Sunday, September 9, 2012

इन्हें किश्तों में हिन्दुस्तान चाहिए

पिछले दिनों कोयले की कालिमा के घटाघोप के बीच सियासत की कई और संगीन वारदातें हुई है। जिसके चलते भारत महादेश का सीना चाक-चाक हुआ है। उसकी सम्प्रभुता, संघीय
चरित्र, लोकतांत्रिक और समतामूलक समाज की आत्मा पर गहरी चोट की गई। सत्ता हासिल करने के निमित्त राजनीतिक दलों का कबीलियाई आचरण और व्यवहार उभरकर सामने आया है। यूपीए की अगुआई कर रही कांग्रेस ने प्रमोशन में रिजव्रेशन का दॉंव चलकर ‘जातीय उन्माद के आत्मघाती दौर’ की वापसी का बन्दोबस्त किया है। बांग्लादेशी घुसपैठियों व बोड़ो जनजातियों के बीच घमासान थमने का नाम नहीं ले रहा है। उधर ठाकरे परिवार ने बिहारियों को घुसपैठिया बताते हुए खुलेआम संविधान की आत्मा और देश के संघीय ढांचे के अस्तित्व को ललकारा है।
रही सही कसर तामिलनाडु के डीएमके के नेता पूरा कर रहे है, श्रीलंका के राष्ट्रपति की भारत यात्रा का विरोध करते हुए। एफडीआई (फोरेन डायरेक्ट इनवेस्टमेंट) को मंजूरी न दिलवा पाने के लिए विवश डा. मनमोहन सिंह को अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान अपने मीडिया के जरिए ऐसी लानत- मलानत भेज रहा है जैसे वे राष्ट्राध्यक्ष न होकर उसके वायदा खिलाफ नौकर हों। कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि आज सभी को अपने-अपने हिस्से का हिन्दुस्तान किश्तों में या एक मुश्त चाहिए।
बात शुरू करते है आरक्षण के दांव से। कांग्रेस ने अजा-अजजा वर्ग के लिए प्रमोशन में रिजव्रेशन को कैबिनेट में मंजूरी दिलवाकर राज्यसभा में रखा। सुप्रीम कोर्ट ने नागराज और इन्दिरा साहनी केस में एक के बाद एक व्यवस्थाएं दी कि पदोन्नति में आरक्षण संविधान में समता के अधिकार का अतिक्रमण हैं।
सॉलिसीटर जनरल गुलाम वाहनवती की राय में भी यह संविधान विरूद्ध है।
इसके बाद भी कांग्रेस क्यों तुली है। यद्यपि जब वह एक बेसहारा महिला को हक से वंचित (साहबानो केस) करने के लिए संविधान में संशोधन ला सकती है तो प्रमोशन में रिजव्रेशन के लिए क्यों नहीं? लेकिन इस बार स्थिति उलट है। वास्तव में वह इस वर्ग को चाहकर भी लाभ नहीं दे सकती। लेकिन वह लाभ देते हुए दिखना चाहती है। इससे पहले सच्चर आयोग ने मुसलमानों की बरक्कत के लिए सिफारिशें की थी। आज तक एक भी लागू नहीं हुई अलबत्ता, मौके-बेमौके सलमान खुर्शीद जैसे नेता इस मुद्दे को उठाते रहते है। अगले साल कई राज्यों के चुनाव होने हैं। घोटालों से बदनाम और जनाधार के मामले में दीवालिया हो चली कांग्रेस इन्दिरा युग के वोट बैंक को येनकेन प्रकारेण वापस लाना चाहती है। इसके लिए वह किसी भी सीमा तक जा सकती हैं। जातीय उन्माद का वातावरण निर्मित करने से लेकर-समाज को विभाजित करने तक। इसीलिए 15 अगस्त को लालकिले के प्राचीर से डॉ. मनमोहन सिंह के उद्बोधन में असम के मुसलमानों के साथ अत्याचार का जिक्र था, लेकिन मुंबई के आजाद मैदान में मुस्लिम कट्टरपंथियों के नंगा नाच को भूल गए। देश में लगभग 10 से 12 प्रतिशत मुसलमान हैं। अजा-अजजा वर्ग की जनसंख्या 18 से 20 प्रतिशत बैठती है। इस लिहाज से वह 30 से 32 प्रतिशत के वोट बैंक को पुख्ता कर लेना चाहती है।
यदि इन 30 प्रतिशत वोटरों का तीन चौथाई भी मत उसे मिल जाता है तो वह सत्ता के रेसलिंग रिंग में मेन प्लेयर बनी रहेगी। इसीलिए दिग्विजय सिंह जैसे नेताओं का आजमगढ़ आना-जाना तीर्थाटन की भांति होता है और हेमंत करकरे की मौत के पीछे भगवा चरमपंथी नजर आते हैं।
