Sunday, November 25, 2012

क्षमा शोभती उस भुजंग को

 कसाब को फांसी पर चढ़ाने के बाद पाक पोषित तालिबान और लश्कर-ए-तैयबा ने हिन्दुस्तानियों को जहां मिले वहीं मारने का चेतावनी भरा बयान दिया है। तैयबा के संस्थापक और मुंबई हमले के मोस्ट वान्टेड हाफिज सईद ने कसाब के नाम फातिहा पढ़ा। मैं सोचता हूं कि यही सब यदि इजराइल के साथ होता तो इजराइल जवाब में उनके ठिकाने पर मिसाइलें दागने में जरा भी वक्त नहीं लगाता। अमेरिका तो अपने सील कमान्डो को आतंकवादियों की मांद में भेजकर बयान देने वालों की जीभ खिंचवा लेता। यही नहीं नार्थ कोरिया जैसा देश धमाकों की झड़ी लगा देता। हमने एक ङींगुर जैसे आतंकवादी को फांसी पर चढ़ाकर राष्ट्र गौरव का जश्न मना लिया। मुख्यधारा के अखबारों के सुधी संपादक पहले पóो पर वन्देमातरम गाते-नाचते दिखे और टीवी मीडिया का कहना ही क्या? क्या हमारे राष्ट्र गौरव की ख्वाहिश इतनी छोटी है कि घर में आतंकवादी गुन्डों का रूप धरकर घुसे पाकी सैनिकों को मुश्किल से भगाकर कारगिल विजय का डंका पीट दिया। यहां विजय कहां है? पाक पोषित आतंकवादियों ने अक्षरधाम को लहूलुहान किया। कश्मीर की असंबली में घुसकर धमाका किया और हद तो तब कि देश के लोकतंत्र की प्राण और त्राण संसद पर हमला बोल दिया। उस समय हमारे प्रधानमंत्री बाजपेयी जी के सब्र का बांध छलकता ही रहा - फूटा नहीं। रक्षामंत्री फर्नाडीस की भुजाएं फड़कीं फिर लकवा मार गईं। मुशर्रफ को ताजमहल में बुलाकर मटन-बिरियानी खिलाई और देश की नाक कटवाई।
हमारे हुक्मरान शांति के लिए सद्भावना बस और समझोता एक्सप्रेस चलवाकर विनयशीलता दिखाते रहे। तब चर्चा थी कि बाजपेयी जी की इस विनयशीलता के पीछे शांति के नोबल पुरस्कार की लालसा है। पर शांति का नोबल पुरस्कार तो बराक ओबामा को मिला, जिसके अमेरिका ने ईराक को तबाह कर दिया, जिसके अमेरिका ने अफगानिस्तान को दुनिया के सबसे बड़े कत्लगाह में बदल दिया। शांति का नोबल पुरस्कार मिला यूरोपियन यूनियन को जो पूरी दुनिया को बारूद, बम-गोले, मिसाइल और बमवर्षक बेचता है। शक्ति और ताकत की पूजा एक जमाने से होती रही है तथा विनयशीलता को कायरता रामायण और महाभारत के युग से माना जाता रहा है। राम हमारे रोम-रोम में इसलिए बसे हैं क्योंकि उन्होंने स्वाभिमान और विजय के गौरव की स्थापना की। विजय को लोकमंगल के उत्सव में बदल दिया। राष्ट्रपति रहते हुए मिसाइल मैन डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने यही सवाल उठाया था। भारत ने क्या कभी अपने किसी दुश्मन को दण्ड देने के लिए उसके घर में चढ़ाई की? पौराणिक दृष्टान्त को ही कल्पनाओं में इतिहास मानकर चलें तो श्रीराम ने लंका में चढ़ाई कर आतताई रावण व उसके वंश का नाश किया इसके बाद न तो किसी पौराणिक कथा और न ही इतिहास के पóो में यह लिखा मिलता कि हमने दुश्मन को उसके देश में जाकर परास्त किया। आजाद भारत में पण्डित नेहरू की रूमानियत और कथित वैश्विक दृष्टि ने चीन को हमले का मौका दिया। आज हजारों मील की भूमि उसके कब्जे में है। लाल बहादुर शास्त्री को विवशता ही विरासत में मिली फिर भी घुसपैठी पाकी सेना को भगाकर जय जवान-जय किसान का नारा लगाकर संतोष कर लिया। गौरव के क्षण इन्दिरा गांधी ने अवश्य दिया जब 1971 में पाक के 96 हजार फौजियों ने हमारे कमान्डरों के चरणों पर अपने हथियार धर दिए। पर वह दूजे किस्म का मामला था, पश्चिम और पूर्वी पाकिस्तान के बीच कलह में हमारा हस्ताक्षेप था।
