Friday, December 16, 2011

नई विश्व व्यवस्था की आहट

    सोवियत रूस के विघटन के पश्चात उत्तर आधुनिकवादी फ्रेंच तथा अमेरिकी दार्शनिकों ने घोषणा की थी कि पंूंजीवाद की चिरकाल के लिए विजय हो गई है एवं इतिहास का अंत हो गया है। स्टालिन को बर्बन शासक मानने वाले, कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के राजनीतिक विचारक प्रो. जोन्स भी इसे इतिहास का सतही मूल्यांकन मानते हैं। उनके अनुसार माकर््स के पहले भी पूंजीवाद का विरोध होता रहा है तथा उनके पश्चात भी होता रहेगा। उत्तर आधुनिकतावादियों के दूसरे निष्कर्ष के संबंध में मैं कहना चाहूंगा कि इतिहास एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है और इसका अंत किसी भी सत्ता के वश में नहीं है।
प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक हीगल ने कहा है कि इतिहास स्वाधीनता एवं मेधा की ओर अग्रसर हो रहा है। इसे संशोधित करते हुए मार्क्स ने लिखा था कि इतिहास स्वाधीनता, मेधा एवं समता की ओर अग्रसर हो रहा है। यह एक आश्चर्य जनक तथ्य है कि गांधी भी इस दृष्टिकोण से पूरी तरह सहमत हैं।
कुछ विचारक कह सकते हैं कि गांधी आध्यात्मिक तथा रहस्ववादी थे, अत: उनके संबंध में यह मत समीचीन नहीं प्रतीत होता है। वे इस बात से अभिज्ञ नहीं है कि गांधी अपने विचारों में संशोधन करते रहे थे। उनका व्यक्तित्व बहुआयामी भी था। रहस्यवादी होने के कारण अंतरात्मा की आवाज को वह अत्यधिक महत्व देते थे। परंतु अपने जीवन के अंतिम दशक में उन्होंने लिखा था कि अगर अंतरात्मा की आवाज रीजन की कसौटी पर खरी न उतरे तो उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए।
सम्प्रति आर्थिक मंदी के दौर में अमेरिका तथा यूरोप में लाखों व्यक्ति अपनी नौकरी खो चुके हैं। अमेरिका में तो सहस्त्रों युवक घर तथा सारा सामान गवां चुके हैं। यह मध्यम वर्गीय युवक सर्वहारा बन चुके हैं। उनके घर तथा उनकी वस्तुएं बैंकों द्वारा जप्त कर ली गई हैं।
अमेरिका में बैंक की व्यवस्था फेल हो चुकी है परंतु उसका खामियाजा मध्यम वर्ग व श्रमिक वर्ग को ही भुगतना पड़ रहा है। बैंक व्यवस्था फेल होने का सारा  उत्तरदायित्व कार्र्पोरेट जगत पर है। परंतु पूंजीवादियों की सुख-सुविधाओं पर कोई आंच नहीं आई है। इसीलिए अमेरिकी युवकों ने वाल स्ट्रीट से अत्यंत शक्तिशाली तरीके से अपना अहिंसात्मक आंदोलन प्रारंभ किया है। यह आंदोलन बैंकों पर जनता का कब्जा स्थापित करने के लिए है। उक्त आंदोलन अमेरिका के 70 बड़े नगरों तक पहुंच चुका है तथा इसके मार्गदर्शक उसे समस्त विश्व में फैलाने की घोषणा कर चुके हैं। अमेरिकी सरकार तथा कार्पोरेट जगत ने मीडिया को अपने अधीन कर लिया है तथा इसकी खबर पर रोक लगा दी है। चीन में भी सरकार ने विश्व मीडिया को सरकार विरोधी खबरों को प्रसारित करने से रोक रखा है। चीन को पारदर्शिता का उपदेश देने वाला अमेरिका अपने यहां वही कर रहा है जो चीन अपने देश में कर रहा है। परंतु तकनीकि इतनी विकसित हो गई है कि उक्त आंदोलन की खबरें विश्व में पहुंच ही रही है। उक्त आंदोलन यूरोप के सर्वाधिक विकसित राज्य जर्मनी, इंगलैण्ड, फ्रांस इटली सहित सारे यूरोप मैं फैल गया है।
पूंजीवादी शक्तियां अपना माल बेचने के लिए समस्त विश्व में मीडिया द्वारा भोगवादी संस्कृति का प्रसार कर रही है। अमेरिका में युवकों को नौकरी मिलते ही बैंक सुख-सुविधा प्रदान करने वाली सारी वस्तुएं खदीदने के लिए ऋण देने में तत्पर रहते हैं तथा आर्थिक मंदी उत्पन्न होने पर नौकरी छूटते ही घर समेत उनकी सारी वस्तुएं खरीदने के लिए ऋण देने में तत्पर रहते हैं तथा आर्थिक मंदी उत्पन्न होने पर नौकरी छूटते ही घर समेत उनकी सारी वस्तुएं जप्त कर लेतें हैं। इस प्रकार मोहक संसार के स्वप्नजाल में फंसकर मध्यम श्रमिक वर्ग का शोषण किया जाता है।