इधर भाजपा जैसे भ्रम में फंसी राजनीतिक पार्टी शायद ही किसी ने देखा होगा। न तो लक्ष्य स्पष्ट न एजेन्डा और न भविष्य का नेता। कथित कट्टरपंथी और नरमपंथी नेताओं व कार्यकर्ताओं के दो पाटों में फंसी है। ले-देकर उसके पास तुरूप के इक्का नरेन्द्र मोदी हैं, पर उनके आगे करने पर तय है कि एनडीए दरक जाएगी। फिर भी एक नीति स्पष्ट दिखती है कि कांग्रेस जितने ही जोरदार शब्दों में मुसलमान बोलेगी भाजपा उससे भी बुलंद आवाज में हिन्दू। आजादी के पहले तक यही काम मुस्लिम लीग और आरएसएस किया करते थे। आजादी के बाद होने वाले हर दंगों में कांग्रेस का एक चिर परिचित आरोप हुआ करता था कि इसके पीछे मुस्लिम कट्टरपंथी संगठनों और आरएसएस का हाथ है।
वोट बैंक हथियाने के निमित्त यही काम आज कांग्रेस और भाजपा खुलकर और बेशर्मी के साथ करने लगे हैं। देश की सामाजिक समरसता और कौमी एकता के नारे कोरी लफ्फाजी और गुजरे जमाने के जुमले बन चुके हैं।
अब आते है ठाकरे परिवार पर। कांग्रेस को आस्तीन में सांप पालने का शगल पुराना है। पंजाब में भिंडरावाले को अकाली दल के प्रभाव को रोकने के लिए पाला पोसा था। उसी तर्ज में महाराष्ट्र में राज ठाकरे को आगे बढ़ा रही है ताकि शिवसेना को लग्गे से लगाया जा सके। पिछले पांच सालों से राज ठाकरे और उनकी मनसे महाराष्ट्र से बाहरी लोगों को भगाने की बात करते हुए उत्तर भारत के गरीब परदेशियों पर जुल्म ढा रही है। देश के संघीय ढांचे और संविधान को चुनौती दी जा रही है। इधर कांग्रेस का आलाकमान अंत:पुर में तालियां बजा रहा है। नक्सलियों पर यही आरोप है कि वे संविधान और कानून व्यवस्था को नहीं मानते व एक कथित शोषित समाज की सत्ता कायम करने में लगे है। इसके परिणाम में उन्हें जेल-गोलियां और मौत मिलती है। राज ठाकरे भी यही कर रहे हैं, लेकिन महाराष्ट्र सरकार उनके आदेश पर पुलिस अधिकारियों की बदली कर देती है। वे जितनी आग उगलते हैं उसी के हिसाब से उनकी रक्षा के लिए कमाण्डों की संख्या बढ़ा दी जाती है। ये दोहरे मापदण्ड क्यों ? यहां संविधान की रक्षा का सवाल क्यों नहीं ? यहां राज्य की सत्ता को चुनौती क्यों बर्दाश्त है? देश की जनता मूर्ख नहीं, वह ऐसे सवालों का जवाब सियासतदारों और सत्ता के दलालों से पूछती रहेगी। डीएमके अपनी स्थापना के साथ ही देश के संघीय ढांचे में फोड़े की तरह लहकता रहा है। हिन्दी विरोध के साथ शुरू हुआ आंदोलन तमिलों का सरपरस्त बनकर थम गया। आज डीएमके को श्रीलंका के तमिलों की चिंता है। वे मलेशिया में तमिलों की स्थिति को लेकर हिन्दुस्तान में आन्दोलन करते है। प्रवासी तामिलों की नाभिनाल भले ही हिन्दुस्तान में गड़ी है पर वे श्रीलंकाई और मलेशियाई पहले हैं। श्रीलंका में या मलेशिया में क्या हो रहा है यह हमारे दखल का विषय नहीं है। जैसे हम किसी दीगर राष्ट्र के दखल को बर्दाश्त नहीं करते वैसा ही अधिकार दूसरे राष्ट्रों का है। श्रीलंका के राष्ट्रपति राजपक्षे भारत आते है तो वे हमारे परम सम्मानीय मेहमान है। उनके साथ होने वाली कोई भी कृतघ्नता के लिए देश जिम्मेवार होगा। क्या डीएमके की राष्ट्र विरोधी और विभाजनकारी हरकतों को इसलिए बर्दाश्त किया जाता रहेगा कि वह यूपीए का अंग है और यूपीए को दोबारा सत्ता में आना है ? आज ये सभी सवाल हर सच्चे देशवासी को विचलित कर रहे हैं, जिसे इस मातृभूमि से अथाह प्रेम है ? क्या अब यह वक्त नहीं है कि हम अपने सियासी दलों को इन्ही सवालों के पैमाने पर तौले और भविष्य का फैसला लें? ये विचार आपके चिंतन मनन के लिए छोड़ रहा हूं..फिलहाल इतना ही।
-लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं। सम्पर्क सूत्र - 09425813208.

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