Wednesday, December 9, 2015

असहिष्णुता का मिथ्याचार

- जयराम शुक्ल
मुख्यधारा की राष्ट्रीय राजनीति के मोर्चे पर चारों खाने चित्त पड़े कतिपय राजनीतिक संगठनों के 'स्लीपर
सेलÓ अचानक सक्रिय हो गए हैं। असहिष्णुता... अहिष्णुता का जाप करते हुए किसी भी मंच से और कैसे भी केन्द्र की सरकार और प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी पर दोष मढऩे और गाली देने का मौका नहीं छोड़ रहे हैं। यह प्रायोजित अभियान बिहार विधानसभा चुनाव की घोषणा के साथ शुरू हुआ और चुनाव के परिणाम तक चला। चुनाव के प्रचार में भाजपा के विरोधी दलों और बौद्धिक मिथ्याचारियों के सुर आपस में ऐसे मिले कि कोरस में बदल गए। बिहार में इसका प्रतिफल भी उन्हें मिला। वे वातावरण बनाने में काफी कुछ हद तक सफल भी रहे, क्योंकि सोलह महीनों में हुए विकास, उसकी चर्चा और अनुभूति के ऊपर इनका मिथ्याचार और असहिष्णुता का प्रपोगंड़ा बवंडर की तरह छा गया। बिहार चुनाव परिणाम के बाद इन मिथ्याचारियों के सुर मंद पड़ गए थे। इस बीच फिल्म कलाकार आमिर खान ने इसे फिर छेड़ दिया। आमिर का परिवार डरा हुआ है। पत्नी किसी दूसरे देश में बसने की सोच रही है, ऐसा आमिर कह रहे हैं। आज आमिर खान जिस बालीवुड में स्टारडम भोगते हुए यश-कीर्ति व धन कमा रहे हैं कभी उसी बालीवुड में यूसुफ को दिलीप कुमार बनना पड़ा व नरगिस, मधुबाला और मीना कुमारी को अपने मूल नाम को विलोपित करना पड़ा। आमिर, शाहरूख को समझना चाहिए कि आज वें ज्यादा उदात्त और सामाजिक धार्मिक समभाव के दौर न सिर्फ जी रहे हैं बल्कि ऐसे मिश्रित परिवार में रह रहे हैं जिस तरह के परिवार की कल्पना अरब या इस्लामी मुल्कों में की ही नहीं जा सकती। वे ऐसा इसलिए कर पाए कि हमारा भारतीय समाज जरूरत से ज्यादा उदत्त है और धार्मिक  साम्प्रदायिक समरसता उसकी आत्मा है। आमिर खान को संजीदा कलाकार माना जाता है, लेकिन वे अपनी फिल्मों में हिन्दू प्रतीकों की लानत, मलानत करते हैं। कट्टरता और रूढ़वादिता तो इस्लाम की आत्मा के साथ भी नत्थी है, वे उसका पर्दाफाश करने के लिए दूसरी 'पीकेÓ बनाने की पहल क्यों नहीं करते। शाहबानों की व्यथा को क्या कभी सेल्यूलाइड में लाने की चेष्ठा करेंगे? नहीं? और न करेंगे? आमिर, शाहरूख और रहमान ने क्या तस्लीमा का हैदराबाद काण्ड नहीं देखा जहां कुछ कठमुल्ले एक महिला को लात घूंसों से पीटते हैं, कपड़े फाड़ते हैं। तस्लीमा ने इस्लाम और उसके कठमुल्लों को अपनी रचनाओं के जरिए आइना दिखाने और उसकी सड़ांध से परिचित कराने का स्तुत्य दुस्साहस किया था। तस्लीमा प्रकरण पर तो नारी, मुक्ति पर विमर्श चलाने वाले वामपंथी भी कुछ नहीं बोलते। मुंह पर दही जमा है। तो इसलिए तस्लीमा जब कहती हैं, कि पुरस्कार, सम्ममान लौटाने वाले ढोंगी, पाखंड़ी है और उन्हें असहिष्णुता पर बात करने का कोई हक सचमुच ये ढ़ोंगी और पाखंडियों की जमात है जो सत्ता के साकेत से बेदखल होकर असहिष्णुता का