Thursday, March 14, 2013

सूरज की परिक्रमा मेरे गर्भ से गुजरती है


चिन्तामणि मिश्र 
छब्बीस फरवरी को संसद ने कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ किए जा रहे यौन उत्पीड़न के खिलाफ रोक लगाने सम्बन्धी कानून को पास कर दिया है। इसके तहत ऐसी शिकायतों को नब्बे दिनों के अन्दर निपटारा करना जरूरी बना दिया है। बलात्कार की शिकार महिलाओं को त्वरित न्याय दिलाने के लिए फास्ट कोर्ट भी गठित कर हो गई हैं और बलात्कार के लिए कठोर सजा का भी प्रावधान किया गया है।
सरकार और महिला संगठनों सहित बहुत से सामाजिक संगठनों की सोच है कि इस तरह की व्यवस्था से महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों पर अंकुश लगेगा, किन्तु ऐसा हो पाना आसान नहीं है। हमारे देश में महिलाओं से जुड़े हुए अपराधों के लिए अभी अड़तालिस कानून हैं। जब तक कानून लागू करने वालों की मानसिकता नहीं बदलती और सामाजिक ढांचा पुरुष एकाधिकार की सार्वभौमिकता से बाहर नहीं निकलता तब तक महिलाओं के साथ अन्याय की घटनाएं कम होना सम्भव नहीं है।
जरूरत इस बात की है कि कानूनों का इस्तेमाल इस प्रकार किया जाए कि अपराधिक प्रवृति के लोग खौफ खाए और ऐसे अपराध की जांच करने वाली एजेन्सी हर कदम पर संवेदनशील भी हों ।
यौन शोषण के खिलाफ नया कानून लागू हुए कई सप्ताह बीत गए किन्तु बलात्कार रोज हो रहे हैं। यहां तक कि दिल्ली में ही बलात्कार बन्द होने का नाम नहीं ले रहे हैं। चौबीस घन्टे में सात बलात्कार पुलिस ने दर्ज किए हैं। यह तब हो रहा है जब देश की विभिन्न अदालतों ने बलात्कार के मामलों में सुनवाई और फैसले की अवधि कुछ सप्ताह कर दी है। ऐसा लगता है कि औरतों की मुसीबत में तब तक सुधार नहीं हो सकता तब तक समाज और कानून लागू करने वाले लोगों के भीतर संवेदना का अकाल रहेगा। पुलिस आज तक नागरिकों के मित्र के रूप में अपनी छवि बनाने में कामयाब नहीं हुई है।
दरअसल, हमारे राजनेताओं को पुलिस का जनविरोधी चेहरा ही पसन्द है, क्योंकि अपने स्वार्थ के लिए उनको पुलिस का नाजायज इस्तेमाल करना ही रास आता है। आम आदमी और आम औरत के लिए पुलिस का आचरण भय और मनमानी का है। अभी मुजफरपुर रेलवे स्टेशन पर चलती ट्रेन से एक बुजुर्ग महिला को रेलवे सुरक्षा बल के सिपाहियों न धक्का देकर डिब्बे से बाहर फेक दिया और यह औरत गाड़ी के नीचे आ कर मर गई । इसकी गलती केवल इतनी थी कि उसके पास एक्सप्रेस ट्रेन का टिकिट था और वह गलती से शताब्दी ट्रेन में चढ़ गई थी।
जिन पर सुरक्षा का दायित्व है वे ही लोगों के प्राण ले रहे हैं। यह सरकारी आंतक है क्योंकि इसे सरकार की ही पुलिस कर रही है। ऐसी घटनाएं रोज हो रही है। कौन इनकी नकेल कसेगा? असल में हमने ऐसा वातावरण ही नहीं बनाया जिससे महिलाएं और लड़कियों का अपने शरीर पर हक हो और वे पुरुष हिंसा से मुक्त जीवन जी सके। औरतों को उपभोग की वस्तु समझने की मानसिकता के चलते वे न तो अपने घर में सुरक्षित हैं और न बाहर उनको सुरक्षा मिल पाती है। हम ऐसा समाज बनाने में लगे हैं जहां विज्ञापनों और फिल्मों में औरत को लगभग नग्न दिखा दिया जाता है। हमारे देश के सेन्सर बोर्ड को, मुन्नी बदनाम हुई, शीला की जवानी और मै तंदूरी मुर्गा हूं यार- गटका ले मुङो अलकोहल जैसे गानों से आपत्ति नहीं है। शायद ऐसे गानों को मंजूरी देते