इतिहास में युगों से हम अपनी खाल बचाने वालों में से गिने जाते रहे हैं, खाल खींचने वालों में नहीं। यवन-शक-हूण, मंगोल, मुगल से लेकर अंग्रेज तक सभी हमारे देश में हमारी खाल खींचने के लिए आए, लूटा और शासन किया और हम गाते रहे कि ..˜कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों से दुश्मन रहा है दौरे जहां हमारा।...हमने अपनी हस्ती को विनयशीलता (याचना) और कम्प्रोमाइज करके बचाए रखा।
जरूरत पड़ी तो मान सिंह ने अकबर को अपनी बहन ब्याह दी।
रामायण-महाभारत और गीता का हम सिर्फ पाठ करते रहे।
भजन गाते रहे, प्रवचन देते रहे कहीं कोई सीख नहीं ली। न राम से न कृष्ण से। हमने सिर्फ उनके मंदिर बनवाए और धर्म धुरंधरों ने दान-चंदे से आश्रम और अपने लिए सोने के सिंहासन गढ़वाए। महात्मा गांधी, जो भगवान राम और रामराज्य से सबसे ज्यादा प्रेरित रहे, ने रामकथा के उत्तरार्ध के राम का प्रचार किया। राम के पौरुष-पराक्रम व प्रजा के प्रति निष्ठा के संदर्भो को उस हिसाब से प्रचारित प्रसारित नहीं किया। आतंकवादियों-राक्षसों को दण्ड देने का काम तो राम ने बालपन से शुरू किया। विश्वामित्र के साथ गए तो सुबाहु, ताड़का को मारा। मारीच को दण्ड दिया। फिर वनवास के बहाने राक्षसों (अब के आतंकवादियों) को दण्ड देने निकले। चित्रकूट में विराध जैसे राक्षसों को मारा, तो दण्डकारण्य तो आतंकवादियों का ही अभयारण्य था। खरदूषन-त्रिसरा, जैसे अधर्मियों के हिसाब को चुकता किया। उस समय सोने की लंका पूंजीवाद और साम्राज्यवाद की प्रतीक थी। रावण स्वेच्छाधारी और आतंकवाद को पोषित करने वाला सम्राट था, जैसा कि हाल ही में पाकिस्तान के तानाशाह होते हैं। सीता शान्ति की प्रतीक थीं। रावण ने हरण कर रखा था। राम ने लंका पर चढ़ाई की रावण का वंशनाश किया। हम भगवान राम के भजन तो युगों से गाते आ रहे हैं क्या उनके पराक्रमी रूप और दुश्मन को दण्ड देने के संदेश की सीख ली। नहीं ली। द्वापर में श्रीकृष्ण ने राम के इसी रूप का दृष्टान्त देकर युधिष्ठिर को दुर्योधन से लड़ने के लिए मनाया। हमारे राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर एक लोकप्रिय व प्रेरणादायी कविता है। कुरुक्षेत्र महाकाव्य के संदर्भ में। उस कविता की कुछ पंक्तियों के साथ लेख का समापन करते हैं -
 अत्याचार सहन करने का कुफल यही होता है, पौरुष का आतंक मनुज कोमल होकर खोता है।
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो, उसको क्या जो दंतहीन विषरहित, विनीत, सरल हो।
तीन दिवस तक पंथ मांगते रघुपति सिन्धु किनारे, बैठे पढ़ते रहे छन्द अनुनय के प्यारे-प्यारे।
उत्तर में जब एक नाद भी उठा नहीं सागर से, उठी अधीर धधक पौरुष की आग राम के शर से।
सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि करता आ गिरा शरण में, चरण पूज दासता ग्रहण की बंध मूढ़ बंधन में।
सच पूछो तो शर में ही बसती है दीप्ति विनय की, सन्धि-वचन संपूज्य उसी का जिसमें शक्ति विजय की।
सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है, बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है।
लेखक - स्टार समाचार के कार्यकारी सम्पादक हैं। संपर्क-9425813208

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