Wednesday, March 28, 2012

प्रभु जी हम गरीब, तुम पालनहार

tejinder.gagan
पिछले सप्ताह दो खबरें पूरे समाचार जगत में अनर्थ के अंधकार की तरह छाई रहीं। एक तो यह कि नव-धनाढय वर्ग के जीवित देवता श्रीश्री रविशंकर ने यह कहा कि सरकारी स्कूल बंद कर दिए जाने चाहिए और शिक्षा का दायित्व निजी हाथों में सौंप दिया जाना चाहिए और दूसरे योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने 'गरीबी की रेखा' की जो नई परिभाषा गढ़ी, और यह 'सुखद' समाचार दिया कि उनकी गणना के मान से भारत में गरीबों की संख्या में सात प्रतिशत की कमी आई है। उनके बुध्दिजीवी साथियों जिन में लार्ड मेघनाथ देसाई शामिल हैं, ने उनकी इस गणना का समर्थन किया। हालांकि अपनी बात के समर्थन में वे सड़कों पर नहीं उतरे क्योंकि अगर कहीं वे सड़क पर उतर आते तो अपने समर्थन के तर्कों पर उन्हें पुनर्विचार करना पड़ता। गरीब आदमी के चेहरे पर रोशनी लाने में इन अर्थशास्त्रियों के चमकते चेहरे कतई समर्थ नहीं हैं। इस बात को वे भी समझते हैं। 'टाईम्स ऑफ इंडिया' के अपने एक आलेख में बच्ची करकरिया ने श्री मोंटेक सिंह का नाम उचित ही 'मनी टेक सिंह' लिखा है। यह विडंबना है कि भारत के योजना आयोग के उपाध्यक्ष को देश में गरीबी की रेखा के मापदंड को समझने के लिए वर्ष भर में दर्जनों बार संयुक्त राज्य अमेरिका की यात्राएं करनी पड़ती हैं। गरीबी की रेखा गरीब आदमी के चेहरे पर अपनी पूरी पारदर्शिता के साथ दिखाई देती है, उसे पढ़ने के लिए कहीं बाहर जाने की आवश्यता नहीं होनी चाहिए। गरीबी की रेखा गरीब आदमी की धमनियों में धीमी गति से चलती है और उसे पकड़कर उसमें जरूरी खाद-पानी डालना कोई मुश्किल काम नहीं है पर योजना आयोग में बैठे नौकरशाह अपनी गिनती और अपने आंकडों में मुंह छिपाए बैठे रहते हैं और अपना एक छद्म संसार रच लेते हैं। उन्हें लगता है कि देश की पूरी धन सम्पदा का स्रोत वे हैं। वे यह भूलते हैं कि तथ्य इसके ठीक विपरीत है। देश का मेहनतकश आदमी, किसान, मजदूर, रिक्शेवाला, फल और सब्जी के ठेले लगाने वाला, तकनीशियन, छोटा-मोटा सरकारी कर्मचारी-चपरासी, क्लर्क और लेखापाल, यह सारी जनता जो शहरों में, पहाड़ों पर और समुद्र के किनारे पर मछली पकड़ने वाले मछुआरे- ये सब जो काम करते हैं और टैक्स भरते हैं, यह सारा पैसा उनका है, जिस पर उनका हक बनता है। देश की लोकतांत्रिक प्रणाली के तहत योजना आयोग सिर्फ एक संस्था है और उसका काम जनता के इस पैसे का हिसाब रखते हुए ऐसी नीतियां बनाना है कि देश का अर्थतंत्र विकसित हो सके या फिर इस बात की तटस्थ मीमांसा करना भी है कि किस राज्य ने किन योजनाओं के तहत आबंटित पैसे का उपयोग अपने राज्य की दूरगामी जन कल्याण योजनाओं के लिए खर्च किया है कि उनके राज्य के आम आदमी के जीवन-स्तर में पर्याप्त सुधार आ सके। योजना आयोग को राज्यों को उनके संसाधनों के मुताबिक पैसा आबंटित करना चाहिए न कि राजनैतिक पक्षधरता से या उस तरह कि जैसे हम किसी भिखारी को उस तरह से पैसे दें कि वह भीख मांगने का एक नया कटोरा खरीद सके। सारी गडबड़ी गरीबी की रेखा मापने के हमारे मानदंडों में है। संभवत: यह एक मानदंड है कि अगर किसी व्यक्ति के पास इतने संसाधन हैं कि वह एक नियत मात्रा में 'कैलोरींज' ले सकता है तो वह गरीब नहीं हैं। पता नहीं किन विवेकहीन लोगों की यह सोच थी या इसका वैज्ञानिक आधार क्या था पर एक मामूली तरह से सोचने वाले व्यक्ति की समझ में भी जो बात आती है वह यह कि- एक आदमी के पास रहने के लिए छत न हो, पहनने के लिए कपड़ा न हो, जिसकी सारी इच्छाएं मर चुकी हों, जो बहुत दूर तो क्या अपने पास तक देख न सकता हो, उसके पास कमाई का कोई साधन न हो- उसे कुछ 'कैलोरींज' देकर क्या कोई भी सरकार अपने कर्तव्य की इतिश्री कर सकती है। चूंकि यह किसी एक व्यक्ति का किस्सा नहीं है- सैकड़ों, हजारों, लाखों, करोड़ों की तादाद में, पूरे देश में एक बहुत बडा गरीब तबका गरीबी की उनकी खींची हुई रेखा के नीचे जीवनयापन करने पर विवश है, तो निश्चित ही यह सरकार की गलत आर्थिक नीतियों का नतीजा है। इन नीतियों को सुधारने की जगह सरकार उन पर पर्दा डालने की कोशिश लगातार करती है और यह आम आदमी को दिखाई दे रहा है पर योजना आयोग को दिखाई नहीं देता क्यों? ऐसे ही जैसे कि श्रीश्री रविशंकर को यह दिखाई नहीं देता कि देश के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे गरीबी की हालत में भी पढ़ तो रहे हैं। उनके पास साधन नहीं है फिर भी एक प्राथमिक पाठशाला उन्हें शरण देती है। जिस निजी क्षेत्र की शिक्षा की बात श्रीश्री रविशंकर करते हैं वहां तो पैसा मनुष्य को रौंदता हुआ चलता है। वे स्कूल तो अमेरिका से संचालित होते हैं, उनका तो भारतीयता और भारतीय जीवन तथा उसकी मूल्यबध्दता से कुछ भी लेना-देना नहीं है। श्रीश्री कहते हैं कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे नक्सली होते हैं। यह घोर आपत्तिजनक बात है और साथ ही झूठ भी। सच बात तो यह है कि जिस तरह देश में शिक्षा का निजीकरण हुआ है और एक नया युवा आभिजात्य वर्ग सामने आया है, जिसका देश की जड़ों के साथ कुछ भी लेना-देना नहीं है, उसके प्रतिफलन के रूप में नक्सलवाद का फैलाव हुआ है। आप देश के सारे निजी शिक्षण संस्थान बंद कर दीजिए और अमीर या गरीब की परवाह किए बगैर सबको शिक्षा के समान अवसर दे दीजिए तो आप देखेंगे कि नक्सलवाद की रेखा, अपने आप ही आप की हथेलियों से गायब होती दिखेगी।
इस बीच अन्ना हजारे ने एक बार फिर जन-लोकपाल बिल के लिए नई दिल्ली में एक दिन का सांकेतिक अनशन किया है। यह न केवल आश्चर्यजनक है बल्कि दु:खद भी है। देश की संसद को गौण करने की कोई भी कोशिश अंतत: एक तरह का राष्ट्र-द्रोह ही कहलाएगी। यह अलग बात है कि अगर आप को पूरी ईमानदारी से यह लगता है कि संसद में कुछ ऐसे लोग पहुंच जाते हैं जिनका आचरण नैतिक मूल्यों पर खरा नहीं उतरता या जिनका लोक-जीवन संदिग्ध है तो आपको उसके लिए जन-चेतना जागृत करने का काम करना चाहिए पर यह एक भोली सी इच्छा होगी क्योंकि आपके साथ तो श्रीश्री और बाबा रामदेव जैसे लोग खड़े है जिनका अपना नैतिक-संदेश ही संदिग्ध है या फिर आपके साथ अरविन्द केजरीवाल और सुश्री किरण बेदी हैं जो स्वयं नौकरशाह रहे हैं और अपना टैक्स समय पर न देने और फर्जी दौरा बिल भरने के आरोप झेल रहे हैं। अन्ना हजारे को देश की आम जनता की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि जनलोकपाल बिल कोई ऐसा जादू का पिटारा नहीं है कि खुल जा सिमसिम कहते ही अलादीन का कोई चिराग बाहर आ जाएगा और देश की सभी समस्याओं का निदान कर देगा। यह पहला कदम भी नहीं है- पहला कदम है गरीबी की रेखा का पुनर्निर्धारण और सभी को शिक्षा के समान अवसर मुहैया कराना। जब तक यह नहीं हो जाता तब तक तो यह ठीक है कि - 'प्रभु जी हम गरीब, तुम पालनहार-'
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