा का देवदूत न माना जाता हो। भारतीय शास्त्रीय संगीत का परचम लहराने वाले पंडित रविशंकर जिनके सितार की बंदिश देश की पहचान है और भारतीय नृत्यों पर विश्व थिरकता है। यूनिसेफ 2001 में केरल के कुड़ीअट्टम नृत्य को विश्व धरोहर के रूप में मान्यता दी है। रवीन्द्र मात्र विश्व कवि नहीं थे। वे चित्रकार, शिल्पकार, गायक, वादक, अभिनेता, निर्देशक और संगीत के राजदूत थे। रवीन्द्र संगीत न सिर्फ बंगाल् और बांग्लादेश में गूंजता है, वरन भारतीय संगीत का मूल आनंद भाव लिए विशिष्ट बन गया है। भारत और बांग्लादेश के अनेक अंतरविरोधी समस्याओं के बावजूद दोनों देश एक ही भाव से रवीन्द्र की 150 वीं जयंती संयुक्त रूप से मना रहे हैं। यह राजनीति पर साहित्य और कला की अघोषित विजय है। बंगाल् का जातीय बोध श्लाघ्य है। देश का राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान बंगाल् के कवियों के नाम है। हिन्दी कवि भारत भारती लिखता है त् बांग्ला कवि विश्वभारती की कल्पना भर नहीं करता, उसे साकार करता है। शांति निकेतन को देखते हुए उसके अतीत की अनदेखी नहीं की जा सकती। किसी संस्थान को समग्र रूप से देखने के लिए उसके अतीत को भी देखना पड़ता है। वर्तमान से क्षुब्ध होना और भविष्य के प्रति चिंतित होना मनुष्य का स्वभा है। जहां बैठकर कभी आचार्य द्विवेदी ने ..अशोक के फूल.. लिख् थे, वहां उपजी गाजर घास और सीढ़ी तक ..आचार्य निवास.., मौसमी झड़-झंखाड़ों की गिरफ्त में है।
2013 विश्व कवि के नोबल का शताब्दी वर्ष है। देश और विदेशों में भी किसी भारतीय साहित्यकार की जयंती इतन् धूमधाम से नहीं मनाई गई। गीत-संगीत, नृत्य और नाटकों के साथ उन्हें याद किया जा रहा है। रवीन्द्र की परिकल्पना का ही परिणाम है कि विश्व में आश्रम कल्पना का एकमात्र शिक्षा केन् ..विश्वभारती.. सम्पूर्ण कला सम्पदा अपने में सहेजे है। प्रारंभ तो शांतिनिकेतन महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर का आवास मात्र था।
इस परिसर में भारत की संस्कृति दिखती है क्षेत्रीय होकर नहीं, वैश्विक होकर। हम हिन्दी वाले इसे हजारी प्रसाद के निबंधों, नंदलाल, रामकिंकर के चित्रों एवं रवीन्द्र के संगीत के माध्यम से जानते हैं। यूरोप, अमेरिका, कनाडा, चीन, जापान, श्याम, ईरान् जावा, वाली, मलाया, श्रीलंका की यात्राएं एक बार नहीं अनेक बार रवीन्द्र ने की। जिनकी बाहें सारी धरती को अपने आगोश में लेने सक्षम थी, वे कितने अकेले, एक अंतरंग मित्र के पत्र के जवा में गुरुदेव ने लिखा था- ..तुम्हारे लिए यह मुश्किल है कि कितने गहरे अके लेपन से भरा हूं। मेरा बाजार मूल्य काफी बढ़ गया है, पर निजी मूल्य कम हो गया है। आज रवीन्द्र की कायिक उपस्थिति हमारे बीच नहीं है परंतु विश्वभारती देखते हुए ह निरंतर आपाद मस्तक उनके जादुई व्यक्तित्व के साथ संग होते है - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09407041430

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