मिथिला प्रसाद त्रिपाठी
संस्कृत का सर्वाधिक प्राचीन साहित्य तो वेद ही है,ये भारतीय चिन्तन एवं भारतीय ज्ञान विज्ञान के लिए भी सर्वाधिक प्राचीन प्रामाणिक ग्रन्थ है। उन दिनों भी भारत मंे विज्ञान के कई क्षेत्र विकसित थे। भौतिकषास्त्र, रयायनषास्त्र, वनस्पतिषास्त्र, कृषिविज्ञान, गणितषास्त्र, नक्षत्रविज्ञान, जीवविज्ञान, धातुविज्ञान विज्ञान,आयुर्वेद,स्थापत्य विज्ञान,षिल्पषास्त्र,विमान विज्ञान एवं कलाकौषल का अध्ययन अध्यापन एवं प्रयोग प्रचुरता में मिलता था । वैदिक वाड्.मय में अनेक स्थलों पर विज्ञान के विकसित स्वरूप का विवरण प्राप्त होता है। अष्विनी कुमारों द्वारा उपमन्यु की नेत्रज्योति वापस ला देना,अनसूया द्वारा शाण्डिली के पति को पुनर्जीवित कर देना,विष्पला की टूटी टांग का जोड़ा जाना,दधीचि के कटे षिर को पुनः जोड़ देना,गणेष के षिर को हाथी का षिर कर देना ,दक्ष के अण्डकोष का संयोजन सब चिकित्सा के शीर्ष विकास का ही संदेेष देते है। देवों के अन्तरिक्षयान, दिव्यास्त्रांे की प्राप्ति,इच्छागामी पुष्पक और अन्यान्य विमान,अमृतसंजीवनी विद्या से मरे हुए को जीवित कर देना सब प्राचीन भारत के समृद्ध वैज्ञानिक एवं तकनीकी ज्ञान के प्रमाण से है। भृगुसंहिता में कृषिविज्ञान, जलविज्ञान, खनिज विज्ञान, नौकाविज्ञान, रथविज्ञान, अग्नियान, प्राकारनिवेष, नगरनिवेष और यंत्रषास़्त्र का निरूपण मिलता है।अगस्त्य संहिता (1550 शकब्द) में कापर सल्पेट,कापर प्लेट और जिंक एमलगम के साथ पारा केा मिलाकर विद्युत उत्पन्न करने का सोना,लोहा,तांबा,सीसा,टीन और कांसा का उपयोग बर्तन बनाने मंे किया जाता था और चरक,सुश्रुत,नागार्जुन आदि ने सोना,चांदी,तांबा,लोहा,अभ्रक और पारा आदि से औषधियां बनाने का भी निरूपण किया है। नागार्जुन ने रसरत्नाकर में धातु परिष्करण की आसवन भंजन आदि विधियों का वर्णन किया है। कच्चे जस्ते से शुद्धजस्ता बनाने की विधि चैथी शती ई पूर्व. ही भारत में प्रचलित थी जो राजस्थान के जबर क्षेत्र की खुदाई में मिले द्रव्यों से प्रमाणित हो जाता है। यहाॅ इस्पात श्रेष्ठ रूप में मिलता था। यहाॅ
की बनी तलवारंे अरब देष और फारस देष में प्रसिद्ध थीं। 1600 वर्षाे से बिना जंग लगे खड़ा हुआ महरौली दिल्ली के पास का लौह स्तंभ भारत के प्रगत लौह उद्योग को प्रमाणित करता है। 3000 वर्ष पूर्व भी भारत में मिश्रधातु बनाने की कला विद्यमान थी। इस प्रकार धातुकर्म प्राचीन भारत में प्रगत स्थिति में था।
यन्त्रविज्ञान भी पर्याप्त समृद्ध था 1150 ई.में के.वी. वझे रावसाहब ने समरागंण सूत्रधार का सम्पादन किया था उनके विष्लेषण से यह ज्ञात होता है कि यंत्र ज्ञान बहुत विकसित था।1675 ई. में न्यूटन द्वारा खोजे गए गति के नियमों के समान ही वैषेषिक दर्षन के प्रषस्तपाद में वेग संस्कार का वर्णन है। कणाद ने वैषेषिक दर्षन में कर्म अर्थात् मोषन को कारण के आधार पर जानने नौका विज्ञान भी भारत के सुदूर अतीत में समृद्ध स्थिति में था। समुद्र यात्रा भारत में प्राचीन काल से ही प्रचलित रही है। गुजरात के लोथक की खुदाई से भी यही प्रमाणित हुआ है कि 2450 ई. के पूर्व से ही बंदरगाहों में मिश्र देष से सामुद्रिक व्यापार किए जाते थे। वराह मिहिर (5वी शती ई.) ने बृहत्संहिता में जहाज निर्माण का विवेचन मिलता है। राजा भोज (11 वी शती ई.) ने भी युक्तिकल्पतरू नामक ग्रंथ में जहाज निर्माण का वर्णन किया है। भोज ने जहाज में लोहे का प्रयोग नहीं करने का उल्लेख किया है क्योंकि समुद्री चट्टानों में चुम्बकीय शक्ति के होने की संभावना सदा ही बनी रह सकती थी। आज भी नौ सेना का ध्येय वाक्य ‘‘शंनोवरूणः’’ स्वीकृत है जिसका अभिप्राय है कि वरूण अर्थात् जलदेवता हमारे ऊपर कृपा करे या कल्याण करें। भारत देष ही अंकविद्या या गणित का जन्मदाता है। शून्य और नौ अंकों के संयोजन से अनन्त गणनाएं किए जाने की सामथ्र्य भारत की ही थी। विष्व को दषमलव भी भारत ने ही दिया है। बीजगणित और रेखा गणित भी भारत में ही सर्वप्रथम पैदा हुए है।
