तो क्या यह तय मान लिया जाए कि सरकार नजरों में वहीं मांगे जायज हैं, जिनको लेकर जनता सड़कों पर उतरे, आगजनी, नाकाबंदी कर कुछ लाशें बिछें, रेलगाड़ियां जलें सार्वजनिक भवन फूंके जाएं? पृथक तेलंगाना राज्य को लेकर बनी सहमति और विन्ध्यप्रदेश के पुनरोदय को लेकर उपेक्षा से ऐसे सवाल खड़े होना लाजमी हैं। हफ्ते-दो हफ्ते के भीतर देश में एक नए राज्य तेलंगाना का उदय होना तय है, जबकि विन्ध्यप्रदेश के निर्माण के लिये विधानसभा में सर्वसम्मति से पारित प्रस्ताव की फाइल केन्द्रीय गृहमंत्रालय में धूल खा रही है।
केन्द्र के गृहमंत्रालय से जो खबरें आ रहीं हैं उसके अनुसार इसी महीने के अंतिम सप्ताह में किसी भी दिन तेलंगाना राज्य की घोषणा की जा सकती है। आन्ध्रप्रदेश के मुख्य सचिव व डीजीपी नए राज्य के फौरी मसौदों के साथ दिल्ली में है। इससे पहले 28 दिसम्बर को गृहमंत्री सुशील कुमार शिन्दे ने दिल्ली में सर्वदलीय बैठक के बाद कहा था कि तेलंगाना मुद्दे पर एक महीने के भीतर फैसला ले लिया जाएगा। तेलंगाना को पृथक राज्य बनाने का मुद्दा आजादी के बाद से ही उठता रहा है। धुर तेलगूभाषियों का यह क्षेत्र आन्ध्र के 23 में से 10 जिलों में फैला है और प्रदेश की 294 में से 119 विधानसभा सीटें इसी क्षेत्र में हैं। पृथक तेलंगाना को लेकर अब तक कई हिंसक प्रदर्शन हुए, अरबों की सम्पत्ति स्वाहा हुई, गोलियां चलीं और कुछेक ने आत्मदाह भी किया अब यह पूरी तरह से तेलगू स्वाभिमान का भावनात्मक मुद्दा बन चुका है अतएव कोई भी राजनीतिक दल इसे भुनाने में पीछे नहीं रहना चाहता। दरअसल तेलंगाना का मुद्दा कांग्रेस के लिये राजनीतिक नासूर बन चुका है, यदि उसे दक्षिण की राजनीति में अपनी जड़ें जमाए रखना है तो इस भावनात्मक मुद्दे को अपने पक्ष में मोड़ना होगा। राजशेखर रेड्डी की मौत और उनके पुत्र जगनमोहन रेड्डी की बगावत के बाद कांग्रेस की स्थिति वैसे भी खराब है। इसलिये कुछ ऐसी व्यूह रचना की गई है ताकि यह संदेश जाए कि नया राज्य कांग्रेस नेतृत्व की सदाशयता का प्रतिफल है। दरअसल नए राज्यों के गठन को लेकर केन्द्र सरकार का रवैय्या निहायत अव्यवहारिक रहा है। ऐसे कोई मापदण्ड तय नहीं किए गए जिसके आधार पर यह साबित किया जा सके कि नए राज्यों की जरूरत इसलिए है! सिर्फ जनभावनाओं के ज्वार और अपनी राजनीतिक अनुकूलता को आधार बनाया गया। वर्ष 2000 जब उत्तराखण्ड-झरखण्ड और छत्तीसगढ़ को भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने मंजूरी दी तब भाजपा के वरिष्ठ नेता (चार बार भोपाल से सांसद रहे) व पूर्व नौकरशाह सुशील चन्द्र वर्मा ने आहत मन से वक्तव्य दिया था कि पहला हक विन्ध्यप्रदेश का बनता है, विन्ध्यवासियों के साथ छल किया गया। श्री वर्मा प्रशासनिक अधिकारी के रूप में विन्ध्यप्रदेश की राजधानी रीवा में पदस्थ थे। विन्ध्यप्रदेश के विलीनीकरण के पूर्व सरकार ने प्रदेश की आर्थिक क्षमता समेत जिन क्षेत्रों के सव्रेक्षण करवाए थे उन सबके निष्कर्ष में ये बात सामने आयी कि विन्ध्य प्रदेश की क्षमता शेष मध्यप्रदेश से बेहतर है। विन्ध्यप्रदेश की पहली निर्वाचित विधानसभा के सदस्य रहे और अब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता श्रीनिवास तिवारी ने विलीनीकरण के विरोध में सात घंटे का ऐतिहासिक भाषण दिया था और एक-एक तथ्य सामने रखे थे।
विलीनीकरण के विरोध में हुआ बड़ा आन्दोलन भी केन्द्र की साजिश को रोक नहीं पाया। और यह कहते हुए कि छोटे राज्यों का भविष्य सुरक्षित नहीं है विन्ध्यप्रदेश को मध्यप्रदेश में शामिल कर दिया गया।
