Wednesday, February 1, 2012

अगले जनम मोहे बेटा न दीजो


      चिन्तामणि मिश्र
श हर के सवा सौ साल पुराने जगतदेव तालाब की सीढ़ी में अस्सी साल की विधवा फूली की गृहस्थी है। गृहस्थी के नाम पर एक कम्बल दो चार बर्तन, चीकट हो गई कई जगह से फटी दरी और दो-तीन टीन के डिब्बे हैं। फूली शहर के पुराने बाजार में भीख मांगती है। पहले दिन भर भीख के लिए बाजार में भटकती थी, किन्तु अब थकान और चलने-फिरने में कठिनाई होने के कारण दोपहर के बाद भीख मांगने जाती है। रात में खुले आसमान के नीचे तालाब की सीढ़ियों पर आधी कच्ची और आधी पक्की नींद लेने की रस्म अदा करती है। बीच-बीच में जब उसकी नींद खुल जाती है तो भगवान को याद करती रहती है। फूली जो प्रार्थना भगवान से करती है वह बड़ी विचित्र है। लोग भगवान से धन दौलत अच्छी सेहत आदि देने की याचना करते हैं, किन्तु फूली भगवान से मांगती है कि मुझे अगले जनम में बेटा न दीजो। फूली और उसकी विचित्र याचना की जानकारी मुझे अनायास पिछली गर्मी में हुई। फूली मेरे घर के पास के बाजार में भीख मांगने आती थी और थक कर मेरे घर के बाहर बने चबूतरे पर बैठ जाती थी। उस दिन ऐसे ही समय फूली से मेरी बातचीत शुरू हुई। पहले तो उसने अपने बारे में ज्यादा कुछ नहीं बताया। लेकिन धीरे-धीरे उसने अपने बारे में बताया कि उसके दो बेटे हैं। उनका अपना परिवार है। दोनों चूना भट्टा में काम करते हैं, लेकिन रोटी का एक टुकड़ा भी मां को नहीं देते थे। फूली के पति के नाम गांव में एक कच्चा मकान था, जो उसके निधन के बाद दोनों बेटों के नाम हो गया। दोनों बेटों ने फूली के विरोध के बाद भी वह मकान बेच दिया और अपने बीबी बच्चों के साथ सूरत चले गए। मैं निराश्रित हो गई। रोज-रोज गांव में भीख मिलना कठिन था और अपने ही गांव में भीख के लिए हाथ पसारने में संकोच और शर्म भी लगती थी तो मैंने गांव छोड़ दिया। मेरे बार-बार आग्रह करने पर भी फूली ने अपने गांव का नाम-पता नहीं बताया।
       फूली से इतनी बातें टुकड़े-टुकड़े में हुई किन्तु हर बार बातचीत के बीच वह दोनों हाथ उठा कर भगवान से केवल यही प्रार्थना करती रही कि अगले जनम भगवान मुझे बेटा न दीजो। मुझे चाहो तो बांझ बना देना किन्तु बेटों की मां न बनाना। फूली के दर्द को कोई आवाज देने वाला नहीं है। मैं जानता हंू कि रिश्वत का प्रबंध करके फूली को सरकार से निराश्रित पेन्शन दिलाई जा सकती है। उसे नगर निगम के खैराती ओल्ड होम में रखवाया जा सकता है। लेकिन इस तरह के प्रबन्ध फूली के दर्द उसको दी गई मानसिक चोटों का प्रतिकार नहीं कर सकते। यह गाथा अकेली फूली की नहीं है। हमारे आसपास हर बस्ती में इससे भी ज्यादा करुण और दारुण कहानियां देखने तथा सुनने को मिल जाती हैं। बूढ़ी माताएं, बूढ़े बाप, बेटों-बहुआें के जुल्म से कराह रहे हैं। भरा-पूरा परिवार है। वैभव घर-गृहस्थी में नाच रहा है, किन्तु बूढ़े कबाड़ की तरह फालतू बना दिए गए हैं - कोई न बोले, कोई न बैठे, कोई न पूछे हाल। अपने  ही घर  में हो  गए हम फिजूल का माल ॥
आज अब इन बूढों ने कभी सोचा नहीं था कि उनके यहां ऐसे धुंधकारी पैदा होंगे। अब अनेकों फूलियों को कड़वा अनुभव हो रहा है कि उनकी कोख से आईएएस, आईपीएस प्रोफेसर डाक्टर इंजीनियर विधायक सांसद पैदा हो रहे हैं, किन्तु अब श्रवण कुमार पैदा नहीं होते। अब कोई अपने मां-बाप को पुत्र का सुख नहीं देता। पुत्र का सुख देने के लिए नौकर रख दिये जाते हैं। अब घर ओल्ड ऐज होम होते जा रहे हैं। धन को सबसे ऊंचे सिहांसन पर बैठा दिया गया है। धन को अधिक से अधिक बटोरने की लालसा में आदमी प्रेत हो गया है। नाते रिश्ते मनुष्यता परदुखकातरता खोखले अर्थहीन शब्द बन कर रह गए हैं। धन अपने साथ दम्भ और अंहकार लेकर आता है। आज के दौर में आदमी और समाज, धर्म, राजनीति, विज्ञान सब कुछ बाजार द्वारा नियंत्रित हो रहा है। बाजार व्यवस्था में बूढ़ों को बुहार कर हाशिए में फेंक दिया जाता है।
