चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र

गुरुनानक ने बहुत पहले कहा था- "सहज पकै सो मीठा।" कच्चे फल को कृत्रिम तरीके से पकाने की पुरानी परम्परा है। शहरों में कार्बाइड से पके फलों में वह स्वाद कहां जो पेड़ में पके फलों में। चाहे वे आम हों, अमरूद और बेर, और अन्य फलों की बात ही क्या, फूट (ककड़ी) के स्वाभाविक रूप से टहनी पर ही फूटने की महक दूर तक फैलती है। इस पकने का भौतिक और आध्यात्मिक महत्व भी है। कबीर भी सहज समाधि को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। असहज अर्थात कृत्रिम, बनावटी में अपनापन नहीं, मिठास नहीं। विचार और आचरण का मूल्यांकन, प्रौढ़ता ही करती है। किसी वृद्ध को यदि वृद्ध कह दिया जाए तो उसे बुरा लगता है। अपने यहां वृद्धता, व्यर्थता बोध का अहसास कराती है। यह अहसास मृत्यु की ओर ले जाता है। अमर्ष का भाव पैदा करता है, चिढ़ाता है। मित्रों के साथ, तमाम शारीरिक वृद्धता के बाद भी हंसना-बोलना ऊर्जा देता है। अपने को अशक्त मानना और दूसरे को बीमार कहना दोनों अलग हैं। व्यर्थता-बोध आत्मघाती होता है चाहे यह युवा का हो या वृद्ध का, क्योंकि इसका संबंध मन से है। मन की वृद्धता से हरेक को बचना चाहिए। पके फल का सौंदर्य दर्शकों की आंखों में चमक पैदा करता है। पके आम के फल को रिमही में "शाह" और "मरई" कहते हैं। शाह का अर्थ बादशाह है, पका फल बादशाह है। जीवन तंतु से वह इतना जुड़ा रहता है कि जल्दी टपकना नहीं चाहता, पके फल पर झुर्रियां आने को मरई कहते हैं, जो मरने के करीब होता है, और तब ढेंप भी सूखकर फल को अपनी टहनी से मुक्त कर देता है।
वृद्धता को परिपक्वता भी कहते हैं, जिसमें पक्व जुड़ा है। उम्र की इस पूर्णता में थकान नहीं होती। महात्मा गांधी ने सत्तर वर्ष से अधिक उम्र में "करो या मरो" और "अंग्रेजों भारत छोड़ो" का नारा दिया, और यही से वे राष्ट्रपिता और सर्वमान्य हुए। जयप्रकाश नारायण का "सम्पूर्ण क्रांति" युवाओं के लिए एक वृद्ध का ही संदेश था। रवीन्द्रनाथ ठाकुर, बिनोवा भावे, सुन्दरलाल बहुगुणा की वृद्धता, युवाओं को कर्म और सौंदर्य का अहसास दिलाती रहेगी। महाभारत की भरी सभा में द्रोपदी की आशा जुआरियों से खत्म हो चुकी थी, तब उसने पितामह, कृपाचार्य और द्रोण की तरफ ही आशा भरी दृष्टि से देखा था, परंतु वे सभी वृद्ध विवश और अवश थे। शास्त्र कहते हैं कि वह सभा सभा नहीं है जिसमें वृद्ध न हों, और वे वृद्ध, वृद्ध नहीं है जो धर्म की बात नहीं कहते। सभा और वृद्धता को धर्म से जोड़ने की परिकल्पना सिर्फ भारतीय मनीषा में है। लोक में एक कथा प्रचलित है कि विवाह तय होने पर लड़की वालों ने लड़के वालों से कहा कि बाराती सभी युवा और सुन्दर हों, वृद्धों को बारात में लाने की कोई जरूरत नहीं। बच्चे और युवा बहुत खुश थे कि कोई टोकने वाला वृद्ध तो नहीं है। बड़ा मजा आएगा। एक वृद्ध ने कहा कि जरूरी इसमें कोई चाल है। ऐसा करो कि किसी वृद्ध को झंपी (बड़ी टोकरी) में लेते जाओ। बाराती मान गए और गांव के सबसे बुजुर्ग को झंपी में ले गए। घराती बहुत खुश कि बारात तो ठीक है। स्वागत सत्कार के बाद विवाह की परम्परा शुरु हुई। कुछ आवश्यक परम्पराओं की जानकारी बारातियों को बिल्कुल नहीं थी। घराती नाराज हुए, उन्होंने बिना विवाह के बारात लौटाने की बात कह दी। बाराती परेशान। झंपी के पास पहुंचकर बारातियों ने बुजुर्ग से बात की, उन्होंने प्रक्रिया बताई। घराती खुश तो हुए परंतु उन्होंने पूछा की तुम लोगों के तो अकल थी नहीं, कहां से प्रक्रिया की जानकारी ली, जरूर बारात में कोई वृद्ध है। तलाशी ली गई बुजुर्ग बाहर आए उन्होंने कहा- "मैं जानता था कि घराती, बारातियों के बुद्धि की परीक्षा लेना चाहते हैं। इसलिए मैं छिपकर आया।" तब से गांवों में यह लोकोक्ति बनी कि "वृद्ध को झंपी में" अर्थात सहेज कर और सिर पर लेकर चलना चाहिए। झंपी को सिर पर ही लेकर चलने की परम्परा है क्योंकि सगुन के सारे सामान उसी में होते थे। वृद्ध सगुन हैं लोक में।
अशोक, कलिंग युद्ध के कारण देवनामप्रिय नहीं हुआ। बौद्ध बनने के समय उसकी उम्र वृद्धता की थी। अपने बुद्धि चातुर्य के बल पर ही अकबर महान हुआ, उन दिनों वह युवा नहीं था। युवा निर्णयों में ओज और उत्साह होता है, अक्सर विवेक शून्यता रहती है। रामायण और महाभारत की रचना वयोवृद्ध और ज्ञान वृद्धता के कारण ही सम्भव हो सकी। "मानस" की सम्पाती शरीर से अशक्त है। अपनी कंदरा से सीता को अशोक वाटिका में बैठी देख रहा है। अपनी वृद्धता से क्षुब्ध है। कहता है - "बूढ़ भएउ, न त करतेंउ, कछुक सहाय तुम्हार" जबकि वृद्ध होते हुए भी जटायु रावण से भिड़कर, चोंच मार मार कर घायल कर देता है। मेघनाद ने जाम्बवात को वृद्ध मानकर छोड़ दिया था, लेकिन जाम्बवान ने उस महायोद्धा को टांग पकड़कर घुमाकर, रणक्षेत्र से सीधे लंका फेंक दिया था। युवा, बच्चों को वृद्धों के साथ खेलने दें तो पके फल सा स्वाद और खुशबू बिखेरते रहेंगे। अन्यथा उनके टपकने के दिन ही हैं, उसमें दुख मनाने की कोई बात नहीं।
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।
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