Friday, November 23, 2012

शिक्षा का तदर्थवाद

कहते हैं कि आगरा के लाल किले के एक कमरे में कैद शाहजहां से औरंगजेब ने पूछा कि खाने के लिए आपको क्या चाहिए और कौन सा काम आप इस एकांत में करना चाहेंगे। शाहजहां एक विवश बादशाह थे। मुगल साम्राज्य के सबसे कलाप्रिय और कल्पनाशील भावुक बादशाह शाहजहां ने किंचित विचार कर कहा कि यदि दे सको तो खाने के लिए चना और काम के लिए कुछ छात्र दे दो जिन्हें हम शिक्षित कर सकें। औरंगजेब बुद्धिमान था, दूरदर्शी परंतु क्रूर बादशाह था, उसने शाहजहां से कहा-पिताश्री आपसे बादशाहत छिन गई राजपाठ छूट गया परंतु बादशाहत की बू अभी भी नहीं गई। शाहजहां के शब्दों का निहितार्थ औरंगजेब ने समझ लिया और दोनों चीजों को देने से इंकार कर दिया।
वह जानता था कि चना सबसे ताकतवर अन्न है जिससे विविध व्यंजन बनाये जा सकते हैं सबसे श्रेष्ठ अन्न की चाहत अभी भी पिताजी के दिमाग में स्थिर है। और छात्रों को शिक्षित कर सत्ता पलट का काम आसानी से किया जा सकता है। बिना हर्र फिटकरी लगे चोखा रंग लाना अभी भी वे भूले नहीं। औरंगजेब तुर्को-मुगलों का इतिहास जानता ही था, यवनों के इतिहास की भी उसे जानकारी थी। उसे पता था कि शस्त्र का ककहरा न जानने वाले चाणक्य ने चंद्रगुप्त जैसे छात्र के बल पर महानंद और सिल्यूकस को ठिकाने लगा दिया। शिक्षा के माध्यम से ही अपने और देश को समर्थ और सार्थक बनाने की विशाल परम्परा से परिचित औरंगजेब ने पिता की अंतिम इच्छा पूरी नहीं की। कमरे के एक कोने में लगे शीशे से ताजमहल की मीनारें देखते शाहजहां ने अपनी जीवन यात्रा पूरी की।
प्रत्येक युग की शिक्षा के अलग-अलग प्रारूप थे। आश्रम की शिक्षा व्यवस्था से लेकर आधुनिक शिक्षा व्यवस्था तक शिक्षा ने प्रत्येक आयाम तय किये हैं। यूनान की शिक्षा ने जहां विश्व को श्रेष्ठ दार्शनिक दिये, वहीं विश्व विजयी महत्वाकांक्षी सिकन्दर महान को भी पैदा किया। स्पार्टा के योद्धाओं और एथेन्स के गुरुओं का विश्व ऋणी हैं। जिस शिक्षा में देश के प्रति स्वाभिमान और विभिन्न लोगों के प्रति समरूपता का भाव पैदा न हो उस शिक्षा का क्या औचित्य? अपने देश की शिक्षा कुछ ऐसी ही स्थिति से गुजर रही है। शिक्षा पर अपढ़ या कुपढ़ व्यवसायिक का अंकुश है जिससे हर छात्र की दृष्टि में सिर्फ वह और उसका परिवार है। देश कहीं भी नहीं है, समाज भी कहीं नहीं। एक तटस्थ सार्वकालिक दृष्टि का अभाव इन पाठय़क्रमों में स्पष्ट दिखता है। जो मुद्दे भविष्य के प्रश्न चिन्ह हैं उनको सुन-जानकर चुप्पी साध लेना न आदर्श शिक्षक के लक्षण हैं, न छात्र के। इनका चुप रहना अन्याय को मौन समर्थन देना और स्वयं को आत्महन्ता से कमतर नहीं है, अपने को समाप्त करने की शुरुआत है। राजनीति की समझ और उसमें भागीदारी न करने की सजा समाज को तब भोगनी पड़ती है। जब कमतर लोगों द्वारा उसे शासित होना पड़ता है।
शिक्षा के तमाम संसाधनों के बावजूद राष्ट्रीय चेतना का इतना अभाव क्यों है? अरविन्द और सुभाषचन्द्र आई.सी.एस. की नौकरी को लात मार सकते हैं और कितने ही लोग आई.ए.एस. बनकर करोड़ों कमाने की पंक्ति में खड़े हैं। इन प्रशासकों के दिमाग में सिर्फ अंग्रेजियत की बू है, शासन करने की प्रवृत्ति सेवा मात्र शब्द की है, जिसके कोई मायने नहीं। इतिहास की ओर लौटना कोई "नास्टेल्जिया" या अतीत मोह नहीं है, जब सामने कोई प्रकाश-किरन न दिखे तब अतीत से ही शक्ति ग्रहण करनी होती है।