विलाप कर रही है। इस जमात में अपने मध्यप्रदेश के दो रचनाकार भी अगुआ बने। पहला चर्चित नाम अशोक वाजपेयी का है। अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में कथित संस्कृति पुरूष रहे ये वहीं अशोक वाजपेयी हैं जिन्होंने गैस त्रासदी के बाद लाशों से पटे और रोते बिलखते भोपाल में घटना के चन्द महीने के भीतर ही भारत भवन में विश्व कविता समारोह रचा था। आपत्तियों, विरोधों को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि कुछ लोगों के मर जाने से न तो समाज मर जाता है और न उसका चलन। श्री वाजपेयी भोपाल के हत्यारे एन्डरसन को भगाने वाले तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के पटु अनुयायी बने रहे। कालान्तर में भी केन्द्र की कांग्रेस सरकारों की कृपा से कहीं कुलपति तो कहीं अकादमियों के मुखिया बनकर सत्ता के पकवान को जीमते रहे। लेखक विष्णु खरे ने अशोक वाजपेयी के वर्धाकाल (अंतरराष्ट्रीय हिंदी वि.वि. वर्धा के कुलपति काल) की परतों को अपने लेखों के जरिए अच्छे से उधेड़ा है। वाजपेयी के साहित्यिक और सांस्कृतिक कदाचारों से नव नचनाकारों व कलाकारों की एक समूची पीढ़ी प्रताडि़त रही है। सरकारी अफसर के तौर पर वे कांग्रेस सरकारों के वैसे सांस्कृतिक ठेकेदार रहे हैं जैसे श्रीकान्त वर्मा पार्टी के भीतर रहकर। श्रीकान्त वर्मा भी रचनाकार थे व कांग्रेस के लिए नारे व जुमले रचने की एवज में उन्हें राज्यसभा की सदस्यता का पारितोषिक मिला था। यह बात अलग है कि उनके बेटे ने आगे चलकर उनकी प्रतिष्ठा की लुटिया डुबो दी। उम्र के चौथेपन में सत्ता के सानिध्य से वंचित श्री वाजपेयी को कांगे्रस के 'स्लीपर सेलÓ का अगुआ भी कहा जा सकता है। मध्यप्रदेश के ऐसे दूसरे महापुरूष हैं उदयप्रकाश, पत्रकारिता से साहित्यकारिता में आए उदय प्रकाश की नब्बे फीसद रचनाएं परपीडक़ है! उनकी रचनाओं में सहकर्मियों, साहित्यिक प्रतिद्वंदियों की खिल्ली उड़ाने और मानसिक प्रताडऩा देने के अलावा कोई तथ्य-कथ्य नहीं रहता। यदि वे अकादमी सम्मान न लौटाते तो शायद ही कोई जान पाता कि उदय प्रकाश नाम का भी कोई रचनाकार है, संगोष्ठियों में जुटने वाले चंद बुद्धिविलासियों, और समालोचकों को छोडक़र। असहिष्णुता के नाम पर सम्मान लौटाने की शुरूआत इन्हीं ने की, यद्यपि इससे पहले योगी आदित्यनाथ के हाथों सम्मानित होकर गदगदा चुके थे सेकुलरियों के तमाम विरोध के बावजूद। उदयप्रकाश जिस शहड़ोल, अनूपपुर के कोयलाचंल से वास्ता रखते है वहां के वनवासी और सामान्यजन आजादी के पहले सामन्ती शोषण और बाद में कोयला ठेकेदारों, अफसर, बाबुओं के मकडज़ाल में फंसे रहे। हाल-फिलहाल विस्थापन के दंश को झेल रहे हैं, उदयप्रकाश ने शायद ही अपनी रचनाओं में यहां के तथ्यों-कथ्यों को समाविष्ट किया होगा वे इस शोषण के खिलाफ आवाज बुलंद करते तो रचना जगत उनका स्वागत करता पर उन्हें तो टाइमिंग और इशारे का इन्तजार था, जैसा कि 'स्लीपर सेलÓ के