बोदागणित को अव्यक्त गणित भी कहा जाता है। वैदिक युग में यज्ञों के मण्डपों वेदियों और कुण्डों का निर्माण करने के लिए गणितीय सूत्रों का प्रयोग होता था। वैदिक युग के मेधातिथि नामक ऋषि ने 1012 तक की बड़ी संख्याओं को जानते थे। वे अपनी गणना में दस संख्या और उसके गुण को का प्रयोग करना जानते थे। यजुर्वेद के 17 वे अध्याय के दूसरे मंत्र में दस खराब तक की संख्या का उल्लेख मिलता है-100000000000 जैन ग्रंथ अनुयोग द्वार सूत्र जो कि 100 वर्ष ई.पू.का है,इसमें 10140 अर्थात् असंख्य तक गणना की
गयी है। 200 वर्ष ई.पू. पिंगल के छन्दः सूत्र में शून्य का उपयोग किया गया था। छटी शती ई.के गणितज्ञ श्रीब्रम्हदत्त ने शून्य विषयक
1. शून्य मंे घटाना या जोड़ना परिणाम नहीं बदलता।
2. शून्य में किसी भी संख्या का गुणा करने पर शून्य ही आता है।
3. कोई संख्या शून्य से विभाजित होने पर परिणाम अनन्त देती है।
आर्यभट्ट,ब्रम्हगुप्त,भास्कराचार्य,श्रीधराचार्य जैसे गणितज्ञ भारत में हुए है। अनिवार्य वर्ग समीकरण का हल यहाॅ के बीजगणित की उपलब्धि है। यह ब्रम्हगुप्त ने सातवी शती ई.में ही प्रस्तुत कर दिया था इसे जान पेल ने 1688 ई. में हल किया जिसे पेल समीकरण कहते है परन्तु यह एक हजार वर्ष के बाद आया।
शुल्ब सूत्रों में वर्ण और आयत बनाने की विधि प्राप्त होती है। भुजा के संबंध को लेकर वर्ग के समान आयत,वर्ग के समान वृत्त आदि का भी इसमें वर्णन मिलता है। त्रिकोण के बराबर वर्ग खींच कर ऐसा वर्ग बनाना जो किसी भी वर्ग को दो गुना,तीन गुना या एक तिहाई हो,ऐसा वर्ग बनाना जिसका क्षेत्रफल उपस्थित वर्ग के क्षेत्र के समान हो- सब-षुल्बसूत्र में उपलब्ध होता है। त्रिकोणमिति का भारत में अनुपम ज्ञान था ज्या,कोटिया,उत्क्रमज्या का आविष्कार हुआ था। छठी शती में वराहमिहिर के सूर्य सिद्धान्त में त्रिकेाणमिति का वर्णन है और सातवी शती ई.के ब्रम्हगुप्त के त्रिकोणमिति विवेचन में ज्या सरणि भी मिलती है।विविध यज्ञों मंे अनेक प्रकार की वेदियां बनायी जाती थीं परन्तु उनका क्षेत्रफल समान ही रहता था। बोधायन ने अपने
शुल्बसूत्र में पायथागोरस से 1000 वर्ष पहले ही उस प्रमेय को बताया था। आर्यभट्ट ने आज से 1500 वर्ष पहले ही पाई का मान 3.1416 बताया था। पुरी के शंकराचार्य आचार्य भारतीकृष्ण तीर्थ ने वैदिक गणित के 16 मुख्य सूत्र एवं 13 उपसूत्रों का विवेचन किया है जिनसे गणना करना बहुत सरल हो जाता है।
भारत में प्रकृति के निरीक्षण और परीक्षण तथा उसके विष्लेषण की परम्परा वैदिक युग से ही रही है। अथर्ववेद में पौधों को उनके आकार एवं लक्षणों को ध्यान में रखते हुए सात उप विभागों में बांटा गया है-1. वृक्ष 2. तृृण 3. औषधि 4. गुल्म 5. लता 6. अवतान 7. वनस्पति पेड़ पौधो में जीवन होने की भारतीय मान्यता का वैज्ञानिक जगदीष चन्द्र बसु ने शोध पूर्वक सत्यापन कर दिया है। पराषर और सुरपाल के वृक्षायुर्वेद में बीज से वृक्ष बनने तक विष्लेषण मिलता है। वनस्पतियों के चार प्रकार का उल्लेख तो चरक ने किया है
1. पुष्प बिना फल आ जाना - गुलर (उदुम्बर) कटहल