    आधुनिक सभ्यता की धुरी बाजारवाद पर टिकी है और बाजावाद भोगवाद को बढ़ावा देता है। भोगवाद हमेशा स्वार्थ की पालकी पर चलता है। जगतदेव तालाब की सीढ़ी पर जी रही फूली इसी बाजारवाद की शिकार है। संयुक्त परिवार की प्रथा टूटने से बूढ़ों की समस्या और भी जटिल हो गई है। अब लोगों के धर बड़े लेकिन दिल छोटे हो गए। घरों में कुत्तों की फिक्र और उनकी सेवा पवित्र कर्म समझ कर की जाती है, लेकिन बूढ़े मां-बाप को कुत्तों से भी बदतर व्यवहार मिल रहा है। घर के ड्रार्इंग रूम में बूढ़ों का प्रवेश निषेध रहता है। सोफे कफन की तरह सफेद चादर से ढ़क दिये जाते हैं। इन पर बूढ़ों को बैठने की इजाजत नहीं होती। वॉशबेसिन भी बूढ़ों की अलग कर दी जाती है अगर साहब और मेम साहब की वॉशबेसिन का धोखे से इस्तेमाल कर लिया तो नौकर टोक देते हंै। बूढ़ों को घर में आये मेहमानों के सामने आना मना रहता है। मौसम की सबसे सस्ती सब्जी, सूखी रोटी, मोटा चावल, दाल के चन्द दानों में हल्के नमक, हल्दी वाला गर्म पानी, नौकर के हाथ दिन में दो बार भोजन के नाम पर परोस दिया जाता है। बूढ़ों के पास आकर कोई नहीं बैठता। कोई बातचीत नहीं करता । स्नेह दुलार को तरस जाते हैं बूढ़े।  हालचाल पूछे न कोई  सब अपने में   मस्त । जैसे एकाकी  होता है  सूरज रात ही अस्त॥
बच्चे कम्प्यूटर दादा, टीवी दादी, अंकल चिप्स और मोबाइल आंटी के सत्संग में मस्त रहते हैं। बेटे कुबेर बनने और बहुए उर्वशी को पछाड़ने में जुटी हैं। अब देश में बुढ़ापा किस्तों में मर रहा है। बेटे बहुएं, पोते, पोतियां कहा जा रहे हैं, कब लौटेंगे बूढेÞ मां-बाप को पता ही नहीं। बूढ़े मां-बाप तो तीन टांग की कुर्सी की तरह एक कोने में डाल दिए गए हैं। प्यार से बात करना भूला दिया गया है। बूढ़े मां-बाप को अब घरों रूपी गमलों में बोन्साई की तरह रोपा जा रहा है। जबरन बुढ़ापे को एकांतवास की सजा दी जा रही है।
            नए जमाने की आहट का मिलने लगा आभास ।
                 दशरथ और कौशिल्या  अब भोग रहे बनवास ॥
आज हम मनुष्य विरोधी दौर में जी रहे हैं। मानवीय प्रसंग स्वार्थ से जुड़ गए हैं। पारिवारिक विघटन और सामाजिक पतन ने आत्मीय सम्बंधों का अंतिम संस्कार  करने के लिए आदमियत की अर्थी कंधों पर उठा रखी है। पराई व्यथा की अनुभूति बांझ हो गई है। भरा-पूरा परिवार होने पर भी बूढ़े मां-बाप को तनहाई और उपेक्षा के नाग बार-बार डस रहे हैं। इन बूढ़ों का जीना भी कोई जीना है। बीमार होने पर बूढ़ों को अस्पताल में पटक दिया जाता है जहां उनके अपने नहीं होते। मरते समय अपने आसपास अपने नहीं होता उसे जो अंतिम यात्रा के लिए विदा करें। वहां होते हैं अनजाने, अनचीन्हें नर्स और डाक्टरों के पथरीले चेहरे।
              बन्द किये अपनों ने जब खिड़की और किबार।
                 सन्नाटा कटता नहीं और मन रहता बीमार ॥
                                     - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।
                                            सम्पर्क - 09425174450.

1 comment:

  1. sikshit lok hai dahej le te hai to ahi hoga ahi dahej ka asli rup hai. mata pita ko kayo apnaye ge naye jamane ke log hai

    ReplyDelete