Wednesday, December 14, 2011

प्रभुजी! पधारो हमारे बाजार

  खुदरा व्यापार के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की केन्द्र सरकार ने अनुमति देने की कोशिश की, तो राजनैतिक मुहल्लों में गगनभेदी हाहाकार मच गया। कई व्यापारिक संगठनों ने एक दिन का आधा-अधूरा भारत बंद कराया। संसद की कार्यवाही जाम कर दी। गठबंधन सरकार की सहयोगी ममता और करुणानिधि ने धमकाया। इन सबके चलते सरकार ने अपने इस फैसले को स्थगित कर दिया। खुदरा विदेशी निवेश के पक्ष में सरकार की दलील है कि इससे मंहगाई कम होगी, रोजगार के अवसर मिलेंगे। किसानों को उनकी उपज का अधिक दाम मिलेगा। विपक्ष की अपनी दलील है कि लाखों छोटे-मझोले दुकानदार बेरोजगार हो जाएंगे और उपभोक्ता मंहगे दामों में जरूरत की चीजें खरीदने के लिए बाध्य होगा। असल में खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश के पक्ष में झंडा उठाने वाले और इसके पक्ष में डंडा चमकाने वाले असलियत को छिपाने में अपनी पूरी बाजीगरी दिखाने में जोर लगा रहे हैं। अभी जब विदेशी दुकानदार थैली लेकर भारत में नहीं घुसे हैं तब भी तो लाखों की संख्या में उत्पादक और उपभोक्ता बीच बिचौलियों की बिरादरी मालामाल हो रही है। उत्तरप्रदेश में हमेशा आलू की बम्पर फसल होती है। आलू चिप्स और आलूभुजिया बनाने वाली स्वदेशी कम्पनियां आलू उत्पादक किसानों से आलू पचास से सौ रुपया कुंटल की दर से खरीदती हैं और अपना चिप्स तथा भुजिया दस हजार रुपया कुंटल की दर से बेच रही है। प्रोसेस और पैकिंग तथा ट्रांसपोर्ट में अधिकतम खर्च पांच सौ रुपया प्रति कुंटल भी मान लिया जाए तो मात्र छह सौ रुपया की लागत में नौ हजार चार सौ रुपया प्रति कुंटल कमाई हो रही है। खून-पसीना बहाकर और सपरिवार हाड़-तोड़ मेहनत करने वाला किसान बदले में सरकार से घोषित न्यूनतम मजदूरी भी नहीं पाता किंतु शेयर धारकों और बैंक की रकम जुटा कर कम्पनी मुनाफा की मलाई चाट नहीं रही बल्कि मलाई में लोट-पोट रही है। किसान के भाग्य में कर्ज अंगद के पैर की तरह जम कर बैठा है, वह विरासत में बाप का कर्ज पाता है और मरते दम तक कर्ज की गठरी लादे रहता है। जब मरता है तो बेटों को विरासत में कर्ज की गठरी दे जाता है। देशी कम्पनियों का थैली बंद आयोडीन-युक्त नमक की बिक्री में एकाधिकार है। एक रुपया लागत की एक किलो का पाउच दस से बारह में बेचा जा रहा है और नमक बनाने वाले मजदूरों को दस घंटे रोज मजदूरी करने पर डेढ़ सौ से दो सौ रुपया मिलता है।
स्वदेशी दवा निर्माता कम्पनियां भी लूट के रास्ते पर दौड़ रही हैं। इनकी लागत और मुनाफे में इतना ज्यादा अंतर है कि गणना करने में बुद्धि चक्कर खाने लगती है। सप्रिकजोन इंजेक्शन का उदाहरण लें तो मुनाफे का गोलमाल समझ में आने लगता है। इसकी जेनेरिक कीमत बाईस रुपया है और प्रिन्ट रेट एक सौ सत्तर रुपया है। डायक्लोपैराटानिक सत्रह रुपए की है किंतु प्रिंट रेट है छियासठ रुपया सत्तर पैसा है। फैक्सामैथासोन गोली दस पैसा की जगह एक रुपये में बिकती है। किसान से गेहूं दस रुपये किलो खरीदा जाता है और ब्राण्ड व किस्म के नाम पर बड़ी कम्पनियां गेहूं का आटा तीस से चालिस रुपये प्रतिकिलो बेच रही है। दुनिया की दस बड़ी खुदरा कम्पनियों के पास चालिस लाख से ज्यादा कर्मचारी नहीं है, तो भारत में ये कम्पनियां एक करोड़ बेराजगारों को नौकरी नहीं दे सकती हैं। वालमार्ट  की एक दुकान तीन हजार छोटी किराना दुकानों