2. फूल के बाद फल लगना - आम,अमरूद,आदि वानस्पत्य
3. फल पकने पर स्वयं सूखकर गिरना - गेहूं, यव, चना आदि (औषधि)
4. जिनके तन्तु निकलते है - लताएं आदि।
‘‘या फलिनीर्या अफला अपुष्पा याष्च पुष्पिणी’’ मंत्र में भी चार प्रकार-
पेड़ो का नाम पादप होता है जिससे लगता है कि भारतीय लोग वृक्षों का जडो से द्रवरूपी आहार लेना जानते थे। पेड़ मूल से पानी पीते है। कृषि विज्ञान के रूप में विकसित हुआ और पाराषर ऋषि ने कृषि पाराषर’’ तो लिखा ही है परन्तु चाणक्य ने अर्थ शास्त्र में कृषि एंव उनके उत्पादन,सिंचाई व्यवस्था आदि का वर्णन किया है। दो प्रजातियों से नई प्रजाति को विकसित करना वराहमिहिर की बृहत संहिता में चिकित्सा के विषय में वैदिक ऋषियों ने पर्याप्तचिन्हन किया था। अथर्ववेद में जल चिकित्सा,सूर्यकिरण चिकित्सा और मानसिक चिकित्सा का वर्णन तो मिलता ही है। मणिमंत्र और औषधियों का प्रयोग भी प्राप्त होता है। 600 वर्ष ई. पूर्व चरक का अत्रेय संप्रदाय का ग्रन्थ चरक संहिता एवं शल्यकर्म का ग्रन्थ सुश्रुत संहिता प्राप्त होता है। सर्वप्रथम चरक ने बताया की शरीर में हृदय एक मुख्य अवयव है, वे शरीर में रक्त क्रिया के संचार को भी जानते थे। वे यह भी बताते है कि कुछ बीमारियाॅ आॅखों से अदृष्ट कीटाणुओं से भी होती हंै। उस समय के प्रतीक्षित चिकित्सकों और चिकित्सालयों का वर्णन भी चरक ने किया है। वे सर्वप्रथम चयापचय,पाचन और शरीर प्रषिरक्षा का उल्लेख करते है। शरीर विज्ञान,निदान भू्रण विज्ञान,आनुवंषिकी,षिषुलिंग निष्चय चरक को ज्ञात था। सुश्रुत ने शवविच्छेदन प्रक्रिया को आवष्यक माना है वे शल्य क्रिया के लिए 125 उपकरणों की सूची भी देते है। उनका मत था कि यथावष्यक अन्य उपकरण भी तैयार कर लेना चाहिए वे चिमटियंो,चाकू,सुईयों और नलिका के आकार के उपकरणों का उल्लेख करते है। वे पत्थर निकालने ने टूूटी हड्यिों को जोड़ने और मोतियाबिन्द की शल्यचिकित्सा में दक्ष चिकित्सक थे। संसार में प्लास्टिक सर्जरी के जनक सुश्रुत केा माना जाता है । सुश्रुत संहिता में नाक,हौठ कान आदि की प्लास्टिक सर्जरी का वर्णन मिलता है। आत्रेय ने नाड़ी और श्वास की गति से स्वास्थ रक्षा का विवेचन किया। पतंजलि ने योग से निरोग रहने का उपाय बताया। बुद्ध के चिकित्सक आचार्य जीवक ने असाध्य रोगों की चिकित्सा विधि बतायी। वाड्.मय ने अष्टांग संग्रह एवं अष्टांग हृदय ग्रन्थो का निर्माण किया रोग निदान हेतु माधवकर का रोगविनिष्चय या रूधवनिदान प्रसिद्ध है तथा भावमिश्र का भावप्रकाष भी निघण्टु के साथ ही शालिहोत्र नामक पशुुचिकित्सक के ‘हय आयुर्वेद’ अष्व लक्षणषास्त्र तथा अष्वप्रषस्त्र नामक तीन ग्रन्थ मिलते है। इनमें अष्वचिकित्सा का वर्णन है। पालकाप्य ने हस्ति आयुर्वेद लिखा है जिसमें हाथियों की शरीर रचना और इनके रोगों का विवरण है । रोगों की शल्य क्रिया और औषधि चिकित्सा के साथ देखभाल एवं आहार भी वर्णित है। घोडे,हाथियों,गायों,बैलौं, आदि पशुओं की चिकित्सा भी उन्नत अवस्था में थी। छठी षती ई. पूर्व कणाद ने परमाणुओं से पदार्थ बनाने का ज्ञान दिया और परमाणुओं की संरचना प्रवृत्ति और प्रकरणों की भी चर्चा की थी। रसायन विज्ञान के संस्कृत में लिखित लगभग 44 ग्रन्थों की उपलब्धता है। भारत में रत्नविज्ञान का भी उच्च कोटि का ज्ञान था। भारत में वज्र हीरा मरफत पद्मराग, मोती, महानील, इन्द्रनील, मूंगा, चन्द्रकांत, सूर्यकांत, स्फुटिक, पुष्पराग, ज्योतिरस, सौगंधिक, षंख, गोमेद रूधिर या भल्लातक, तुल्थक, सीस, पीकू प्रवाल, वैदूर्य, गिरिवज्र भुजंगमणि, वज्रमणि आदि रत्नों का प्राचीन
