Friday, January 18, 2013

दीवालों से न दरवाजों से घर बनता है घरवालों से


चिन्तामणि मिश्र
मकान सब के होते हैं। कोई खुद के मकान में रहता है तो कोई किराए के मकान में रहता है। कुछ लोगों के मकान आधुनिक तकनीक से पक्के होते हैं और कुछ के मकान कच्चे और खपरैल वाले होते हैं। देश में बहुत बड़ी आबादी झुग्गी झोपड़ी में रहती है। इसके निवासी अपने इस आशियाने को भी मकान ही कहते हैं। बहुत से ऐसे भी भाग्यशाली होते हैं, जिनके कई मंजिल के मकान में सैकड़ों कमरे होते हैं। मकानों की एक किस्म बंगलों और कोठियों के नाम से भी पुकारी जाती है। सन् 1947 तक जो शासक बिरादरी किलों, कोठियों और गढ़ी में रहती थी, अब उन्हीं की संशोधित शासक बिरादरी कोठी और बंगलों में ही रह रही है। पुराने शासकों को नए शासकों ने जब से घर-बाहर किया है, तभी से किला और गढ़ी देख-भाल के अभाव में जर्जर हो कर धराशाही होने की कगार पर आ गए। कुछ में होटल खुल गए। सरकारी नौकरशाही के निवास का नामकरण थोड़ा विचित्र है। हमारे भूतपूर्व अंग्रेज मालिकों ने अपने वेतन भोगियों की जो जाति निर्धारित की थी, उसके अनुसार इनके निवास-स्थान का नामकरण होता है। तहसीलदार के सरकारी आवास को बंगला कहा जाएगा और इसी के बगल में इतने ही भूखन्ड में, इतने ही कमरों और बरामदे होने पर भी इसे क्वाटर का नाम दिया जाएगा, क्योंकि इसमें क्लर्क रहता है।

मकान जिन्दगी गुजारने की शरणस्थली होते हैं। इस बात से मकान पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता कि कुछ लोग मकानों में सारी उम्र अशान्त, तनाव, कुंठा, अलगाव, क्रोध, धमंड, अहंकार और भय को बदंरिया के मरे बच्चे की तरह अपनी छाती में चिपकाए हुए गुजार देते हैं। हर मनुष्य के मन में बस एक ही ललक होती है कि किसी तरह उसका भी एक घर हो जाए। वैसे हर आदमी की इच्छा होती है कि उसका मकान, घर की तरह हो। लेकिन घर बनाने के लिए जो बुनियादी चीज परम जरूरी है उस पर कभी कोई ध्यान ही नहीं देता है। लोग सारी जिन्दगी भौतिक और विलासता की महंगी से महंगी चीजें मकान में एकत्र करते रहते हैं सुख सुविधा का ढेर लगा देते हैं, किन्तु घर नहीं बना पाते। घर को लेकर हर कोई सपनें देखता है। सन्यासी, साधु, बाबा, महात्मा भी घर बनाने और उसे सजाने में जुटे हैं। यह अलग बात है कि अपने इन मकानों को आश्रम, मठ, अखाड़ा और मंदिर का नाम देकर गृहस्थ से खुद को अलग दिखा कर दिखावा कर रहे हैं। अब वह समय नहीं रहा जब सन्यासी-बाबा खुले आसमान या पेड़ के नीचे रहते थे और महाराजा जनक दशरथ से लेकर सिकन्दर-अशोक जैसे प्रबल प्रतापी सम्राट मिलने के लिए हाथ बांधे वहां खड़े होते थे। जंगलों में पहाड़ों की गुफा में रहने के भी दिन बीत गए। वह नगर और महानगर आबाद करता है। भीमकाय और गगनचुम्बी पक्के, मजबूत मकान बना कर रहने लगा है। कंक्रीट की उगाई मीनारों में माचिस की डिब्बी जैसे फ्लैट नाम की आधुनिक गुफाओं में धरती और आकाश के बीच टंगा हुआ "स्वीट होम" का कीर्तन कर रहा है।

