Saturday, December 3, 2011

...और हासिल आए लब्धे शून्य

अपने देश का संसदीय लोकतंत्र अब एक ऐसा राजनीतिक कर्मकाण्ड बन चुका है जहां विचारधराओं के लिए कोई जगह नहीं दिखती। विरोध महज दिखावे या यों कहें छलावे के लिए होता है। आज जो पक्ष सत्ता में है कल विपक्ष में बैठेगा तो वैसा ही आचरण करेगा जैसा आज विपक्ष उसके साथ कर रहा है। बात चाहे भोपाल में भाजपा सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव की हो या फिर दिल्ली मे एफडीआई के विरोध को लेकर। बंगाल में ममता और सीपीएम, तमिलनाडु में जयललिता और करुणानिधि तथा यूपी में मायावती और मुलायम में फर्क सिर्फ इतना है कि इनकी भूमिकाओं में अदलाबदली हो गई है। देसी लहजे में कहें तो सत्ता का सिंहासन गांव के बरमबाबा के चौरे की तरह है, पंडा कोई भी हो अभुआएगा एक जैसा ही।
पिछले दिनों भोपाल में भाजपा सरकार के खिलाफ लाए गए अविश्वास प्रस्ताव पर चार दिनों तक लंबी बहस चली। विपक्ष ने आरोपों के तीर चलाए। सत्तापक्ष ने उस पर सफाई का पलीता लगाया। कुछ भी नया नहीं दिखा। जब कांग्रेस की सरकार थी तब भाजपा भी ऐसे ही अविश्वास प्रस्ताव लाया करती थी और अंत में जीत संख्याबल की ही होती थी। बदला कु छ भी नहीं सिवाए इसके कि सदन में जो पहले दाएं बैठा करते थे वे अब बाएं बैठे हैं। बिजली-पानी-सड़क और जनता की मुसीबतों की जो स्थिति तब थी वही आज है। तबादलों के लिए तब भी घूस लगती थी, आम आदमी को दफतरों में तब भी बाबू-अफसर काट खाने दौड़ते थे आज भी चबा जाने को तैयार बैठे दिखते हैं। मुद्रास्फीति के हिसाब से प्रगति यह हुई कि रकम कुछ ज्यादा लगने लगी और रकम देने के बाद भी काम की गारंटी नहीं। जरा सोचिए कांग्रेस के विपक्ष के चले जाने और भाजपा के सरकार में आ जाने से क्या बुनियादी बदलाव हुआ? खदानों की लूट का रास्ता कांग्रेस की सरकार ने खोला था, इस सरकार ने उस लूटपाट को संगठित रूप दे दिया। खनिज माफियाओं और ठेकेदारों की सूची में भाजपा समर्थक हैं तो कांग्रेस के अनुयाई भी। विधायक-मंत्री बन जाने के बाद तब भी फटीचर धन्नासेठ बन जाया करते थे, इस सरकार में भी बन रहे हैं। हां, धन्नासेठ बनने की स्पीड में आगे-पीछे का फर्क आ सकता है। अपने संसदीय लोकतंत्र में राजनीतिक कर्मकाण्ड कैसे सम्पन्न होते हैं,यह भी बड़ा दिलचस्प है। जनता के मुद्दे और खुद के मुद्दे बिलकुल अलग-अलग होते हैं। जैसे विधायकों-मंत्रियों के वेतन,भत्ते,सुविधाओं के बढ़ाने के मामले में सरकार के प्रति कोई अविश्वास नहीं, दलीय मतभेदों को भुलाते हुए सभी सदस्य चमत्कारिक एकता के साथ बिना किसी किंतु-परंतु के तत्काल निर्णय लेते हैं। जिस दिन विधानसभा में सरकार के प्रति अविश्वास प्रस्ताव की सूचना देते हैं उसी दिन सरकार से यह भी अपेक्षा करते हैं कि विधायकों का वेतन कम से कम प्रमुख सचिव के बराबर होना चाहिए। कृषिमंत्री शरद पवार पर जब आमजनता की ओर से मंहगाई का लप्पड़ पड़ता है तो सारे विरोधों को ताक पर धरकर सभी सांसद एक साथ चिंतित हो जाते हैं। अन्ना हजारे जब सांसदों को भी लोकपाल के दायरे में लाने की बात करते हैं तब सभी सदस्य दलों की विभाजन रेखा को मिटाते हुए एक सुर से बोलने लगते हैं।