सदस्यों को रहता है। असहिष्णुता का राग छेडऩे वाले एक और साहित्यकार है बनारस के काशीनाथ सिंह। साहित्यकारों के माक्र्सवादी पुरखे डॉ. नामवर सिंह के छोटे भाई। एक ओर जहां नामवर सिंह जैसे दिग्गज समालोचक ने सम्मान लौटाने के उपक्रम को गैरवाजिब और गलत बताया वहीं 'काशी के अस्सी में देवी-देवताओं का मजाक बनाने व गाली-गलौज को साहित्य की खुराक बनाने वाले काशीनाथ 'सेकुलरियों स्लीपरोंÓ के गिरोह में मुखरता से शामिल रहे। काशीनाथ जी को यह मालुम होना चाहिए कि यदि वे सहिष्णु और सद्भावी समाज में नहीं रह रहे होते तो उनकी उपन्यास 'उपसंहारÓ बिना प्रतिक्रिया के जज्ब नहीं कर ली जाती। उपसंहार में 'उत्तर महाभारतÓ के वृतांतों को कथा रूप में दिया गया है। काशीनाथ जी ने इस उपन्यास में कृष्ण व बलराम को मदिरा का व्यसनी बताया है तथा (कृष्ण द्वारा) नरकासुर को मारकर छुड़ाई गई सोलह हजार कन्याओं को वैश्या। आस्थाओं व विश्वासों पर खुली चोट का दर्द सहने वाला विशाल वक्षस्थल भारतीय समाज के पास ही है, इसीलिए जब ब्रह्मर्षि भृगु ने भगवान विष्णु की छाती पर लात मारी तो प्रत्युत्तर में भगवान ने कहा कि विप्रवर आप आहत तो नहीं हुए। यह भारतीय समाज अभी भी इतने विशाल हृदय वाला है कि आमिर, शाहरूख के बयानों से लेकर काशीनाथ सिंह के उपाख्यानों की चोंट को भी सह लेता है। वह यह भी नहीं जानना चाहता कि यू.आर. अनन्तमूर्ति इन दिनों कहां है, जिन्होंने घोषणा की थी कि यदि नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बनते हैं तो वे देश छोड़ देंगे। २००२ से लेकर आज तक मोदी पर जिस तरह शाब्दिक प्रहार किए गए, टीवी की बहसों, अखबारों के स्तंभों में सिलसिला चलाया गया, मैं नहीं समझता कि दुनिया के किसी भी राजपुरूष के साथ ऐसा बर्ताव किया गया होगा। क्या नेहरू, इंदिरा, राजीव युग में ये लोग ऐसी हिम्मत कर पाते, जिस दौर को ये सब सहिष्णुता का स्वर्णकाल बताते नहीं थक रहे हैं। इसलिए मुझे पूरा यकीन है कि असहिष्णुता का मिथ्याचार एक प्रायोजित, सुनियोजित उपक्रम है। उनके लिए ये अच्छी बात हो सकती है कि कम से कम उस व्यवस्था के नमक का कर्ज उतार रहे हैं जिस व्यवस्था ने कई सुपात्रों का अधिकार छीनकर इन्हें सत्ता  के साकेत में आबाद कर रखा था, पर देश के लिए नहीं।

2 comments:

  1. आलेख सुव्यवस्थित है। किन्तु टंकण के पश्चात अंतिम draft शायद जल्दी में निकल गया।

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  2. Battle is being faught all around but what far ? In this divisive politics intellectuals are seeking refuge under different political umbrella like Dr Ashok Bajpayee etc. And branding for the contemporary political aspirations of their lords . It always paved the way of a Mahabharat when grate Guru Drone keeps mum before the sinful Kauravas.

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