समय सेन्सर बोर्ड के मेम्बर मस्त होकर झपकी लेते रहते हैं। एक विज्ञापन में दिखाया जाता है कि कोई विशेष सेविंग क्रीम चुबंन के ही लिए लगाया जाती है। एक विज्ञापन हम सब को चाकलेट खाने की एक अनोखी कला सिखाता है। एक बिस्कुट का विज्ञापन पति को शंका में डाल देता है और वह भागता हुआ घर आता है। एक से जी नही भरता, ये दिल मांगें मोर जैसे वाक्य जब बच्चों और युवाओं के कान में पड़ते हैं तो इनका अर्थ कोई उन्हें नहीं समझता। वे खुद समझ कर अपने तरीके से इसका प्रयोग शुरू कर देते हैं। सड़क पर चलती हर लड़की या औरत उन्हें मुन्नी और चमेली ही नजर आने लगती है। आप कागज पर कानून बनाते रहिए और औरतों लड़किओं का जीना दूभर करते रहिए, समाज की बखिया उधेड़ते रहिए । नतीजा वही होगा जो सामने हैं। हकीकत बेहद कड़वी है, किन्तु जैसा हमारे देश में चल रहा है उससे तो लगता है कि महिलाओं का शारीरिक शोषण करने का माहौल देश की सरकारें ही बना रही हैं। सरकारों ने हर कालोनी,मुहल्लों,गांवों में शराब की दुकानें बड़ी उदारता से खोल दी हैं। मेरी बस्ती में तो मरघट में ही शराब की दुकान खोल दी है। सरकारी रिपोर्टे ही चुगली कर रही है कि अधिकांश यौन अपराधी नशे में पाए गए ।
सरकारें स्कूल और अस्पताल खोलने के लिए पैसा न होने का विधवा विलाप करती है और साकी बन कर जाम भरती है। इसी के साथ हमारे धर्म गुरूओं ने समाज को औरतों के पक्ष में झकझोरने की दिशा में ईमानदारी से अपनी ताकत का इस्तेमाल कभी नहीं किया। इनके प्रवचनों,तकरीरों, में अगले जनम में स्वर्ग तथा जन्नत में प्रवेश करने तथा वहां मनमाफिक सब कुछ करने का प्रवेश पत्र पाने का तरीका तो बताया जाता है, लेकिन इस संसार में सही और सलीके से रहने के लिए ऐसी सिखावन नहीं दी जाती कि लोग इस संसार को भी जन्नत बना ले।
सदियों से अधिपत्य जमाने का अभ्यस्त धर्म भला औरतों को पुरुष समाज के शोषण से आजाद कैसे होने दे सकता है। धर्म की दिलचस्पी शोषण का चक्रव्यूह तोड़ने में नहीं, बल्कि उसे मजबूत बनाने में है। यह कैसी आजादी हमारी हथेलिओं में रख दी गई है कि जिसने सामाजिक चक्रव्यूह को बदला ही नहीं, आज भी औरतों के गोपन अंगों के साथ जोड़ कर सार्वजनिक रूप से गालियां दी जाती हैं। हर गाली में मां-बहिनों के साथ बलात्कार होता है। समाज बलात्कार को आम घटना मान रहा है। प्रत्येक अपराध का बीज समाज में मौजूद होता है। समाज ही उन परिस्थितियों को जन्म देता है जिनसे अपराध के लिए आदमी को बढ़ावा मिलता है। किसी अनाम कवि ने कहा था- मैं औरत हूं/आकाश मेरी बैसाखियों पर टिका है/ इंद्रधनुष मेरी आंखों का काजल है/ सूरज की परिक्रमा मेरे गर्भ से गुजरती है/ पर अफसोस/मेरी अभिव्यक्ति की बयार अभी आना बाकी है।
इस बयार को लाने के लिए समाज और सरकारें सक्रिय हों। अब सरकारों और समाज को बजरबट्टू का खेल दिखाना बन्द करना चाहिए। जरूरत कागजी कानूनोंे की नहीं है, जरूरत है कानून व्यवस्था और समाज की सोच के सड़ांध को विदा करने की।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
सम्पर्क सूत्र - 09425174450. 

2 comments:

  1. इस आलेख के एक एक शब्द से सहमत हूँ !!

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  2. सार्थकता को बयाँ करती बेहतरीन आलेख.

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