Wednesday, January 18, 2012

समय की खटिया पर पसरा साहित्य

 काल अमूर्त है। हम अपनी कल्पना से उसे मूर्तरूप में विभाजित कर अपने-उत्थान-पतन, यश-अपयश, जय-पराजय का सिलसिला बनाने की कोशिश करते हैं। मानव निर्धारित इस कालगणना में साहित्य के लिए कोई अनुकूल समय तय करना इसलिए सम्भव नहीं है, क्योंकि काल का अपना सापेक्ष दायरा है। ज्ञात इतिहास मे अगर झांके तो, पायेंगे कि समाज के लगभग हर तबके की अपने समय के बारे मे एक राय है किन्तु साहित्यकार जिस राय से इत्तफाक रखते हैं, उस राय के बारे में समाज ने सुना ही न हो। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भारतेन्दु हरिश्चन्द पर लिखे निबंध मे कहा था कि वे आधुनिक हिन्दी साहित्य परम्परा के प्रवर्तक थे। शुक्ल जी की टिप्पणी  समय और साहित्य के सवाल पर बेहद महत्वपूर्ण है। भारतेन्दु का स्थान हिन्दी साहित्य मे उन्होंने इतना महत्वपूर्ण माना कि उन्होने साहित्य के लिए अनुकूल समय की प्रतिक्षा नहीं की बल्कि समय की चुनौतियों के प्रसंग में साहित्य मे गुणात्मक परिर्वतन के वाहक बने। उस समय देश पराधीन चेतनाशून्य संस्कारहीन और भाषा शिथिल था। भारतेन्दु ने इस प्रतिकूल समय में भी साहित्य की प्रासंगिता और उपयोगिता सिद्ध करके दिखा दी। समय के प्रतिकूल होने पर सिर धुनने के बजाय इसे चुनौती समझ कर रचा गया श्रेष्ठ साहित्य उस समय का प्रमाणिक दस्तावेज बन जाता है।
     हमारे साहित्य मे प्रेमचन्द का स्थान इसलिए इतना ऊंचा है कि तत्कालीन समाज का वैसा प्रमाणिक और सूक्ष्म चित्रण कहीं उपलब्ध नहीं है। साहित्य की कसौटी ही है समय की चुनौतियों के बीच अपनी उपयोगिता साबित करना। हमारा आज का समय उदारीकरण के चलते साहित्य को हाशिए मे धकेलने का है। किताबें कचरा माल की तरह हैं। साहित्य सूचना होकर रह गया है। इस भयानक समय मे कालजयी साहित्य का अता-पता नहीं है। आज का समय वैश्वीकरण, आतंकवाद, जातिवाद, भ्रष्टाचार, नारी विमर्श, दलित विमर्श, भोगवाद का है। हमारे समय का एक बडाÞ अंर्तविरोध यह है कि एक तरफ विश्वग्राम का नारा गूंजता है, तो दूसरी तरफ जीवन-जगत की अभिव्यक्ति करने के लिए प्रसिद्ध हो रहे साहित्य को वर्ग, धर्म, वर्ण, लिंग, राजनीति के आधार पर टुकडों मे बांटा जा रहा है। इनमें से हर किसी ने विमर्श की दुकान खोल रखी है। हर कोई साहित्य का वह टुकड़ा हथिया लेना चाहता है, जो उसके मतलब का है। जब ऐसे लोगों के हाथ कोई टुकडा नहीं लगता, तो वह खुद एक नया टोला बना कर उसी को सच्चा साहित्य सिद्ध करने मे लग जाते हैं। इस नजरिये ने साहित्य की अब तक की परम्परों को हाशिये पर डाल दिया है। साहित्य की एक प्रमुख भूमिका यह है कि वह अनुभव और कल्पना के साथ अपने समय का सृजनात्मक इस्तेमाल करते हुए संवेदना तथा मूल्यों का एक सांस्कृतिक क्षेत्र बनाता है। हमारे आज के समय में साहित्य  वर्ण और लिंग के दायरे में सीमित हो रहा है। रचना का विषय किसी से भी सम्बद्ध हो, लेकिन उसमे निजता का विर्सजन करते हुए सबके आस्वाद के लिए जब जगह होती है तभी वह साहित्य कालजयी होता है। साहित्य जब इस रचना प्रकिया की उपेक्षा करता है तो उस साहित्य का दायरा एकांगी और व्यक्ति या समूह विशेष पर केन्द्रित हो जाता है।