का हमेशा के लिए शटर-डाउन कराती है। असलियत तो यह है कि बाजार को जो लोग नियंत्रित करते हैं, वे रिकार्ड-तोड़ मुनाफा बटोरते हैं। उपभोक्ता का बाजार में प्रवेश करने का मतलब ही यही है। कि उसे पूरे सम्मान के साथ लूटा जाएगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि बाजार पर काबिज लोग देशी हैं या विदेशी । अभी देश के खुदरा किराना बाजार घटतौली में कमाल का हुनर रखते हैं और क्वालिटी में मिलावट का छौंका अधिकार मान कर लगाते हैं। विदेशी खुदरा कम्पनियां भी इसमें थोड़ा सा फेरबदल करके उपभोक्ता को हलाल करेगी। इसका भी आरोप लगाया जा रहा है कि बहुराष्टÑीय कम्पनियां मुनाफा विदेश ले जाएगी। देश का पैसा विदेश चले जाने से देश की आर्थिक हालत पर विपरीत असर पड़ेगा। लेकिन अभी क्या हो रहा है। पिछले छह दशक से लगातार हमारे देशी-देशभक्त लाखों हजार करोड़ की रकम विदेश में ही तो जमा कर रहे हैं जो बड़ी सफाई एवं बड़ी बेवफाई के साथ काले से सफेद हो जाता है। चाकू खरबूजे पर गिरे या खरबूजा चाकू पर, अंजाम सभी को पता है। आम हिन्दुस्तानी की पीठ पर खोद कर लिख दिया है कि यह बकरा है, इसे जिबह करना बेहद आसान है। इसका कोई महत्व ही नहीं है कि छुरा विदेशी है या विदेशी। 
  दुनिया भर के अनुभव से साफ हो जाता है कि खुदरा व्यापार में देशी हो या विदेशी बड़ी कम्पनियों के आने से आम उपभोक्ता को कोई फायदा नहीं होता है। बल्कि उनकी आक्रामक नीति और विशाल आवारा पूंजी से छोटे और मझोले लाखों व्यापारी तबाह हो जाएंगे। हमारे देश में अजीब तरह का लोकतंत्र है कि जनता कुछ चाहती है और सरकार ठीक उसका उल्टा करती है। हमारी  विपक्षी राजनीतिक पार्टियां भी आम आदमी को उल्लू बनाने के लिए बेहतरीन बाजीगरी करती है। खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को निमंत्रण देने को अभी जो फैसला हुआ उसके लिए लाल कालीन एनडीए सरकार ने भी बिछाया था जिसमें आज की   विपक्षी पार्टियां शामिल थीं। पश्चिम बंगाल में दो दशक तक राज करने वाले वामपंथियों ने विदेशी पूंजी का स्वागत शंख बजाकर किया था। भाजपा शासित राज्यों के लगभग सभी मुख्यमंत्री विदेश जाकर विदेशी पूंजीपतियों को भारत में पधारने का निमंत्रण देते हैं और ढेरों रियायतें देने का वायदा करते हैं। हकीकत बहुत बड़ी होती है किंतु सच्चाई यही है कि हमारे लोकतंत्र में जनता के हितों के मुकाबले पूंजी के हितों को तरहजीह दी जा रही है।
आम उपभोक्ता को बाजार के शोषण से बचाने के लिए सरकार नाम की संस्था होती है। सरकार नागरिकों के लिए ढाल का काम करती है किंतु अब सरकार खुद अपनी जिम्मेदारी से पिंड छुड़ा रही हैं। ऐसे में नागरिक के हित की हिफाजत करने वाला कोई नहीं होगा। वाशिंगटन आम राय पर आधारित भूमण्डलीकरण से राज्य की आर्थिक भूमिका घटती जा रही है। हमारे यहां की सरकारें जबरदस्त विदेशी दबाव में रहती हैं। अब नागरिकों के हितों को सर्वोपरि रखकर नीतियां बनाने में सरकार सक्षम नहीं है। यह दावा गलत है कि भूण्डलीकरण के ज्वार से सब नावें ऊपर उठेंगी और सब लाभान्वित होंगे। हमारे बाजार के परस्पर सहयोग और विकेन्द्रीकरण के आधार पर चलते हैं, माल सभ्यता के माध्यम से केन्द्रीकृत होते जाएंगे। जरूरत इस बात की है कि गुलाम बनाने के नए हथकण्डों को पहचानें और सत्ता पर बैठे जागीरदारों को जयचन्द-मीरजाफर की भूमिका न करने दें।
     

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