गांधी मार्क्सवादी नहीं थे परंतु उन्होंने इस भोगवादी संस्कृति के विरूद्ध कठोर चेतावनी दी थी। हम कह सकते हैं कि संत होने के कारण गांधी ने सौंदर्य एवं कलाओं को समुचित महत्व नहीं दिया। लेकिन प्रसाद और शेक्सपीयर सौंदर्य एवं प्रेम के मूर्धन्य कवि थे। उनका दृष्टिकोण भी इस भोगवादी संस्कृति के विरूद्ध गांधी जैसा ही कठोर था। वे सौंदर्य एवं जीवन के स्वस्थ्य उपभोग को मानव की तृप्ति एवं विकास के लिए आवश्यक मानते थे। उनके अनुसार भोग और शोषण जीवन का लक्ष्य नहीं है।
देवता संसार का सारा सुख केवल अपने लिए चाहते थे तथा भोग ही उनके जीवन का लक्ष्य बन गया था। वे अपने को परम शक्तिशाली एवं अमर समझने लगे थे। प्रसाद के अनुसार इसी कारण देव संस्कृति विनष्ट हो गई और अपने को अमर समझने वाली समस्त देव जाति मृत्यु के गर्भ में विलीन हो गई। वस्तुत: प्रसाद कामायनी में देव संस्कृति के बहाने इसी पूंजीवादी संस्कृति पर प्रहार कर रहे थे।
‘भरी वासना सरिता का
वह कैसा था मदमत्त प्रवाह
प्रलय जलधि में संगम जिसका
देख हृदय था उठा कराह।’
प्रसाद ने ‘प्रलय’ शब्द के द्वारा सामूहिक विनाश की चेतावनी दी थी। उनके अनुसार सब सुख अपने में भरकर व्यक्ति न अपना विकास कर सकता है और न समाज का। भौतिक उन्नति मानवता एवं प्रेम के विकास के लिए होनी चाहिए अन्यथा जनता विद्रोह करेगी एवं समस्त संस्कृति नष्ट हो जाएगी। भारतीय संस्कृति के अनन्य प्रेमी प्रसाद का कहना है कि परिवर्तन की आधारशिला पर ही संस्कृति नित नवीन रह सकती है।
अत: पूंजीवाद में भी निरंतर परिवर्तन एवं संशोधन की आवश्यकता है। इसमें कोई   संदेह नहीं कि विगत दो शताब्दियों में पूंजीवाद ने विश्व में जो परिवर्तन किया है वह पूरे इतिहास में कभी नहीं हुआ। उसने सामंतवादी दबाव तथा मध्ययुगीन संकीर्णता से विश्व को मुक्त किया है। परंतु अब शोषण और भोग ही उसका लक्ष्य बन गया है। अत: मानव को सामूहिक विनाश से बचाने के लिए उसमें महत् परिवर्तन की आवश्यकता है। व्यक्ति की स्वाधीनता तथा समाज की स्वाधीनता, दूसरे शब्दों में व्यक्ति हित एवं समाज हित में समरसता स्थापित करके ही मानव संस्कृति को विनाश से बचाया जा सकता है।
भारत एवं एशिया के बहुत से वामपंथी सेक्सपियर को सामंतवादी मानते हैं। सेक्सपियर ने अपने एक अति प्रसिद्ध सानेट में लिखा है कि भव्य प्रसादों के फौलादी फाटक काल के प्रवाह में चकनाचूर हो जायेंगे तथा प्रासाद धूलिसात हो जाएंगे। किंतु प्रेम और सौंदर्य का जो चित्रण मैने कविता में किया है काल के प्रवाह में इतनी शक्ति नहीं है कि वह उसकी चमक को धूमिल कर सके।
आज भी भारत में निंदा एवं स्तुति की संस्कृति पनप रही है। मूल्यांकन एवं ंिचतन का पूर्ण अभाव दृष्टिगोचर होता है। अमेरिका सारे विश्व को अपने दबाव में रखना चाहता है। स्वाभाविक ही सभी स्वाभिमानी राष्टÑ इसका विरोध करते हैं। परंतु हमें यह भी विचाद करना होगा कि अमेरिका महाशक्ति एवं अग्रणी देश कैसे बना? अमेरिका में श्रम, शोध एवं चिंतन की प्रतिष्ठा है। मेरे एक मित्र के के बहनोई अमेरिका में हृदय रोग विशेषज्ञ हैं। उन्होंने बताया कि अस्पताल जाने पर अमेरिकी नागरिक सर्वप्रथम निरंतर फर्श साफ करने वाले श्रमिकों को नमस्ते करते हैं। वहां डाक्टर एवं श्रमिक की प्रतिष्ठा में जमीन आसमान का अंतर नहीं है। भारत में एक प्रथम श्रेणी अधिकारी अपने कनिष्ठ प्रथम श्रेणी अधिकारी को भी पहले से नमस्ते नहीं करता।