काल में ही ज्ञान था। रत्नों को भूमि या जल से निकालना आभूषणों में जड़ देना और हीरा छेदन का भी उनदिनों ज्ञान था। चार पुरूषार्थांे में काम तीसरा पुरूषार्थ है। काम शास्त्र का 1000 अध्यायों का नन्दी का ही पहला ग्रन्थ है। इसे वाम्रव्य ने 150 अध्यायों में संक्षिप्त कर दिया। वात्सयायन का कामसूत्र सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ है इसमें 36 अध्याय है। चैसठ कलाएं भी इसमें वर्णित है। कुट्टनीमत और रति रहस्य भी दो और ग्रन्थ कामविद्या के प्राप्त होते है। नारद ने षिव से संगीतषास्त्र का अध्ययन किया था नारदषिक्षा,रागनिरूपण,पंचमस्तर संहिता,संगीत मकन्द आदि प्रसिद्ध संस्कृत ग्रंथ है। उमा महेष्वर,भरत,नन्दी,वासुकि,नारद,व्यास आदि संगीत के प्रसिद्ध आचार्य हुए हंै। भृगुषिल्पसंहिता में 16 विज्ञान तथा 64 प्रौद्योगिकीयों का विवेचन प्राप्त होता है। कृष्णाजी दामोदर वझे ने हिन्दी षिल्प षास्त्र नामक ग्रन्थ में 500 प्रौद्योगिकी विषयक ग्रन्थों की सूची दी है। कुछ नाम इस प्रकार है - विष्वमेदिनीकोष, षंखस्मृति, षिल्पदीपिका, वास्तुराजवल्लभ, भृगुसंहिता, मयमतम्, अपराजितपृच्छा, समरांगणसूत्रधारा, कष्यपसंहिता, बृहत्पाराषरीय, कृषिनिसारः, सौरसूत्र, मनुष्यालयचन्द्रिका, राजगृहनिर्माण, दुर्गविधान, वास्तुविद्या, युद्धजयार्णव आदि। काष्यपषिल्प प्रौद्योगिकी का ग्रन्थ है। प्राचीन खनन से संबद्ध भी संस्कृत ग्रन्थ मिलते है- रत्न परीक्षा लोहार्णव धातुकल्प, लौहपदीय, महावज्रभैरवतंत्र तथा पाषाणविचार षिल्पविद्या का ग्रन्थ नारदषिल्पषास्त्र है। संस्कृत वाड्.मय में वेदो से प्रारम्भ कर अद्यावधि अनेकानेक ग्रन्थों की सूची उपलब्ध होती है जिनसे यह प्रतिपादित हो जाता है कि भारत में एक समुन्नत विज्ञान की परंपरा रही है जिन्हे हम आयुर्वेद एवं धर्मषास्त्र में स्वस्थवृत्त यानि यम धर्म कहकर स्वीकारते है। उनकी वैज्ञानिकता स्वास्थ्य रक्षणता सांस्कृतिक निष्ठता एवं सामाजिक संघटनात्मकता के रहस्य भरे पडे़ है। जिन्हें हमने कर्मकाण्ड,आडम्बर,लोकविष्वास,एवं आस्था के नाम पर आज नकारने के लिए तत्पर है उनमें भी गूढ़ वैज्ञानिकता के दर्षन होते है। स्वतंत्र भारत के सातवे दषक में हमें अपने अतीत के ग्रन्थों का आलोडन करना हो और अपने इतिहास के नाम लेखों से भरी हुई,सजी हुई एवं समन्वित संस्कृत भाषा के विपुल वाड्.मय को ध्यानपूर्वक पढ़ना ही होगा । अनेको ऐसे ग्रन्थ है जिनके भारतीय भाषाओं में अनुवाद तक नहीं मिल पा रहे है। तथा कथित आधुनिकता के प्रभाव में बेवस होकर हम सब संस्कृत की परम्परा को भूलने
भी लगे है और उसे नहीं पढ़ रहे है। वास्तु के निघण्टु के रसविज्ञान के चिकित्सा के ज्योतिष के दर्षन के वैदिक वाड्.मय के आरण्यक,ब्राहम्ण,सूत्रग्रन्थों को योजना पूर्वक भारतीय भाषाओं में अनुवाद कराना और प्रकाषन कराना ही पडे़गा। भारतवर्ष के गांवो,वनों और गिरियो में रहने वाली अनेको जातियों के पास वंष परम्परा से सुरक्षित चिकित्सा की विविध पद्धतियों की वैज्ञानिकता को समझकर हमें प्रषिक्षित करना होगा जिससे असाध्य रोगों में काम आने वाली उन वनस्पतियों को पहचानकर बचाया जा सकेगा। ये जीवनरक्षक औषधियां संरक्षित एंव सुरक्षित कर इनके उपयोग से अधिकाधिक व्यय से भी बचा जा सकता है और भारतीय गौरव का उदाहरण भी दिया जा सकेगा। भारतीय मनीषा के इन मानकों के प्रति हमे सचेष्ट होकर प्रकाषित एवं प्रसारित करने हुतु समय आ गया है।
लेखक -पाणिनि विश्वविद्यालय के कुलपति हैं
