Thursday, November 15, 2012

उल्लू का पट्ठा और हमारी लक्ष्मी बहू

 उल्लू का पट्ठा जवान होता है तो उसे एक लक्ष्मी की जरूरत होती है, जो रूपवती हो, गुणवती हो, शीलवती हो, ऐश्वर्या जैसी सुन्दर हो, सावित्री जैसी पतिव्रता भी हो, मल्लिका शेरावत जितनी सेक्सी हो और सीता जैसी आज्ञाकारी भी हो। उल्लू को इसके साथ एक ऐसी बहू चाहिए, जिसका बाप कुबेर हो और बेटी साक्षात लक्ष्मी हो। उल्लू कहता है कि उल्लू के पट्ठे को आदमी बनाने में कोई कम खर्च नहीं हुआ है, पूरा का पूरा इंफ्रा-स्ट्रक्चर तैयार कर हम आपको सौप रहें हैं, बस उत्पादन भर की देर है। सरकारी विभाग में इंजीनियर लग गया है। देखते जाइए, दोनो हाथों से कमाता चला जाएगा
दीपावली के अवसर पर प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं और कलेंडरों में आज तक एक भी ऐसा चित्र नहीं देखा है जिसमें कोई पुरुष दीपक जला रहा हो। औरत ही दीपक जलाती है। औरत ही दीपक का थाल सजाती है। माडलिंग करने वाली जीन्स और टाप से हमेशा सज्जित औरत कितनी भी आधुनिका हो, इस घड़ी वह पारम्परिक वेश में ही दिखती है। वह कांजीवरम या बनारसी साड़ी में ही होती है। सिर पर आंचल होता है, माथे में बिन्दी होती है, कलाइयों में चूड़ियां और शरीर पर परम्परागत जेवर होते हैं। इस सज-धज में वह साक्षात लक्ष्मी दिखती है। तलवार और शिवाजी, फूल और शाहजहां, घोड़ा और लक्ष्मीबाई, बंडी और जवाहर लाल, नेता और हेराफेरी की तरह दीपक और औरत भी एक दूजे के लिए बने होते हैं।
जिस किसी ने दुनिया के पहले दीपक का अविष्कार किया होगा वह इसमें छिपी सम्भावनाओं को देख कर चमत्कृत हुआ होगा और उसने उस दीपक को अपने पास खड़ी औरत को थमा दिया होगा। शायद यही आदिम सच्चाई है कि सदियों से औरत हाथ में दीपक लिए खड़ी है और उसके चारों ओर घुप्प अंधेरा- ही-अंधेरा है। चित्रों में मैंने औरत को फुलझड़ी भी जलाते देखा है। पुरुष आमतौर पर फुलझड़िया जलाना पसन्द नहीं करता। वे पटाखा और बम फोड़ते हैं। पुरुष जिस आग से खेलते हैं उससे दूसरे जख्मी होते हैं। औरत जिस दीपक को पकड़े होती है, उसकी लौ उसके ही आंचल की ओर लपकती है, फिर भी वह अपने आँचल में इस जलते हुए दीपक को छुपाती-बचाती चलती है ताकि चारों ओर उजास फैल जाए। यही संस्कार उसे मिले हैं। लेकिन यह उजास उसके जीवन में कभी प्रवेश नहीं करती है। औरत को हमारे यहां लक्ष्मी के नाम से भी पुकारा जाता है। लक्ष्मी के आसपास एक उल्लू भी होता है। इसमें मुझे कुछ अटपटा नहीं लगता है। दूसरे देशों की तरह हमारे देश में भी उल्लुओं की सदैव उपस्थिति रही है। पश्चिम में उल्लू बुद्धिमान पक्षी समझ जाता है, लेकिन हमारे यहां उल्लू मूर्ख माना जाता है। शायद पश्चिम में उल्लू अंग्रेजी ज्ञान के कारण अक्लमन्द हो गए और हमारे देश के उल्लू मूर्ख रह गए। इसीलिए आज हमारे यहां भी अंग्रेजी जानने और बोलने के लिए होड़ मची है। परन्तु मुझे नहीं लगता कि हमारे यहां के उल्लू मूर्ख हैं हां वे धूर्त हैं, बस लक्ष्मी भर मिल जाए तो हमारे उल्लू उसे खुशी-खुशी अपने कन्धों पर चढ़ा लेंगे। अशोक-कालीन बौद्धों के भरहुत स्तूप में देवताओं के खजांची कुबेर की पत्‍नी की आदमकद प्रतिमा खुदाई में मिली थी, एक रामवन के संग्रहालय में तो दूसरी भटनवारा ग्राम के काली मंदिर में स्थापित हैं। इन प्रतिमाओं में कुबेर पत्‍नी को पुरुष अपने दोनो हाथों की हथेलिओं पर उठाए चित्रित किया गया है। इससे जाहिर होता है कि हमारे यहां लक्ष्मी सिर या हाथों में उठाने की परम्परा बहुत पुरानी है। हमारे यहां उल्लू पर लक्ष्मी की सवारी होने का मिथक है। भरहुत की इन दोनों प्रतिमाओं से स्पष्ट भी हो जाता है कि उल्लू पर लक्ष्मी सवार होती है।
