Monday, March 4, 2013

ऊंचे कद की बौनी सियासत


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 राजनीतिक दलों में वैचारिक दीवालियापन आता है तो व्यक्तिवादी राजनीति सिर चढ़कर बोलती है। भाजपा के पास कोई मुद्दे नहीं, मंदिर, भ्रष्टाचार और आतंकवाद जैसे मुद्दों पर वह एक कदम आगे बढ़कर ढाई कदम पीछे हटने जैसी स्थिति में है। मोदी वस्तुत: भाजपा के वैचारिक संक्रमण काल की उपज हैं। कॉरपोरेट और मीडिया के एक वर्ग ने उनका ऐसा विराट व्यक्तित्व रच दिया कि भाजपा उन्हीं की छाया में विश्राम पाने लगीं।
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आयरिश चिन्तक एचजी वेल्स विज्ञान की फंतासी कथाओं के लिए प्राख्यात रहे हैं। वे नये-नये यंत्रों की परिकल्पना को कथा का आधार बनाते थे। एक कथा में एक ऐसे यंत्र की परिकल्पना की जो आपके मनोभाव को पढ़कर बता देती है।
सुविधा के लिए आप उसे पोल खोलक यंत्र कह सकते हैं। यदि पोलखोलक यंत्र  आपके हाथ लग जाए और आप भाजपा के शीर्ष नेताओं के पास टेस्ट करने पहुंच जाए तो पता चल जाएगा कि अपने नरेन्द्र भाई मोदी को वाकई कितने लोग चाहते हैं। मंच में जो लोग मोदी का कशीदा काढ़ते नहीं थक रहे हैं, क्या वास्तव में वो मोदी को अपना नेता मानते हैं। आडवाणी, राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, मुरली मनोहर जोशी, नितिन गडकरी से लेकर यशवंत सिन्हा तक सब मोदी के वर्णित कद और व्यक्तित्व से इतने भयाक्रांत हैं कि राष्ट्रीय अधिवेशन में इन सबको नमो-नमो भजना पड़ा।
किसी संस्था का एक व्यक्ति के सामने बौनी हो जाना उस संस्था के पतन की शुरुआत है। भले ही आज कई राज्यों में भाजपा की सरकारें हों और अगली बार फिर चुनकर आ जाए लेकिन एक संस्था के रूप में भाजपा का तेजी से होता क्षरण फिलहाल रुकने वाला नहीं। नरेन्द्र भाई मोदी ने गुजरात में जो व्यक्तिवादी राजनीति का रास्ता दिखाया है उसी के नक्श-ओ- कदम पर मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ भी चल पड़े हैं। कर्नाटक में यदुरप्पा पर निर्भरता का हश्र पार्टी भोग ही रही है। दरअसल राजनीतिक दलों में वैचारिक दीवालियापन आता है तो व्यक्तिवादी राजनीति सिर चढ़कर बोलती है। भाजपा के पास कोई मुद्दे नहीं, मंदिर भ्रष्टाचार और आतंकवाद जैसे मुद्दों पर वह एक कदम आगे बढ़कर ढाई कदम पीछे हटने जैसी स्थिति में है।
पर परमाणु डील के मसले पर अविश्वास प्रस्ताव के दौरान भाजपा सांसदों द्वारा नोटो के प्रदर्शन के बाद लालकृष्ण आडवाणी भ्रष्टाचार के खिलाफ ‘भुज उठाइ प्रण कीन्ह’ के संकल्प के साथ देश में एक नई रथ यात्रा के साथ निकले पर उन्हें कदम-कदम पर अपने ही पार्टी के भ्रष्ट नेताओं व उनकी शिकायतों का पुलिंदा बांचने को मिला। मध्यप्रदेश के सतना आते-आते तो उन्हीं के नजरों के सामने ..कैश फॉर कवरेज.. हुआ। भाजपा की राज्य सरकारों के बड़े घोटाले सामने आए।
कर्नाटक के रेड्डी बंधुओं की निकटता ने लोकसभा में सुषमा स्वराज की धार भोथरी कर दिया। एनडीए सरकार के समय के एनरान घोटाला, विनिवेश घोटाला से लेकर ताजा तरीन हेलीकाप्टर घोटाले से उसके तार जुड़े। अब हम यह कैसे मान लें कि घोटालों ठीहे पर खड़ी कोई पार्टी दूसरी घोटालेबाज पार्टी को पूरे आत्मविश्वास से चुनौती दे सकती है। घोटालों के मामले में कांग्रेस और भाजपा एक-दूसरे की क्लोन या यूं कहें जीराक्स कॉपी हैं। आतंकवाद के मामले में भी भाजपा आक्रामक नहीं हो सकती क्योंकि अक्षरधाम, पार्लियामेन्ट, जेके असेम्बली, समझोता एक्सप्रेस, गोधरा जैसी वारदातें इसी के कार्यकाल में हुईं। इसी पार्टी के नेता जसवंत सिंह थे जो आतंकवादियों को छोड़ने कंधार गए थे। इस सबके बावजूद भी एनडीए सरकार के विराट व्यक्तित्व वाले प्रधानमंत्री के सब्र का बांध नहीं फूटा।