संस्कृत का सर्वाधिक प्राचीन साहित्य तो वेद ही है,ये भारतीय चिन्तन एवं भारतीय ज्ञान विज्ञान के लिए भी सर्वाधिक प्राचीन प्रामाणिक ग्रन्थ है। उन दिनों भी भारत मंे विज्ञान के कई क्षेत्र विकसित थे। भौतिकषास्त्र, रयायनषास्त्र, वनस्पतिषास्त्र, कृषिविज्ञान, गणितषास्त्र, नक्षत्रविज्ञान, जीवविज्ञान, धातुविज्ञान विज्ञान,आयुर्वेद,स्थापत्य विज्ञान,षिल्पषास्त्र,विमान विज्ञान एवं कलाकौषल का अध्ययन अध्यापन एवं प्रयोग प्रचुरता में मिलता था । वैदिक वाड्.मय में अनेक स्थलों पर विज्ञान के विकसित स्वरूप का विवरण प्राप्त होता है। अष्विनी कुमारों द्वारा उपमन्यु की नेत्रज्योति वापस ला देना,अनसूया द्वारा शाण्डिली के पति को पुनर्जीवित कर देना,विष्पला की टूटी टांग का जोड़ा जाना,दधीचि के कटे षिर को पुनः जोड़ देना,गणेष के षिर को हाथी का षिर कर देना ,दक्ष के अण्डकोष का संयोजन सब चिकित्सा के शीर्ष विकास का ही संदेेष देते है। देवों के अन्तरिक्षयान, दिव्यास्त्रांे की प्राप्ति,इच्छागामी पुष्पक और अन्यान्य विमान,अमृतसंजीवनी विद्या से मरे हुए को जीवित कर देना सब प्राचीन भारत के समृद्ध वैज्ञानिक एवं तकनीकी ज्ञान के प्रमाण से है। भृगुसंहिता में कृषिविज्ञान, जलविज्ञान, खनिज विज्ञान, नौकाविज्ञान, रथविज्ञान, अग्नियान, प्राकारनिवेष, नगरनिवेष और यंत्रषास़्त्र का निरूपण मिलता है।अगस्त्य संहिता (1550 शकब्द) में कापर सल्पेट,कापर प्लेट और जिंक एमलगम के साथ पारा केा मिलाकर विद्युत उत्पन्न करने का सोना,लोहा,तांबा,सीसा,टीन और कांसा का उपयोग बर्तन बनाने मंे किया जाता था और चरक,सुश्रुत,नागार्जुन आदि ने सोना,चांदी,तांबा,लोहा,अभ्रक और पारा आदि से औषधियां बनाने का भी निरूपण किया है। नागार्जुन ने रसरत्नाकर में धातु परिष्करण की आसवन भंजन आदि विधियों का वर्णन किया है। कच्चे जस्ते से शुद्धजस्ता बनाने की विधि चैथी शती ई पूर्व. ही भारत में प्रचलित थी जो राजस्थान के जबर क्षेत्र की खुदाई में मिले द्रव्यों से प्रमाणित हो जाता है। यहाॅ इस्पात श्रेष्ठ रूप में मिलता था। यहाॅ
की बनी तलवारंे अरब देष और फारस देष में प्रसिद्ध थीं। 1600 वर्षाे से बिना जंग लगे खड़ा हुआ महरौली दिल्ली के पास का लौह स्तंभ भारत के प्रगत लौह उद्योग को प्रमाणित करता है। 3000 वर्ष पूर्व भी भारत में मिश्रधातु बनाने की कला विद्यमान थी। इस प्रकार धातुकर्म प्राचीन भारत में प्रगत स्थिति में था।
यन्त्रविज्ञान भी पर्याप्त समृद्ध था 1150 ई.में के.वी. वझे रावसाहब ने समरागंण सूत्रधार का सम्पादन किया था उनके विष्लेषण से यह ज्ञात होता है कि यंत्र ज्ञान बहुत विकसित था।1675 ई. में न्यूटन द्वारा खोजे गए गति के नियमों के समान ही वैषेषिक दर्षन के प्रषस्तपाद में वेग संस्कार का वर्णन है। कणाद ने वैषेषिक दर्षन में कर्म अर्थात् मोषन को कारण के आधार पर जानने नौका विज्ञान भी भारत के सुदूर अतीत में समृद्ध स्थिति में था। समुद्र यात्रा भारत में प्राचीन काल से ही प्रचलित रही है। गुजरात के लोथक की खुदाई से भी यही प्रमाणित हुआ है कि 2450 ई. के पूर्व से ही बंदरगाहों में मिश्र देष से सामुद्रिक व्यापार किए जाते थे। वराह मिहिर (5वी शती ई.) ने बृहत्संहिता में जहाज निर्माण का विवेचन मिलता है। राजा भोज (11 वी शती ई.) ने भी युक्तिकल्पतरू नामक ग्रंथ में जहाज निर्माण का वर्णन किया है। भोज ने जहाज में लोहे का प्रयोग नहीं करने का उल्लेख किया है क्योंकि समुद्री चट्टानों में चुम्बकीय शक्ति के होने की संभावना सदा ही बनी रह सकती थी। आज भी नौ सेना का ध्येय वाक्य ‘‘शंनोवरूणः’’ स्वीकृत है जिसका अभिप्राय है कि वरूण अर्थात् जलदेवता हमारे ऊपर कृपा करे या कल्याण करें। भारत देष ही अंकविद्या या गणित का जन्मदाता है। शून्य और नौ अंकों के संयोजन से अनन्त गणनाएं किए जाने की सामथ्र्य भारत की ही थी। विष्व को दषमलव भी भारत ने ही दिया है। बीजगणित और रेखा गणित भी भारत में ही सर्वप्रथम पैदा हुए है।
