Friday, May 4, 2012

व्यक्ति की उदासी पर बात जरा सी


 चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
भक्तिकालीन साहित्य को हम इसलिए सर्वश्रेष्ठ मानते हैं कि उसमें लोकहित की प्रधानता है। लोकनीति, व्यवहार और तत्व, मनुष्य जीवन के न सिर्फ संचालित करते हैं, अपितु दिशा देते हुए मार्ग भी निष्कंटक बनाते हैं। तत्कालीन काव्य की कसौटी के लोक तत्व ही थे। लोक का व्यक्ति अधिक पढ़ा लिखा विद्वान नहीं था, परन्तु बुद्धिमान था। उसे लोक हित की चिन्ता थी। समाज के बरक्स व्यक्ति गौवा था। परन्तु उसमें साहस था, इसी कारण कुंभनदास जैसे लोकधर्मी कवि में इतनी चेतना थी कि सीकरी के राजकीय प्रस्ताव को भी न सिर्फ ठुकराया, यह भी कह दिया- ‘जिनको देखे दुख उपजत है, उनको करिबो पीर सलाम।’ सत्ता का चरित्र हर युग में एक ही तरह होता रहा है । शासक का चरित्र कभी भी श्लाघ्य नहीं था, तभी न जिनको देखने मात्र से ही दुख पैदा होता है, कहने का साहस फकीरी में जीने वाले कविओं में था। गोस्वामीजी बेझिझक कह देते हैं कि ‘हम तो रघुवीर के पंजीकृत चाकर हैं।’ किसी नर के मनसबदार कैसे हो सकते हैं? यह साहस आज कहां बिला गया? अब तो दोनों को एक साथ साधने की परम्परा का चलन है।
    लोक का सबसे प्रिय धन ‘संतोष’ सिर्फ  शब्दकोष में है, व्यवहार क्षेत्र में नहीं उतरा। भक्तिकाल का कवि लोक का प्रतिनिधित्व करता है। अभाव में रहता है, जीवन के भाव-मूल्य तय करता है। फकीर है, लेकिन बादशाह की तरह निर्द्वन्द जिन्दगी जीता है। कभी नींद भर नहीं सोता, असत ही सारी रात बिता देता है। एक ओर संत भी है जो रात दिन जागता है और सोने वालों के सुख पर चिंतित है, किसी ईर्ष्यावश नहीं, उनकी अज्ञानता के कारण दुखी है। सेवानिवृत्त शिक्षक मित्र ने उस दिन मेरी अनेक चिंताओं पर एक दोहा जड़ दिया और वहां से फूट लिये। मैंने जानना चाहा कि किसका दोहा है यह? कबीर-तुलसी-रहीम किसी का नाम नहीं है जबकि नीतिगत दोहों में इनके नाम हैं। इनकी लोकप्रियता का आधार यही लोकदृष्टान्त है, जिनसे समाज हमेशा रूबरू होता है। उन्होंने नाम नहीं बताया, दोहा भी नहीं कहा इसे बोले चोगोलबा है यह। चौगोलबा याने चार चरण वाला (गोल) जिसे हम दोहा कहते हैं- ‘खर, घुघ्घू, मूरख, पशु, सदा सुखी, सब मास। चाकर, चकबा, चतुर नर ओषे, पहर उदास।’ लोक यह यथार्थ सारे विश्व का यथार्थ है। सीधे-सीधे कहें कि गधा, घुघ्घू, मूर्ख और पशु हमेशा सुखी रहते हैं, परंतु चाकर, चकवा, चतुर व्यक्ति हमेशा उदास और दुखी रहता है। यह ऐसी लोकोक्ति हैं जिसमें मनुष्य और पशु पक्षियों का स्वभाव  स्पष्ट वर्णित है, जिसे अधिक व्याख्यायित किये बिना भी सहज ढंग से समझा जा सकता है। लेकिन इसमें जिस चतुर नर के लिये इतने उपादान-सहधर्मी सहेजे गये हैं। उनकी प्रशंसा किये बिना नहीं रहा जा सकता। लोक की ये उक्तियां लोक के वेद और शास्त्र हैं। इनमें लोक की खुशी है, पीड़ा है और अनुभव है। ये सौ प्रतिशत खरी है। इनकी अनदेखी लोक अपराध है।