अमेरिका में गांधी एवं मार्क्स आज भी हाशिए पर हैं परंतु उनके दर्शन पर सर्वाधिक मौलिक शोध एवं चिंतन अमेरिका में ही हो रहा है। अमेरिका मे गांधी को महान क्रांतिकारी के रूप में देखा जाता है। किंतु भारत में उन्हें अहिंसा एवं शांति के मसीहा के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
भारतीय शोधार्थी नहीं जानते कि गांधी यथा स्थिति वादियों से अराजकता वादियों को श्रेष्ठतर मानते थे। वे स्वयं अपने को दार्शनिक अराजकतावादी कहते थे। यथा स्थितिवादी बौद्धिक रूप से मृत होते हैं एवं अराजकतावादी जीवित । जीवित व्यक्ति को सही रास्ते पर लाया जा सकता है किंतु मृत को नहीं।
सम्प्रति अमेरिका में मध्यम वर्गीय युवकों का विद्रोह गांधी एवं मार्क्स से प्रेरित है। अंग्रेजों के विरूद्ध अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम लॉक, रूसो तथा मान्टेस्क्यू के विचारों के आधार पर चलाया जा रहा था। आज का संग्राम उक्त दार्शनिकों की विचारधारा को अग्रसर करने वाले मार्क्स एवं गांधी के विचारों के अनुसार है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उनका संग्राम गांधी एवं मार्क्स के नाम पर हो रहा है। वे उनके विचारों को अपनी अस्मिता में समन्वित कर अपना संघर्ष कर रहे हैं।
21 वीं सदी के अमेरिकी नागरिक एक मध्य वर्ग के युगान्तकारी नायक को अपना राष्टÑपति चुनना चाहते थे। चिंतक राजनीतिज्ञ एवं ओजस्वी वक्ता बराक ओबामा ने अमेरिकी जनता को विश्वास दिलाया था कि वे नये अमेरिका का निर्माण अवश्य कर सकेंगे। परंतु वे अपने लक्ष्य को कार्यान्वित नहीं कर सके। श्वेत अमेरिकी नागरिकों ने नस्लभेद का अतिक्रमण कर उन्हें अपना राष्टÑपति चुना था। 
मार्क्स एवं गांधी ने समान वेतन की वकालत नहीं की थी। संतुलन लाने के लिए मार्क्स ने थोड़े समय के लिए सर्वहारा के अधिनायक्तव का समर्थन किया था। गांधी ने भी लिखा था कि संतुलन लाने के लिए हमें उच्चवर्ग के लोगों को नीचे लाना होगा तथा निम्नवर्ग के लोगों को ऊपर उठाना होगा। मार्क्स जितने निजी पंूजीवाद के विरूद्ध थे उतने ही राज्य पूंजीवाद के भी। इसे मैने ‘मार्क्स का राजनीतिक दर्शन’ नामक पुस्तक में स्पष्ट किया है। वे किसी वर्ग के स्थाई अधिनायकत्व में विश्वास नहीं करते थे। मार्क्स और गांधी दोनो ही व्यक्ति एवं समाज की स्वाधीनता तथा हितों में सामंजस्य स्थापित करना चाहते थे। वे प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्र करना चाहते थे। इसके लिए उद्योगों के संचालन में प्रबंधकों एवं श्रमिकों को भी भागीदार बनाना पड़ेगा। हार्वर्ड विश्वविद्यालय से प्रकाशिता अपनी पुस्तक ‘एम्पायर’ में माइकल हार्ट ने इसी की वकालत की है।
इंग्लैण्ड के विख्यात राजनीतिक विचारक लास्की भी उद्योगों में आंतरिक लोकतंत्र की स्थापना को आवश्यक मानते थे। परंतु उनके विचारों को पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों ने स्वीकार नहीं किया।
अमेरिकी युवक इसी दिशा में संघर्ष कर रहे हैं कि वे सारे विश्व को इसी दिशा मे अग्रसर करना चाहते हैं। यह एक विडम्बना ही है कि हमें गांधी दर्शन भी विदेशियों से सीखना होगा। हम आशा करते हैं कि भारतीय बुद्धिजीवी एवं राजनेता श्रम, शोध चिंतन की प्रतिष्ठा स्थापित करने में समर्थ होंगे। ऐसा करने पर ही भारत को नकलची एवं पिछलग्गा राष्टÑ होने से बचाकर हम उसे एक महान राष्टÑ बना सकेंगे। 
***गोपालशरण तिवारी

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