Wednesday, June 27, 2012

भाजपा की मजबूरी, मोदी जरूरी


 चिन्तामणि मिश्र
दि ल्ली और गुजरात में नरेन्द्र मोदी को निशाना बनाते हुए पोस्टर जारी किए गए हैं, इनमेंं भाजपा की कथनी और करनी को कठघरे में खड़ा करके आइना दिखाया गया है। इसके  पीछे मुम्बई में हुई भाजपा की राष्टÑीय कार्यकारणी की बैठक के पूर्व संजय जोशी से इस्तीफा लेकर मोदी को मनाने और बैठक में उनके आगमन की शर्त पूरी करने के लिए किए गए समर्पण की रोमाचंक महाभारत का अगला एपीसोड है। भाजपा अध्यक्ष गडकरी जिस तरह मोदी के आगे लाचार दिखे, उससे पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व की कमजोरी ही साबित हुई है। पिछले एक दशक से कुछ अधिक समय से गुजरात पर राज करने के कारण भाजपा के लिए मोदी बहुत मायने रखते हैं किन्तु भाजपा नेतृत्व ने मुम्बई में जैसी हरकत की है उससे तो प्रत्यक्ष में  एक ही अर्थ निकलता है कि मोदी का कद पार्टी से भी बड़ा हो गया है। अब कार्यकारणी की बैठक के बाद जैसी रस्साकशी चल रही है उससे भी आभास होता है कि पार्टी के भीतर सब कुछ  सही नहीं है। आडवाणी ने अपने ब्लॉग में पार्टी अध्यक्ष गडकरी की आलोचना की है। पार्टी के मुख पत्र कमल सन्देश ने सम्पादकीय में मोदी का नाम लिए बगैर लिखा कि किसी के ऐसे व्यवहार से पार्टी नहीं चल सकती, कि सिर्फ उसकी चलेगी,नहीं तो किसी की नहीं चलेगी। अखबार ने नरेन्द्र मोदी को निशाना बनाया है। उधर आरएसएस का अखबार आर्गनाइजर कमल सन्देश से अलग राह पकड़ते हुए मोदी के पक्ष में खड़ा हो गया है। आम सहमति और सामूहिक विचार-विमर्श से चलने के दावे पर सवालिया निशान लग गया है। अब भाजपा में निजी महत्वाकांक्षा तथा अहं की लड़ाई सतह पर आ गई है। कहा जाने लगा है कि राष्टÑीय अध्यक्ष गडकरी ने मोदी के हाथों में पार्टी का गिरवीनामा सौंप दिया है।
  मोदी पर भाजपा के और अन्य दूसरे दल के नेता तानाशाह होने का आरोप लगा कर हर हाल में उन्हें गुजरात तक में ही सीमित देखना चाहते हैं। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को इस भय का भूत चैन नहीं लेने दे रहा कि अगर राष्टÑीय राजनीति में मोदी ने घुसपैठ कर ली तो उन्हें बौना बना कर गमलों में रोप दिया जाएगा। उधर मोदी को कांगे्रस, वामपंथी, सपा, बसपा और  एनडीए के अन्य घटक दल अपने लिए खतरा मानते हैं। मोदी को गुजरात नर-सहांर का खल-नायक घोषित करके मोदी फैक्टर की हर मौके बे-मौके हवा निकालने में जुटे रहते हैं। हालात यह बन गए हैं कि मोदी से उनकी पार्टी और अन्य पार्टियां भयभीत हैं। मोदी की कार्यशैली में तानाशाही की झलक से किसी को इंकार नहीं हो सकता है, किन्तु भारतीय राजनीति में मोदी पहले तानाशाह नहीं हैं। महात्मा गांधी ने कांग्रेस के त्रिपुरी अधिवेशन में अध्यक्ष के अपने उम्मीदवार डॉ. सीता रमैया की सुभाष बोस के हाथों हुई पराजय को अपनी पराजय कहा था। सुभाष बोस को कांग्रेस छोड़नी पड़ी। नेहरू ने प्रधानमंत्री बनते ही गांधी के ग्रामस्वराज को नकार दिया और पूर्व में पारित इस प्रसंग की गाइड लाइन से हट कर अपने मन के कार्यक्र म चलाए। पार्टी की कार्यसमिति और अध्यक्ष की उपेक्षा करते रहे। सरदार पटेल को हाशिए पर धकेल दिया। इन्दिरा गांधी की तानाशाही आपातकाल के नाम से इतिहास में दर्ज है। तानाशाही तो मनुष्य के गर्भनाल से ही जुड़ी रहती है। हमारे राजनेता भी तो मनुष्य ही हैं। वैसे भी सबकी राय और सब को साथ लेकर चलने का सिद्धांत किताबी होता है। इसे व्यवहारिक नहीं बनाया जा सकता है।