बोदागणित को अव्यक्त गणित भी कहा जाता है। वैदिक युग में यज्ञों के मण्डपों वेदियों और कुण्डों का निर्माण करने के लिए गणितीय सूत्रों का प्रयोग होता था। वैदिक युग के मेधातिथि नामक ऋषि ने 1012 तक की बड़ी संख्याओं को जानते थे। वे अपनी गणना में दस संख्या और उसके गुण को का प्रयोग करना जानते थे। यजुर्वेद के 17 वे अध्याय के दूसरे मंत्र में दस खराब तक की संख्या का उल्लेख मिलता है-100000000000 जैन ग्रंथ अनुयोग द्वार सूत्र जो कि 100 वर्ष ई.पू.का है,इसमें 10140 अर्थात् असंख्य तक गणना की
गयी है। 200 वर्ष ई.पू. पिंगल के छन्दः सूत्र में शून्य का उपयोग किया गया था। छटी शती ई.के गणितज्ञ श्रीब्रम्हदत्त ने शून्य विषयक
1. शून्य मंे घटाना या जोड़ना परिणाम नहीं बदलता।
2. शून्य में किसी भी संख्या का गुणा करने पर शून्य ही आता है।
3. कोई संख्या शून्य से विभाजित होने पर परिणाम अनन्त देती है।
आर्यभट्ट,ब्रम्हगुप्त,भास्कराचार्य,श्रीधराचार्य जैसे गणितज्ञ भारत में हुए है। अनिवार्य वर्ग समीकरण का हल यहाॅ के बीजगणित की उपलब्धि है। यह ब्रम्हगुप्त ने सातवी शती ई.में ही प्रस्तुत कर दिया था इसे जान पेल ने 1688 ई. में हल किया जिसे पेल समीकरण कहते है परन्तु यह एक हजार वर्ष के बाद आया।
शुल्ब सूत्रों में वर्ण और आयत बनाने की विधि प्राप्त होती है। भुजा के संबंध को लेकर वर्ग के समान आयत,वर्ग के समान वृत्त आदि का भी इसमें वर्णन मिलता है। त्रिकोण के बराबर वर्ग खींच कर ऐसा वर्ग बनाना जो किसी भी वर्ग को दो गुना,तीन गुना या एक तिहाई हो,ऐसा वर्ग बनाना जिसका क्षेत्रफल उपस्थित वर्ग के क्षेत्र के समान हो- सब-षुल्बसूत्र में उपलब्ध होता है। त्रिकोणमिति का भारत में अनुपम ज्ञान था ज्या,कोटिया,उत्क्रमज्या का आविष्कार हुआ था। छठी शती में वराहमिहिर के सूर्य सिद्धान्त में त्रिकेाणमिति का वर्णन है और सातवी शती ई.के ब्रम्हगुप्त के त्रिकोणमिति विवेचन में ज्या सरणि भी मिलती है।विविध यज्ञों मंे अनेक प्रकार की वेदियां बनायी जाती थीं परन्तु उनका क्षेत्रफल समान ही रहता था। बोधायन ने अपने
शुल्बसूत्र में पायथागोरस से 1000 वर्ष पहले ही उस प्रमेय को बताया था। आर्यभट्ट ने आज से 1500 वर्ष पहले ही पाई का मान 3.1416 बताया था। पुरी के शंकराचार्य आचार्य भारतीकृष्ण तीर्थ ने वैदिक गणित के 16 मुख्य सूत्र एवं 13 उपसूत्रों का विवेचन किया है जिनसे गणना करना बहुत सरल हो जाता है।
भारत में प्रकृति के निरीक्षण और परीक्षण तथा उसके विष्लेषण की परम्परा वैदिक युग से ही रही है। अथर्ववेद में पौधों को उनके आकार एवं लक्षणों को ध्यान में रखते हुए सात उप विभागों में बांटा गया है-1. वृक्ष 2. तृृण 3. औषधि 4. गुल्म 5. लता 6. अवतान 7. वनस्पति पेड़ पौधो में जीवन होने की भारतीय मान्यता का वैज्ञानिक जगदीष चन्द्र बसु ने शोध पूर्वक सत्यापन कर दिया है। पराषर और सुरपाल के वृक्षायुर्वेद में बीज से वृक्ष बनने तक विष्लेषण मिलता है। वनस्पतियों के चार प्रकार का उल्लेख तो चरक ने किया है
1. पुष्प बिना फल आ जाना - गुलर (उदुम्बर) कटहल
2. फूल के बाद फल लगना - आम,अमरूद,आदि वानस्पत्य
