Tuesday, November 27, 2012

गुरू नानक शाह फकीर


 जाति और वर्ण का भेदभाव मिटाने और मानवता को प्रेम का संदेश देने के लिए गुरू नानक का योगदान अमूल्य है। बुद्ध और तीर्थकंर से लेकर मध्य काल में जो रामानन्द, नामदेव, कबीर से होते हुए गांधी तक जो श्रंखला चली , उसमें गुरू नानक का कर्म और धर्म अद्रभुत है। भारतीय वेदान्त और ईरानी तसव्बुक के मिलने से जो धार्मिक जाग्रति हुई, कबीर कह तरह नानक भी उस जागृति के नक्षत्र हैं। गुरू नानक ने जो पंथ चलाया पह आगे जाकर सिक्ख पंथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वे जातपांत, अवतारवाद और मूर्ति-पूजा को नहीं मानते थे। गुरू नानक ने जिस सिक्ख पंथ को प्रारम्भ किया वह प्रारम्भ से ही प्रगतिशील रहा है। जात-पात, मूर्ति-पूजा और तीर्थ के साथ वह सती-प्रथा, शराब और तबांकू का भी वर्जन करता है।
गुरू नानक में भेद-भाव का नामों-निशान भी नहीं था। हिन्दू और मुसलमान को वे समान नजर से देखते थे और स्नेह करते थे। गुरू नानक ने कभी अपने आप को किसी से अलग नहीं माना, उन्होंने कहा कि - ऐ ज्याति से संसार उत्पन्न किया गया है।
इसमें कौन अच्छा, कौन बुरा है- एक ज्याति से जग उपजा, कौन भले कौन मन्दे! उस काल में अनेक देवी-देवताओं की कल्पना और पूजन के कारण अनेक प्रकार के विभेद खड़े हो गए थे, प्रत्येक वर्ग अपने प्रथक देव देवी को मान रहा था। इस कारण सामाजिक समरसता खडिंत हो रही थी और जाति-भेद चरम पर था। इस समय गुरू नानक ने एक ओंकार की बात कह कर परम सत्ता के एक होने की बात सामाजिक एकता के एक होने के नए आयाम प्रस्तुत किए। गुरू नानक के नौ सौ चौहत्तर पदों को गुरू ग्रन्थ साहिब में समावेश किया गया है। उनकी रचनाओं में जपुजी साहब की मान्यता सर्वाधिक है। एक प्रकार से सिक्ख पंथ की विचारधारा का यह मूलाधार है। इसका प्रारम्भ एक ओंकार के मूलमंत्र से किया गया है। यह एक प्रकार का मंगलाचरण है। गुरू नानक ने भारतीय जीवन मूल्यों के सरंक्षण का अभूतपूर्व कार्य किया और समाज पर्वितन के लिए व्यापक आन्दोलन चलाए गुरू नानक का समय इस्लाम के फैलाव का समय था। उनके समय में तीन लोदी शासक और दो मुगल शासक हुए। सिकन्दर लोदी ने मंदिर तोड़े और बड़ी संख्या में जनता पर अत्याचार किए। बाबर ने तो अत्याचार की सभी सीमाएं तोड़ दी। बाबर के अत्याचार के तो वे प्रत्यक्ष साक्षी थे। इन अत्याचारों को उन्होंने चार पदों में लिखा जिसे बाबर-वाणी कहा जाता है- पाप की जज्ज लै काबलहु धाइया मंगे दानु वे लालो, सरमु धरम दुई छवि खलोए कूडु फिरै परधानु वे लालो।पे बलात धर्म पर्वितन के विरोधी थे। अनेक प्रकार के सामाजिक तथा राजनैतिक पर्वितनों के कारण समाज में विघटन और विभाजन ने जड़ जमा ली, इसी के चलते जातियों और उप जातियों की संख्या में वृद्धि होती गई। वर्ण स्वंय जातियों में बदलता जा रहा था। इनमें विवाह सम्बंध रोटी-बेटी का व्यवहार बंद हो गया। प्रत्येक जाति का अपना एक आवरण बन गया और जाति इस आवरण में कठोरता के साथ बंद हो गई। इस भावना के कारण एक जाति अपने जातिगत अंहकार के कारण दूसरी जाति को हेय समझने लगी।