विश्वविद्यालयों के दीक्षान्त समारोहों में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मानव संसाधन मंत्री, शिक्षा की गुणवत्ता पर दुख जाहिर करते हैं, स्वयं कितने दायित्व के प्रति प्रश्नचिन्ह खड़ा करके किससे समाधान की अपेक्षा करते हैं। प्रवेश में इनके कोटे की सीट है। जो उत्तीर्ण नहीं होते वे इनकी मदद से प्रवेश पाकर गुणवत्ता हासिल करते हैं। शिक्षा के प्रशासन पर बैठे आई.ए.एस. कोई शिक्षाविद तो हैं नहीं। शासन किसी शिक्षाविद् से शीघ्र सहमति नहीं बना पाता जितना प्रशासनिक अधिकारी से बना लेता है। इसी कारण शिक्षा की शीर्ष कुर्सी पर कोई शिक्षाशास्त्री नहीं। म.प्र. में एक समय तदर्थवाद था अब अतिथि विद्वान हैं। सभी महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में हजारों पद खाली हैं और नए-नए पाठय़क्रम खुल रहे हैं। जो सहायक शिक्षक नहीं बन सके थे, वे ही तदर्थ का सहारा लेकर कॉलेज में प्राध्यापक बने। एक बार पी.एस.सी. ने उनकी परीक्षा ली। अधिसंख्य फेल हो गए। हड़ताल हुई और प्राथमिक परीक्षा फेल तदर्थ प्राध्यापक आज म.प्र. के अनेक कॉलेज के प्रोफेसर और प्राचार्य हैं। रही सही कसर शासनाधीन हुए प्राइवेट कॉलेजों ने पूरी कर दी। जो अरब सागर से नर्मदा निकालते और बंगाल की खाड़ी में गिराते थे, वे आज भूगोल पढ़ा रहे हैं। एक समय था कि आठवीं का छात्र विश्व का मानचित्र अपने हाथ से बनाता था। सारे देशों की जलवायु जानता था। यूजीसी ने कॉलेज और विश्वविद्यालयों के प्राध्यापकों, अधिकारियों को रिजर्व बैंक की चाभी दे दी कि जितनी इच्छा हो, वेतन निकाल लो।
पत्र पत्रिकाओं से विरत ये प्राध्यापक इक्कीसवीं सदी का भारत निर्माण कर रहे हैं। इस देश में भी समान काम और समान वेतन की बात कही जाती है। कुछ प्राध्यापकों को छोड़ दें, तो पंचान्वे प्रतिशत प्राध्यापक सेशनल के नाम पर ज्ञान का नहीं भय का खेल खेलते हैं। कुछ तो सिर्फ शोध कराते हैं, जिनकी थीसिस के शोषण के मुकदमे देश देखता है, वही प्राथमिक शिक्षा देने वाला शिक्षक जिसने व्यवसायिक मण्डल की परीक्षा पास की है। मनरेगा की दैनिक मजदूरी से कम वेतन पाता है। जो कुछ भी न पढ़ाए वह प्रोफेसर और एक लाख मासिक वेतन, और जो पढ़ाए, खाना (मध्यान्ह) खिलाए, जनगणना, पशुगणना, चुनाव के झमेले-झेले, उसे ढाई हजार। ऐसी विसंगति वाली शिक्षा प्रणाली कलानिधि, दयानिधि, रामलिंगम राज जैसे भ्रष्टाचारी व्यवस्था के अराजक नेता ही पैदा करेगी, उनसे किसी राजेन्द्र प्रसाद, राधाकृष्णन, अम्बेडकर, जयप्रकाश, कपरूरी ठाकुर की कल्पना नहीं की जा सकती।
कुछ वर्ष पहले सरकारी विद्यालयों, महाविद्यालयों के छात्र बेहतर परिणाम देते थे। साठ प्रतिशत वाले छात्र को लोग गर्व से देखते थे। अब नब्बे, पंचान्वे, प्रतिशत वाले के प्रति भी वह भाव पैदा नहीं होता, क्यों? सब कुछ दिग्विजयी मैनेजमेन्ट से संभव है, इस आमधारणा को कौन दूर करेगा? शिक्षा जब तक व्यवस्था की पिछलग्गू रहेगी, वह सेवक और नौकर तैयार करेगी। देशभक्ति जन सेवा पुलिस थाने में लिखा रहेगा, जिसका न तो सेवा से सम्बन्ध है, न देशभक्ति से। हो भी क्यों, जब थानों की बोली चढ़ती हो तो मित्र की कविता याद आती है-"राजा है जब चोर, सिपाही क्या कर लेगा।" ऐसे छात्रों, शिक्षकों से राष्ट्र निर्माण की कल्पना दिवास्वप्न के अतिरिक्त कुछ नहीं।
चन्द्रिका प्रसाद चन्द्र
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक हैं।

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