मंदिर के मसले पर भी भाजपा भीषण दुविधा में फंसी है उसे संघ की मंशा को भी साधे रखना है और यूपीए के कथित सेकुलरिस्टों को भी। मोदी वस्तुत: भाजपा के वैचारिक संक्रमण काल की उपज हैं। कॉरपोरेट और मीडिया के एक वर्ग ने उनका ऐसा विराट व्यक्तित्व रच दिया कि भाजपा उन्हीं की छाया में विश्राम पाने लगीं। मोदी को न अपने साथी नेताओं की परवाह है न संघ की। इसलिए यदि वे कहते हैं कि संजय जोशी को संगठन से निर्वासित कर दिया जाय तो इस स्वेच्छाचारिता का विरोध करने का दम न संघ को है और न भाजपा को।
कांग्रेस जैसे विशाल संगठन के पतन की शुरूआत भी लगभग ऐसी ही हुई थी, देवकांत बरुआ ने ..इन्दिरा इज इण्डिया.. का चर्चित नारा दिया था। सन् 72 की प्रचण्ड जीत के बाद अटल जी की ..सिंहवाहिनी, रणचण्डी.. की उपमा वाली इन्दिरा जी ने पार्टी को अपनी छाया में समेट लिया। जगन्नाथ पहाड़िया जैसे मुख्यमंत्री की तस्वीरें तब चप्पल पोछते हुए छपा करती थीं और नारायण दत्त तिवारी सभा में मैडम का चप्पल संभालते नजर आते थे। कांग्रेस के आंतरिक लोकतंत्र का कचूमर इसी दौर में निकला और सन् 75 में देश के नागरिकों के मौलिक अधिकारों को छीनते हुए आपातकाल लागू किया गया। इसके बाद से कांग्रेस व्यक्ति व वंशवादी राजनीति पर चल निकली। तबसे लेकर अब तक उसके नेतृत्व का गलियारा संकरा से संकरा होता जा रहा है। भले ही उसके हाथ से बिहार, उत्तर प्रदेश और दक्षिण के कई राज्य सदा के लिए निकल गए।
व्यक्तिवादी राजनीति के मामले में कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के लिए रोल मॉडल तो है ही भाजपा भी उसी दिशा में बढ़ने का प्रयास कर रही है। मोदी पर निर्भरता का मामला कुछ ऐसा ही है। यद्यपि किसी पार्टी द्वारा प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का पद पहले से ही तय कर देना पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र का गला दबाना तो है ही संविधान की मूलभावना के भी खिलाफ है। संविधान में व्यवस्था यह है कि लोकसभा या विधानसभा में बहुमत वाले दलों के निर्वाचित सदस्य अपना नेता निर्वाचित करें। इस सांविधानिक परम्परा के तिरोहित हुए कई दशक बीत गए। पार्टियों का शीर्ष नेतृत्व तानाशाही के अंदाज में अपने सुविधानुसार व्यक्ति को मुख्यमंत्रियों के पद के लिए विधायकों पर थोपता है।
कांग्रेस में तो एक और शर्मनाक परम्परा का चलन है, संगठन चुनाव में निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा इस्तीफा देकर नेतृत्व के सामने मनोनयन का आग्रह करना। याद होगा कि सीताराम केशरी के बाद जब सोनिया गांधी ने पार्टी का नेतृत्व संभाला और राष्ट्रीय कार्यपरिषद की निर्वाचित प्रतिनिधियों ने सामूहिक रूप से त्यागपत्र दे दिया था। ऐसा करने वालों में एके एन्टनी भी थे और अजरुन सिंह भी। आज शिवराज सिंह मध्यप्रदेश में भाजपा के सर्वमान्य नेता हैं, लेकिन यह सबको मालुम है कि बाबूलाल गौर को हटाकर प्रमोद प्रधान, अरुण जेटली और संजय जोशी की तिकड़ी ने किस तरह प्रदेश की सत्ता में इनकी प्राणप्रतिष्ठा की थी। बहरहाल आज जिस तरह प्रधानमंत्री के पद पर मोदी के नाम की चर्चा है ऐसे ही 2009 में लालकृष्ण आडवाणी की थी। एक शब्द बहुप्रचारित हुआ था ..पीएम इन वेटिंग.. आडवाणी आज वेटिंग सूची से भी नदारद हैं। ..नरेन्द्र भाई मोदी.. पीएम इन वेटिंग के उम्मीदवार हैं। देखिए ये वेटिंग कन्फर्म होती है या आडवाणी जी की तरह अगले चुनाव में सूची से बाहर।
- लेखक स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं। सम्पर्क-09425813208. 

1 comment:

  1. भाजपा में अभी मोदी की आंधी चल रही है,सार्थक प्रस्तुति.

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