पता नहीं हमारे देश में यह कैसी मान्यता बन गई है कि उल्लू मूर्ख होते हैं। इसके चलते कई गालियां और मुहावरे भी प्रचलन में हैं। चुटकुलों और लतीफों में पति प्राय: मूर्ख और जोरू के गुलाम के रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं। इन चुटकुलों को गढ़ने वाले पुरुष ही हैं और वे इतने मूर्ख नहीं हैं कि अपने को ही मूर्ख बताते चलें। यह भी इनकी धूर्तता का एक प्रमाण है कि वे पति होते हैं जिसका अर्थ मालिक होता है किन्तु पत्‍नी मालकिन नहीं होती है। हालांकि पुरुष मौके-बेमौके उसे मालकिन की पदवी से अलंकित करता रहता है, क्योंकि वह जानता है कि कहने भर से कोई मालकिन नहीं हो सकती है। शादी के बाद वह न औरत रह जाती है और न मालकिन बन पाती है। सात फेरों के बाद वह पति की जायजाद बना दी जाती है। वह सीता-सावित्री-द्रोपदी-मंदोदरी-गांधारी तो हो सकती है, किन्तु मालकिन नहीं हो सकती। हमारे देश में औरत को लक्ष्मी कहा गया है। उसके भी हाथ में एक दीपक होता है, उसे वह हर शाम तुलसी-चौरा और घर में विराजे भगवान के आगे संध्या-बाती करके प्रार्थना करती है, मनुहार करती है कि लक्ष्मी के गर्भ से लक्ष्मी पैदा न हो जाए।
लक्ष्मी का आना उसके उल्लू को पसन्द नहीं है। उसके उल्लू को लक्ष्मी नहीं, एक उल्लू का पट्ठा चाहिए। पहले किसी जमाने में नवजात लक्ष्मी को नदी में बहा दिया जाता था ताकि उल्लुओं के सिर और उनकी मूंछे तनी रह जाएं। विज्ञान की अनुकम्पा से आजकल लक्ष्मी की भ्रूण हत्या कर दी जाती है। नदी की बजाए आज उसे नाली में बहा दिया जाता है। उल्लू का पट्ठा जवान होता है तो उसे एक लक्ष्मी की जरूरत होती है, जो रूपवती हो, गुणवती हो, शीलवती हो, ऐश्वर्या जैसी सुन्दर हो, सावित्री जैसी पतिव्रता भी हो, मल्लिका शेरावत जितनी सेक्सी हो और सीता जैसी आज्ञाकारी भी हो। उल्लू को इसके साथ एक ऐसी बहू चाहिए, जिसका बाप कुबेर हो और बेटी साक्षात लक्ष्मी हो। उल्लू कहता है कि उल्लू के पट्ठे को आदमी बनाने में कोई कम खर्च नहीं हुआ है, पूरा का पूरा इंफ्रा-स्ट्रक्चर तैयार कर हम आपको सौप रहें हैं, बस उत्पादन भर की देर है। सरकारी विभाग में इंजीनियर लग गया है। देखते जाइए, दोनो हाथों से कमाता चला जाएगा।
दूसरा उल्लू कहता है, उल्लू के पट्ठे को आदमी बनना है। बिजनेस-उजनेस करने का इरादा है, पूंजी तो चाहिए होगी न? आप भी नहीं चाहेंगे कि आपका दामाद उल्लू का पट्ठा भर रह जाए। लक्ष्मी आ जाती है और उसके हाथ में दीपक थमा दिया जाता है। उल्लू परिवार, तराजू और बही-खाता लेकर बैठ जाता है। वह तराजू पर लक्ष्मी को तौलता है, लड़की वालों ने डंडी तो नहीं मार दी, घटतौली तो नहीं कर दी? खोटा सिक्का तो नहीं थमा गए? बही-खाता मिलाया जाता है। लक्ष्मी के हाथ सिर्फ एक दीपक है। वह अलादीन का चिराग नहीं है। उसमें सिर्फ आग है। अगर लक्ष्मी समझदार हुई तो आग ही उसकी समस्या का समाधान है। उल्लू का पट्ठा भगवान को प्यारा हो जाता है। अर्थी उठ जाने के बाद मिट्टी के बरतन बाहर फेंक दिए जाने हैं। बहू, तूने क्या तय किया है? टूटे बरतन की तरह एक कोने में पड़ी रहेगी, या बाहर फिक जाएगी? तेरे हाथ में दीपक है, सती क्यों नहीं हो जाती? हम मंदिर बनवा देंगे, सती-चौरा बनवा देंगे। सती होना गैर कानूनी घोषित है, इसकी तू फिक्र मत कर, तू तो सती- लोक चली जाएगी और हम लोग चांदी-सोने की नौका से सरकारी बैतरणी मजे से पार हो जाएंगे। तेरी पूजा होती रहेगी और इस उल्लू परिवार की रोजी-रोटी की समस्या भी कई पीढ़ियों के लिए हल हो जाएगी। तू तो हमारी लक्ष्मी है न बहू !
चिन्तामणि मिश्र
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।

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