3. फल पकने पर स्वयं सूखकर गिरना - गेहूं, यव, चना आदि (औषधि)
4. जिनके तन्तु निकलते है - लताएं आदि।
‘‘या फलिनीर्या अफला अपुष्पा याष्च पुष्पिणी’’ मंत्र में भी चार प्रकार-
पेड़ो का नाम पादप होता है जिससे लगता है कि भारतीय लोग वृक्षों का जडो से द्रवरूपी आहार लेना जानते थे। पेड़ मूल से पानी पीते है। कृषि विज्ञान के रूप में विकसित हुआ और पाराषर ऋषि ने कृषि पाराषर’’ तो लिखा ही है परन्तु चाणक्य ने अर्थ शास्त्र में कृषि एंव उनके उत्पादन,सिंचाई व्यवस्था आदि का वर्णन किया है। दो प्रजातियों से नई प्रजाति को विकसित करना वराहमिहिर की बृहत संहिता में चिकित्सा के विषय में वैदिक ऋषियों ने पर्याप्तचिन्हन किया था। अथर्ववेद में जल चिकित्सा,सूर्यकिरण चिकित्सा और मानसिक चिकित्सा का वर्णन तो मिलता ही है। मणिमंत्र और औषधियों का प्रयोग भी प्राप्त होता है। 600 वर्ष ई. पूर्व चरक का अत्रेय संप्रदाय का ग्रन्थ चरक संहिता एवं शल्यकर्म का ग्रन्थ सुश्रुत संहिता प्राप्त होता है। सर्वप्रथम चरक ने बताया की शरीर में हृदय एक मुख्य अवयव है, वे शरीर में रक्त क्रिया के संचार को भी जानते थे। वे यह भी बताते है कि कुछ बीमारियाॅ आॅखों से अदृष्ट कीटाणुओं से भी होती हंै। उस समय के प्रतीक्षित चिकित्सकों और चिकित्सालयों का वर्णन भी चरक ने किया है। वे सर्वप्रथम चयापचय,पाचन और शरीर प्रषिरक्षा का उल्लेख करते है। शरीर विज्ञान,निदान भू्रण विज्ञान,आनुवंषिकी,षिषुलिंग निष्चय चरक को ज्ञात था। सुश्रुत ने शवविच्छेदन प्रक्रिया को आवष्यक माना है वे शल्य क्रिया के लिए 125 उपकरणों की सूची भी देते है। उनका मत था कि यथावष्यक अन्य उपकरण भी तैयार कर लेना चाहिए वे चिमटियंो,चाकू,सुईयों और नलिका के आकार के उपकरणों का उल्लेख करते है। वे पत्थर निकालने ने टूूटी हड्यिों को जोड़ने और मोतियाबिन्द की शल्यचिकित्सा में दक्ष चिकित्सक थे। संसार में प्लास्टिक सर्जरी के जनक सुश्रुत केा माना जाता है । सुश्रुत संहिता में नाक,हौठ कान आदि की प्लास्टिक सर्जरी का वर्णन मिलता है। आत्रेय ने नाड़ी और श्वास की गति से स्वास्थ रक्षा का विवेचन किया। पतंजलि ने योग से निरोग रहने का उपाय बताया। बुद्ध के चिकित्सक आचार्य जीवक ने असाध्य रोगों की चिकित्सा विधि बतायी। वाड्.मय ने अष्टांग संग्रह एवं अष्टांग हृदय ग्रन्थो का निर्माण किया रोग निदान हेतु माधवकर का रोगविनिष्चय या रूधवनिदान प्रसिद्ध है तथा भावमिश्र का भावप्रकाष भी निघण्टु के साथ ही शालिहोत्र नामक पशुुचिकित्सक के ‘हय आयुर्वेद’ अष्व लक्षणषास्त्र तथा अष्वप्रषस्त्र नामक तीन ग्रन्थ मिलते है। इनमें अष्वचिकित्सा का वर्णन है। पालकाप्य ने हस्ति आयुर्वेद लिखा है जिसमें हाथियों की शरीर रचना और इनके रोगों का विवरण है । रोगों की शल्य क्रिया और औषधि चिकित्सा के साथ देखभाल एवं आहार भी वर्णित है। घोडे,हाथियों,गायों,बैलौं, आदि पशुओं की चिकित्सा भी उन्नत अवस्था में थी। छठी षती ई. पूर्व कणाद ने परमाणुओं से पदार्थ बनाने का ज्ञान दिया और परमाणुओं की संरचना प्रवृत्ति और प्रकरणों की भी चर्चा की थी। रसायन विज्ञान के संस्कृत में लिखित लगभग 44 ग्रन्थों की उपलब्धता है। भारत में रत्नविज्ञान का भी उच्च कोटि का ज्ञान था। भारत में वज्र हीरा मरफत पद्मराग, मोती, महानील, इन्द्रनील, मूंगा, चन्द्रकांत, सूर्यकांत, स्फुटिक, पुष्पराग, ज्योतिरस, सौगंधिक, षंख, गोमेद रूधिर या भल्लातक, तुल्थक, सीस, पीकू प्रवाल, वैदूर्य, गिरिवज्र भुजंगमणि, वज्रमणि आदि रत्नों का प्राचीन