यद्यपि विन्ध्यप्रदेश तब भी कई समकालीन राज्यों के मुकाबले विस्तृत व सक्षम था। 23.603 वर्गमील फैला यह राज्य अपने उन 35 रियासतों को समेटे था। 4 अप्रैल 1948 को आस्तित्व में आने के बाद प्रशासनिक रूप से दो संभागों व आठ जिलों में बांटा गया।
तब की जनसंख्या व मतदाताओं के हिसाब से 60 विधानसभा क्षेत्र व 4 लोकसभा क्षेत्र थे। सन् 50 में विन्ध्यप्रदेश को केन्द्र शासित बनाने की पहल हुई थी। उसी के विरोध में हुए आन्दोलन में गंगा-अजीज और चिन्ताली शहीद हुए थे। समाजवादियों का यह नारा ‘‘लाठी गोली खाएंगे, धारासभा बनाएंगे’’ कामयाब रहा। विन्ध्यप्रदेश को नया रूप मिला व मार्च 1952 में पहला चुनाव हुआ। फलते फूलते विन्ध्य प्रदेश के कत्लेआम के पीछे तब के कांग्रेसी नेतृत्व की साम्राज्यवादी व सामंती सोच की भीषण साजिश थी। केरल में नम्बूदरीपाद के नेतृत्व में कम्युनिस्ट सत्ता में आ चुके थे। कांग्रेस नेतृत्व को भय था कि विन्ध्य प्रदेश में जिस ताकत के साथ समाजवादी उभर रहे हैं उसके चलते यह प्रदेश भी उनके हाथ से चला जाएगा।
यह बात सही है कि विन्ध्यप्रदेश के निर्माण के लिए अब तक तेलंगाना या छत्तीसगढ़, उत्तराखण्ड जैसे तीव्र आन्दोलन नहीं हुए, लेकिन यह भी सही है कि विन्ध्यप्रदेश की लालसा विन्ध्यवासियों के दिलों में कहीं न कहीं अब तक जीवंत है। 10 मार्च 2000 को मध्यप्रदेश की विधानसभा में तत्कालीन विधायक शिवमोहन सिंह ने विन्ध्यप्रदेश के गठन का अशासकीय संकल्प प्रस्तुत किया। यह संकल्प सर्वसम्मति से पारित होकर कार्रवाई हेतु केन्द्र सरकार के गृहमंत्रालय भेज दिया गया।
तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने तब के रीवा के सांसद सुन्दरलाल तिवारी के एक सवाल के जवाब में यह स्वीकार किया कि मध्यप्रदेश की विधानसभा से जो प्रस्ताव आया है उसके विविध पहलुओं की जांच करवाई जा रही है। 2004 तक एनडीए सरकार इस फाइल को दबाए बैठे रही, इसके बाद कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार आई। दुर्भाग्य है कि हमारे विन्ध्य क्षेत्र के सांसदों ने इस क्षेत्र में कोई पहल नहीं की। प्रदेश में इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले विधायकों को भी इसकी चिन्ता नहीं।
प्रदेश की भाजपा सरकार के लिए तो विन्ध्य क्षेत्र नया ठिकाना है, सो वह इसे मध्यप्रदेश से क्यों अलग होने देना चाहेगी। असली सवाल यह है कि हम पृथक विन्ध्यप्रदेश की बात क्यों करें? इसके आसान से जवाब हैं। विन्ध्यप्रदेश को यह तर्क देते हुए तोड़ा गया था कि छोटे राज्य व्यवहारिक नहीं है। झरखण्ड-छत्तीसगढ़, उत्तराखण्ड के उदय के बाद यह तर्क गर्त में चला गया।
विन्ध्यप्रदेश को एक नए राज्य का स्वमेव नैसर्गिक अधिकार मिल जाता है। दूसरे छत्तीसगढ़ की बात करें तो मध्यप्रदेश के मुकाबले वह तेजी से विकास कर रहा है। हर क्षेत्र में उसके तरक्की की रफ्तार मध्यप्रदेश से आगे है। वहां के नागरिकों का जीवन व क्षेत्र का विकास काफी बेहतर हुआ है। आज वहां शिक्षा व स्वास्थ्य के सभी राष्ट्रीय संस्थान है, जो नहीं हैं वो खुलने जा रहे हैं।
एक नए राज्य के तौर पर विन्ध्यप्रदेश देश के अन्य राज्यों को काफी पीछे छोड़ने की कूव्वत रखता है। ऊर्जा व सीमेंट के उत्पादन मे ंयह क्षेत्र आज भी देशभर में सवरेपरि है। खनिज व वन संसाधन, इस प्रदेश की तरक्की में चार चांद लगाएंगे। कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व के लिए यह अच्छा अवसर है कि तेलगांना के साथ ही विन्ध्यप्रदेश के गठन की प्रक्रिया शुरु करें, कांग्रेस के लिए इससे बढ़िया पुण्यात्मक प्रायाश्चित कुछ हो ही नहीं सकता।
लेखक - स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं। संपर्क-9425813208
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