Wednesday, February 15, 2012

जिजीविषा का कोई जवाब नहीं


   चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
धरती के तमाम जीवों से अलग मनुष्य ईश्वर की अनुपम सत्ता है। उसकी उत्पत्ति के पीछे तरह तरह के तर्क हैं कि वह कैसे पैदा हुआ उसे किसने बनाया। आध्यात्म और विज्ञान अपनी जगह प्रतिबद्ध हैं, परंतु इसमें दोनों एकमत हैं कि ईश्वर मनुष्य की परिकल्पना की सृष्टि है । वह है कि नहीं? है तो कैसा है? उसे क्या प्राप्त किया जा सकता है? या उसकी अनुभूति की जा सकती है। इसी एक बात में संसार भर के दार्शनिकोें की ऊर्जा आदिकाल से लगी है। इस अनसुलझे प्रसंग की सार्थकता कितनी है, हम नहीं जानते। ईश्वर की कल्पना में प्रकृति के सारे उपादान हैं चर-अचर, जीव-जन्तु, नदी-पहाड़ जन्म-मृत्यु। हमारे चिन्तन के बिन्दु जहां हार-थक जाते हैं वहीं से ईश्वरत्व का जन्म होता है। हमारी गलती पर जब प्रकृति दण्ड देती है। तब पराजयी आभास हमारी सीमा बताता है। भारतीय मनीषा के अधिसंख्य दर्शन मनुष्य को विधाता की सर्वोत्कृष्ट कृति मानते हैं। धरती के सभी प्राणियों में मनुष्य सबसे असंतुष्ट जीव हैं। वह सोता है तो सपने देखता है जागता है तो छटपटाता है, भागता है। तलाश-निरंतर तलाश, बेहतर, और भी बेहतर। वह आजाद और निर्द्वन्द रहना चाहता है। वह अपने ही बनाए तथ्यों की पूजा करता है उसमें परिणाम निकालता है, तंत्र (नियम-कानून) बनाता है, स्वतंत्र होने का दावा करता है और बनाए तंत्र को तोड़ भी देता है, संशोधन कर देता है। वह कभी खुश नहीं हो सका, प्रकृति का सबसे बड़ा रहस्य, आदमी है। वह कभी खुश नहीं हो सका, प्रकृति का सबसे बड़ा रहस्य, आदमी है। मनु या आदम के इस औलाद के औत्सुक्य की निरंतरता अद्यावधि कायम है। बनाई दीवार में अपने को कैद मान गिराकर फिर नई बनाया यही उसकी नियति है। स्वाधीन कहते हुए भी पर की अधीनता में उलझा है। विश्वास और संतुष्टि का यह अघोषित संघर्ष उसका स्वभाव है। किंबहुना वह अभिशप्त है।
  वैष्णवी कल्पना कहती है कि इस सृष्टि के नियामक ब्रह्मा है, विष्णु पालनकर्ता और शिव संहारक है। मनुष्य सबसे चालाक और सामाजिक प्राणी है। उसने सारे जीव जन्तुओं के गुण धर्म देखे और मनुष्यों में भी पशुओं के कुछ लक्षण पाए। गाहे-बगाहे मनुष्य ने कुछ लोगों में शेर जैसी ताकत देखी, कुछ के लक्षण गधों से मिलते दिखे, कुछ गीदड़ से लगे तो कुछ लोमड़ी से चालाक भी। कुछ मनुष्य कुत्तों की तरह स्वामिभक्त दिखे तो कुछ कीड़े-मकोड़ों की तरह रहे, यथास्थितिवादी। शायद यही मिलता-जुलता स्वभाव देखकर मनुष्य ने अपनी ही बिरादरी, के लोगों को पशुओं की संज्ञा दे दी और कभी कभार तो यहां तक कह दिया, अच्छे खासे आदमी को भी कि, वह आदमी नहीं निरा पशु है, गधा है, कुत्ता और कीड़े मकोड़ों से भी बदतर है। परंतु किसी पशु ने मनुष्य की संज्ञा नहीं स्वीकारी, भले ही वह पालतू रहा हो। हां मनुष्य के पुकारने से उसने हरकत जरूर की भले ही उसने लकड़ी की डर से नाचने का उपक्रम किया हो। लेकिन, मनुष्य के ऐसे लक्षण क्यों हो गए कि वह मनुष्येत्तर प्राणियों की समकक्षता में आ गया। एक लोककथा से इसका स्वभावगत साम्य किया तो बात कुछ समझ में आई।