आज लोगों के अपने घरों में बेहद कीमती पत्थर, टाइल्स, विदेशी सेनेटरी सामग्री लाखों का फर्नीचर सपनों वाला शयनकक्ष और किचन हैं। टॉयलेट और बाथरूम देख कर हमारे जैसे चिरकुटों को तो लगने लगता है कि यहीं पसर कर सो जाए। ऐसे मकानों में जा कर मैं सोचने लगता हूं कि क्यों इतना रुपया खुद अपने लिए जेल का निर्माण कराने के लिए खर्च किया है? खिड़की, रौशनदान, बालकनी, बरामदें होते हैं, किन्तु सभी में लोहे की मोटी छड़ों का ऐसा जाल लगा होता है कि चिड़ियों का भी प्रवेश असम्भव है। पूरी दुनिया से कट कर हम अपनी ही बनाई गुफा में समा जाते हैं। पहले के ऋषि-मुनि पूरे जगत से कट कर ध्यान "समाधि" लगाते थे आज हम काल्पनिक भय के मारे बन्दी बन कर जी रहे हैं। इन घरों में से खुला आसमान भी नहीं दिखता है, क्योंकि एसी ने उसे भी छीन लिया है।

आधुनिकता की चूहा दौड़ में आंगन और बरामदें वाले घरों का समय हमने विदा कर दिया है। स्वाभाविक खुलापन उपलब्ध नहीं है। लोग मुहल्ला छोड़कर कालोनियों में रहने लगे हैं। मुहल्लेदारी हमारी सामाजिकता की पहली सीढ़ी थी। अब फ़्लैट ने सब काट दिया है। हर फ्लैट का द्वार हमेशा बन्द रहता है। किसी का किसी से कोई संवाद नहीं है। बाहर से काम करके आइए और अपने फ्लैट में समा जाइए। अगल-बगल और आमने-सामने रह कर भी लोग वर्षो अबोले रहे आते हैं। संवाद की स्थिति कभी नहीं बनती। सामाजिकता के लिए कोई जगह नहीं बचती। हालांकि नएपन या अजनबीपन को विर्सजित करने का पहला चरण है संवाद। आज के मकानों में भौतिक सुखसुविधा तो भरपूर है किन्तु सामाजिकता के लिए कोई जगह नहीं है। सरोकार से कट जाना ही नियति बन गई है। इन आधुनिक मकानों में आपसी प्रेम, आपसी सहकार, स्नेह, आदर के लिए कोई जगह ही नहीं बची है। एक छत के नीचे कई लोग रहते हैं किन्तु सभी में विचित्र प्रकार का अबोला है। किचन तो एक ही होता है, किन्तु लंच और डिनर एक साथ बैठकर खाना अंतिम बार कब खाया था किसी को याद नहीं है। मकानों में होटल की तरह लोग बाहर से आते हैं और अपने कमरें में चले जाते हैं, यदि घर में बुजुर्ग हैं तो उनके पास बैठने और उनसे बात करना किसी को नहीं सूझता।

पैसा होने पर कोठिया बंगले, फ्लैट आदि बनाए जा सकते हैं किन्तु घर बनाने के लिए धन नहीं मन की जरूरत है। माना कि आज उपभोगतावाद की कुत्ता दौड़ ने आदमी को यांत्रिक मानव बना दिया है, किन्तु कुछ पल ऐसे तो निकाले ही जा सकते हैं जिसमें आदमी शान्ति से अपनों के बीच अपनों के लिए जी सके। मकान को घर में बदलने के लिए कुछ भी खर्च नहीं करना होता है। मन से अंहकारी ऐंठन और स्वार्थ की भावना से पिन्ड छुड़ाने की जरूरत है। अजनबीपन की आदत ने आज हर आदमी को तनाव, भय, अविश्वास, अधैर्य, लालच की पठौनी दे कर कुंठित कर रखा है। हमारे पुरखे मकान नहीं घर बनाते थे। उनकी धारणा थी कि घर में पांच तत्व का होना जरूरी है। वह आरोग्यवर्धक हो, समृद्धिवर्धक हो, सस्ता हो, पर्यावरण से तालमेल वाला और सामाजिक हो तथा शांति प्रदाता हो। आजकल के मकान भूखे हैं। समृद्धिवर्धक नहीं है, उनकी भूख मिटाने के लिए अतिरिक्त सामान की आवश्यकता बराबर पड़ती रहती है। वे सामाजिक भी नहीं होते। अनजान तो क्या जान-पहचान के व्यक्ति का भी मकान स्वागत करता प्रतीत नहीं होता, झिझक सी बनी रहती है।  पर्यावरण से भी तालमेल नगण्य प्राय: है।

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।

No comments:

Post a Comment