हिन्दू समाज का दार्शनिक पक्ष श्रेष्ठ होते हुए भी जातिगत विषमता और भेदभाव इसमें गहराई तक समा गए। ऐसे समय धर्म और भक्ति का सहारा लेकर गुरू नानक खड़े हुए और जातिगत विषमता के विरुद्ध समाज को जगाया तथा संगठित किया और एक पंगत तथा एक संगत की अपने अनुयायियों के लिए व्यवस्था दी। इसके साथ उन्होंने ठहरने के लिए सामूहिक व्यवस्था का क्रन्तिकारी निर्दश दिया। जो लोग गुरू नानक का उपदेश सुनने आते थे, उनका सामूहिक भेाज वही होता था इसी को आगे चल कर लंगर का नाम मिला। दूर-दूर से आने वालों के लिए उनके ठहरने की व्यवस्था धर्मशालाअों में होती थी ये गुरुद्वारों का रूप लेने लगी। गुरू नानक का यह प्रयास जातिगत भेद-भाव को समाप्त करने के लिए बड़ा करगर साबित हुआ। समाज की सामाजिक व्यवस्थाओं में यह महत्वपूर्ण पर्वितन था। आगे चल कर सिक्ख पंथ में जाति-सूचक संज्ञा के लोप होने की जो परम्परा चली, उसके लिए गुरू नानक का ही चिन्तन और विचार था। सिख पंथ में पुरुष को सिंह और महिला को कौर के विभूषण से पहचान मिली। गुरू नानक ने जो उपदेश के रूप में कहा उसका खुद भी पालन किया। जब गुरू पद सौंपने का प्रश्न आया तब गुरू नानक ने अपने पुत्र को गद्दी नहीं सौंपी, उन्होंने अपनी खत्री जाति के भी किसी सदस्य को गुरू पद न देकर लहिना जी को गुरू की गद्दी पर विराजमान किया। कितना सादगीपूर्ण किन्तु सार्थक गुरू पद का हस्तातरण गुरू नानक ने किया जिसकी कहीं मिसाल नहीं मिलती। उन्होंने लहिना जी के सामने पांच पैसे तथा एक नरियल रख कर उनकी परिक्रमा की तथा उनको साष्टांग प्रणाम किया और अपने गले की माला उन्हें पहना दी। इस अवसर वर गुरू नानक ने कहा- मेरे शरीर से उत्पन्न हुआ है, तू अंगद है। आगे से लहिना जी को गुरू अंगद देव का नाम प्राप्त हो गया।
गुरू नानक देव की कथनी और करनी एक थी। जातियों के विघटन के लिए वे कोरे उपदेशक नहीं थे उन्होंने जातियों के मकड़-जाल को तोड़ने के लिए अद्रभुत कार्य किया। वे समतावादी सन्त थे। जातिगद भेदभाव का विचार किए बिना वे अपना शिष्य बनाते थे। वे कहते हैं कि प्रत्येक आदमी महान है, किसे नीचा अथवा पतित कहूं? वे समझते हैं- जाणहु जोति न पूछहु जाती आगै जाति न हें। उन्होंने कहा कि आदमी किसी जाति में जन्म लेने से ऊंचा या नीचा नहीं होता, वह तो अपने कर्मो से उपर उठता या नीचे गिरता है। जहां तक मेरी बात है तो मैं तो किसी को नीचा मानता ही नहीं- नीचां अंदरि नीच जाति नीची हुं अति नीच, नानक तिनके संगि-साथ वडिआं सिउ किया रीस, जिथै नीच संभाली अनि तिथै नदरि बखसीस।
गुरू नानक ने जिस मजबूती और साहस के साथ समाज में फैली जाति प्रथा पर प्रहार किए तथा संसार को सिख पंथ के नाम से जो समरसता तथा सेवा का अमृत-घट सौंपा वह महत्वपूर्ण धरोहर है। उनकी विषय प्रतिपादन की शैली ठीक वही थी जिसका आश्रय बुद्ध और महावीर ने लिया था जो परम्परा से भारतीय सन्तों के उपदेश की पद्धति रही है। वे तर्क का सहारा कम लेते थे जो समझना होता उसे उपमाओं से समझते थे।
बौद्धिक कठोरता की जगह गुरू नानक ने सीधे-सरल और समझ में आ जाने वाले शब्दों तथा लोगों के जीवन से जुड़े उदाहरणों के माध्यम से लोगों का जगाया जिससे समाज और मनुज का विघटन गति नहीं ले सका।
- लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं चिंतक हैं।

No comments:

Post a Comment