    आज दलित और स्त्रीवादी लेखन के नाम पर लिखी जा रही आत्मकथाएं थाना में दर्ज कराने वाली एफआईआर जैसी हैं। इनसे गैर उपभोक्ता पाठक का कोई रिश्ता नहीं बन पाता। आज दलित साहित्य का बड़ा हल्ला है। कोई आत्मकथा लिख रहा है, तो कोई कहानी-उपन्यास लिख रहा है। कविता लिखी जा रही है। कई ऐसे भी हैं जिन्हें पता ही नहीं कि लिखना क्या चाहिये और अम्बेडकर का दर्शन क्या है, फिर भी जो मन में आ रहा है लिखे जा रहे हैं। हिन्दी क्षेत्र में तो मान ही लिया गया है कि अपनी पीड़ा को लिख भर देना दलित साहित्य है। पिछले बीस साल के दौरान हिन्दी में हुआ स्त्री लेखन का विस्फोट अनूठी घटना है। स्त्री लेखन ने कविता कहानी और उपन्यास की विधा में तो उल्लेखनीय हस्तक्षेप किया ही है आत्मकथा लिखने वह गैर दलित पुरुष लेखकों को पीछे छोड़ चुका है। आज कहानी हिन्दी साहित्य की केन्द्रीय विधा है। आज जो कहानियां लिखी जा रही हैं उसमे इतनी विविधता देखने को मिल रही है, जो पहले शायद दुर्लभ थी। समकालीन समय मे उपन्यासकारों ने इस विधा में उथल-पुथल मचाई है। बाजारवादी ताकते , सत्ता और बाजार मिल कर भयानक षड़यंत्र रच रही हैं। ऐसे हालात में इनके प्रतिरोध का बहुमुखी होना आवश्यक है। आज की कविता में इस प्रयास की अनुगंूज है। हमारा यह समय व्यंग रचना के नाम पर चुटकुलों और फूहड़ हास्य से आगे नहीं बढ़ पाया। पुराने व्यंग लेखक जरूर क्रीज पर अभी डटे हैं। हमारा समय कुछ महिला लेखकों की रचना पर अश्लीलता परोशने के आरोप का साक्षी बना है। इस दौर में मुंशी प्रेमचन्द की रचनाओं की होली जली और उनके विरुद्ध कई किताबों और लेखों का प्रकाशन हुआ। हमारा समय पाठक और साहित्य के बीच दूरी में वृद्धि का है। साहित्य तो खूब लिखा जा रहा है, लेकिन जिनके लिए लिखा जा रहा  है उनकी रूचि घटी है।
       हमारा समय चुप्पी गहन अंधकार और गहरी उदासीनता का समय है। अन्नदाताओं की आत्महत्या का समय है। असीमित भ्रष्टाचार का समय है। बाजार की कैद में गंूगे लक्ष्यहीन साहित्य का समय है। साहित्य का समय गहमागहमी में नहीं है। घरेलू   मामूली चीजों में है। प्रेमचंद का महत्व इसी मामूलीपन में है। खेत खलिहान चरवाहे बैल गाय। हमारे समय का रचनाकार इतिहास में शायद सबसे हताश आदमी है। वह शोषण पर व्यंग करता है, अन्याय की परतें उधेड़ता है, सामाजिक विकृतियों पर उंगली रखता है और आदमी की टूट-फूट के छाया चित्र प्रस्तुत करता है, वह मान लेता है कि उसका काम खतम हो गया। हमारे समय का लेखक उसी उपभोक्तावाद का शिकार हो गया है जिसकी विकृतियों का वह चित्रण करता है। मनुष्य की टूटन का चित्रण कर देना ही उसके लिए पर्याप्त साहित्य कर्म है। हमारा यह समय पाठकों के अकाल का समय है। पूंजीवाद और उदारवाद ने आम आदमी की रोजी-रोटी पर संकट डाला है। इस हालत में वह क्या पढेÞगा और क्यों पढेÞगा? पाठकों को प्रोत्साहित करने का काम पुस्तकालय करते थे। आज का समय पुस्तकालय विहीन समय है। पुराने पुस्तकालय धीरे-धीरे मार दिये गए हैं। नए खुल नहीं रहे हैं। पुस्तकालय ने पाठकों का समाज बढ़ाया है। आज का समय टीवी का समय है। इसने पाठक को दर्शक में बदल डाला है। स्कूलों कालेजों में पुस्तकालय के कमरे हैं, जिनमे स्थायी रूप से ताले जड़े हैं। आज का समय वेश्यालय, मदिरालय, भोजनालय, देवालय, शौचालय, रूग्णालय प्रतिक्षालय की  स्थापना का है। आज साहित्य समय की खटिया में पसरा पड़ा है।
                       *** चिन्तामणि मिश्र - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
                              सम्पर्क - 09425174450.

1 comment:

  1. बहुत बढिया चिन्तन है ये मिश्र जी का. बधाई.

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