Wednesday, June 27, 2012

गठबंधन की अंधी सुरंगों में


  जयराम शुक्ल
रा ष्टÑपति के चुनाव की प्रक्रिया के साथ ही देश में जो राजनीतिक परिदृश्य उभरा है उसे देखते हुए लगता है कि जनता की तमाम उकताहट के बावजूद भी यूपीए का फिलहाल कोई विकल्प नहीं। एनडीए की धार भोथरी हो चुकी है और उसके गठबंधन में घुन लग चुका है। तीसरे विकल्प की स्थिति अलग-अलग दिशा में दौड़ने वाले घोड़ों के रथ जैसी है। कुल मिलाकर राष्टÑपति चुनाव में यूपीए के प्रत्याशी प्रणव मुखर्जी की एकतरफा जीत तय है। संगमा महज नामचार के प्रत्याशी साबित होंगे और राजनीतिक पटल में एनडीए खासकर भाजपा की भद्द पिटनी तय है। राष्टÑपति चुनाव के बाद यूपीए-टू हर वह ख्वाहिश पूरी करेगी, जो लेफ्ट की लगाम के चलते यूपीए-वन में नहीं कर पाई थी। मसलन रिटेल सेक्टर में एफडीआई (फॉरेन डायरेक्ट इनवेस्टमेंट) का फैसला। कई सार्वजनिक उपक्रमों में विनिवेश, बीमा, शिक्षा, विधि और मीडिया क्षेत्र में विदेशी निवेशकों के दरवाजे खुलेंगे, ये फैसले एक के बाद एक होंगे और जब तक यूपीए के घटक विद्रोह का मूड बना पाएंगे, एनडीए एकजुट हो पाएगा और तीसरे मोर्चे की रूपरेखा बन पाएगी। तब तक यूपीए का शेष कार्यकाल भी पूरा हो जाएगा। इसके बाद अगले चुनाव में आप जाने,अपका भाग्य जाने।
विचार बनाम - मौकापरस्ती
देश में जब से गठबंधन सरकारों का दौर चला है तब से छोटे-छोटे दलों ने सत्ता की भूख के चलते विचारों को तिरोहित कर दिया और मौकापरस्ती ही स्थायी भाव हो गया। करुणानिधि, अजीत सिंह, फारुख अब्दुल्ला, पासवान जैसे नेताओं की पार्टियां एनडीए की हिस्सा थीं और यूपीए की भी हैं। तीसरे मोर्चे के गठबंधन के सत्ता के आसार बने तो ये लोग वहां भी हाजिर मिलेंगे। जब गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हुआ तब एक आशा जगी थी कि अब सही मायने में फेडरलिज्म देखने को मिलेगा व एक दल की स्वेच्छाचारिता का अंत हो जाएगा। लेकिन समय के साथ इनकी विकृतियां सामने आने लगीं। आज छोटे राजनीतिक दल सत्ता के स्टेक होल्डर बनकर रह गए हैं। इनका कोई ईमान-धरम और अपने वोटरों के प्रति जवाबदेही नहीं बची। मायावती और मुलायम भी दिल्ली में एक घाट में पानी पीते नजर आते हैं, वजह भ्रष्टाचार के आरोप और सीबीआई का डर। भविष्य में क्षेत्रीय और छोटे दलों की मौकापरस्ती के नए पैतरे देखने को मिलेंगे। इन पैतरों में सपा का समाजवाद और बसपा का बहुजनवाद चारों खाने चित्त मिलेगा।
भाजपा-कांग्रेस की जीरॉक्स
चारित्रिक रूप से देखें तो भाजपा और कांग्रेस में कोई बुनियादी फर्क नजर नहीं आता। ये तो भाजपा के बड़े-बुजुर्ग नेता भी कहने लगे हैं कि हमने कांग्रेस के सारे दुर्गुण आत्मसात कर लिए हैं और पार्टी कांग्रेस की प्रतिकृति बनकर रह गई है। कांग्रेस सोनिया गांधी के दस जनपथ के पिंजरे में कैद है तो भाजपा नागपुर के केशव कुटी में। मोहन भागवत यदि नितिन गडकरी को पार्टी के ऊपर थोपते हैं तो कार्यकर्ताओं की यह मजबूरी है कि न चाहते हुए भी उन्हें ढोएं। देश के दोनों राजनीतिक दलों का आंतरिक लोकतंत्र न जाने कब का मर चुका है। मरे हुए बछड़े में भुस भरकर जैसे गाय को धोखे में रखा जाता है उसी तरह दोनों पार्टियां अपने आंतरिक लोकतंत्र के मामले में देश को धोखे में रखे हुई हैं। कभी कांग्रेस के लिए यह मशहूर था कि उसे लड़ने के लिए विपक्ष की जरूरत नहीं, खुद ही एक-दूसरे को निपटाने के लिए समर्थ हैं। वही हाल भाजपा का है। भाजपा के साथ एक मुश्किल और है। वह यह कि संघ राजनीति से निरपेक्ष रहने का ढोंग करते हुए राजनीतिक फैसले थोपता है जबकि कांग्रेस में ऐसा खुल्लम खुल्ला होता है। दस जनपथ ने कहा कि यह आम नहीं इमली है तो ब्लाक इकाइयों तक आम नहीं इमली का संदेश पहुंच जाता है और कार्यकर्ता सोनिया जी के निर्देश पर आम के नीचे बैठकर सर्वसम्मति से इमली का प्रस्ताव पारित कर आलाकमान के अंतिम निर्णय के लिए भेज देते हैं। सो, अगली सरकार चाहे भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए की बने या फिर कांग्रेस की अगुआई में यूपीए-तृतीय का खेल शुरू हो, राजकाज, तौर तरीकों में कोई बुनियादी फर्क नहीं आने वाला।