संसार का सबसे अपरिग्रही पशु गधा है। जहां लाद कर ले जाना चाहें, तैयार है, कोई विरोधात्मक प्रतिरोध नहीं। बैशाख की धरती पर जब कहीं घास का तिनका भी नहीं रहता तब भी पीछे मुड़कर और देखकर संतुष्ट हो लेता है कि आज उसने इतनी घास खा ली कि पीछे एक तिनका तक नहीं छोड़ा। मात्र बैशाख ही नहीं हर महीने खुश होकर शेष पशु जगत को चिपोंग-चिपोंग कहता रहता है। लेखकों ने गधे पर आत्मकथाएं लिखीं। चीन से हुए युद्ध के दौरान गधा नेफा तक गया। कृष्ण चन्दर ने देखा था। ‘गधा’ आधुनिक शिक्षकों का प्रिय उजमान है। ‘घुघ्घू’ एक अपशकुनी पक्षी है, उल्लू प्रजाति का यह पक्षी उल्लू से किंचित बड़ा, सिर और धड़ आकार में मोटा होता है। गांव के लोग इसे घुघुआ कहते हैं। हर स्थिति में मुंह फुलाये मस्त बैठे आदमी को इसी संबोधन से प्राय: लोग पुकारते हैं। यह मनुष्य की आवाज की नकल करता है। किसी के मरने पर यह मनुष्य की आवाज में रोता है, कल्हारता है। इसे ढेले से मारकर नहीं उड़ाते। कहते हैं कि मारे हुए ढेले को लेकर घूघ्घू पानी में डुबाता है। जैसे जैसे यह मिट्टी का ढेला पानी में घुलता है, ढेला मारने वाला व्यक्ति भी शनै: शनै: घुलकर एक दिन समाप्त हो जाता है। घुघ्घू हमेशा सुखी रहने वाला पक्षी है। ऐसी लोकमान्यता है।
मूर्ख व्यक्ति भी सदा सुखी रहता है। तुलसीबाबा ने मूढ़ों को सबसे अच्छा व्यक्ति घोषित किया है। तुलसी जिस व्यक्ति के पक्ष में खड़े हों, फिर कौन तर्क दे सकता है। -‘सबसे अच्छे मूढ़, जिन्हैं न व्यावै जगत गति।’ जिनको संसार से कुछ लेना-देना ही नहीं है निश्चित रूप से वे सबसे श्रेष्ठ हैं। श्रेष्ठों की संख्या निश्चित ही कम है, सामान्यों की तुलना में। और ये मूर्ख इतने महान हैं कि यदि विरंचि (ब्रह्मा) भी आ जाएं तो उन्हें चेताना चाहें तो नहीं चेता सकते। ऐसा व्यक्ति भला क्यों न सुखी रहेगा।
     पशुओं का यह सामान्यीकरण है कि वह हर हमेशा सुखी रहता है सुखी रहने वालों की संख्या इस चौगोलबा में इतनी ही है। मनुष्य, पशु, पंछी के अतिरिक्त अन्य जीवधारियों की चर्चा न होने से दोहे की सार्थकता कम नहीं होती। सभी चर प्राणियों को एक अर्द्धाली में समेटता विशिष्टता है।
मालिक के निरंतर नजदीक रहने वाला चाकर (नौकर) हमेशा परेशान और उदास रहता है कि पता नहीं कब पुकार हो जाए। अपने और अपनी समस्याओं के बारे में सोचने की बात से कला नितांत मुश्किल है। जैसे ही   सोचने लगेगा मालिक का हुक्म हो जाएगा- ‘ऐसा करो-वैसा करो।’ एक काम पूरा हुआ नहीं कि दूसरा काम सिर पर। अत: चाकर का उदास रहना गुण-धर्म है जिसे न चाहते हुए भी उसे निभाना पड़ेगा। लोक मान्यता में चकवा हमेशा इस आशंका में उदास रहता है कि पता नहीं किस क्षण शाम हो जाएगी। रात की आशंका से चकवा उदास है। और चतुर नर तो हर क्षण उदास है।
संसार भर की चिन्ता एक विवेकशील व्यक्ति की होती है। क्या क्यों, कैसे हो रहा है इन प्रश्नों से वह उदास है। सिकंदर महान विश्व विजयी कहलाने के लिए चिंतित है। अमेरिका सबसे महान बनने में लगा है। रावण कुछ चिंताएं लिये मर गया कि कल-कल  करूंगा, कहते-कहते चला गया। मनुष्य ऐसा चतुर प्राणी है कि सोता है तो सपने देखता है, जागता है तो छटपटाता है, उसे एक क्षण चैन नहीं है। संसार भर के सुख-दुख की चिंता लिए चतुर नर हमेशा उदास रहा है, रहेगा। हमारी चिंता के निहितार्थ में ही मित्र ने मेरे ऊपर यह दोहा पटका-‘और मुझे उदास कर जाने कहां चला गया।’
                                                          - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।
                                                             सम्पर्क - 09407041430.

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