   कहते हैं कि जब ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की तो सभी जीव जन्तुओं की उम्र चालीस बरस तय की। चालीस बरस बीतने के बाद मनुष्य ने ब्रह्मा से फरियाद की कि इस उम्र तक मैं जवान हुआ , मैं कुछ नहीं कर सका। अभी मेरे बेटे छोटे हैं, मुझे और उम्र दें। ब्रह्मा ने कहा कि मेरे विधान में सब बराबर हैं, यदि कोई जीव स्वेच्छा से अपनी उम्र तुम्हें देना चाहे मांग लो, उसे मैं तुम्हें दे सकता हूं मैं किसी को बाध्य नहीं कर सकता। मनुष्य स्वभाव से जुगाड़ू है वह सोच रहा था कि उसका गधा रिरिआता हुआ ब्रह्मा के पास आया बोला- ‘भगवन् मेरी उम्र बहुत अधिक है चालीस वर्ष तक आदमी के काम का बोझ ढोते-ढोते मैं थक गया हूं। मेरी उम्र आधी कर दीजिए।’ मनुष्य खुश हुआ, उसने ब्रह्मा की ओर देखा वे मुस्कुराए और मनुष्य  की उम्र साठ साल की हो गई। साठ साल बीतते ही वह पुन: ब्रह्मा के पास पहुंचा और कहा अभी मैं साठा पर पाठा हूं, मुझे और उम्र दीजिए।’ पिता का लाड़ला था, ब्रह्मा ने रुकने को कहा। उसी क्षण एक कुत्ता वहां आ गया, उसने ब्रह्मा से निवेदन किया। चालीस वर्ष जीना मेरे लिए कठिन है, मेरी उम्र आधी कर दीजिए। मनुष्य को मनचाही बीस वर्ष उम्र कुत्ते की भी मिल गई। अब मनुष्य अस्सी बरस का हो चुका था। उसकी जिजीविषा बदस्तूर कायम थी, अस्सी बरस के बाद भी उसके अनेक काम शेष थे, उसने फिर परम पिता से विनती की कि प्रभो मुझे शतायु करें। ब्रह्मा परेशान, फिर भी अपनी त्वचा रचना के लिए चिंतन शील बने रहे। कुलमुलाते कीड़े-मकोड़े से बात की। कीड़ों-मकोड़ों ने कहा कि भगवन् आपने हमें इतनी लम्बी चालीस बरस की उम्र देकर जीवन  नरक बना दिया, इसे कम कर दें। मनुष्य के हिस्से में बीस बरस और बढ़ गए । अब वह शतायु हो गया, अपनी प्राप्त विधि सम्मत उम्र से साठ वर्ष अधिक। वह खुश था या नहीं इसे वही जानता था परंतु वह संतुष्ट नहीं था।
मनुष्य चालीस वर्ष तक बेफि क्र होकर शेर की तरह अपनी जिन्दगी जीता है, जो इच्छा होती है करता है, अपनी शर्तों पर जीता है। उसके पौरुष के कायल सभी होते हैं, उसकी चाल-ढाल से समाज की दिशा बदलती है। संसार भर के सारे वीर सपूतों ने इसी उम्र तक शौर्य के परचम लहराए हैं। काल के भाल पर   इन्हीं के हस्ताक्षर हैं। इस उम्र ने मुड़कर नहीं देखा। विश्व इतिहास में इनके कार्यों की अमिट रेख है, ये चालीस बरस विधाता द्वारा दी गई सही उमर है। चालीस से साठ तक मनुष्य ने गधे से उम्र ली थी अत: गधे की तरह वह अपने लिए नहीं परिवार नामक संस्था के लिए मरता है कमाता है। गधे की तरह भार ढोता है उसकी सारी कमाई सल्तनत के लिए होती है। साठ से अस्सी के बीच मनुष्य द्वार के कुत्ते की तरह बाहर या बरामदे में बैठा प्रत्येक आने-जाने वाले को एक नजर कुत्ते की तरह देखता है। दूसरे के टुकड़ों पर पलता है। रखवाली की शक्ति न होते हुए भी घर की चौकीदारी करता है। घर के बाल-बच्चे भी उसकी अनदेखी करके नजदीक से गुजर जाते हैं। वह ऐसा विवश कुत्ता होता है जो गुर्राना भी भूल चुका है, फिर भी जीना चाहता है। अस्सी से आगे की उम्र कीड़े मकोड़े सी जिन्दगी जीते हुए भी मनुष्य मरना नहीं चाहता । संतुष्टि उसके स्वभाव में नहीं, वह चिरायु होना चाहता है। पता नहीं, अमर होना क्यों चाहता है? फिर भी मनुष्य, विधाता की अनुपम रचना हमेशा कहलाई जाती रहेगी क्योंकि अन्यों की उम्र लेकर जीने की कला सिर्फ उसके पास ही है। उसकी जिजीविषा का अंत नहीं है।
                                                   - लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।
                                                           सम्पर्क - 9407041430.

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