वैसे सत्ता हो या पार्टी संचालन मोदी की अपनी अलग शैली है। इसे भाजपा का शीर्ष नेतृत्व प्रारम्भ से ही जानता है। मोदी को पहली बार गुजरात का मुख्यमंत्री बनाए जाने के लिए बुलाई कई कोर कमेटी की बैठक में जब मोदी का नाम आया तो तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने विरोध जताते हुए कहा था कि ‘यह गलती मत करना। अगर यह मुख्यमंत्री बन गया तो सिर पर पिस्तौल रख कर फैसले करवाएगा।’ गुजरात दंगों के बाद अपने गुजरात दौरे में वाजपेयी ने मंच पर मोदी की उपस्थिति में कहा था कि मोदी को राजधर्म निभाना चाहिए था। मोदी पर गुजरात दंगों का भूत चस्पा है, किन्तु ऐसे शर्मनाक दंगों की देश में कमी नहीं रही। दिल्ली में सिख विरोधी दंगे क्रांगे्रस के शासन काल में हुए जिसमें सिखों का नरसंहार बड़ी संख्या में किया गया। मेरठ में कई सैकड़ा अल्पसंख्यक युवकों को तत्कालीन कांग्रेसी सरकार की पुलिस ने दंगों की प्रतिक्रिया में गोली मार दी थी। मुम्बई में बाबरी मस्जिद के ढहाने के बाद शरू हुए दंगों की श्रृंखला में तत्कालीन कांग्रेस सरकार की पुलिस को श्रीकृष्ण आयोग ने जिम्मेवार बताया था। हमारे राजनेता ऐसी कलाबाजी करते रहते हैं जिसमें विपक्षी की वही करतूत उन्हें अनैतिक और अपराधिक लगती है जिसें वे स्वंय अवसर मिलने पर करने से नहीं चूकते।
भाजपा अगले लोकसभा चुनाव को लेकर सहमी है। उसके पास जनता को प्रभावित करने वाले मुद्दों और करिश्मा दिखाने वाले प्रचारकों का अकाल है। ऐसा लगता है कि मुम्बई में जोशी का इस्तीफा और दिल्ली में पोस्टरबाजी के बाद जोशी की भाजपा से विदाई सोची-समझी और काफी होम-वर्क करने के बाद उठाया हुआ कदम है। राजनीति में जो दिखाई देता है या फिर जो सुनाई देता है वह अधूरा सच होता है। फिर से सत्ता पर काबिज होने की सम्भावनाओं के अभाव में भाजपा की मोदी की   पालकी उठाना मजबूरी है। राजनैतिक हलचलों पर नजर रखने वाले समझ गए हैं कि भाजपा में  मोदी युग की शुरूआत हो चुकी है। अब भाजपा हिन्दुत्व की जमीन पर खड़े होकर आगामी लोकसभा चुनाव का सामना करेगी। आरएसएस तो वर्षों से हिन्दुत्व का सपना देख रहा है और उसका लक्ष्य भाजपा को दिल्ली के सिहांसन पर आसीन कराना है। मोदी में ऐसे गुण हैं। यह अलग बात है कि फिर देश की एकजुटता का क्या होगा? साम्प्रदायिक धु्रवीकरण में खतरा तो होता ही है। मोदी को महत्व देने का फैसला गडकरी जैसे आंचलिक जनाधार वाले नेता का नहीं हो सकता, भले ही वे पार्टी के राष्टÑीय अध्यक्ष के आसन पर बैठे हैं। मोदी स्वतंत्र स्वभाव के और पिछड़े वर्ग के अनुभवी नेता हैं। कल्याण सिंह, उमा भारती और येदियुरप्पा जैसे पिछड़े वर्ग के नेताओं से अलग उन्होंने अपना प्रभा-मंडल बना रखा है। मोदी भाजपा के लिए मजबूरी ही सही किन्तु जरूरी हैं।
                                  - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
                                     सम्पर्क  सूत्र -09425174450.

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