उधर केंद्र की राजनीति में एफडीआई(फॉरेन डायरेक्ट इनवेस्टमेंट) को लेकर संसद से जनपथ तक गदर मचा है। संप्रग(संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन) सरकार ईस्ट इंडिया कंपनी के नए अवतार वॉलमार्ट को भारत में किराना-परचून का व्यापार करने की अनुमति देने का फैसला लिया है। ईस्ट इंडिया कंपनी भी यहां किराने और मसालों का व्यापार करने आई थी, बाद में हमें गुलाम बना लिया और राज करने लगी। गान्धीजी के वंशजों की पार्टी अब फिर से ऐसा करने जा रही है। लेकिन राजग(राष्टÑीय जनतांत्रिक गठबंधन)का एफडीआई का गलाफाड़ विरोध कुछ हजम नहीं होता। सन् 2002 में राजग सरकार ने ही एफडीआई के लिए पहला मसौदा तैयार किया था। चुनाव घोषणापत्र में भी एफडीआई के लिए वायदा किया गया था। क्या आप सार्वजनिक उपक्रमों के विनिवेश की घटनाओं को भूल गए। दुनिया भर की सरकारों में भारत की राजग सरकार ही ऐसी एक मात्र सरकार थी जिसने विनिवेश के लिए विधिवत एक मंत्रालय का गठन किया था। इसके मंत्री बनाए गए थे अरुण शोरी साहब। इस मंत्रालय का काम ही था कि अच्छे खासे मुनाफा कमाने वाले सार्वजनिक उपक्रम को पहले बीमार घोषित करना फिर औने-पौने दामों में निजी क्षेत्र के हाथों सौंप देना। बाल्को स्टरलाइट के हाथों इसी साजिश के तहत बिकी थी। स्टरलाइट भी बहुराष्टÑीय कंपनी है और उसका नियंत्रण विदेश से होता है। राजग सरकार के विनिवेश मंत्रालय ने कई और सार्वजनिक उपक्रमों का बेड़ा गर्क किया, विरोध हुआ पर जैसा सरकार ने चाहा वैसा ही होता रहा। थोड़ा और पीछे चलिए, नरसिंहराव की सरकार ने जब विश्वबैंक से तजुर्बा लेकर लौटे डॉ.मनमोहन सिंह के नेतृत्व में आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू की थी तब समर्थन में सबसे ज्यादा तालियां पीटने वालों में भाजपा ही थी। सन् 95 में जार्ज फर्नाडीस जो बाद में राजग के संयोजक भी बने,से मुझे लंबी बातचीत का मौका मिला था। तब जार्ज का खुला आरोप था कि कांग्रेस और भाजपा की आर्थिक नीतियों में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। उन्होंने प्रमाण व उदाहरणों के साथ बताया था कि आडवाणी के   नेतृत्व में किस तरह भाजपा के वरिष्ठ नेता यूरोप और अमेरिका में जाकर आश्वस्त कर रहे थे कि इकॉनामिक लिब्रलाइजेशन के मामले में हम एक हैं, भले ही विपक्ष में बैठे हों। यह बातचीत एक लंबे साक्षात्कार की शक्ल में छपी भी थी। भाजपा की अर्थनीति की प्रतिबद्धता की मुखालफत करने वाले जार्ज बाद में उसी की गोद में जा गिरे। सो इसलिए यदि संप्रग सरकार चाहती है कि देश मे विदेशी पूंजी प्रवाह हो तो होगा। राजग का विरोध उसी तरह इस प्रवाह को नहीं रोक पाएगा जैसा कि परमाणु करार को नहीं रोक पाया था। मालूम होना चाहिए, यहां खरीदार भी हैं और बिकने वाले भी।
दरअसल क्षेत्रीय दलों के उद्भव और गठबंधन की राजनीति के दौर में विचारधारा और जनाकांक्षओं की बातें कूड़ेदान में चली गर्इं। अब सिर्फ दो ही विचारधाराएं हैं। एक सत्तापक्ष की और दूसरी विपक्ष की। लेफिटस्ट,राइटिस्ट,सोशलिस्ट और सेंटरिस्ट सभी फेंटे से लग गए। कम्युनिस्टी विचारधारा को लेकर कुछ प्रतिबद्ध हुए भी तो राजनीति की मुख्यधारा से अलग थलग हो गए। आज सभी राजनीतिक पार्टियों का बस एक ही मूलमंत्र है, वह है अपरचुनिस्ट। बस फर्क इतना है कि काशीराम गर्व के साथ कहते हैं और ये दल मुखौटों के अंदर से। अब भला बताइये कि इस राजनीतिक क्रीड़ांगन में हमारे,आपके और आमजनों के लिए कहां जगह बची है क्या हासिल होने की उम्मीद लगाए बैठे हैं?

1 comment:

  1. शियासत की यही बुराई है॥

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