काल में ही ज्ञान था। रत्नों को भूमि या जल से निकालना आभूषणों में जड़ देना और हीरा छेदन का भी उनदिनों ज्ञान था। चार पुरूषार्थांे में काम तीसरा पुरूषार्थ है। काम शास्त्र का 1000 अध्यायों का नन्दी का ही पहला ग्रन्थ है। इसे वाम्रव्य ने 150 अध्यायों में संक्षिप्त कर दिया। वात्सयायन का कामसूत्र सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ है इसमें 36 अध्याय है। चैसठ कलाएं भी इसमें वर्णित है। कुट्टनीमत और रति रहस्य भी दो और ग्रन्थ कामविद्या के प्राप्त होते है। नारद ने षिव से संगीतषास्त्र का अध्ययन किया था नारदषिक्षा,रागनिरूपण,पंचमस्तर संहिता,संगीत मकन्द आदि प्रसिद्ध संस्कृत ग्रंथ है। उमा महेष्वर,भरत,नन्दी,वासुकि,नारद,व्यास आदि संगीत के प्रसिद्ध आचार्य हुए हंै। भृगुषिल्पसंहिता में 16 विज्ञान तथा 64 प्रौद्योगिकीयों का विवेचन प्राप्त होता है। कृष्णाजी दामोदर वझे ने हिन्दी षिल्प षास्त्र नामक ग्रन्थ में 500 प्रौद्योगिकी विषयक ग्रन्थों की सूची दी है। कुछ नाम इस प्रकार है - विष्वमेदिनीकोष, षंखस्मृति, षिल्पदीपिका, वास्तुराजवल्लभ, भृगुसंहिता, मयमतम्, अपराजितपृच्छा, समरांगणसूत्रधारा, कष्यपसंहिता, बृहत्पाराषरीय, कृषिनिसारः, सौरसूत्र, मनुष्यालयचन्द्रिका, राजगृहनिर्माण, दुर्गविधान, वास्तुविद्या, युद्धजयार्णव आदि। काष्यपषिल्प प्रौद्योगिकी का ग्रन्थ है। प्राचीन खनन से संबद्ध भी संस्कृत ग्रन्थ मिलते है- रत्न परीक्षा लोहार्णव धातुकल्प, लौहपदीय, महावज्रभैरवतंत्र तथा पाषाणविचार षिल्पविद्या का ग्रन्थ नारदषिल्पषास्त्र है। संस्कृत वाड्.मय में वेदो से प्रारम्भ कर अद्यावधि अनेकानेक ग्रन्थों की सूची उपलब्ध होती है जिनसे यह प्रतिपादित हो जाता है कि भारत में एक समुन्नत विज्ञान की परंपरा रही है जिन्हे हम आयुर्वेद एवं धर्मषास्त्र में स्वस्थवृत्त यानि यम धर्म कहकर स्वीकारते है। उनकी वैज्ञानिकता स्वास्थ्य रक्षणता सांस्कृतिक निष्ठता एवं सामाजिक संघटनात्मकता के रहस्य भरे पडे़ है। जिन्हें हमने कर्मकाण्ड,आडम्बर,लोकविष्वास,एवं आस्था के नाम पर आज नकारने के लिए तत्पर है उनमें भी गूढ़ वैज्ञानिकता के दर्षन होते है। स्वतंत्र भारत के सातवे दषक में हमें अपने अतीत के ग्रन्थों का आलोडन करना हो और अपने इतिहास के नाम लेखों से भरी हुई,सजी हुई एवं समन्वित संस्कृत भाषा के विपुल वाड्.मय को ध्यानपूर्वक पढ़ना ही होगा । अनेको ऐसे ग्रन्थ है जिनके भारतीय भाषाओं में अनुवाद तक नहीं मिल पा रहे है। तथा कथित आधुनिकता के प्रभाव में बेवस होकर हम सब संस्कृत की परम्परा को भूलने
भी लगे है और उसे नहीं पढ़ रहे है। वास्तु के निघण्टु के रसविज्ञान के चिकित्सा के ज्योतिष के दर्षन के वैदिक वाड्.मय के आरण्यक,ब्राहम्ण,सूत्रग्रन्थों को योजना पूर्वक भारतीय भाषाओं में अनुवाद कराना और प्रकाषन कराना ही पडे़गा। भारतवर्ष के गांवो,वनों और गिरियो में रहने वाली अनेको जातियों के पास वंष परम्परा से सुरक्षित चिकित्सा की विविध पद्धतियों की वैज्ञानिकता को समझकर हमें प्रषिक्षित करना होगा जिससे असाध्य रोगों में काम आने वाली उन वनस्पतियों को पहचानकर बचाया जा सकेगा। ये जीवनरक्षक औषधियां संरक्षित एंव सुरक्षित कर इनके उपयोग से अधिकाधिक व्यय से भी बचा जा सकता है और भारतीय गौरव का उदाहरण भी दिया जा सकेगा। भारतीय मनीषा के इन मानकों के प्रति हमे सचेष्ट होकर प्रकाषित एवं प्रसारित करने हुतु समय आ गया है।
लेखक -पाणिनि विश्वविद्यालय के कुलपति हैं
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