तीसरा विकल्प फिलहाल गल्प
 यूपीए-टू के घपले घोटालों से उकताए लोगों ने जैसे ही एनडीए की ओर आशा भरी नजरों से देखना शुरू किया वैसे ही प्रधानमंत्री को लेकर यहां भी घमासान शुरू हो गया। एक लोकप्रिय कहावत है - सूत न कपास जुलाहों में लट्ठमलट्ठ। बैठे ठाले अपनी फजीहत कैसे कराई जाती है यह कोई भाजपा से सीखे। पिछली मर्तबे लालकृष्ण आडवाणी को पीएम इन वेटिंग घोषित करके अपने बुजुर्ग नेता की जगहंसाई करवाई थी, इस बार नरेन्द्र मोदी खुद ही पीएम इन वेटिंग बनकर आगे आ गए। एनडीए के प्रमुख घटक जदयू के नीतिश कुमार ने लंगड़ी मार दी और राष्टÑपति चुनाव में भाजपा से अलग रास्ते पर चल पड़े। ऐसे में तीसरे विकल्प की ओर नजरें जमती हैं। यूपी को फतह करने के साथ ही मुलायम सिंह को उनके अनुयायियों ने तीसरे विकल्प के रहनुमा की तरह पेश किया पर यह रहनुमा जिस तरह दिल्ली दरबार में जाकर बिछ गए उससे उम्मीदों पर तुषारापात हो गया। दक्षिण के क्षेत्रीय दलों में देवगौड़ा के पास दम नहीं बचा। चन्द्रबाबू हैदराबाद में सिमटकर रह गए। नवीन पटनायक अपनों के विद्रोह से जूझ रहे हैं। महारानी जयललिता, करुणानिधि से   अपने पुराने हिसाब चुकता करने में लगी हैं। मायावती को कभी तीसरा विकल्प रास ही नहीं आया और देवी ममता बनर्जी मछली की भांति चंचला हैं। कब किधर गोता लगा दें कोई अनुमान नहीं लग सकता। वैसे तीसरे विकल्प का सपना बिना लेफ्ट के पूरा नहीं हो सकता। राष्टÑपति चुनाव में भाकपा और फारवर्ड ब्लाक, माकपा से अलग सुर साध रहे हैं। इसलिए तीसरे विकल्प की चर्चा करना भी फिलहाल गल्प की ही तरह है। एक उम्मीद यह बन सकती है कि शरद पवार यूपीए से निकलें और नीतीश एनडीए से, जैसा कि रह-रहकर संकेत देते हैं तो तीसरे विकल्प का कुछ आकार उभर सकता है। पर यहां भी प्रधानमंत्री कौन...? को लेकर गोटी फंसेगी, क्योंकि मुलायम को लेना अनिवार्य होगा, ऐसे में इन तीनों महत्वाकांक्षियों के बीच तय हो पाना मुश्किल होगा कि कौन किसका नेता है।
लेफ्ट की लगाम वाली यूपीए
राष्टÑपति के चुनाव को लेकर यूपीए की स्थिति अप्रत्याशित रूप से सुधरी है। शेष कार्यकाल के यद्यपि अभी दो साल बाकी हैं लेकिन अब 24 अकबर रोड की बुझी हुई आंखों के दहाने से हल्की चमक दिखने लगी है। स्थितियां ऐसी ही बनी रहें तो अगले चुनाव में थोड़े नुकसान के साथ यूपीए आ सकती है। ममता बनर्जी से जिस तरह तेजी से मोह भंग हुआ है उसके विकल्प में कांग्रेस का एक वर्ग लेफ्ट की ओर निहार रहा है। भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार को रोकने के लिए लेफ्ट न चाहते हुए भी यूपीए के साथ आ सकता है।  लेफ्ट के लगाम वाली यूपीए-प्रथम की सरकार ने बेहतरीन नतीजे दिए हैं, सो ऐसी स्थिति फिर से बन जाए तो आश्चर्य नहीं। वैसे गठबंधन की अंधी सुरंगों में बैठे देश को फिलहाल कोई दूसरा छोर नजर नहीं आ रहा है।
                       - लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं।
                     सम्पर्क - 09425813208.

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